Breaking

Monday, September 16, 2024

September 16, 2024

विश्वनाथाष्टकम् स्तोत्रं अर्थ सहित और लाभ (Vishwanathashtakam Stotram with meaning and benefits)

विश्वनाथाष्टकम् स्तोत्रं अर्थ सहित और लाभ(Vishwanathashtakam Stotram with meaning and benefits):-श्रीकाशीविश्वनाथाष्टकं स्तोत्रं को महान ऋषिवर श्रीमहर्षि व्यासजी ने रचना की थी। इस स्तोत्रं में आठ श्लोकों की एक माला में पिरोया गया हैं। इन आठ श्लोकों की माला के द्वारा श्रीभूतभावन भोलेनाथजी के गुणों के गुणगान के बारे में जानकारी बताई गई हैं, जिससे मनुष्य इस स्तोत्रं का वांचन या श्रवण करके भोलेनाथजी को खुश कर सके और उनकी अनुकृपा प्राप्त हो सके। इस स्तोत्रं के अतुलीय प्रभाव से मनुष्य का जीवन ऊंचाइयों की बुलन्दी पर चढ़ पावे।



Vishwanath Ashtakam Stotram with meaning and benefits



अथ श्रीकाशीविश्वनाथाष्टकम् स्तोत्रम् अर्थ सहित:-श्रीकाशी विश्वनाथाष्टकं स्तोत्रं का वांचन करने से पूर्व इसके श्लोकों के अर्थ को जान लेना चाहिए, जिससे इस स्तोत्रं के श्लोकों में वर्णित महत्त्व को समझा जा सके। इसलिए मैं अपनी भाषा में इस स्तोत्रं का अर्थ सहित विवेचन कर रहा हूँ, आप इस तरह अर्थ को जानकर इस स्तोत्रं से मिलने वाले लाभ को प्राप्त करें-




गङ्गातरंगरमणीयजटाकलापं


गौरीनिरन्तरविभूषितवामभागम्।


नारायणप्रियमनंगमदापहारं


वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्।।१।।


अर्थात्:-हे काशीविश्वनाथ जी! आपके गुथे एवं लिपटे हुए बालों की लटों में गङ्गा के पानी की लहर या हिलोर करती हुई बहुत ही सुंदर शोभायमान होती हैं। गौरी हमेशा बाएं भाग की तरफ शोभित होती हैं। जो भगवान नारायण को प्यारे होते हैं, पूर्ण भरी हुई वाराणसी नगरी के स्वामी हैं, देवता और भक्त के बीच में एक घनिष्ठ सम्बन्ध को रखने वाले विश्व के स्वामी शिवजी हैं। 


 

वाचामगोचरनेकगुणस्वरुपं


वागीशविष्णुसुरसेवितपादपीठम्।


वामेनविग्रहवरेणकलत्रवन्तं


वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्।।२।।


अर्थात्:-हे काशीविश्वनाथ जी! आपकी वाणी में मधुरता हैं, जिनका स्वरूप अनेक तरह के अच्छे या भलाई को करने के लिए तत्पर रहता हैं, जो बोलने में चतुर हैं, आपका स्थान उच्च हैं, पीठ पर आसीन उनके चरणों की सेवा विष्णु भगवान आदि देवता भी करते हैं, आपके बाएँ भाग में आपकी भार्या का स्वरूप होता हैं। पूर्ण भरी हुई वाराणसी नगरी के स्वामी हैं, देवता और भक्त के बीच में एक घनिष्ठ सम्बन्ध को रखने वाले विश्व के स्वामी शिवजी हैं। 



भूताधिपं भुजगभूषणभूषितांगं


व्याघ्राजिनांबरधरं जटिलं त्रिनेत्रम्।


पाशांकुशाभयवरप्रदशूलपाणिं


वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्।।३।।


अर्थात्:-हे काशीविश्वनाथ जी! आप भूत-पिशाच के स्वामी हैं, आप अपनी भुजा को फेरकर गले में आभूषण के रूप में नाग को धारण करने वाले हैं, आपकी समस्त देह के अंग अलंकृत होते हैं, बाघ की चर्म को अपने शरीर पर धारण करने वाले एवं आसन के रूप में उपयोग में लेने वाले हैं, आप कठिन दुर्बोध तीन नेत्रों के स्वामी हैं, पूर्ण भरी हुई वाराणसी नगरी के स्वामी हैं, देवता और भक्त के बीच में एक घनिष्ठ सम्बन्ध को रखने वाले विश्व के स्वामी शिवजी हैं। 



शीतांशुशोभितकिरीटविराजमानं


भालेक्षणानलविशोषितपंचबाणम्।


नागाधिपारचितभासुरकर्णपुरं


वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्।।४।।


अर्थात्:-हे काशीविश्वनाथ जी! आपके मुकुट से शीतल किरणों के द्वारा समस्त जगह पर प्रकाशमान होता हैं, जिससे उनकी छवि बहुत ही शोभायमान होती हैं, जिनके भाल पर त्रिशूल का चिह्न रखने वाले एवं अग्नि की तेज ज्वाला से युक्त पंच बाणों से विशोषित हैं। हे नागों के स्वामी! कर्णपुर नामक नगर में वास करने वाले हैं, आप बहुत ही पवित्रता से उज्ज्वल हैं, पूर्ण भरी हुई वाराणसी नगरी के स्वामी हैं, देवता और भक्त के बीच में एक घनिष्ठ सम्बन्ध को रखने वाले विश्व के स्वामी शिवजी हैं। 



पंचाननं दुरितमत्तमतदङ्गजानां


नागान्तकं दनुजपुंगवपन्नागानाम्।


दावानलं मरणशोकजराटवीनां


वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्।।५।।


अर्थात्:-हे विश्वनाथ जी! आप पांच मुख वाले देव को उनके द्वारा अविवेकी या पाप कर्म करने पर दंडित करने वाले हैं, दनु के गर्भ से उत्पन्न दानव के भय से मुक्त करने के लिए गले में नागों को धारण करते हुए बैल या साँड़ की सवारी करके मुक्त करवाने वाले हो, दावाग्नि के तीव्र ज्वाला के दुःख से होने वाले मरण से बचाव करने वाले हो। पूर्ण भरी हुई वाराणसी नगरी के स्वामी हैं, देवता और भक्त के बीच में एक घनिष्ठ सम्बन्ध को रखने वाले विश्व के स्वामी शिवजी हैं। 



तेजोमयं सगुणनिर्गुणमद्वितीयं


आनन्दकन्दमपराजितमप्रमेयम्।


नागात्मकं सकलनिष्कलमात्मरुपं


वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्।।६।।


अर्थात्:-हे विश्वनाथ जी! आप तेज या शक्ति से युक्त हो अच्छे गुणों के साथ गुणों से रहित दूसरे रूप को भी रखने वाले हो। जिस तरह से गूदेदार एवं बिना रेशे की जड़ होती हैं, उसी तरह का स्वरूप धारण करते हुए खुशी से युक्त हों। आप नागों से युक्त होकर समस्त जगहों पर कलारहित स्वयं में रमण करने वाले हो। पूर्ण भरी हुई वाराणसी नगरी के स्वामी हैं, देवता और भक्त के बीच में एक घनिष्ठ सम्बन्ध को रखने वाले विश्व के स्वामी शिवजी आप हो।



रागादिदोषरहितं स्वजनानुरागं


वैराग्यशान्तिनिलयं गिरिजासहायम्।


माधुर्यधैर्यसुभंग गरलाभिरामं


वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्।।७।।


अर्थात्:-हे काशीविश्वनाथ जी! आपमें सबके प्रति किसी भी तरह दोष नहीं रखते हुए एवं बिना किसी तरह का भेदभाव नहीं रखते हुएअपने भक्त लोगों से प्रेम करते हो, हिमालय पर्वतराज की तनुजा की सहायता करने वाले या साथी एवं विरक्ति के लिए मन की स्थिरता को पाने के लिए एकांत वासी जगह पर वास करने वाले हो, आप अपने चित्त की दृढ़ता या स्थिरता या धीरता को मधुर भाव से शोभा से युक्त ग्रहण करने वाले हो, विष या हलाहल को भी आप अपने गले में ग्रहण करने वाले मोहक स्वरूप वाले हो। पूर्ण भरी हुई वाराणसी नगरी के स्वामी हैं, देवता और भक्त के बीच में एक घनिष्ठ सम्बन्ध को रखने वाले विश्व के स्वामी शिवजी आप हो।



