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Wednesday, July 10, 2024

July 10, 2024

शत्रुहंता गणपति साधना विधि एवं महत्त्व (Shatruhanta Ganapati Sadhana vidhi and importance)

शत्रुहंता गणपति साधना विधि एवं महत्त्व (Shatruhanta Ganapati Sadhana vidhi and importance):-आज के युग में मनुष्य एक-दूसरे से प्रत्येक क्षेत्र में खुद को दूसरे मनुष्य के आगे देखने की चाहत रखते हैं, इस तरह वे अपनी चाहत को पूरा करने का प्रयत्न भी करते है। अपने आसपास के क्षेत्र में जिसमें परिवार के सदस्यों, रिश्तेदारों, कार्यक्षेत्र में काम करने वाले एवं निवास स्थान की जगह के पास मनुष्य के द्वारा होड़ में रखे रहते हैं। जिससे मनुष्य होड़ में पीछे रहने के डर से या पीछे रहने पर जलन उत्पन्न हो जाती हैं, जिससे उन मनुष्य के मन में शत्रुता के बीज उत्पन्न होने लगते हैं। मनुष्य को अपने जीवनकाल में समस्त तरह के ऐशो-आराम एवं समृद्धि मिल जाने पर यह ऐशो-आराम एवं समृद्धि मनुष्य के लिए दुःखददायीं बन जाती हैं। जिससे आवश्यकता से अधिक गुण दोष की विवेचना करने वाले दुश्मन होने पर वे हमेशा मनुष्य को दूसरों की नजर में गिराने या किसी न किसी तरह से परेशान करने की भावना रखने पर मनुष्य का समस्त ऐशो-आराम और सुख-समृद्धि व्यर्थ हो जाती हैं। मनुष्य को इस तरह के जलन वाले दुश्मनों के कारण हमेशा मन में डर रहता हैं कि दुश्मन किसी तरह से नुकसान कर सकते हैं, इस तरह से मन में कई तरह के विचार उत्पन्न होने लगते हैं, जिससे उन विचारों में मनुष्य हर समय खोया रहता हैं। वह सोचने लगता हैं कि इन उत्पन्न दुश्मनों से किस तरह बचा जावे। इस उधड़-बुन में अपना सबकुछ समाप्त कर देता हैं। इस तरह के दुश्मनों के रहने पर वह मनुष्य अपने जीवन को बिताना उसके लिए कठिन हो जाता हैं। यदि समय के अनुसार दुश्मन यदि अपनी गतिविधियों से तेज हो जाने पर उन दुश्मनों का सामना करना या उनसे अपना प्रतिकार को पूर्ण करने में बहुत कठिनाई आ जाती है। इस तरह के दुश्मनों से बचने के लिए ऋषि-मुनियों ने बहुत सारे उपासना के बारें में बताया हैं, इन उपासना को अपनाते हुए अपने जीवनकाल में उत्पन्न दुश्मनों से छुटकारा मिल जाता हैं। जिससे दुश्मनों के द्वारा मन की जलन एवं पीछे से वार का जबाव मिल जावेगा और मनुष्य अपना जीवन सही तरीके जीते हुए अपने कार्य की सिद्धि निरन्तर पा लेगा। उन ऋषि-मुनियों के द्वारा उन उपासनाओं में से एक उपासना शत्रुहंता गणपतिजी बताया हैं, इस उपासना को अपनाते हुए अपने कार्य में सिद्धि को पा सकते हैं।


Shatruhanta Ganapati Sadhana vidhi and importance





शत्रुहंता गणपति साधना पूजा सामग्री:-कुमकुम, केशर, अक्षत, दूर्वा, दीपक, तेल, फूल, नैवेद्य, फल, अगरबत्ती, तांत्रोक्त नारियल की संख्या एक, गणपति यंत्र और काली हकीक माला आदि उपयोग में ली जाती हैं।




शत्रुहंता गणपति साधना पूजा विधि:-भगवान गणेशजी के प्रति जो मनुष्य विश्वास एवं श्रद्धाभाव रखते हैं, उन मनुष्य को इस साधना विधि का प्रयोग करते हुए अपने कार्य को सिद्धि पा सकते हैं, शत्रुहंता गणपति साधना विधि इस तरह हैं-



◆मनुष्य को शत्रुहंता गणपति साधना विधि को गणेश जयन्ती के दिन रात्रिकाल के दस बजे के बाद ही शुरू करनी चाहिए।



◆इसके अलावा किसी भी माह में शुक्लपक्ष में पड़ने वाले बुधवार को भी कर सकते हैं।



◆मनुष्य को साधना विधि के दिन सवेरे जल्दी उठकर अपनी रोजाने की क्रियाएँ जैसे-स्नानादि को पूर्ण करना चाहिए।



◆उसके बाद स्वच्छ या नवीन वस्त्रों जिनका रंग पीला हो उनको पहनना चाहिए।



◆फिर मन ही मन में भगवान गणेशजी को याद करते हुए उनको अपने मन मंदिर में रखते हुए किसी भी तरह के बुरे विचारों को नहीं आने देना चाहिए।



◆फिर अपने जिस स्थान पर यह साधना विधि करनी होती हैं, उस स्थान को पूर्ण तरह से साफ-सफाई करनी चाहिए।



◆फिर साधना विधि के रात्रिकाल के समय दस बजे के अनुसार साधना विधि की जगह पर पूर्व दिशा की ओर मुहं को रखते हुए बैठना चाहिए।



◆बिछावन के लिए कुश का बिछावन उपयोग में लेना चाहिए।



◆यह साधना विधि एकांत में करनी चाहिए।



◆फिर लकड़ी का एक बाजोट लेकर उस पर एक नवीन व स्वच्छ सफेद रंग का कपड़ा बिछाना चाहिए।



◆उस सफेद रंग के कपड़े पर ताम्र धातु या किसी भी धातु से बनी थाली को रखना चाहिए।



◆उस थाली में कुमकुम से 'ऊँ गणेशाय नमः' लिखना चाहिए।



◆फिर उस बाजोट पर कुमकुम एवं केशर से रंगे हुए अक्षत को रखते हुए ढ़ेरी बनानी चाहिए।



◆इस अक्षत की ढ़ेरी पर एक तांत्रोक्त नारियल एवं गणपति यंत्र को रखना चाहिए।



◆इस ढ़ेरी के नजदीक एक तेल से भरे हुए दीपक को रखना चाहिए।



◆फिर उस बाजोट पर सफेद कागज पर शत्रु का नाम लिखकर गणपति यंत्र के पास में रखना चाहिए।



◆उसके बाद ''काली हकीक माला" लेकर निम्नलिखित मंत्र को उच्चारण करना चाहिए-



"गं घ्रौं गं शत्रुविनाशाय नमः"



◆इस मंत्र को तीन दिन तक रोजाना रात्रिकाल के समय तीन माला ''काली हकीक माला" से करनी चाहिए।



◆फिर रोजाना मंत्रों का वांचन करते हुए जप करने के बाद एक मुट्ठी काली मिर्च के दाने को दुश्मन के नाम पर चढ़ाना चाहिए।



◆फिर अंतिम दिन में समस्त क्रियाएँ करने के बाद उन समस्त सामग्रियों को सफेद कपड़े में बांधकर किसी दूर सुनसान स्थान या जंगल में छोड़कर आ जाना चाहिए।



◆समस्त सामग्रियों को रखते समय किसी भी तरह के शब्द को नहीं निकालना चाहिए।



◆वापिस लौटते समय पीछे की तरफ भी नहीं देखना चाहिए।



◆शत्रुहंता गणपति साधना करने से जो परेशान करने वाले शत्रु काबू हो जायेगें और किसी भी तरह से हानि नहीं पहुँचा पावेंगे।


Saturday, June 22, 2024

June 22, 2024

देवी-देवता की पूजा में पुष्प का क्यों महत्त्व हैं? और कौन-कौन से पुष्प अर्पित किए जाते हैं? (Why are flowers important in the puja of devi-devata? And which flowers are offered?)

देवी-देवता की पूजा में पुष्प का क्यों महत्त्व हैं? और कौन-कौन से पुष्प अर्पित किए जाते हैं? (Why are flowers important in the puja of devi-devata? And which flowers are offered?):-इष्टदेव की पूजा करते समय पुष्प को भी पूजा में सम्मिलित किया गया है, हिन्दुधर्म में पुष्प को बहुत सारी जगह पर उपयोग में लिया जाता हैं। कुसुम अपनी सुंदरता के द्वारा दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं, पुष्प की सौन्दर्यता एवं उसमें विद्यमान सुंगध से देवी-देवताओं भी प्रसन्न होते हैं। जब पुष्प को देवी-देवताओं को अर्पण करते है, तब इष्टदेव-इष्टदेवी खुश होकर अर्पण करने वाले मनुष्य भक्त पर अपनी कृपा दृष्टि कर देते हैं और मन में धारित मनुष्य की इच्छाओं को पूर्ण करते हैं। इसी वजह से देवी-देवता, भगवान की आरती के समय, व्रत-उपवास या विभिन्न पर्वों पर पुष्प अर्पित करने का कायदा है। अभीष्ट प्राप्ति के लिए मन की इच्छा से धारित मांगलिक कर्मकांड, धार्मिक कार्यों के द्वारा पवित्र करने, सामाजिक व पारिवारिक कार्यों को करते समय बिना पुष्प के पूर्ण नहीं समझा जाता हैं।




Why are flowers important in the puja of devi-devata? And which flowers are offered?




धार्मिक कर्मकांडों में पुष्प का महत्त्व क्यों हैं? जानें कौनसे देवी-देवता पर कौन-कौन से पुष्प अर्पित किए जाते हैं?(Why are flowers important in religious rituals?  Know which flowers are offered to which deities?):-



कुलार्णव तंत्र के अनुसार में पुष्प के विषय:-में इस तरह से बताया गया है-


पुण्य संवर्द्धनाच्चापि पापौघपरिहारतः।


पुष्कलार्थदानार्थ पुष्पमित्यभिधीयते।।


अर्थात्:-जिसके उपयोग करने से धार्मिक दृष्टि से से शुभ कार्य में बढ़ोतरी, नीति एवं धर्म के विरुद्ध किये गए आचरण से मुक्ति और जो सबसे उत्तम किये गए कार्यों का परिणाम देने वाले होते हैं, उनको पुष्प कहा जाता है।



विष्णु-नारदीय व धर्मोत्तर पुराण के अनुसार में पुष्प का महत्त्व:-विष्णु-नारदीय व धर्मोत्तर पुराण के अनुसार में पुष्प के महत्त्व के बारे इस तरह बताया गया है-


पुष्पैर्दवा प्रसीदंति पुष्पैः देवाश्च संस्थिताः।


न रत्नैर्न सुवर्णेन न वित्तेन च भूरिणा


तथा प्रसादमायाति यथा पुष्पैर्जनार्दन।।



अर्थात्:-देव-दैवीय गुणों से युक्त सत्ताधारी मृत्यु से मुक्त, बहुमूल्य पत्थर, सुंदर वर्ण का चमकीला धातु, बहुत ज्यादा मात्रा से विशुद्ध तत्व जिसमें किसी दूसरे तत्व नहीं हो,दैहिक एवं आध्यात्मिक शुद्धता के लिए मन में धारित कुछ त्याग करने के कायदे, चित्त व देह को कष्टप्रद स्थिति में रखते हुए शुद्ध व विषयों से दूर रहते हुए कर्म को करने और अन्य किसी भी साधन को अपनाते हुए देवी-देवताओं को खुश करने हेतु जो भी कर्म करते हैं, उन कर्मों से इष्टदेव-इष्टदेवी उतने खुश नहीं होते हैं, जितना कि पुष्प को अर्पण करने पर होते हैं।



शारदा तिलक के अनुसार पुष्प के विषय:-में इस प्रकार कहा गया है-


दैवस्य मस्तकं कुर्यात्कुसुमोपहितं सदा


अर्थात्:-देव-दैवीय गुणों से युक्त सत्ताधारी जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त को पुष्प से उत्पन्न महक एवं सुंदरता से शीघ्र खुश हो जाते हैं अतः उनकी खुशी के लिए उनके मस्तक को हमेशा पुष्पों से शोभित रखना चाहिए, जिससे उनकी कृपा प्राप्त हो सके। 


अलग-अलग पुष्पों को एक एकत्रित करके उनको एक धागे के द्वारा धागे में पिरोकर माल्य रूप को तैयार किया जाता हैं और तैयार पुष्पों से माल्य को जब देवी-देवताओं के कंठ में पहनाई जाती हैं, तब वे बहुत ही खुश हो जाते हैं और अपना आशीर्वाद प्रदान करते हैं।  



ललिता सहस्त्रनाम में माल्य के बाद में:-इस तरह कहा गया है-


मां शोभा लालीति माला


अर्थात्:-जो अपने गुणों के द्वारा बहुत ही चमक प्रदान करके सौन्दर्यता को बढाती हो उसे ही माला कहते हैं। जब देवी-दैवीय शक्ति से युक्त सत्ताधारी को जब पुष्पों से बनी हुई माला को अर्पण या चढ़ाई जाती हैं, तब उन देवी-दैवीय शक्ति की शोभा में ओर बढ़ोतरी हो जाती हैं। सबसे बढ़िया कमल अथवा पुंडरीक से बनी हुई माला को शास्त्रों में बताया गया हैं। 



हिन्दुधर्म में देवी-देवताओं को अर्पण करने वाले पुष्प एवं पुष्प से बनी माला:-हिन्दुधर्म में छतीस करोड़ देवी-देवताओं को बताया गया हैं, समस्त देवी-देवताओं को अर्पण किये जाने पुष्प एवं पुष्प से बनी हुई माला अलग-अलग धर्मग्रन्थों में बताई गई हैं, जो इस तरह हैं-




भगवान श्रीगणेशजी को अर्पण किये जाने वाले पुष्प एवं माला:-सर्वप्रथम पूजनीय गणेशजी को समस्त तरह के पुष्प को अर्पण किया जा सकता हैं और उनको प्रिय भी होते हैं। लेकिन आचार भूषण नामक ग्रन्थानुसार तुलसी दल को भगवान गणेशजी को नहीं चढ़ाना चाहिए। भगवान गणेशजी को सफेद या हरि दूर्वा फुनगी की तीन या पाँच पत्ती युक्त होने पर चढ़ाने से शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं, इसके अलावा लाल रंग का पुष्प भी अर्पण कर सकते हैं।



पुष्प को अर्पण करते समय उच्चारित मंत्र:-पुष्प को गणेशजी पर अर्पण करते समय "ऊँ गणेशाय नमः" मंत्र या "ऊँ वक्रतुण्ड महाकाय सुर्यकोटि समप्रभः। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।।" मंत्र का उच्चारण करते हुए पुष्प को अर्पण करना चाहिए।




भगवान श्रीकृष्णजी को अर्पण किये जाने वाले पुष्प एवं माला:-भगवान श्रीकृष्ण को अर्पित किए जाने वाले पुष्पों के संबंध में वे स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर से इस प्रकार कहते हैं-"राजन! मुझे कुमुद, करवरी, चणक, मालती, नंदिक, पलाश, वैजंतीमाला, तुलसीदल और वनमाला के पुष्प अत्यंत प्रिय हैं।"



पुष्प को अर्पण करते समय उच्चारित मंत्र:-भगवान श्रीकृष्ण पर पुष्प को अर्पण करते समय "ऊँ कृं कृष्णाय नमः" मंत्र का उच्चारण करते हुए पुष्प को अर्पण करना चाहिए।




भगवान श्रीविष्णुजी को अर्पण किये जाने वाले पुष्प एवं माला:-भगवान श्री विष्णुजी को कमल, मौलसिरी, जूही, कदंब, केवड़ा, चमेली, अशोक, मालती, वैजयंती, चंपा और बसंती के पुष्प विशेष प्रिय हैं। इसके अलावा भगवान विष्णु को तुलसी दल चढ़ाने से वह अति शीघ्र प्रसन्न होते हैं।कार्तिक मास में भगवान नारायण केतकी के फूलों से पूजा करने से विशेष रूप से प्रसन्न होते हैं।



पुष्प को अर्पण करते समय उच्चारित मंत्र:-भगवान श्रीविष्णुजी पर पुष्प को अर्पण करते समय "ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय नमः" मंत्र का उच्चारण करते हुए पुष्प को अर्पण करना चाहिए।




श्रीलक्ष्मीजी को अर्पण किये जाने वाले पुष्प एवं माला:-धन-संपत्ति को देने वाली श्रीलक्ष्मीजी को कमल के पुष्प से विशेष लगाव होता हैं, इसके अलावा उन्हें पिला फूल और लाल गुलाब चढ़ाकर भी प्रसन्न किया जा सकता हैं। जो पुष्प भगवान श्रीविष्णुजी को चढ़ाते हैं, वे ही पुष्प जैसे-कमल, मौलसिरी, जूही, कदंब, केवड़ा, चमेली, अशोक, मालती, वैजयंती, चंपा और बसंती के पुष्प आदि से विशेष लगाव रहता हैं।




पुष्प को अर्पण करते समय उच्चारित मंत्र:-देवी लक्ष्मीजी पर पुष्प को अर्पण करते समय "ऊँ श्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै श्रीं श्रीं ऊँ नमः" मंत्र एवं महालक्ष्मी मंत्र "ऊँ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद ऊँ श्रीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै नमः" का उच्चारण करते हुए पुष्प को अर्पण करना चाहिए।