आशां विहाय परिहृत्य परस्य निन्दां


पापे रतिं च सुनिवार्य मनः समाधौ।


आदाय हृत्कमलमध्यगतं परेशं


वाराणसीपुरपतिं भज विश्वनाथम्।।८।।


अर्थात्:-हे काशीविश्वनाथ जी! आप पर जो कोई भी विश्वास रखते हुए अपनी चाहत को त्याग कर आपसे उम्मीद करते हैं, उनकी उम्मीद को पूर्ण करने वाले हो, दूसरों की बुराई या झूठ मुठ दोष निकलना, धर्म एवं नीति विरुद्ध किया जाने वाले आचरण में रत होने के भाव रखते हैं, उनके मन में समस्त विकारों का अंत करके उनकी आत्मा की तृप्ति करते हुए आनन्द प्रदान कर देते हो, आप उस भक्त के मन को ब्रह्म पर केंद्रित करके उसमें किसी से कुछ लेने या ग्रहण करने का भाव को जागृत कर देते हो, आप सबसे श्रेष्ठ प्रभुओं के प्रभु का नाम सबका और सबसे बढ़कर स्वामी हो। पूर्ण भरी हुई वाराणसी नगरी के स्वामी हैं, देवता और भक्त के बीच में एक घनिष्ठ सम्बन्ध को रखने वाले विश्व के स्वामी शिवजी आप हो।



श्रीविश्वनाथाष्टकं स्तोत्रम् फलश्रुति:-श्रीविश्वनाथाष्टकं स्तोत्रम् फलश्रुति में स्तोत्रम् के वांचन करने से मिलने वाले लाभ के बारे में जानकारी मिलती हैं, जिससे मनुष्य इस स्तोत्रम् का वांचन करके या दूसरों के द्वारा सुनकर इस स्तोत्रम् के लाभों को पा सके।



वाराणसीपुरपतेः स्तवनं शिवस्य


व्याख्यातमष्टकमिदं पठते मनुष्यः।


विद्यां श्रियं विपुलसौख्यमनन्तकीर्तिं


सम्प्राप्य देहविलये लभते च मोक्षम्।।


अर्थात्:-जो कोई मनुष्य श्रीविश्वनाथाष्टकं स्तोत्रं को विश्वास के साथ एवं मन में किसी तरह के बुरे विकारों नहीं रखते हुए जो भी भक्तिभाव को रखते हुए शिवजी के स्वरूप के गुणगान को श्रवण करते है या वांचन करते हैं, उन भक्त मनुष्य को अपने जीवनकाल में उच्च ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है और वह मनुष्य विद्वान बन जाते हैं। बहुत सारे रुपये-पैसों को अर्जित करके धनवान बन जाते हैं, उन मनुष्य का नाम समस्त जगहों पर फैल जाता हैं एवं समस्त प्रकार के सुख-समृद्धि से जीवन को जीते हुए व्यतीत करते हैं। फिर आखिर में जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर मोक्षधाम को पा लेते हैं।



विश्वनाथाष्टकमिदं यः पठेच्छिवसन्निधौ।


शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते।।


अर्थात्:-श्रीविश्वनाथाष्टकं स्तोत्रं को जो मनुष्य पढ़ते हैं, वे मनुष्य शिवलोक में शिवजी के साथ रहते हुए उनके चरण कमलों की सेवा करने का मौका मिलता हैं।



 ।।इति श्रीमहर्षिव्यासप्रणीतं श्रीविश्वनाथाष्टकं सम्पूर्णम्।।



अथ श्रीकाशी विश्वनाथाष्टकम् स्तोत्रम् के वांचन से मिलने वाले लाभ एवं महत्त्व (Benefits and importance of reading Sri Kashi Vishwanath Ashtakam Stotram):-श्रीकाशी विश्वनाथाष्टकम् स्तोत्रम् के श्लोकों को उच्चारण करते रहने पर मनुष्य को बहुत सारे लाभ प्राप्त होते हैं, जो इस तरह हैं-



◆उच्चज्ञान की प्राप्ति हेतु:-शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रवृत्तिधारी को अपने ज्ञान के क्षेत्र में बढ़ोतरी होती हैं और वे सब तरह से विद्वान बन जाते हैं।



◆धनवान बनने हेतु:-जो मनुष्य इस स्तोत्रम् के श्लोकों का वांचन करते हैं, वे अधिक रुपयों-पैसों को कमाकर धनवान बन जाते हैं।



◆प्रसिद्धि को पाने हेतु:-मनुष्य की चाहत होती हैं, की उसकी प्रसिद्धि चारों तरफ हो जावे, इसके लिए मनुष्य को इस स्तोत्रम् का वांचन करना चाहिए।



◆समस्त जीवनकाल की जरूरत को पूरा करने हेतु:-मनुष्य के जीवनकाल में अनेक तरह की भौतिक एवं शारिरिक आवश्यकताओं होती हैं। इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए मनुष्य दिन-रात मेहनत करते हैं, तब भी वे जरूरतें पूर्ण नहीं हो पाती हैं। तब उन मनुष्य को नियमित रूप से श्रीकाशी विश्वनाथाष्टकम् स्तोत्रम् के श्लोकों का पाठन शुरू कर देना चाहिए, जिससे विश्वनाथ जी का आशीर्वाद मिल जाता हैं।



◆मोक्षधाम को पाने हेतु:-मनुष्य का लक्ष्य होता हैं कि जन्म-मरण के बंधन से छुटकारा मिल जावें, तो मनुष्य को इस स्तोत्रम् के श्लोकों का वांचन शुरू कर देना चाहिए, जिससे जगत में आने व जाने से छुटकारा मिल जावें और उस मनुष्य का उद्धार हो जावें।



Sunday, August 4, 2024

August 04, 2024

उमा महेश्वर स्तोत्रं अर्थ सहित महत्त्व(Uma Maheshwara Stotram meaning and importance)

उमा महेश्वर स्तोत्रं अर्थ सहित महत्त्व(Uma Maheshwara Stotram meaning and importance):-माता पार्वती जी और भगवान शिवजी की उपासना एक साथ करने के लिए हमारे ऋषि-मुनियों ने कई स्तोत्रों की रचना की थी। उनमें ऋषिवर शंकराचार्य जी भगवान शिवजी एवं माता गौरी को खुश करने एवं उनका आशीर्वाद पाने के लिए उमा महेश्वर स्तोत्रं की रचना की थी। उमा महेश्वर स्तोत्रं में उमा माता एवं शिवजी के गुणों का गुणगान एक साथ मिलता हैं, जो मनुष्य उमा माता एवं शिवजी की उपासना अलग-अलग नहीं कर पाते हैं, उनको उमा महेश्वर स्तोत्रं का वांचन करने से वही फल की प्राप्ति होती हैं, जो की दोनों की पूजा करने पर प्राप्त होता हैं। इसलिए श्री शंकराचार्य जी मनुष्यों के लिए उमा महेश्वर स्तोत्रं की रचना की थी। मनुष्य को नियमित रूप से उमा महेश्वर स्तोत्रं का वांचन करना चाहिए।




उमा महेश्वर स्तोत्रं:-महर्षि शंकराचार्य द्वारा रचित उमा महेश्वर का वांचन करने से मनुष्य की समस्त तरह की मनोकामना की पूर्ति होती है, इस स्तोत्रं का वांचन इस तरह हैं:


Uma Maheshwara Stotram meaning and importance




।।अथ श्री उमा महेश्वर स्तोत्रं।।


नमः शिवाभ्यां नवयौवनाभ्यां 


परस्पराश्लिष्ट वपुर्धराभ्याम।


नगेन्द्रकन्यावृषकेतनाभ्यां


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।१।।


 

नमः शिवाभ्यां सरसोत्सवाभ्यां 


नमस्कृताभीष्टवरप्रदाभ्याम।


नारायणेनार्चितपादुकाभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम।।२।।




नमःशिवाभ्यां वृषवाहनाभ्यां


विरिञ्चिविष्ण्विन्द्रसुपूजिताभ्याम।


विभूतिपाटिरविलेपनाभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।३।।



नमः शिवाभ्यां जगदीश्वराभ्यां 


जगत्पतिभ्यां जयविग्रहाभ्याम।


जम्भारिमुख्यैरभिवन्दिताभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।४।।