हनुमानजी को अर्पण किये जाने वाले पुष्प एवं माला:-पवनपुत्र हनुमानजी भगवान रामजी के सेवक होते हैं, भगवान हनुमानजी को लाल रंग एवं केसरिया रंग बहुत ही प्रिय होते हैं, इसलिए बजरंगबली को लाल फूल, लाल गुलाब, लाल गेंदा और तुलसीदल को चढ़ाने पर बहुत खुश हो जाते हैं और भक्त मनुष्य की मन की इच्छा को पूर्ण भी जल्दी से जल्दी करते हैं। 



पुष्प को अर्पण करते समय उच्चारित मंत्र:-हनुमानजी पर पुष्प को अर्पण करते समय "श्री हनुमंते नमः" मंत्र का उच्चारण करते हुए पुष्प को अर्पण करना चाहिए।




महादेवजी को अर्पण किये जाने वाले पुष्प एवं माला:-महादेव शिवजी जो अपने भक्तों पर जल्दी खुश हो जाते हैं, इसलिए इनको भोलेनाथजी भी कहते हैं, अर्थात् भक्तों के द्वारा उनका नाम मात्र से भी याद करने पर प्रसन्न होकर अपनी अनुकृपा कर देते हैं। इसलिए भगवान शिवजी की पूजन-अर्चन करते समय धतूरा, मौलसिरी, जवा, कनेर, आक, कुश, निर्गुंडी के पुष्प, हरसिंगार और नागकेसर के सफेद पुष्प तथा सूखे कमलगट्टे आदि के पुष्पों को भगवान शंकरजी को चढ़ाने का शास्त्रों में विधान बताया गया है। इनमें से भगवान शिवजी को सबसे अधिक प्रिय बिल्व पत्र एवं धतूरे के पुष्प होते है, इनको विशेष रूप से शिवजी की पूजा के समय उपयोग में लेना चाहिए। इन फूलों के अलावा तुलसी दल एवं केवड़े के पुष्प को कभी भगवान शिवजी पर नहीं चढ़ाना चाहिए



पुष्प को अर्पण करते समय उच्चारित मंत्र:-महादेव शिवजी  पर पुष्प को अर्पण करते समय "ऊँ नमः शिवाय" मंत्र या 

महामृत्युंजय मंत्र 


"ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।


उर्वारुकमिव बन्धनानत् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।


का उच्चारण करते हुए पुष्प को अर्पण करना चाहिए।



भगवती गौरी को अर्पण किये जाने वाले पुष्प एवं माला:-भगवती गौरी की पूजा-अर्चना करते समय भगवान शंकर को चढ़ने वाले पुष्पों जैसे-धतूरा, मौलसिरी, जवा, कनेर, आक, कुश, निर्गुंडी के पुष्प, हरसिंगार और नागकेसर के सफेद पुष्प तथा सूखे कमलगट्टे आदि  पुष्पों को मां भगवती का लगाव रहता हैं। माता भगवती को लाल रंग से विशेष लगाव होता हैं, इसलिए धर्मग्रन्थों माता भगवती को समस्त लाल रंग एवं सफेद रंग के फूल को चढ़ाया जा सकता है, इन लाल रंग एवं सफेद रंग के पुष्पों को चढ़ाने से मनुष्य के मन में शांति एवं चिंता को दूर करते हुए मन में धारित कामना को माता भगवती पूर्ण करती हैं। माता भगवती को चढ़ाए जाने वाले पुष्पों जैसे-बेला, चमेली, केसर, श्वेत और लाल फूल, स्वेत कलम, पलाश, तगर, अशोक, चंपा, मौलसिरी, मदार, कुंद, लोध, कनेर, आक, शीशम और अपराजित (शंखपुष्पी) आदि के फूलों से देवी की भी पूजा की जाती हैं। किन्तु कुछ शास्त्रों के अनुसार आक और मदार के पुष्प को माता भगवती को नहीं अर्पण करना चाहिए। यदि पूजा-अर्चना में दूसरे पुष्प नहीं मिलने पर आक और मदार के पुष्प को परिस्थिति वश चढ़ाया जा सकता हैं। 





सूर्यदेवजी को अर्पण किये जाने वाले पुष्प एवं माला:-भगवान सूर्यदेव की उपासना कुटज के पुष्पों से किए जाने का विधान है। इसके अतिरिक्त कमल, कनेर, मौलसिरी, चंपा, पलाश, आक और अशोक के पुष्प भी सूर्यदेव को समर्पित किए जाते हैं, किन्तु तगर पुष्प सूर्यदेव को अर्पित किया जाना वर्जित है।




पुष्प को अर्पण करते समय उच्चारित मंत्र:-सूर्यदेवजी पर पुष्प को अर्पण करते समय "ऊँ घृणिं सुर्याय नमः" मंत्र का उच्चारण करते हुए पुष्प को अर्पण करना चाहिए।




कालिका पुराण के अनुसार:-कालिका पुराण के अनुसार पुष्प को अर्पण करने से पूर्व निम्नलिखित सावधानियों एवं ध्यान रखने योग्य बातें-



1.बहुत दिनों के पुष्प को अर्पण के बारे में:-देवी-देवता को पुष्प अर्पण करते समय पहले से तोड़े हुए पुष्प जो कि बहुत दिनों के होने पर कभी अर्पण नहीं करना चाहिए।



2.पुष्प के खंडित होने के बारे में:-जब भी देवी-देवता को अर्पण करते समय पुष्प एक सही एवं पूर्ण स्थिति में होना चाहिए, किसी तरह से उनकी पँखड़िया टूटी-फूटी नहीं होनी चाहिए।




3.धरती माता की गोद में पड़े हुए पुष्प के बारे में:-जब भी देवी-देवता को पुष्प अर्पण करना हो तो पुष्प को उसके वृक्ष, झाड़ी और लता से ताजी अवस्था में तोड़कर ही अर्पण करना चाहिए, जमीन के नीचे पड़े हुए पुष्प को अर्पण नहीं करना चाहिए।




4.गंदे एवं कीड़ों से युक्त पुष्प के बारे में:-जब देवी-देवता को पुष्प को चढ़ाते समय पुष्प को साफ पानी से धोकर एवं कपड़े पोंछकर ही अर्पण करना चाहिए। पुष्प में किसी भी तरह की गंदगी एवं कीड़े आदि लगे हुए नहीं होने चाहिए।



5.किसी से मांगकर पुष्प को लाने के बारे में:-देवी-देवता को चढ़ाने वाले पुष्प को दूसरों से मांगकर नहीं लाना चाहिए, किसी दूसरे से मांगकर लाये हुए पुष्प को चढ़ाने पर वे पुष्प इष्टदेव के द्वारा स्वीकार नहीं किये जाते हैं।



6.चोरी करके लाये हुए पुष्प के बारे में:-देवी-देवता को चढ़ाएं जाने वाले पुष्प को किसी के यहां से चुराकर या बिना अनुमति से लाये हुए को नहीं चढ़ाना चाहिए, इस तरह से लाये हुए पुष्प को चढ़ाने पर इष्टदेव स्वीकार नहीं करते हैं।



पुष्प के विषय में विशेष बातें:-इस बारे में एक बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि-



बासी नहीं होने वाले पुष्प के विषय में:-देवी-देवता को चढ़ाएं जाने वाले पुष्प में कमल और कुमुद के पुष्प ग्यारह से पंद्रह दिन तक बासी नहीं होते हैं।



अगस्त्य के पुष्प के बारे में:-देवी-देवता को अर्पण किये जाने वाले पुष्प में अगस्त्य के पुष्प हमेशा ताजी अवस्था में रहते हैं, इनको कभी प्रयोग में किया जा सकता है। 



पुष्प की कली को चढ़ाने के बारे में:-देवी-देवता को कभी भी पुष्प की कली को नहीं चढ़ाया जा सकता है। सिवाय चंपा की कली को देवी-देवता को अर्पण किया जा सकता है। 



पूजन में पुष्प के उपयोग करने के बारे में:-हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि केतकी के पुष्प को किसी भी देवी-देवता की पूजा-अर्चना करते समय उन पुष्प को अर्पण नहीं करना चाहिए। 



पुष्प को तोड़ने के बारे में:-धर्मशास्त्रों के अनुसार पुष्प को हमेशा प्रातःकाल के समय तोड़ना चाहिए। 


●मध्याह्न एवं स्नान के बाद पुष्प को कभी नहीं तोड़ना चाहिए। 





Wednesday, May 22, 2024

May 22, 2024

पूजा-पाठ आदि शुभ कार्यों में मुख पूर्व दिशा में क्यों करते हैं? (Why do we face east during auspicious activities like worship etc?)