नमः शिवाभ्यां परमौषधाभ्याम 


पञ्चाशरी पञ्जररञ्चिताभ्याम।


प्रपञ्च सृष्टिस्थिति संहृताभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।५।।



नमः शिवाभ्यामतिसुन्दराभ्याम 


अत्यन्तमासक्तहृदम्बुजाभ्याम।


अशेषलोकैकहितङ्कराभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।६।।



नमः शिवाभ्यां कलिनाशनाभ्यां 


कङ्कालकल्याणवपुर्धराभ्याम। 


कैलाशशैलस्थितदेवताभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।७।।


नमः शिवाभ्यामशुभापहाभ्याम 


अशेषलोकैकविशेषिताभ्याम।


अकुण्ठिताभ्यां स्मृतिसंभृताभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।८।।



नमः शिवाभ्यां रथवाहनाभ्यां 


रवीन्दुवैश्वानरलोचनाभ्याम।


राका शशाङ्काभ मुखाम्बुजाभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।९।।



नमः शिवाभ्यां जटिलन्धराभ्यां 


जरामृतिभ्याम चविवर्जिताभ्याम।


जनार्दनाब्जोद्भवपूजिताभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।१०।।



नमःशिवाभ्यां विषमेशणाभ्यां 


बिल्वच्च्हदामल्लिकदामभृद्भ्याम।


शोभावती शान्तवतीश्वराभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।११।।



नमः शिवाभ्यां पशुपालकाभ्याम 


जगत्त्रयीरशण बद्दहृद्भ्याम।


समस्त देवासुरपूजिताभ्याम 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।१२।।



स्तोत्रं त्रिसन्ध्यं शिवपार्वतीभ्यां 


भक्त्या पठेद्द्वादशकं नरो यः।


स सर्व्सौभाग्य फलानि भुङ्क्ते 


शतायुरन्ते शिवलोकमेति।।१३।।



।।इति श्री शङ्कराचार्य कृत उमा महेश्वर स्तोत्रं।।



नमः शिवाभ्यां नवयौवनाभ्यां 


परस्पराश्लिष्ट वपुर्धराभ्याम।


नगेन्द्रकन्यावृषकेतनाभ्यां


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।१।।



भावार्थ्:-हे भगवान शिव और देवी उमाजी! मैं नतमस्तक होकर आपका अभिवादन करता हूँ! आप सबका मंगल करने वाले हो, आप हमेशा नये युवावस्था के लक्षणों से युक्त हो, एक-दूसरे को गले लगाकर लिपटे हुए देह से युक्त हो, मैं नतमस्तक होकर आपका अभिवादन करता हूँ! आपकी पताका पर पुंगव का निशान है, ऐसे शिवजी एवं धरणीधर की तनुजा गिरिजा को मैं बार-बार नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ!

 


नमः शिवाभ्यां सरसोत्सवाभ्यां 


नमस्कृताभीष्टवरप्रदाभ्याम।


नारायणेनार्चितपादुकाभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्याम।।२।।


भावार्थ्:-हे भगवान शिव और देवी उमाजी! मैं नतमस्तक होकर आपका अभिवादन करता हूँ! जिनको सभी खुश करके आशीर्वाद पाने के लिए मन को एक जगह पर केंद्रित करके अभीष्ट सिद्धि की तपस्या करते हैं, मैं मन की इच्छाओं को पूरा करने वाले आशिर्वाद देने वाली को नमस्कार करता हूँ। जिनके पाद की इतनी महिमा हैं, भगवान नारायण भी उनकी विनय, श्रद्धा और समर्पण भाव से अर्चना करते हैं। ऐसे शिवजी एवं धरणीधर की तनुजा गिरिजा को मैं बार-बार नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ!




नमःशिवाभ्यां वृषवाहनाभ्यां


विरिञ्चिविष्ण्विन्द्रसुपूजिताभ्याम।


विभूतिपाटिरविलेपनाभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।३।।


भावार्थ्:-हे भगवान शिव और देवी उमाजी! मैं नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ! जिनकी सवारी के रूप में पुनीत पुंगव (बैल) है। ब्रह्मा, भगवान नारायण तथा इन्द्र भी भली-भाँति उनकी विनय, श्रद्धा और समर्पण भाव से अर्चना करते हैं। जिनके देह पर पुनीत भस्म और मलयज का लेप लगाया जाता हैं। ऐसे शिवजी एवं धरणीधर की तनुजा गिरिजा को मैं बार-बार नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ!



नमः शिवाभ्यां जगदीश्वराभ्यां 


जगत्पतिभ्यां जयविग्रहाभ्याम।


जम्भारिमुख्यैरभिवन्दिताभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।४।।


भावार्थ्:-हे भगवान शिव और देवी उमाजी! मैं नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ! जो सम्पूर्ण विश्वगोलक के अधिपति हैं, जो समस्त जगत का पालन करने वाले स्वामी, जो सभी तरह के युद्ध आदि में अपने विरोधियों का दमन करके उन पर जीत हासिल करने वाले के समान स्वरूप हैं, जम्भारी अर्थात आकाशीय बिजली के समान तेज और हीरे के समान चमकीले शस्त्र कुलिस के स्वामी वज्रधर और दूसरे सभी प्रमुखों द्वारा आगे बढ़कर सादर अभिनंदन करने वाले का नतमस्तक होकर नमन करता हूँ। ऐसे शिवजी एवं धरणीधर की तनुजा गिरिजा को मैं बार-बार नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ!



नमः शिवाभ्यां परमौषधाभ्याम 


पञ्चाशरी पञ्जररञ्चिताभ्याम।


प्रपञ्च सृष्टिस्थिति संहृताभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।५।।


भावार्थ्:-हे भगवान शिव और देवी उमाजी! मैं नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ! सभी तरह की संकटों और बीमारी को दूर करने में जो मुख्य औषधि के स्वामी हैं, जो पंचाक्षरी मन्त्र की ध्वनि से परिपूर्ण जगह पर रहने पर कौन आनन्दित होता हैं। जो ब्रह्माण्ड रचना की अवस्था जिसमें उद्गम, परवरिश और सर्वनाश करने वाले हैं। ऐसे शिवजी एवं धरणीधर की तनुजा गिरिजा को मैं बार-बार नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ!



नमः शिवाभ्यामतिसुन्दराभ्याम 


अत्यन्तमासक्तहृदम्बुजाभ्याम।


अशेषलोकैकहितङ्कराभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।६।।


भावार्थ्:-हे भगवान शिव और देवी उमाजी! मैं नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ! जो अपने उत्तम सौंदर्य से युक्त होकर सौंदर्य में डूबे हुए हैं, जो सभी के साथ बहुत अनुराग करने वाले है, हृदय कमल की तरह है, जो हमेशा सभी लोकों के लोगों के कल्याण करते हैं। ऐसे शिवजी एवं धरणीधर की तनुजा गिरिजा को मैं बार-बार नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ!



नमः शिवाभ्यां कलिनाशनाभ्यां 


कङ्कालकल्याणवपुर्धराभ्याम। 


कैलाशशैलस्थितदेवताभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।७।। 


भावार्थ्:-हे भगवान शिव और देवी उमाजी! मैं नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ! जो आप इस कलियुग में किये हुए धर्म के विरुद्ध आचरणों के फल के अस्तित्व को नष्ट करने वाले हो, दिव्य जोड़ी जहां एक खोपड़ी को धारण करते हैं और दूसरा सुरुचिपूर्ण कपड़ों के साथ कैलाश पर्वत पर निवास करने वाले महान देवता और देवी जो सबका कल्याण करने वाले हैं, ऐसे शिवजी एवं धरणीधर की तनुजा गिरिजा को मैं बार-बार नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ!



नमः शिवाभ्यामशुभापहाभ्याम 


अशेषलोकैकविशेषिताभ्याम।


अकुण्ठिताभ्यां स्मृतिसंभृताभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।८।।


भावार्थ्:-हे भगवान शिव और देवी उमाजी! मैं नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ! जो बुराई और नुकसान करने वाले का अस्तित्व को नष्ट करते हैं, जो तीनों लोक अर्थात पृथ्वीलोक, स्वर्गलोक एवं पाताललोक में निवास करने वाले प्राणयुक्त जीव-जंतु में विलक्षण गुणों से युक्त सर्वोपरि सत्ताधारी हैं, जिनकी शक्ति की कोई सीमा नहीं है और जिन तक सोचने-समझने और निश्चय करने की मानसिक शक्ति के द्वारा बिना कोई हिचकिचाहट पहुंचा जा सकता है। (शास्त्र के अनुसार जिसमें आजीविका पर दिशा-निर्देश शामिल है) ऐसे शिवजी एवं धरणीधर की तनुजा गिरिजा को मैं बार-बार नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ!


नमः शिवाभ्यां रथवाहनाभ्यां 


रवीन्दुवैश्वानरलोचनाभ्याम।


राका शशाङ्काभ मुखाम्बुजाभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।९।।


भावार्थ्:-हे भगवान शिव और देवी उमाजी! मैं नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ! आप परलोक से संबंधित सवारी पर आसीन हैं, आपके नेत्र रवि, सोम और हुताशन हैं (अग्नि का एक विशेषण वैश्वनार है) एवं आपका कमल जैसा मुखड़ा पूर्णमासी में पूरे आकार में उदित होते हुए चन्द्रमा के समान है। ऐसे शिवजी एवं धरणीधर की तनुजा गिरिजा को मैं बार-बार नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ!


नमः शिवाभ्यां जटिलन्धराभ्यां 


जरामृतिभ्याम चविवर्जिताभ्याम।


जनार्दनाब्जोद्भवपूजिताभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।१०।।


भावार्थ्:-हे भगवान शिव और देवी उमाजी! मैं नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ! आपकी तीन आंखें हैं, बिल्वपत्र और मल्लिका के फूलों से बनी मालाओं से सुशोभित (चमेली) कौन है शोभवती (जो देदीप्यमान दिखते है तथा संथावतेश्वर (भगवान जो महान शांति के साथ हैं) ऐसे शिवजी एवं धरणीधर की तनुजा गिरिजा को मैं बार-बार नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ!




नमःशिवाभ्यां विषमेशणाभ्यां 


बिल्वच्च्हदामल्लिकदामभृद्भ्याम।


शोभावती शान्तवतीश्वराभ्यां 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।११।।


भावार्थ्:-हे भगवान शिव और देवी उमाजी! मैं नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ! जिनके बाल उलझे हुए हैं जो वृद्धावस्था और मृत्यु से अप्रभावित रहते हैं जनार्दन (भगवान विष्णु) और कमल (भगवान ब्रह्मा) से पैदा हुए व्यक्ति द्वारा पूजा की जाती हैं ऐसे शिवजी एवं धरणीधर की तनुजा गिरिजा को मैं बार-बार नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ!



नमः शिवाभ्यां पशुपालकाभ्याम 


जगत्त्रयीरशण बद्दहृद्भ्याम।


समस्त देवासुरपूजिताभ्याम 


नमो नमः शङ्करपार्वतीभ्यां।।१२।।


भावार्थ्:-हे भगवान शिव और देवी उमाजी! आप सभी जीवों की रक्षा करने वाले हो, मैं नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ! तीनों लोक अर्थात देवलोक, पाताललोक और पृथ्वीलोक पर निवास करने वालों की सभी तरह से हिफाजत करने में समर्पित हो, सभी देवता और दानवों के द्वारा भगवान शिव एवं देवी उमा की अलौकिक युगल के रूप में विनय, श्रद्धा और समर्पण भाव से पूजन करते हैं। मैं ऐसे शिवजी एवं धरणीधर की तनुजा गिरिजा को मैं बार-बार नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ!




स्तोत्रं त्रिसन्ध्यं शिवपार्वतीभ्यां 


भक्त्या पठेद्द्वादशकं नरो यः।


स सर्व्सौभाग्य फलानि भुङ्क्ते 


शतायुरन्ते शिवलोकमेति।।१३।।


भावार्थ्:-जो मनुष्य भगवान शिव और देवी उमाजी के गुणगान  वाले उमा महेश्वर स्तोत्रं के बारह श्लोको का वांचन तीन समय अर्थात सुबह, दोपहर एवं सायंकाल पर करते हैं, उन भक्तों को समस्त तरह के सौभाग्य फल को प्राप्त करके उस फल को भोगते हैं और सौ वर्षों की आयु को भोग कर बार-बार जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होकर शिवलोक अर्थात भगवान शिव और देवी उमाजी के चरण की सेवा को प्राप्त करते हैं। मैं भगवान शिव और देवी उमाजी को बार-बार नतमस्तक होकर नमन करताहूँ।



।।इति उमामहेश्वर स्तोत्रं सम्पूर्णम्।।



उमामहेश्वर स्तोत्रं का महत्त्व:-उमामहेश्वर स्तोत्रं का नियमित रूप से वांचन करने से निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं, जिसके आधार पर महत्त्व सार्थक होता है।



1.सभी तरह के सौभाग्य को पाने हेतु:-जिन औरत को अपने पति का सुख व अखण्ड सौभाग्य को पाना चाहती है, वे इस स्तोत्र का नियमित वांचन करें।

 


2.दीर्घ आयु पाने हेतु:-जो मनुष्य पृथ्वी लोक में लंबे समय तक बगेर दुःख के जीना चाहते है, उनको इस स्तोत्र का वांचन करना चाहिए।



3.जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति पाने हेतु:-जो मनुष्य जन्म व मृत्यु के बंधन से छुटकारा चाहते है, वे इस स्तोत्र का नियमित वांचन करते है, तो उनको जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति मिल जाती है और भगवान शिव व देवी पार्वती के निवास स्थान में शरण को पा लेते हैं।



4.सभी तरह की बीमारी मुक्ति:-शरीर की सभी की बीमारियों से मुक्ति का माध्यम यह स्तोत्र हैं।



5.सभी तरह के संकटों से छुटकारा हेतु:-मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन में आने संकटो, मुसीबतों और परेशानियों से राहत के लिए इस स्तोत्र का वांचन करना चाहिए।



6.जीवन में सभी तरह सुख पाने हेतु:-मनुष्य को अपने जीवनकाल में सभी तरह के ऐशो-आराम, सुख-शांति, धन-दौलत आदि को पाने के लिए इस स्तोत्र का वांचन करना चाहिए।





Wednesday, July 10, 2024

July 10, 2024

शत्रुहंता गणपति साधना विधि एवं महत्त्व (Shatruhanta Ganapati Sadhana vidhi and importance)

शत्रुहंता गणपति साधना विधि एवं महत्त्व (Shatruhanta Ganapati Sadhana vidhi and importance):-आज के युग में मनुष्य एक-दूसरे से प्रत्येक क्षेत्र में खुद को दूसरे मनुष्य के आगे देखने की चाहत रखते हैं, इस तरह वे अपनी चाहत को पूरा करने का प्रयत्न भी करते है। अपने आसपास के क्षेत्र में जिसमें परिवार के सदस्यों, रिश्तेदारों, कार्यक्षेत्र में काम करने वाले एवं निवास स्थान की जगह के पास मनुष्य के द्वारा होड़ में रखे रहते हैं। जिससे मनुष्य होड़ में पीछे रहने के डर से या पीछे रहने पर जलन उत्पन्न हो जाती हैं, जिससे उन मनुष्य के मन में शत्रुता के बीज उत्पन्न होने लगते हैं। मनुष्य को अपने जीवनकाल में समस्त तरह के ऐशो-आराम एवं समृद्धि मिल जाने पर यह ऐशो-आराम एवं समृद्धि मनुष्य के लिए दुःखददायीं बन जाती हैं। जिससे आवश्यकता से अधिक गुण दोष की विवेचना करने वाले दुश्मन होने पर वे हमेशा मनुष्य को दूसरों की नजर में गिराने या किसी न किसी तरह से परेशान करने की भावना रखने पर मनुष्य का समस्त ऐशो-आराम और सुख-समृद्धि व्यर्थ हो जाती हैं। मनुष्य को इस तरह के जलन वाले दुश्मनों के कारण हमेशा मन में डर रहता हैं कि दुश्मन किसी तरह से नुकसान कर सकते हैं, इस तरह से मन में कई तरह के विचार उत्पन्न होने लगते हैं, जिससे उन विचारों में मनुष्य हर समय खोया रहता हैं। वह सोचने लगता हैं कि इन उत्पन्न दुश्मनों से किस तरह बचा जावे। इस उधड़-बुन में अपना सबकुछ समाप्त कर देता हैं। इस तरह के दुश्मनों के रहने पर वह मनुष्य अपने जीवन को बिताना उसके लिए कठिन हो जाता हैं। यदि समय के अनुसार दुश्मन यदि अपनी गतिविधियों से तेज हो जाने पर उन दुश्मनों का सामना करना या उनसे अपना प्रतिकार को पूर्ण करने में बहुत कठिनाई आ जाती है। इस तरह के दुश्मनों से बचने के लिए ऋषि-मुनियों ने बहुत सारे उपासना के बारें में बताया हैं, इन उपासना को अपनाते हुए अपने जीवनकाल में उत्पन्न दुश्मनों से छुटकारा मिल जाता हैं। जिससे दुश्मनों के द्वारा मन की जलन एवं पीछे से वार का जबाव मिल जावेगा और मनुष्य अपना जीवन सही तरीके जीते हुए अपने कार्य की सिद्धि निरन्तर पा लेगा। उन ऋषि-मुनियों के द्वारा उन उपासनाओं में से एक उपासना शत्रुहंता गणपतिजी बताया हैं, इस उपासना को अपनाते हुए अपने कार्य में सिद्धि को पा सकते हैं।