पूजा-पाठ आदि शुभ कार्यों में मुख पूर्व दिशा में क्यों करते हैं? (Why do we face east during auspicious activities like worship etc?):-सूर्य देव का उदय पूर्व दिशा में होता है और उगते हुए सूर्य की किरणों का धर्म शास्त्रों में बहुत ही महत्त्व बताया हैं, साथ ही विज्ञान के अनुसार भी महत्त्व होता हैं।




Why do we face east during auspicious activities like worship etc?



पूजा-पाठ आदि शुभ कार्यों में मुख पूर्व दिशा में क्यों करते हैं?



अर्थववेद के अनुसार पूर्व दिशा का महत्त्व:-अर्थववेद में इस तरह बताया हैं-



उद्यन्त्सूर्यो नुदतां मृत्युपाशान्। (अर्थववेद १७/१/३०)



अर्थात्:-जब सूर्य उगता हैं, तो उसके उगने पर उसकी तेज रश्मियों में समस्त प्रकार की व्याधियों को उत्पन्न करने वाले दोषों का शमन करने की ताकत होती हैं, जिससे मनुष्य को होने वाली मृत्यु से सम्बंधित व्याधियों का अंत करने एवं स्वास्थ्य को उत्तम रखने के गुण होते हैं।



अर्थववेद में दूसरी जगह पर भी पूर्व दिशा का महत्त्व:-अर्थववेद में दूसरी जगह पर इस तरह बताया हैं-


सूर्यस्त्वाधिपतिर्मृत्यो रूदायच्छतु रश्मिभिः।


अर्थात्:-मनुष्य को अपनी मृत्यु के बंधनों को तोड़ने के लिए सूर्य के प्रकाश से संपर्क बनाए रखना चाहिए।



एक दूसरे जगह पर:-इस तरह कहा गया हैं-


मृत्योः पड्वीशं अवमुंचमानः।


माच्छित्था सूर्यस्य संदृशः।।


अर्थात्:-जिस तरह देवता देवलोक में निवास करते हैं, उसी तरह जो कि सूर्य की रोशनी में रहता है, वह भी उस देवलोक की तरह सुख एवं आनंद पूर्वक निवास करके जीवन को व्यतीत करने वाले होते हैं।



भगवान श्रीचक्रपाणी जी के स्वरूप का ही अंश सूर्य को प्रत्यक्ष रूप में माना जाता है। ब्रह्माजी के स्वरूप में सूर्य को आदित्य रूप में माना जाता है। भगवान सूर्यदेव की पूजा-अर्चना करने से स्पष्ट रूप से फल की प्राप्ति होती है और मन की समस्त इच्छाओं की पूर्ति होती हैं, इस तरह एकमात्र सूर्यदेव के द्वारा ही संभव होता हैं।



सूर्योपनिषद के अनुसार:-सूर्योपनिषद के अनुसार ऋषि-मुनि, गंधर्व और समस्त तरह के देव का निवास सूर्य की पड़ने वाली किरणों में होता है।



सभी तरह के धर्म विहित कार्य, पारमार्थिक सत्ता या वास्तविक तथ्य और अच्छा व्यवहार में सूर्य का ही अंश माना गया है। इसी कारण सूर्य की रश्मियों और उनके प्रभाव की प्राप्ति के लिए शुभ कार्य पूर्व दिशा की ओर मुख करके संपन्न कराने का व्यवहार प्रयोजन बताया गया है।




ज्योतिष के दृष्टिकोण के अनुसार:-सूर्यदेव को नौ ग्रहों में राजा का पद प्राप्त हैं, इसलिए जब कोई मनुष्य सूर्यदेव पूजा-पाठ आदि शुभ कार्य किया जाता हैं, तो सूर्यदेव की प्रिय दिशा पूर्व होती हैं और पूर्व दिशा में मुख करके पूजा-पाठ आदि करने से सूर्यदेव खुश होते हैं और अपनी छत्र-छाया और आशीर्वाद प्रदान करते हैं, इसलिए मनुष्य को पूर्व दिशा में मुख करके पूजा-पाठ करने से शुभ कार्य मिलता हैं।




वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अनुसार:-जब सूर्यदेव का पूर्व दिशा में उदय होता हैं, तो सूर्यदेव की पड़ने वाली तीक्ष्ण किरणों में पराबैगनी किरणों या अल्ट्रा वॉयलेट किरणों का प्रादुर्भाव होता हैं। यह पराबैंगनी किरणों में व्याधियों के कीटाणुओं के विरुद्ध लड़ने की क्षमता होती हैं, जिससे पराबैंगनी किरणें इन व्याधियों को उत्पन्न करने वाले कीटाणुओं को अपने तेज प्रभाव से खत्म कर देती हैं, जिससे व्याधि नहीं हो पाती हैं।




सूर्य रश्मियों में अलग-अलग ऊर्जा किरणों पाया जाना:-सूर्य के उदय होने पर उसमें सात तरह की ऊर्जा किरणों का उदय होता हैं, जो इस तरह हैं- यह उदय होती किरणें नवग्रहों का प्रतिनिधित्व करती हैं, जो कि मनुष्य शरीर को बीमारी से रक्षा करते हुए ताजगी प्रदान करने में अपना अहम रोल अदा करती हैं।



1.लाल रंग की ऊर्जा किरणे:-से किसी व्यक्ति, वस्तु, काम, बात, विषय आदि के प्रति मन में होने वाले मोह की निशानी होती हैं प्रतीक है। यह बहुत ही गर्म, गाढ़े और लसीले तरल पदार्थ से होने वाली व्याधियों को समाप्त करके जोश भरने वाला होता हैं। 




2.पीले रंग की ऊर्जा किरणे:-से किसी व्यक्ति की बढ़ाई और सोचने-समझने एंव निश्चय करने की मानसिक शक्ति की निशानी होती हैं। मन पर काबू रखने, सर्वोत्तम स्थिति जो अनुकरणीय हो और भलाई करने की निशानी होने के साथ-साथ और उष्ण एवं गाढ़े और लसीले तरल पदार्थ से होने वाली व्याधियों को समाप्त करने वाला है। मन को आनंद और मौज, समझने की शक्ति और क्रियाशील होने का प्रतीक होता हैं।




3.हरे रंग की ऊर्जा किरण:-से व्यक्ति का मन हमेशा खिला-खिला हुआ और संतुष्ट रहता हैं। 




4.नीले रंग की ऊर्जा किरण:-से मनुष्य को तसल्ली मिलती हैं। यह शीतलता देने वाला, पित्त एवं ताप व्याधि का नाशक है। किसी बात को जानने के लिए मन ही मन में बार-बार गहनता  सोचने का प्रतीक हैं।




5.आसमानी रंग की ऊर्जा किरण:-से मनुष्य को सभी तरह के ऐशो-आराम के साथ अधिक रुपये-पैसों और सोचने-समझने और तय करने की मानसिक ताकत का प्रतीक हैं। यह शरीर में ताजगी, जोश और शीतलता प्रदान करने का प्रतीक हैं। यह मनुष्य के शरीर में वायु से होने विकार की व्याधि का नाश करके खून में मिली अशुद्धि को शुद्ध करने वाला होता हैं।




6.बैंगनी रंग की ऊर्जा किरण:-से अनेक तरह के भाव को उत्पन्न करने का प्रतीक हैं। यह शीतल, लाल रक्त कणिकाओं को बढाने के साथ धीरे-धीरे शरीर को नष्ट करने वाले तपेदिक रोग में फायदा देने वाली हैं। 



7.नारंगी रंग की ऊर्जा किरण:-से तन्दुरुस्ती और सोचने-समझने और तय करने की मानसिक शक्ति का प्रतीक हैं।  आरोग्य और बुद्धि का प्रतीक है। मन की कल्पना से उत्पन्न होने वाली व्याधियों में सामर्थ्य और ज्यादा पाने की इच्छा शक्ति का प्रतीक होता हैं। यह उष्ण और गाढ़े और लसीले तरल पदार्थ से होने वाली व्याधियों को समाप्त करने वाला होता हैं। 



 

जो विभिन्न तरह की क्षमताओं से युक्त होती हैं। इन क्षमताओं के कारण ही धार्मिक अनुष्ठान सहज ही सफल हो जाते हैं। सूर्य रश्मियों की विभिन्न क्षमताओं से युक्त ऊर्जाओं को प्राप्त करने के लिए ही सूर्य के उगने के समय पूर्व दिशा की ओर मुख करके सूर्यदेव की अरदास करते हुए उनकी भक्ति करना, सूर्य नमस्कार, संध्या के वंदन या उनका गुणगान करने और हवन-पूजा आदि किए जाते हैं। शरीर के समस्त तरह अवयव के द्वारा प्राप्त करते हैं।