Shatruhanta Ganapati Sadhana vidhi and importance





शत्रुहंता गणपति साधना पूजा सामग्री:-कुमकुम, केशर, अक्षत, दूर्वा, दीपक, तेल, फूल, नैवेद्य, फल, अगरबत्ती, तांत्रोक्त नारियल की संख्या एक, गणपति यंत्र और काली हकीक माला आदि उपयोग में ली जाती हैं।




शत्रुहंता गणपति साधना पूजा विधि:-भगवान गणेशजी के प्रति जो मनुष्य विश्वास एवं श्रद्धाभाव रखते हैं, उन मनुष्य को इस साधना विधि का प्रयोग करते हुए अपने कार्य को सिद्धि पा सकते हैं, शत्रुहंता गणपति साधना विधि इस तरह हैं-



◆मनुष्य को शत्रुहंता गणपति साधना विधि को गणेश जयन्ती के दिन रात्रिकाल के दस बजे के बाद ही शुरू करनी चाहिए।



◆इसके अलावा किसी भी माह में शुक्लपक्ष में पड़ने वाले बुधवार को भी कर सकते हैं।



◆मनुष्य को साधना विधि के दिन सवेरे जल्दी उठकर अपनी रोजाने की क्रियाएँ जैसे-स्नानादि को पूर्ण करना चाहिए।



◆उसके बाद स्वच्छ या नवीन वस्त्रों जिनका रंग पीला हो उनको पहनना चाहिए।



◆फिर मन ही मन में भगवान गणेशजी को याद करते हुए उनको अपने मन मंदिर में रखते हुए किसी भी तरह के बुरे विचारों को नहीं आने देना चाहिए।



◆फिर अपने जिस स्थान पर यह साधना विधि करनी होती हैं, उस स्थान को पूर्ण तरह से साफ-सफाई करनी चाहिए।



◆फिर साधना विधि के रात्रिकाल के समय दस बजे के अनुसार साधना विधि की जगह पर पूर्व दिशा की ओर मुहं को रखते हुए बैठना चाहिए।



◆बिछावन के लिए कुश का बिछावन उपयोग में लेना चाहिए।



◆यह साधना विधि एकांत में करनी चाहिए।



◆फिर लकड़ी का एक बाजोट लेकर उस पर एक नवीन व स्वच्छ सफेद रंग का कपड़ा बिछाना चाहिए।



◆उस सफेद रंग के कपड़े पर ताम्र धातु या किसी भी धातु से बनी थाली को रखना चाहिए।



◆उस थाली में कुमकुम से 'ऊँ गणेशाय नमः' लिखना चाहिए।



◆फिर उस बाजोट पर कुमकुम एवं केशर से रंगे हुए अक्षत को रखते हुए ढ़ेरी बनानी चाहिए।



◆इस अक्षत की ढ़ेरी पर एक तांत्रोक्त नारियल एवं गणपति यंत्र को रखना चाहिए।



◆इस ढ़ेरी के नजदीक एक तेल से भरे हुए दीपक को रखना चाहिए।



◆फिर उस बाजोट पर सफेद कागज पर शत्रु का नाम लिखकर गणपति यंत्र के पास में रखना चाहिए।



◆उसके बाद ''काली हकीक माला" लेकर निम्नलिखित मंत्र को उच्चारण करना चाहिए-



"गं घ्रौं गं शत्रुविनाशाय नमः"



◆इस मंत्र को तीन दिन तक रोजाना रात्रिकाल के समय तीन माला ''काली हकीक माला" से करनी चाहिए।



◆फिर रोजाना मंत्रों का वांचन करते हुए जप करने के बाद एक मुट्ठी काली मिर्च के दाने को दुश्मन के नाम पर चढ़ाना चाहिए।



◆फिर अंतिम दिन में समस्त क्रियाएँ करने के बाद उन समस्त सामग्रियों को सफेद कपड़े में बांधकर किसी दूर सुनसान स्थान या जंगल में छोड़कर आ जाना चाहिए।



◆समस्त सामग्रियों को रखते समय किसी भी तरह के शब्द को नहीं निकालना चाहिए।



◆वापिस लौटते समय पीछे की तरफ भी नहीं देखना चाहिए।



◆शत्रुहंता गणपति साधना करने से जो परेशान करने वाले शत्रु काबू हो जायेगें और किसी भी तरह से हानि नहीं पहुँचा पावेंगे।


Saturday, June 22, 2024

June 22, 2024

देवी-देवता की पूजा में पुष्प का क्यों महत्त्व हैं? और कौन-कौन से पुष्प अर्पित किए जाते हैं? (Why are flowers important in the puja of devi-devata? And which flowers are offered?)

देवी-देवता की पूजा में पुष्प का क्यों महत्त्व हैं? और कौन-कौन से पुष्प अर्पित किए जाते हैं? (Why are flowers important in the puja of devi-devata? And which flowers are offered?):-इष्टदेव की पूजा करते समय पुष्प को भी पूजा में सम्मिलित किया गया है, हिन्दुधर्म में पुष्प को बहुत सारी जगह पर उपयोग में लिया जाता हैं। कुसुम अपनी सुंदरता के द्वारा दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, पुष्प की सौन्दर्यता एवं उसमें विद्यमान सुंगध से देवी-देवताओं भी प्रसन्न होते हैं। जब पुष्प को देवी-देवताओं को अर्पण करते है, तब इष्टदेव-इष्टदेवी खुश होकर अर्पण करने वाले मनुष्य भक्त पर अपनी कृपा दृष्टि कर देते हैं और मन में धारित मनुष्य की इच्छाओं को पूर्ण करते हैं। इसी वजह से देवी-देवता, भगवान की आरती के समय, व्रत-उपवास या विभिन्न पर्वों पर पुष्प अर्पित करने का कायदा है। अभीष्ट प्राप्ति के लिए मन की इच्छा से धारित मांगलिक कर्मकांड, धार्मिक कार्यों के द्वारा पवित्र करने, सामाजिक व पारिवारिक कार्यों को करते समय बिना पुष्प के पूर्ण नहीं समझा जाता हैं।




Why are flowers important in the puja of devi-devata? And which flowers are offered?




धार्मिक कर्मकांडों में पुष्प का महत्त्व क्यों हैं? जानें कौनसे देवी-देवता पर कौन-कौन से पुष्प अर्पित किए जाते हैं?(Why are flowers important in religious rituals?  Know which flowers are offered to which deities?):-



कुलार्णव तंत्र के अनुसार में पुष्प के विषय:-में इस तरह से बताया गया है-


पुण्य संवर्द्धनाच्चापि पापौघपरिहारतः।


पुष्कलार्थदानार्थ पुष्पमित्यभिधीयते।।


अर्थात्:-जिसके उपयोग करने से धार्मिक दृष्टि से से शुभ कार्य में बढ़ोतरी, नीति एवं धर्म के विरुद्ध किये गए आचरण से मुक्ति और जो सबसे उत्तम किये गए कार्यों का परिणाम देने वाले होते हैं, उनको पुष्प कहा जाता है।



विष्णु-नारदीय व धर्मोत्तर पुराण के अनुसार में पुष्प का महत्त्व:-विष्णु-नारदीय व धर्मोत्तर पुराण के अनुसार में पुष्प के महत्त्व के बारे इस तरह बताया गया है-


पुष्पैर्दवा प्रसीदंति पुष्पैः देवाश्च संस्थिताः।


न रत्नैर्न सुवर्णेन न वित्तेन च भूरिणा


तथा प्रसादमायाति यथा पुष्पैर्जनार्दन।।



अर्थात्:-देव-दैवीय गुणों से युक्त सत्ताधारी मृत्यु से मुक्त, बहुमूल्य पत्थर, सुंदर वर्ण का चमकीला धातु, बहुत ज्यादा मात्रा से विशुद्ध तत्व जिसमें किसी दूसरे तत्व नहीं हो,दैहिक एवं आध्यात्मिक शुद्धता के लिए मन में धारित कुछ त्याग करने के कायदे, चित्त व देह को कष्टप्रद स्थिति में रखते हुए शुद्ध व विषयों से दूर रहते हुए कर्म को करने और अन्य किसी भी साधन को अपनाते हुए देवी-देवताओं को खुश करने हेतु जो भी कर्म करते हैं, उन कर्मों से इष्टदेव-इष्टदेवी उतने खुश नहीं होते हैं, जितना कि पुष्प को अर्पण करने पर होते हैं।



शारदा तिलक के अनुसार पुष्प के विषय:-में इस प्रकार कहा गया है-


दैवस्य मस्तकं कुर्यात्कुसुमोपहितं सदा


अर्थात्:-देव-दैवीय गुणों से युक्त सत्ताधारी जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त को पुष्प से उत्पन्न महक एवं सुंदरता से शीघ्र खुश हो जाते हैं अतः उनकी खुशी के लिए उनके मस्तक को हमेशा पुष्पों से शोभित रखना चाहिए, जिससे उनकी कृपा प्राप्त हो सके। 


अलग-अलग पुष्पों को एक एकत्रित करके उनको एक धागे के द्वारा धागे में पिरोकर माल्य रूप को तैयार किया जाता हैं और तैयार पुष्पों से माल्य को जब देवी-देवताओं के कंठ में पहनाई जाती हैं, तब वे बहुत ही खुश हो जाते हैं और अपना आशीर्वाद प्रदान करते हैं।  



ललिता सहस्त्रनाम में माल्य के बाद में:-इस तरह कहा गया है-


मां शोभा लालीति माला


अर्थात्:-जो अपने गुणों के द्वारा बहुत ही चमक प्रदान करके सौन्दर्यता को बढाती हो उसे ही माला कहते हैं। जब देवी-दैवीय शक्ति से युक्त सत्ताधारी को जब पुष्पों से बनी हुई माला को अर्पण या चढ़ाई जाती हैं, तब उन देवी-दैवीय शक्ति की शोभा में ओर बढ़ोतरी हो जाती हैं। सबसे बढ़िया कमल अथवा पुंडरीक से बनी हुई माला को शास्त्रों में बताया गया हैं। 



हिन्दुधर्म में देवी-देवताओं को अर्पण करने वाले पुष्प एवं पुष्प से बनी माला:-हिन्दुधर्म में छतीस करोड़ देवी-देवताओं को बताया गया हैं, समस्त देवी-देवताओं को अर्पण किये जाने पुष्प एवं पुष्प से बनी हुई माला अलग-अलग धर्मग्रन्थों में बताई गई हैं, जो इस तरह हैं-




भगवान श्रीगणेशजी को अर्पण किये जाने वाले पुष्प एवं माला:-सर्वप्रथम पूजनीय गणेशजी को समस्त तरह के पुष्प को अर्पण किया जा सकता हैं और उनको प्रिय भी होते हैं। लेकिन आचार भूषण नामक ग्रन्थानुसार तुलसी दल को भगवान गणेशजी को नहीं चढ़ाना चाहिए। भगवान गणेशजी को सफेद या हरि दूर्वा फुनगी की तीन या पाँच पत्ती युक्त होने पर चढ़ाने से शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं, इसके अलावा लाल रंग का पुष्प भी अर्पण कर सकते हैं।



पुष्प को अर्पण करते समय उच्चारित मंत्र:-पुष्प को गणेशजी पर अर्पण करते समय "ऊँ गणेशाय नमः" मंत्र या "ऊँ वक्रतुण्ड महाकाय सुर्यकोटि समप्रभः। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।।" मंत्र का उच्चारण करते हुए पुष्प को अर्पण करना चाहिए।




भगवान श्रीकृष्णजी को अर्पण किये जाने वाले पुष्प एवं माला:-भगवान श्रीकृष्ण को अर्पित किए जाने वाले पुष्पों के संबंध में वे स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर से इस प्रकार कहते हैं-"राजन! मुझे कुमुद, करवरी, चणक, मालती, नंदिक, पलाश, वैजंतीमाला, तुलसीदल और वनमाला के पुष्प अत्यंत प्रिय हैं।"



पुष्प को अर्पण करते समय उच्चारित मंत्र:-भगवान श्रीकृष्ण पर पुष्प को अर्पण करते समय "ऊँ कृं कृष्णाय नमः" मंत्र का उच्चारण करते हुए पुष्प को अर्पण करना चाहिए।




भगवान श्रीविष्णुजी को अर्पण किये जाने वाले पुष्प एवं माला:-भगवान श्री विष्णुजी को कमल, मौलसिरी, जूही, कदंब, केवड़ा, चमेली, अशोक, मालती, वैजयंती, चंपा और बसंती के पुष्प विशेष प्रिय हैं। इसके अलावा भगवान विष्णु को तुलसी दल चढ़ाने से वह अति शीघ्र प्रसन्न होते हैं।कार्तिक मास में भगवान नारायण केतकी के फूलों से पूजा करने से विशेष रूप से प्रसन्न होते हैं।



पुष्प को अर्पण करते समय उच्चारित मंत्र:-भगवान श्रीविष्णुजी पर पुष्प को अर्पण करते समय "ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय नमः" मंत्र का उच्चारण करते हुए पुष्प को अर्पण करना चाहिए।




श्रीलक्ष्मीजी को अर्पण किये जाने वाले पुष्प एवं माला:-धन-संपत्ति को देने वाली श्रीलक्ष्मीजी को कमल के पुष्प से विशेष लगाव होता हैं, इसके अलावा उन्हें पिला फूल और लाल गुलाब चढ़ाकर भी प्रसन्न किया जा सकता हैं। जो पुष्प भगवान श्रीविष्णुजी को चढ़ाते हैं, वे ही पुष्प जैसे-कमल, मौलसिरी, जूही, कदंब, केवड़ा, चमेली, अशोक, मालती, वैजयंती, चंपा और बसंती के पुष्प आदि से विशेष लगाव रहता हैं।




पुष्प को अर्पण करते समय उच्चारित मंत्र:-देवी लक्ष्मीजी पर पुष्प को अर्पण करते समय "ऊँ श्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै श्रीं श्रीं ऊँ नमः" मंत्र एवं महालक्ष्मी मंत्र "ऊँ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद ऊँ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः" का उच्चारण करते हुए पुष्प को अर्पण करना चाहिए।




हनुमानजी को अर्पण किये जाने वाले पुष्प एवं माला:-पवनपुत्र हनुमानजी भगवान रामजी के सेवक होते हैं, भगवान हनुमानजी को लाल रंग एवं केसरिया रंग बहुत ही प्रिय होते हैं, इसलिए बजरंगबली को लाल फूल, लाल गुलाब, लाल गेंदा और तुलसीदल को चढ़ाने पर बहुत खुश हो जाते हैं और भक्त मनुष्य की मन की इच्छा को पूर्ण भी जल्दी से जल्दी करते हैं। 



पुष्प को अर्पण करते समय उच्चारित मंत्र:-हनुमानजी पर पुष्प को अर्पण करते समय "श्री हनुमंते नमः" मंत्र का उच्चारण करते हुए पुष्प को अर्पण करना चाहिए।