Wednesday, April 10, 2024

April 10, 2024

एकादशी के दिन चावल क्यों नहीं खाए जाते हैं, जानें वैज्ञानिक और धार्मिक कारण(Why rice is not eaten on Ekadashi, know scientific and religious reasons)


एकादशी के दिन चावल क्यों नहीं खाए जाते हैं, जानें वैज्ञानिक और धार्मिक कारण (Why rice is not eaten on Ekadashi, know scientific and religious reasons):-पद्मपुराण के अनुसार:-महीने में वर्णित तीस तिथियों में से एकादशी तिथि का स्वामी भगवान श्रीविष्णुजी के स्वरूप को माना जाता है। भगवान श्रीविष्णुजी की पूजा-अर्चना एकादशी तिथि को करना एक तरह से पुण्य कार्य होता हैं, जिससे भगवान श्रीविष्णुजी का आशीर्वाद मिल सके और पूर्ण श्रद्धा भाव रखते हुए जो भी मनुष्य अपने मन मन्दिर में भगवान श्रीविष्णुजी की छवि को धारण करते हुए सच्चे मन से विश्वास से पूजा-अर्चना करते हैं, उन पूजा-अर्चना करने वाले मनुष्य को जीवन के जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति मिल जाती हैं और उनका उद्धार भी हो जाता है। जो मनुष्य एकादशी तिथि को अपने सामर्थ्य के अनुसार किसी ब्राह्मण या किसी जरूरतमंद को दान के रूप में अन्न, गोदान, दक्षिणा आदि करते हैं, उनको हजारों अश्वमेघ यज्ञों के समान पुण्य का फल मिल जाता हैं, जो इस दिन बिना पानी को पिये हुए व्रत को करते है, उनको ज्यादा पुण्य मिलता हैं।



Why rice is not eaten on Ekadashi, know scientific and religious reasons







एकादशी तिथि के दिन नहीं करने योग्य कार्य:-मनुष्य को एकादशी तिथि के दिन निम्नलिखित कार्य नहीं करना चाहिए-



◆जिन मनुष्य के द्वारा उपवास करने से सम्बंधित परेशानी होती हैं, उन मनुष्य को शुद्ध सदाचार आचरणों को रखना चाहिए।



◆मनुष्य को धर्म एवं नीति के विरुद्व आचरणों को करना चाहिए।



◆मनुष्य को किसी दूसरे मनुष्य की वस्तुओं जैसे-धनादि का हरण नहीं करना चाहिए।



◆मनुष्य को नीति के विरुद्ध असत्य वचनों को नहीं बोलना चाहिए।



◆दूसरों के द्वारा व्यापक नियमों के विरुद्ध कार्य को मनुष्य को नहीं करना चाहिए।



◆मनुष्य को वेद, देवता और ब्राह्मणों की बुराई नहीं करनी चाहिए।



◆मनुष्य को निंद्रा और स्त्री के साथ कामवासना में लिप्त नहीं रहना चाहिए।



◆मनुष्य को मछली, सुआ, प्याज, लहसून, मांस, अंडा आदि को भोजन के रूप में एकादशी तिथि के दिन नहीं खाना चाहिए। 



◆अन्न को भी नहीं ग्रहण करना चाहिए।



◆मनुष्य एकादशी तिथि के दिन किसी दूसरे मनुष्य के साथ छल-कपट भाव नहीं रखना चाहिए।



◆मनुष्य को एकादशी तिथि के दिन चावल से बनी हुई कोई भी वस्तु एवं चावल का भोजन के रूप में उपयोग नहीं करना चाहिए।




प्राचीन समय से मनुष्यों के द्वारा:-बताया गया है कि चावल या चावल से बनी हुई कोई भी वस्तु को भोजन के रूप में एकादशी तिथि के दिन ग्रहण नहीं करना चाहिए। इस तरह के पुराने विचारों को आज तक भी मनुष्यों अनुसरण करते हैं, इस तरह की विचारधारा के पीछे क्या कारण हैं? उसको जानने की इच्छा प्रत्येक मनुष्यों को होती है।




चावल की उत्पत्ति के विषय में पौराणिक कथा:-प्राचीन समय में महर्षि मेधा के द्वारा किये गए कार्यों से संसार में बहुत त्राहि-त्राहि होने से माता आदिशक्ति की आराधना करने से आदिशक्ति ने अपना उग्र रूप को धारण किया था, इस तरह अपने क्रोधरूपी उग्र रूप से डरकर भागने लगते हैं, इस तरह माता आदिशक्ति के गुस्से की ज्वाला के डर से भागते-भागते उनसे बचने के लिए जगह ढूंढने लगते हैं, अंत में उनकी बुद्धि कार्य करती हैं, महर्षि मेधा ने तपस्या शक्ति के प्रभाव से अपने देह को त्याग दिया और अपनी बुद्धि या धारणा शक्ति से पृथ्वी माता की गोद में विलीन हो गई।



वही मेधा या बुद्धि जौ और चावल के रूप में पृथ्वी पर उत्पन्न हुई थी। जिस दिन मेधा जौ एवं चावल के रूप में उत्पन्न हुई वह दिन एकादशी तिथि का दिन था। इस तरह महर्षि की मेधा शक्ति ही जौ एवं चावल हैं, जो चेतना एवं प्राण युक्त हैं। इसलिए एकादशी तिथि के दिन चावल को खाना महर्षि मेधा की देह के छोटे-छोटे हड्डियों और चमड़े के बीच का मुलायम और लचीला भाग के काट-छांटकर खाने की तरह ही माना गया हैं, इसलिए जीवनीशक्ति से युक्त जौ और चावल को माना गया है।




धर्मशास्त्रों के कारण:-चावल की पैदाइस जल में होती हैं। चावल की पैदाइस के लिए दूसरी धान्य फसलों की तुलना में बहुत ही जल की आवश्यकता होती हैं। इस तरह चावल का रंग सफेद होता हैं, जो कि ज्योतिष शास्त्र में सफेद रंग चन्द्रमा ग्रह का होता हैं और जल तत्व का प्रतिनिधित्व करता हैं।




मन का प्रतिनिधित्व भी चन्द्रमा ग्रह करता हैं। इस तरह आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा आदि पाँच ज्ञानेंद्रियों के द्वारा भौतिक विषयों की जानकारी मिलती हैं और हाथ, पैर, वाणी, गुदा और उपस्थ आदि पाँच कर्मेन्द्रियों के द्वारा शरीर के कार्यों को किया जाता हैं। इस समस्त कार्यों को संपादित करने में मन का सहयोग होता हैं और मन के नियंत्रण से ही कार्य पूर्ण होते हैं। इस तरह शरीर के अंगों के प्रतिनिधि पर मन का पूर्ण स्वामित्व होता हैं। इस तरह चन्द्रमा जल, रस और मन की कल्पना के साथ स्पष्ट सम्बन्ध को करने वाले होते है, इस कारण से कर्क राशि, वृश्चिक राशि एवं मीन राशि आदि जलतत्त्व राशि प्रधान मनुष्य मन की कल्पना में खोये रहने वाले होते हैं, जिससे अक्सर दूसरे मनुष्य के द्वारा स्वार्थ पूर्ति करके मनुष्य को आश्वासन देकर मुकर जाते हैं।




मनुष्य को एकादशी तिथि के दिन व्रत को पूर्ण करने के लिए पूरे दिन भर बिना जल को ग्रहण करके पूर्ण करना होता हैं। इस तरह मनुष्य को अपने शरीर में जल की मात्रा को सीमित करना होता हैं, जिससे व्रत को पूर्ण करने में मदद मिल जावें। शरीर में जल की मात्रा कम होने पर मन में पवित्रता एवं अच्छी सोच को अपनाने में बढ़ोतरी होती हैं। जिससे व्रत पूर्ण रूप से संपन्न हो सके।




देवर्षि नारदजी के मतानुसार:-प्राचीन काल में ब्रह्माजी के मानस पुत्र श्रीदेवर्षि नारदजी ने बिना जल को पिये हुए एक हजार वर्षों तक भगवान श्रीविष्णुजी की पूजा-उपासना करते हुए व्रत को किया था। इस तरह वैष्णव धर्म में सबसे उत्तम एकादशी व्रत को माना जाता है। मन की प्रवृत्ति चंचल होती हैं, जिससे मनुष्य का ध्यान को भटका सकता हैं और मन की गति को नियंत्रित करने के लिए एकादशी व्रत के दिन मनुष्य को चावल नहीं खाने को शास्त्रों में बताया हैं।