महादेवजी को अर्पण किये जाने वाले पुष्प एवं माला:-महादेव शिवजी जो अपने भक्तों पर जल्दी खुश हो जाते हैं, इसलिए इनको भोलेनाथजी भी कहते हैं, अर्थात् भक्तों के द्वारा उनका नाम मात्र से भी याद करने पर प्रसन्न होकर अपनी अनुकृपा कर देते हैं। इसलिए भगवान शिवजी की पूजन-अर्चन करते समय धतूरा, मौलसिरी, जवा, कनेर, आक, कुश, निर्गुंडी के पुष्प, हरसिंगार और नागकेसर के सफेद पुष्प तथा सूखे कमलगट्टे आदि के पुष्पों को भगवान शंकरजी को चढ़ाने का शास्त्रों में विधान बताया गया है। इनमें से भगवान शिवजी को सबसे अधिक प्रिय बिल्व पत्र एवं धतूरे के पुष्प होते है, इनको विशेष रूप से शिवजी की पूजा के समय उपयोग में लेना चाहिए। इन फूलों के अलावा तुलसी दल एवं केवड़े के पुष्प को कभी भगवान शिवजी पर नहीं चढ़ाना चाहिए



पुष्प को अर्पण करते समय उच्चारित मंत्र:-महादेव शिवजी  पर पुष्प को अर्पण करते समय "ऊँ नमः शिवाय" मंत्र या 

महामृत्युंजय मंत्र 


"ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।


उर्वारुकमिव बन्धनानत् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।


का उच्चारण करते हुए पुष्प को अर्पण करना चाहिए।



भगवती गौरी को अर्पण किये जाने वाले पुष्प एवं माला:-भगवती गौरी की पूजा-अर्चना करते समय भगवान शंकर को चढ़ने वाले पुष्पों जैसे-धतूरा, मौलसिरी, जवा, कनेर, आक, कुश, निर्गुंडी के पुष्प, हरसिंगार और नागकेसर के सफेद पुष्प तथा सूखे कमलगट्टे आदि  पुष्पों को मां भगवती का लगाव रहता हैं। माता भगवती को लाल रंग से विशेष लगाव होता हैं, इसलिए धर्मग्रन्थों माता भगवती को समस्त लाल रंग एवं सफेद रंग के फूल को चढ़ाया जा सकता है, इन लाल रंग एवं सफेद रंग के पुष्पों को चढ़ाने से मनुष्य के मन में शांति एवं चिंता को दूर करते हुए मन में धारित कामना को माता भगवती पूर्ण करती हैं। माता भगवती को चढ़ाए जाने वाले पुष्पों जैसे-बेला, चमेली, केसर, श्वेत और लाल फूल, स्वेत कलम, पलाश, तगर, अशोक, चंपा, मौलसिरी, मदार, कुंद, लोध, कनेर, आक, शीशम और अपराजित (शंखपुष्पी) आदि के फूलों से देवी की भी पूजा की जाती हैं। किन्तु कुछ शास्त्रों के अनुसार आक और मदार के पुष्प को माता भगवती को नहीं अर्पण करना चाहिए। यदि पूजा-अर्चना में दूसरे पुष्प नहीं मिलने पर आक और मदार के पुष्प को परिस्थिति वश चढ़ाया जा सकता हैं। 





सूर्यदेवजी को अर्पण किये जाने वाले पुष्प एवं माला:-भगवान सूर्यदेव की उपासना कुटज के पुष्पों से किए जाने का विधान है। इसके अतिरिक्त कमल, कनेर, मौलसिरी, चंपा, पलाश, आक और अशोक के पुष्प भी सूर्यदेव को समर्पित किए जाते हैं, किन्तु तगर पुष्प सूर्यदेव को अर्पित किया जाना वर्जित है।




पुष्प को अर्पण करते समय उच्चारित मंत्र:-सूर्यदेवजी पर पुष्प को अर्पण करते समय "ऊँ घृणिं सुर्याय नमः" मंत्र का उच्चारण करते हुए पुष्प को अर्पण करना चाहिए।




कालिका पुराण के अनुसार:-कालिका पुराण के अनुसार पुष्प को अर्पण करने से पूर्व निम्नलिखित सावधानियों एवं ध्यान रखने योग्य बातें-



1.बहुत दिनों के पुष्प को अर्पण के बारे में:-देवी-देवता को पुष्प अर्पण करते समय पहले से तोड़े हुए पुष्प जो कि बहुत दिनों के होने पर कभी अर्पण नहीं करना चाहिए।



2.पुष्प के खंडित होने के बारे में:-जब भी देवी-देवता को अर्पण करते समय पुष्प एक सही एवं पूर्ण स्थिति में होना चाहिए, किसी तरह से उनकी पँखड़िया टूटी-फूटी नहीं होनी चाहिए।




3.धरती माता की गोद में पड़े हुए पुष्प के बारे में:-जब भी देवी-देवता को पुष्प अर्पण करना हो तो पुष्प को उसके वृक्ष, झाड़ी और लता से ताजी अवस्था में तोड़कर ही अर्पण करना चाहिए, जमीन के नीचे पड़े हुए पुष्प को अर्पण नहीं करना चाहिए।




4.गंदे एवं कीड़ों से युक्त पुष्प के बारे में:-जब देवी-देवता को पुष्प को चढ़ाते समय पुष्प को साफ पानी से धोकर एवं कपड़े पोंछकर ही अर्पण करना चाहिए। पुष्प में किसी भी तरह की गंदगी एवं कीड़े आदि लगे हुए नहीं होने चाहिए।



5.किसी से मांगकर पुष्प को लाने के बारे में:-देवी-देवता को चढ़ाने वाले पुष्प को दूसरों से मांगकर नहीं लाना चाहिए, किसी दूसरे से मांगकर लाये हुए पुष्प को चढ़ाने पर वे पुष्प इष्टदेव के द्वारा स्वीकार नहीं किये जाते हैं।



6.चोरी करके लाये हुए पुष्प के बारे में:-देवी-देवता को चढ़ाएं जाने वाले पुष्प को किसी के यहां से चुराकर या बिना अनुमति से लाये हुए को नहीं चढ़ाना चाहिए, इस तरह से लाये हुए पुष्प को चढ़ाने पर इष्टदेव स्वीकार नहीं करते हैं।



पुष्प के विषय में विशेष बातें:-इस बारे में एक बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि-



बासी नहीं होने वाले पुष्प के विषय में:-देवी-देवता को चढ़ाएं जाने वाले पुष्प में कमल और कुमुद के पुष्प ग्यारह से पंद्रह दिन तक बासी नहीं होते हैं।



अगस्त्य के पुष्प के बारे में:-देवी-देवता को अर्पण किये जाने वाले पुष्प में अगस्त्य के पुष्प हमेशा ताजी अवस्था में रहते हैं, इनको कभी प्रयोग में किया जा सकता है। 



पुष्प की कली को चढ़ाने के बारे में:-देवी-देवता को कभी भी पुष्प की कली को नहीं चढ़ाया जा सकता है। सिवाय चंपा की कली को देवी-देवता को अर्पण किया जा सकता है। 



पूजन में पुष्प के उपयोग करने के बारे में:-हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि केतकी के पुष्प को किसी भी देवी-देवता की पूजा-अर्चना करते समय उन पुष्प को अर्पण नहीं करना चाहिए। 



पुष्प को तोड़ने के बारे में:-धर्मशास्त्रों के अनुसार पुष्प को हमेशा प्रातःकाल के समय तोड़ना चाहिए। 


●मध्याह्न एवं स्नान के बाद पुष्प को कभी नहीं तोड़ना चाहिए। 





Wednesday, May 22, 2024

May 22, 2024

पूजा-पाठ आदि शुभ कार्यों में मुख पूर्व दिशा में क्यों करते हैं? (Why do we face east during auspicious activities like worship etc?)

पूजा-पाठ आदि शुभ कार्यों में मुख पूर्व दिशा में क्यों करते हैं? (Why do we face east during auspicious activities like worship etc?):-सूर्य देव का उदय पूर्व दिशा में होता है और उगते हुए सूर्य की किरणों का धर्म शास्त्रों में बहुत ही महत्त्व बताया हैं, साथ ही विज्ञान के अनुसार भी महत्त्व होता हैं।




Why do we face east during auspicious activities like worship etc?