वैज्ञानिक आधार:-वैज्ञानिक आधार पर एकादशी तिथि के दिन चावल नहीं खाना चाहिए, वैज्ञानिक आधार पर चावल की पैदाइश का आधार जल होता हैं और चावल जल के द्वारा परिपूर्ण होने से जल की मात्रा में अधिकता होती हैं। जलतत्व पर चन्द्रमा को कारक माना जाता हैं, जिससे जलतत्व पर ज्यादा असर चन्द्रमा का पड़ता है। चावल जल से परिपूर्ण होने से मनुष्य की देह में जल की मात्रा ज्यादा बढ़ोतरी होने लगती हैं और मनुष्य का अस्थिर मन पर नियंत्रण नहीं होता हैं, इस तरह मनुष्य के अस्थिर मन के भटकने से अनेक तरह के विचारों की उत्पत्ति होने लगती हैं और मनुष्य का मन एकादशी तिथि के व्रत के आचार-व्यवहार का शास्त्रानुसार विधानों को करने में विघ्नों को उत्पन्न करके उन विधानों को पूर्ण नहीं करने देता है।




चित्त की एकाग्रता के आवेग पर पूर्णरूपेण नियंत्रण करते हुए वास्तविक या सत्वगुण प्रधान मन में उत्पन्न होने वाली चेष्टा का निर्वाह करना बहुत ही जरूरी होता हैं, इसलिए मनुष्य को एकादशी तिथि के व्रत के दिन चावल को एवं चावल से बनी हुई वस्तुओं को खाना मना किया गया हैं। 




Thursday, December 7, 2023

December 07, 2023

तिलक में चावल के दानें का क्या महत्त्व हैं?(What is the importance of rice grains in Tilak?)


तिलक में चावल के दानें का क्या महत्त्व हैं?(What is the importance of rice grains in Tilak?):-हिन्दुधर्म में प्रत्येक पूजाकर्म को करते समय हर कर्म का विशेष रूप से महत्व होता हैं, जिससे मनुष्य को उस कर्म को करते समय उस कर्म का फल मिल सके। हिन्दुधर्म में मनुष्य के मस्तकं के बीच का भाग खाली होने से मनुष्य के द्वारा किये गए समस्त मांगलिक कार्य जैसे-पूजा, हवनादि का पूर्ण फल नहीं मिल पाता है। सुषुम्ना नाड़ी को केन्द्रीयभूत मानते हुए भृकुटि और ललाट के बीच के भाग पर तिलक धारण किया जाता है, जिससे मनुष्य के मस्तकं को अच्छी सोच को उत्पन्न करके बुरे विचारों का अंत हो सके। पूजा-कर्म करते समय पुरोहित या स्वयं मनुष्य के द्वारा मस्तकं पर तिलक लगाने का विधान होता हैं, क्योंकि मस्तक को पूजा-कर्म के समय खाली रखना अशुभ माना जाता हैं।




What is the importance of rice grains in Tilak?






कठोपनिषद के मतानुसार:-कठोपनिषद ग्रन्थ में वर्णित विचारों के अनुसार मस्तकं के सम्मुख जगह से एक मुख्य सुषुम्ना नाड़ी जो कि ऊपर ओर गति करते हुए जीवन-मरण के बंधन से से मुक्ति का पथ देती हैं, दूसरी नाड़ियों से प्राण के निकलने के बाद शरीर में एक जगह से गति कर सके और आज्ञाचक्र में जागृत के भाव को उत्पन्न कर सके और मस्तकं में सक्रियता और मन की भीतरी चेतना को शीघ्रता से अचानक रूप से बढ़ोतरी करने में सहायक होने से तिलक के बाद मस्तकं पर दाने लगाने के महत्त्व की जानकारी मिलती हैं। अपने निवास स्थान या धार्मिक पूजा कर्म करते समय तिलक लगाने के बाद हमेशा चावल के दाने तिलक के ऊपर लगाएं जाते हैं।  


वैज्ञानिक तौर पर:-जब मनुष्य के द्वारा अपने निवास स्थान या धार्मिक पूजा कर्म करते समय पहले तिलक मस्तक पर लगाया जाता हैं, जिससे मस्तक में उत्पन्न तीक्ष्ण ऊष्मा से राहत मिल जावें और मनुष्य के मस्तक के द्वारा सोच-विचार के किये गए कार्य से शांति एवं शीतलता मिल सके।



जब मस्तक पर तिलक करके चावल को लगाते है क्योंकि चावल को पूजा-कर्म में पवित्रता एवं शुद्धता का स्वरूप माना जाता है।



धर्म शास्त्रों के अनुसार:- समस्त तरह के यज्ञ-हवनादि में देवी-देवताओं को अर्पण करने वाला शुद्ध एवं निर्मल धान्य रूप में माना गया है।



पूजा-पाठ कर्म करते समय:-चावल को पूजा-पाठ कर्म करते समय अक्षत कहा जाता हैं।



अक्षत का मतलब:-जिसका स्वरूप क्षत या खंडित न हुआ हो, जो टूटा-फूटा स्वरूप में न होकर सर्वांग रूप के अस्तित्व में होता हैं या जो अपने अस्तित्व से युक्त होता हैं, उसे अक्षत कहते हैं। 



जब तिलक करने के बाद कच्चे चावल के दाने को मस्तकं पर लगाने से निश्चित एवं स्थिर स्वरूप वाले सार्थक सोच-विचार को उत्पन्न करके संचलन की क्षमता प्रदान करते हैं। इसलिए मनुष्य के मन में अच्छी बातों को अपने कर्म में कामयाबी के भाव को उत्पन्न करने में सहायक होने से चावल के दाने का उपयोग किया जाता है।



पूजा कर्म की थाली में तिलक लगाने के लिए कुमकुम, चन्दन आदि, कुसुम, मीठी वस्तु जैसे-गुड़ या मिठाई, पांच धान्य, मौली और चावल आदि होते हैं। इस तरह कोई भी पूजाकर्म करते समय पूजा बिना चावल के अधूरी समझी जाती हैं। चावलों को शुद्धता का स्वरूप मानते हुए पूजा कर्म में तिलक लगाने के बाद मस्तकं पर चावल दानों का उपयोग लिया जाता हैं। 



पूजा कर्म में कुमकुम के तिलक को लगाने के बाद में चावल के दानों को लगाने से आस-पास के वातावरण में उत्पन्न निराशाजनक सोच की क्षमता पर अंकुश लग सके और मनुष्य के मन में आशावादी सोच की क्षमता का विकास हो सके। इस तरह से चावल के दानों को तिलक लगाने के बाद मस्तकं में लगाने पर आशावादी सोच क्षमता का संचार होकर निराशाजनक सोच की क्षमता पर विजय पा सके और अपने मन को एक जगह पर केंद्रित कर पावे।



ज्योतिष शास्त्र के अनुसार:-ज्योतिष शास्त्र में चावल व मन का कारक चन्द्रमा ग्रह को माना जाता हैं, चावल की उत्पत्ति जल में होती हैं, उसी तरह मन की गति भी पानी की तरह चंचल होती हैं, जो कि हर समय चलायमान होता हैं, जिससे मन में कई तरह के विचारों का जन्म होता हैं। जब चावल के दाने को मस्तकं पर धारण करने पर मन में जल के भाव से शीतलता मिल जाती हैं।




चावल के दाने को मस्तकं पर नहीं लगाने पर:-जब पूजा-कर्म करते समय केवल कुमकुम का तिलक मस्तकं और चावल के दाने को मस्तकं पर नहीं लगाते है, तब यह पूजा-कर्म के विपरीत होता हैं, मनुष्य के मन में आशावादी भावना जागृत नहीं हो पाती हैं और मन के अंदर बुरे विचारों का जन्म होने लगता हैं, जिससे मनुष्य का मन भटकने लगता हैं और उसको शांति नहीं मिल पाती हैं, इसलिए पूजा-कर्म करते समय मस्तकं पर तिलक लगाने के बाद में चावल के दानों को लगाना चाहिए। मनुष्य को पूजा-कर्म करते समय अपने मस्तकं पर तिलक लगाने के बाद में अवश्य ही चावल के दानों को लगाना चाहिए।



उपरोक्त बातों की जानकारी के आधार पर तिलक में चावल के दाने को माथे पर लगाने का महत्त्व सिद्ध होता हैं।



Saturday, November 4, 2023

November 04, 2023

श्री सालासर बालाजी की आरती अर्थ सहित(Shri Salasar Balaji ki Aarti With Meaning)

श्री सालासर बालाजी की आरती अर्थ सहित(Shri Salasar Balaji ki Aarti With Meaning):-श्री सालासर बालाजी का मुख्य स्थान राजस्थान राज्य में स्थित चुरू जिले के सालासर गांव में है। श्री सालासर बालाजी की प्रतिमा दाढ़ी-मूँछो वाली है। जो कि अपनी शक्तियों के द्वारा अपने भक्तों की समस्त मन की कामनाओं को पूरा करते है। 