पूजा-पाठ आदि शुभ कार्यों में मुख पूर्व दिशा में क्यों करते हैं?



अर्थववेद के अनुसार पूर्व दिशा का महत्त्व:-अर्थववेद में इस तरह बताया हैं-



उद्यन्त्सूर्यो नुदतां मृत्युपाशान्। (अर्थववेद १७/१/३०)



अर्थात्:-जब सूर्य उगता हैं, तो उसके उगने पर उसकी तेज रश्मियों में समस्त प्रकार की व्याधियों को उत्पन्न करने वाले दोषों का शमन करने की ताकत होती हैं, जिससे मनुष्य को होने वाली मृत्यु से सम्बंधित व्याधियों का अंत करने एवं स्वास्थ्य को उत्तम रखने के गुण होते हैं।



अर्थववेद में दूसरी जगह पर भी पूर्व दिशा का महत्त्व:-अर्थववेद में दूसरी जगह पर इस तरह बताया हैं-


सूर्यस्त्वाधिपतिर्मृत्यो रूदायच्छतु रश्मिभिः।


अर्थात्:-मनुष्य को अपनी मृत्यु के बंधनों को तोड़ने के लिए सूर्य के प्रकाश से संपर्क बनाए रखना चाहिए।



एक दूसरे जगह पर:-इस तरह कहा गया हैं-


मृत्योः पड्वीशं अवमुंचमानः।


माच्छित्था सूर्यस्य संदृशः।।


अर्थात्:-जिस तरह देवता देवलोक में निवास करते हैं, उसी तरह जो कि सूर्य की रोशनी में रहता है, वह भी उस देवलोक की तरह सुख एवं आनंद पूर्वक निवास करके जीवन को व्यतीत करने वाले होते हैं।



भगवान श्रीचक्रपाणी जी के स्वरूप का ही अंश सूर्य को प्रत्यक्ष रूप में माना जाता है। ब्रह्माजी के स्वरूप में सूर्य को आदित्य रूप में माना जाता है। भगवान सूर्यदेव की पूजा-अर्चना करने से स्पष्ट रूप से फल की प्राप्ति होती है और मन की समस्त इच्छाओं की पूर्ति होती हैं, इस तरह एकमात्र सूर्यदेव के द्वारा ही संभव होता हैं।



सूर्योपनिषद के अनुसार:-सूर्योपनिषद के अनुसार ऋषि-मुनि, गंधर्व और समस्त तरह के देव का निवास सूर्य की पड़ने वाली किरणों में होता है।



सभी तरह के धर्म विहित कार्य, पारमार्थिक सत्ता या वास्तविक तथ्य और अच्छा व्यवहार में सूर्य का ही अंश माना गया है। इसी कारण सूर्य की रश्मियों और उनके प्रभाव की प्राप्ति के लिए शुभ कार्य पूर्व दिशा की ओर मुख करके संपन्न कराने का व्यवहार प्रयोजन बताया गया है।




ज्योतिष के दृष्टिकोण के अनुसार:-सूर्यदेव को नौ ग्रहों में राजा का पद प्राप्त हैं, इसलिए जब कोई मनुष्य सूर्यदेव पूजा-पाठ आदि शुभ कार्य किया जाता हैं, तो सूर्यदेव की प्रिय दिशा पूर्व होती हैं और पूर्व दिशा में मुख करके पूजा-पाठ आदि करने से सूर्यदेव खुश होते हैं और अपनी छत्र-छाया और आशीर्वाद प्रदान करते हैं, इसलिए मनुष्य को पूर्व दिशा में मुख करके पूजा-पाठ करने से शुभ कार्य मिलता हैं।




वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार:-जब सूर्यदेव का पूर्व दिशा में उदय होता हैं, तो सूर्यदेव की पड़ने वाली तीक्ष्ण किरणों में पराबैगनी किरणों या अल्ट्रा वॉयलेट किरणों का प्रादुर्भाव होता हैं। यह पराबैंगनी किरणों में व्याधियों के कीटाणुओं के विरुद्ध लड़ने की क्षमता होती हैं, जिससे पराबैंगनी किरणें इन व्याधियों को उत्पन्न करने वाले कीटाणुओं को अपने तेज प्रभाव से खत्म कर देती हैं, जिससे व्याधि नहीं हो पाती हैं।




सूर्य रश्मियों में अलग-अलग ऊर्जा किरणों पाया जाना:-सूर्य के उदय होने पर उसमें सात तरह की ऊर्जा किरणों का उदय होता हैं, जो इस तरह हैं- यह उदय होती किरणें नवग्रहों का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो कि मनुष्य शरीर को बीमारी से रक्षा करते हुए ताजगी प्रदान करने में अपना अहम रोल अदा करती हैं।



1.लाल रंग की ऊर्जा किरणे:-से किसी व्यक्ति, वस्तु, काम, बात, विषय आदि के प्रति मन में होने वाले मोह की निशानी होती हैं प्रतीक है। यह बहुत ही गर्म, गाढ़े और लसीले तरल पदार्थ से होने वाली व्याधियों को समाप्त करके जोश भरने वाला होता हैं। 




2.पीले रंग की ऊर्जा किरणे:-से किसी व्यक्ति की बढ़ाई और सोचने-समझने एंव निश्चय करने की मानसिक शक्ति की निशानी होती हैं। मन पर काबू रखने, सर्वोत्तम स्थिति जो अनुकरणीय हो और भलाई करने की निशानी होने के साथ-साथ और उष्ण एवं गाढ़े और लसीले तरल पदार्थ से होने वाली व्याधियों को समाप्त करने वाला है। मन को आनंद और मौज, समझने की शक्ति और क्रियाशील होने का प्रतीक होता हैं।




3.हरे रंग की ऊर्जा किरण:-से व्यक्ति का मन हमेशा खिला-खिला हुआ और संतुष्ट रहता हैं। 




4.नीले रंग की ऊर्जा किरण:-से मनुष्य को तसल्ली मिलती हैं। यह शीतलता देने वाला, पित्त एवं ताप व्याधि का नाशक है। किसी बात को जानने के लिए मन ही मन में बार-बार गहनता  सोचने का प्रतीक हैं।




5.आसमानी रंग की ऊर्जा किरण:-से मनुष्य को सभी तरह के ऐशो-आराम के साथ अधिक रुपये-पैसों और सोचने-समझने और तय करने की मानसिक ताकत का प्रतीक हैं। यह शरीर में ताजगी, जोश और शीतलता प्रदान करने का प्रतीक हैं। यह मनुष्य के शरीर में वायु से होने विकार की व्याधि का नाश करके खून में मिली अशुद्धि को शुद्ध करने वाला होता हैं।




6.बैंगनी रंग की ऊर्जा किरण:-से अनेक तरह के भाव को उत्पन्न करने का प्रतीक हैं। यह शीतल, लाल रक्त कणिकाओं को बढाने के साथ धीरे-धीरे शरीर को नष्ट करने वाले तपेदिक रोग में फायदा देने वाली हैं। 



7.नारंगी रंग की ऊर्जा किरण:-से तन्दुरुस्ती और सोचने-समझने और तय करने की मानसिक शक्ति का प्रतीक हैं।  आरोग्य और बुद्धि का प्रतीक है। मन की कल्पना से उत्पन्न होने वाली व्याधियों में सामर्थ्य और ज्यादा पाने की इच्छा शक्ति का प्रतीक होता हैं। यह उष्ण और गाढ़े और लसीले तरल पदार्थ से होने वाली व्याधियों को समाप्त करने वाला होता हैं। 



 

जो विभिन्न तरह की क्षमताओं से युक्त होती हैं। इन क्षमताओं के कारण ही धार्मिक अनुष्ठान सहज ही सफल हो जाते हैं। सूर्य रश्मियों की विभिन्न क्षमताओं से युक्त ऊर्जाओं को प्राप्त करने के लिए ही सूर्य के उगने के समय पूर्व दिशा की ओर मुख करके सूर्यदेव की अरदास करते हुए उनकी भक्ति करना, सूर्य नमस्कार, संध्या के वंदन या उनका गुणगान करने और हवन-पूजा आदि किए जाते हैं। शरीर के समस्त तरह अवयव के द्वारा प्राप्त करते हैं।