Shri Salasar Balaji ki Aarti With Meaning



श्री सालसर बालाजी की आरती अर्थ सहित:-श्री सालासर बालाजी को हनुमानजी के रूप में जाना जाता है, उनको अनेक रूपों का वर्णन मिलता है, इनके अनेक नाम भी हैं जिनमें एक नाम सालासर बालाजी है, तो इनको खुश करने के लिए इनकी आरती को करने से पूर्व आरती के भावों का ज्ञान होना चाहिए। उसके बाद ही आरती को करना चाहिए।



जयति जय जय बजरंग बाला,


कृपा कर सालासर वाला।


अर्थात्:-हे बजरंगबली जी! जय-जयकार हो, बजरंगबली जी की, आप सब पर कृपा दृष्टी कर दीजिए। हे सालासर के श्री हनुमानजी आपकी अरदास करता हूँ।



चैत सुदी पूनम को जन्मे,


अंजनी पवन खुशी मन में।


अर्थात्:-हे बजरंगबली जी! चैत्र मास के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा तिथि को आपका जन्म हुआ था। तब अंजनी माता और पवन जी बहुत खुश होकर मन से खुशी मनाने लगे थे।



प्रकट भये सुर वानर तन में,


विदित यस विक्रम त्रिभुवन में।


अर्थात्:-हे बजरंगबली जी! आपके शरीर में देव के रूप वानर रूप प्रकट हुआ था, चारों तरफ इस रूप की जानकारी तीनों लोकों में हो गई और आपकी शक्ति की जानकारी हो गई।



दूध पीवत स्तन मात के,


नजर गई नभ ओर।


अर्थात्:-हे बजरंगबली जी! आप अपनी माता अंजनी की गोद में उनके स्तनों से दूध पी रहे थे, तब आपकी नजर आकाश की ओर गई।



तब जननी की गोद से पहुंचे,


उदयाचल पर भोर।


अर्थात्:-हे बजरंगबली जी! तब आप अपनी माता अंजनी की गोद से उतर कर जहां से सूर्य उदय होता है उस पर्वत पर आप प्रातःकाल ही पहुंच गए।



अरुण फल लखि रवि,


मुख डाला कृपा कर।।1।।


तिमिर भूमण्डल में छाई,


चिबुक पर इन्द्र बज्र बाए।


अर्थात्:-हे बजरंगबली जी! जब आप उदयाचल पर्वत पर पहुंचे तब आपने लाल रंग का सूर्य को फल समझकर अपने मुहं में ले लिया था। समस्त तीनों लोकों में अंधेरा छा गया तब इंद्रदेव ने आपसे कहा कि उस लाल रंग के फल के रूप में सूर्यदेव है उनको अपने मुख से आजाद करो तब आप नहीं माने तब इंद्रदेव ने अपने वज्र का प्रहार किया था तब आपकी ठोड़ी पर वज्र का प्रहार हो गया था।



तभी से हनुमत कहलाए,

द्वय हनुमान नाम पाये।।


अर्थात्:-हे बजरंगबली जी! इस तरह व्रज के प्रहार से आपकी ठोड़ी खण्डित हो गई थी, तब से आपका नाम हनुमत पड़ा था। इस तरह से आपको हनुमान का नाम प्राप्त हुआ था।


जयति जय जय बजरंग बाला,

कृपा कर सालासर वाला।


अर्थात्:-हे बजरंगबली जी! जय-जयकार हो, बजरंगबली जी की, आप सब पर कृपा दृष्टी कर दीजिए। हे सालासर के श्री हनुमानजी आपकी अरदास करता हूँ।



।।इति श्री सालासर बालाजी की अर्थ सहित संपूर्ण।।


।।अथ श्री सालासर बालाजी की आरती।।


जयति जय जय बजरंग बाला,


कृपा कर सालासर वाला।


चैत सुदी पूनम को जन्मे,


अंजनी पवन खुशी मन में।


जयति जय जय बजरंग बाला,


कृपा कर सालासर वाला।


प्रकट भये सुर वानर तन में,


विदित यस विक्रम त्रिभुवन में।


जयति जय जय बजरंग बाला,


कृपा कर सालासर वाला।


दूध पीवत स्तन मात के,


नजर गई नभ ओर।


जयति जय जय बजरंग बाला,


कृपा कर सालासर वाला।


तब जननी की गोद से पहुंचे,


उदयाचल पर भोर।


जयति जय जय बजरंग बाला,


कृपा कर सालासर वाला।


अरुण फल लखि रवि,


 मुख डाला कृपा कर।।1।।


तिमिर भूमण्डल में छाई,


चिबुक पर इन्द्र बज्र बाए।


जयति जय जय बजरंग बाला,


कृपा कर सालासर वाला।


तभी से हनुमत कहलाए,


द्वय हनुमान नाम पाये।।


जयति जय जय बजरंग बाला,


कृपा कर सालासर वाला।


।।इति श्री सालासर बालाजी की आरती।।


।।जय बोलो श्री सालासर बालाजी की जय हो।।


।।जय बोलो पवनपुत्र श्री बजरंगबली की जय हो।









Tuesday, October 17, 2023

October 17, 2023

आरती गिरधारी जी की अर्थ सहित(aarti girdhari ji ki with meaning)

आरती गिरधारी जी की अर्थ सहित(aarti girdhari ji ki with meaning):-भगवान श्रीकृष्ण जी को अनेक तरह के नामों से जाना जाता है, उनके नाम जैसे वासुदेव, कृष्ण, गोपालक, गिरिधरी, कान्हा, मुरारी, केशव, माधव, यशोदापुत्र आदि हैं। उन नामों में से एक नाम गिरधारी भी है, जिसमें भगवान कृष्ण अपनी लीलाओं के द्वारा समस्त गोकुलधाम को आनन्दित किया था। श्रीकृष्णजी का नाम गिरिधर पड़ने का कारण था। भगवान श्रीकृष्णजी ने अपनी उंगलियों से गोवर्धन पर्वत को उठाया था, इसलिए उनको गिरिधर भी कहते है। जब इंद्रदेव को अपने ऊपर अभिमान हो गया। उनके बिना संसार नहीं चल सकता है, वे अपने-आपको ईश्वर तुल्य मानने लगे। समस्त जगत के निवासियों से अपनी पूजा करवाना चाहते थे। क्योंकि इंद्रदेव को वर्षा ऋतु एवं बारिश का स्वामी माना जाता है, वे अपनी पूजा मानव जाति को करवाने के लिए बाध्य करने लगे। जिससे उनके भय से मानव उनकी पूजा करते थे। 



Aarti with Girdhari ji's meaning



इस तरह उनकी इस जबर्दस्ती की पूजा का जब कृष्णजी को पता चलता है, तब कृष्णजी ने अपने समस्त गोकुलवासियों को कहा कि आप सब इंद्रदेव की पूजा की बजाएं गोवर्धन पर्वत को पूजन किया करे, क्योकि यह गोर्वधन पर्वत समस्त मानव जाति की रक्षा करते है। जो कि प्रकृति की विभिन्न तरह की मुशीबतों से बचाता है। इस तरह गोकुलवासियों ने श्रीकृष्णजी की बातें के अनुसार इंद्रदेव की पूजा करना छोड़ दिया और गोर्वधन पर्वत की पूजा करने लगे जब इंद्रदेव को पता चला तो उन्होंने इतनी तेज वर्षा की चारों तरफ सब कुछ पानी से लबालब हो गया, इस तरह की भारी वर्षा से बचने के लिए सब परेशान हो गए अपने जीवन को किस तरह बचाए। तब श्रीकृष्णजी ने अपनी उंगली पर गोर्वधन पर्वत को उठाई उनके नीचे समस्त गोकुलवासियों को आने के लिए कहा था। इस तरह इंद्रदेव को आखिर में अपनी हार स्वीकार करनी पड़ी और इंद्रदेव का घमंड चूर-चूर हो गया। इस तरह श्रीकृष्णजी का नाम गिरिधर पड़ा था। तब से गोर्वधन पर्वत की पूजा विधान शुरू हुआ था। जो आज के युग तक चल रहा हैं।




इसलिए भगवान श्रीकृष्णजी की आरती को हमेशा करते रहने पर समस्त तरह के दुःखो का अन्त हो जाता हैं और अंत मोक्ष गति मिल जाती है। भगवान कृष्णजी को सच्चे मन से उनकी आराधना करनी चाहिए।



आरती श्री गिरधारी जी की अर्थ सहित:-भगवान गिरधारी की आरती करने से पूर्व आरती में लिखे गए शब्दों के अर्थ को समझकर आरती करने से आरती के बारे में जानकारी मिल जाती हैं। इसलिए आरती के अर्थ को समझकर करने से शुभ फल मिलता है, जो आरती का अर्थ इस तरह है:


जय श्री कृष्ण हरे, प्रभु जय जय गिरधारी।


दानव-दल बलिहारी, गो-द्विज हित कारी।।


भावार्थ्:-हे श्रीकृष्णजी! आपको कृष्ण के नाम, हरि का नाम और गिरधारी के नाम से जाना जाता है। आपकी जय-जयकार हो। राक्षस की शक्ति को नष्ट करके उनको को मारने वाले एवं गायों एवं ब्राह्मणों का हित करने वाले हो।



जय गोविन्द दयानिधि, गोवर्धन धारी।


वंशीधर बनवारी, ब्रज जन प्रियकारी।।


भावार्थ्:- हे गोविन्द! आपकी जय-जयकार करें, आप तो दया के सागर हो, आपने तो उंगली पर गोर्वधन पर्वत को उठाने वाले, वंशी को अपने हाथ में धारण करने वाले बनवारी और ब्रज वासियों के दुलारे हो।



गणिका गोध अजामिल गणपति भयहारी।


आरत-आरति हारी, जय मंगल कारी।।


भावार्थ्:-हे गिरधारी! आपके नाम में भी इतना बल होता है, जिस तरह चमेली के फूल दूर होने पर भी अपनी सुंगध से महकाता है। आप तो मादा घड़ियाल, गिरगिट या छिपकली आदि के डर को हरने वाले एक पापी ब्राह्मण अजामिल था, जिसका उद्धार उसके पुत्र नारायण की मृत्यु होने पर उसकी याद में नारायण नाम का उच्चारण करते-करते मोक्ष को पाया, जो गणपति जी के डर को हरण करने वाले और शांति पूर्वक अपने विराग का हरण करने वाले और जो सभी तरह कल्याण करने वाले होते है, उनकी जय-जयकार हो।



गोपालक गोपेश्वर, द्रौपदी दुखहारी।


शबर-सुता सुखकारी, गौतम-तिय तारी।।


भावार्थ्:-हे माधवजी! आपका नाम गायों को पालने के कारण गोपालक पड़ा था, गोपियों के स्वामी हो, द्रौपदी के दुःखो को दूर करने वाले हो, शबरी का उद्धार करके उसको सुख देने वाले हो एवं गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के दुःख को दूर करके उसका उद्धार करने वाले होते हो।



जन प्रहलाद प्रमोडक, नरहरि तनु धारी।


जन मन रंजनकारी, दिति-सुत संहारी।।


भावार्थ्:-हे गिरिधारी! आप तो सभी मनुष्य को एवं प्रहलाद के दुःखो को दूर करने के लिए नृसिंह रूप को धारण करने वाले हो, समस्त मनुष्य को मनभावन सुख को देने वाले हो और दक्ष की सुंदर पुत्री एवं ऋषि कश्यप की पत्नी के द्वारा उत्पन्न पुत्र की आभा का संहार करने वाले होते हो।



टिट्टिभ-सुत संरक्षक, रक्षक मंझारी।


पाण्डु सुवन शुभकारी, कौरव मद हारी।।


भावार्थ्:-हे केशवजी! आप तो जमींनपर घोंसला बनाने वाले टिटिहरी पक्षी या टिड्डी को पुत्र के रूप में मानकर उनका पालन-पोषण करने वाले हो और उनकी रक्षा करने की स्वीकृति देने वाले होते हो। जिस तरह से पाण्डु जो की एक पीले रंग की मिट्टी होती है उसका उपयोग आभूषण आदि बनाने में किया जाता है, वह मिट्टी फायदेमंद होती है और कौरव वंश में जब घमंड में चूर हो जाते है तब उनके घमंड को तोड़ने वाले हो।




मन्मथ-मन्मथ मोहन, मुरली-रव कारी।


वृन्दाविपिन बिहारी, यमुना तट चारी।।


भावार्थ्:-हे श्रीकृष्णजी! आपके मुरली की ध्वनि इतनी मधुर होती है कि आप तो कामदेव के समान सभी को मोहित कर देते हो। वृन्दा जंगल में भृमण करने वाले आपको बिहारी भी कहते हैं और अपनी इच्छानुसार यमुना के किनारों पर घूमने वाले ही।



अघ-बक-बकी उधारक, तृणावर्त तारी।


बिधि-सुरपति मदहारी, कंस मुक्तिकारी।।


भावार्थ्:-हे केशव जी! आप तो पापिओं के द्वारा बिना मतलब के बोलने पर ध्यान नहीं देते हो, लेकिन पापियों के माफी मांगने पर उनके बचे हुए जीवन का उद्धार कर देते हो, बवंडर के समान विशाल दैत्य का भी आप तारण कर देते हो, जब इंद्रदेव जब मद में चूर हो जाते है तब उनकी मद के नशे को हरके उनको अनुकूलता प्रदान करते हो और कंस जैसे दैत्य से भी मुक्ति दिलवाने वाले हो।



शेष, महेश, सरस्वती, गुन गावत हारी।


कल कीरति विस्तारी, भक्त भीति हारी।।


भावार्थ्:-हे नारायण! आपके गुणों का बखान तो शिवजी, माता सरस्वती जी एवं शेषनाग करते रहते है, आपकी कीर्ति तो कल भी थी और आज भी है। आप तो अपने भक्तों के डर को हरने वाले हो।



'नारायण' शरणागत, अति अघ अघहारी।


पद-रज पावनकारी, चाहत चितहारी।।


भावार्थ्:-हे नारायण! आप तो आपके शरण में आये हुए शत्रु की भी रक्षा करने वाले होते है, आपके शरण में आये हुए बहुत ही पापी एवं दुष्कर्मी को भी माफ कर देते हो। आपके पैरों की धूल भी पावन करने वाली होती है और आप तो सभी का हित करना चाहते हो।



      ।।इति श्री गिरधारी जी की आरती।।


    ।।अथ आरती श्री गिरधारी जी की।।


जय श्री कृष्ण हरे, प्रभु जय जय गिरधारी।


दानव-दल बलिहारी, गो-द्विज हित कारी।।


जय श्री कृष्ण हरे, प्रभु जय जय गिरधारी।


दानव-दल बलिहारी, गो-द्विज हित कारी।।



जय गोविन्द दयानिधि, गोवर्धन धारी।


वंशीधर बनवारी, ब्रज जन प्रियकारी।।


जय श्री कृष्ण हरे, प्रभु जय जय गिरधारी।


दानव-दल बलिहारी, गो-द्विज हित कारी।।



गणिका गोध अजामिल गणपति भयहारी।


आरत-आरति हारी, जय मंगल कारी।।


जय श्री कृष्ण हरे, प्रभु जय जय गिरधारी।


दानव-दल बलिहारी, गो-द्विज हित कारी।।



गोपालक गोपेश्वर, द्रौपदी दुखहारी।


शबर-सुता सुखकारी, गौतम-तिय तारी।।


जय श्री कृष्ण हरे, प्रभु जय जय गिरधारी।


दानव-दल बलिहारी, गो-द्विज हित कारी।।



जन प्रहलाद प्रमोडक, नरहरि तनु धारी।


जन मन रंजनकारी, दिति-सुत संहारी।।


जय श्री कृष्ण हरे, प्रभु जय जय गिरधारी।


दानव-दल बलिहारी, गो-द्विज हित कारी।।



टिट्टिभ-सुत संरक्षक, रक्षक मंझारी।


पाण्डु सुवन शुभकारी, कौरव मद हारी।।


जय श्री कृष्ण हरे, प्रभु जय जय गिरधारी।


दानव-दल बलिहारी, गो-द्विज हित कारी।।



मन्मथ-मन्मथ मोहन, मुरली-रव कारी।


वृन्दाविपिन बिहारी, यमुना तट चारी।।


जय श्री कृष्ण हरे, प्रभु जय जय गिरधारी।


दानव-दल बलिहारी, गो-द्विज हित कारी।।



अघ-बक-बकी उधारक, तृणावर्त तारी।


बिधि-सुरपति मदहारी, कंस मुक्तिकारी।।


जय श्री कृष्ण हरे, प्रभु जय जय गिरधारी।


दानव-दल बलिहारी, गो-द्विज हित कारी।।



शेष, महेश, सरस्वती, गुन गावत हारी।


कल कीरति विस्तारी, भक्त भीति हारी।।


जय श्री कृष्ण हरे, प्रभु जय जय गिरधारी।


दानव-दल बलिहारी, गो-द्विज हित कारी।।



'नारायण' शरणागत, अति अघ अघहारी।


पद-रज पावनकारी, चाहत चितहारी।।


जय श्री कृष्ण हरे, प्रभु जय जय गिरधारी।


दानव-दल बलिहारी, गो-द्विज हित कारी।।



      ।।इति आरती श्री गिरधारी जी की।।


।।जय बोलो गिरधारी बांके बिहारी जी की जय हो।।


        ।।जय बोलो केशवजी की जय हो।।