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Saturday, January 30, 2021

अथ शनिवार व्रत करने के विधि के नियम,कथा और व्रत के फायदे(The rules of the Law of Saturday fast, the benefits of Katha, Aarti and fasting)




अथ शनिवार व्रत करने के विधि के नियम,कथा और व्रत के फायदे(The rules of the Law of Saturday fast, the benefits of Katha, Aarti and fasting):-शनिवार के दिन को भगवान शनैश्चर जी की पूजा-आराधना करनी चाहिए। भगवान शनैश्चर जी न्याय के देवता है और सबके साथ न्याय करते है। भगवान शनैश्चर जी सबको अपनी एक नजर दृष्टि से देखते हुए कर्मो के अनुसार नतीजे देते है,इसलिए मनुष्य को शनिदेवजी को खुश रखने के लिए और शनि ग्रह के बुरे असर को खत्म करने के लिए उनकी कृपा दृष्टि चाहिए जिससे मनुष्य को सुख और परेशानी से मुक्ति मिल सके।



शनिवार के व्रत की विधि के नियम:-मनुष्य को शनिदेवजी के व्रत को करने से पहले नियमों को ध्यान में रखते हुए उन नियमों का पालन करते हुए ही शनिवार का व्रत करना चाहिए।

मनुष्य को शनिदेवजी को खुश करने के लिए किसी भी माह के शुक्लपक्ष के पहले शनिवार के दिन से व्रत को करना चाहिए।

◆मनुष्य को अपने मन की पूर्ति के लिए उन्नीस या इकतीस या इक्यावन व्रत को मन में सोचकर संकल्प से व्रत को करना चाहिए।

◆मनुष्य को शनिवार के दिन प्रातःकाल अपनी दैनिक दिनचर्या को पूरा करके स्नानादि से निर्वित होकर काले रंग के कपड़े या काले रंग का अंगवस्त्र पहनना चाहिए।

◆मनुष्य को तेल शनिवार मांगने वाले को देना चाहिए।

मनुष्य अपना मुख पश्चिम दिशा की करके एक लोटा जल में थोड़े काले तिल,लौंग, दूध,शकर आदि भेगा करके पीपल या शमी-खेजड़ा के वृक्ष की ओर देखते हुए जल को अर्पण करने चाहिए।  

मनुष्य को ऊँ प्रां प्रीं प्रौं सः शनये नमः बीज मंत्र को अपने मन में पूरे दिन में जपते हुए दिन को व्यतीत करना चाहिए। 

◆शनि स्रोत का पाठ भी मनुष्य को करना चाहिए।

◆मनुष्य को कबूतरों और काली या लाल चींटियों के बिल के पास जाकर बिल के ऊपर शक्कर तेल में सेके हुए आटे को कीड़ी नगरा के रूप में डालना चाहिए। 

◆मनुष्य को उड़द के दाल से बने हुए पकोड़े को काले कुत्ते को खिलाना चाहिए।

शनिवार व्रत की पूजा सामग्री:-भगवान शनैश्चर जी की पूजा के विशेष कर काले तिल,काले कपड़े और उड़द के पूजा की जाती है।



मनुष्य को भोजन के रूप में:-जो मनुष्य शनिवार का व्रत करता है उनको खाने के रूप में उड़द की दाल से बनाये हुए व्यंजन को  और सभी तरह के फलों में से विशेष कर केला और तेल से बने चीजो को खाने से पहले पांच से साथ कवे को खाने के बाद में अन्य वस्तुओं को खाना चाहिए।



अथ शनिवार व्रत की कथा शुरुआत:-मनुष्य को कोई भी व्रत को करने के लिए व्रत के सम्बन्धित कथा की सुनना चाहिए। एक बार एक समय में रवि,सोम,भौम,सौम्य,जीव,भृगु,सेंहिकीय और शिखी आदि सब ग्रहों में एक-दूसरों में तर्क-वितर्क से टकराव होने लगा कि हम सभी नव ग्रहों में सबसे बड़ा ग्रह कौन सा है?सभी ग्रहों अपने आपको बड़ा कहते थे। जब कोई फैसला नहीं हो पाया तो सभी आपस में लड़ते-झगड़ते देवों के राजा इंद्र के पास जाकर कहने लगे कि हम सब नवग्रहों में से सबसे बड़ा ग्रह कौन सा है?आप ही सबका न्याय करके बताये। इस तरह के प्रश्न से देवताओं के राजा घबरा गए और सोचने लगे कि मैं किस ग्रह को सबसे बड़ा बताओ और किस ग्रह को छोटा बताओ।

देवताओं के राजा अपनी वाणी से कुछ भी नहीं बता सके और उन्होंने कहा कि एक समाधान मैं तुम सबको बताता हूँ कि भू लोक में एक राजा विक्रमादित्य है जो कि सबके कष्टों का समाधान करने वाले है उनके पास जाकर उनसे ही अपना समाधान करवावें।इस तरह देवताओं के राजा के बताए अनुसार सब ग्रह देवलोक से पृथ्वीलोक की ओर जाते है और महाराज विक्रमादित्य के दरबार की सभा में उपस्थित होकर राजा विक्रमादित्य से प्रश्न करने लगे कि हम सबमे बड़ा ग्रह कौनसा है?इसका समाधान करें।

इस तरह महाराजा विक्रमादित्य गहरी सोच में पड़ गए किसको बड़ा और किसको छोटा कहुँ।जिसको छोटा कहूंगा वह मेरे ऊपर गुस्सा होंगे।इस तरह उनको एक उपाय सुझा और उन्होंने सोना,चाँदी, काँसा, पीतल,सीसा,रांगा, जस्ता,अभ्रक और लोकन के नौ धातुओं के आसन तैयार करवाये।सभी आसनों को क्रम से सबसे आगे सोना के पीछे,चाँदी इस  तरह रखते हुए अंत मे सबसे पीछे लोखन को रखा।इस तरह आसन को रखने के बाद में महाराजा विक्रमादित्य ने सभी ग्रहों को आप अपना-अपना आसन लेवे।जिसका आसन आगे था वह बड़ा और जिनका आसन पीछे था वह सबसे छोटा समझयी।इस तरह शनि महाराज का आसन सबसे पीछे था। इस तरह शनि महाराज ने अपने मन में सोचा कि सबसे पीछे मेरा आसन होने से मैं मेरा महत्व सबसे कम और मैं सबसे छोटा हु,इस फैसले से उनको गुस्सा आ गया।उन्होंने कहा कि महाराजा आप नहीं जानते कि रवि ग्रह एक राशि में एक महीने तक,सोम ग्रह एक राशि में सवा दो दिन, भौम ग्रह डेढ़ महीने तक,सौम्य ग्रह एवं भृगु ग्रह एक राशि में एक महीने तक,जीव ग्रह एक राशि में तेरह महीने तक घूमते हुए एक चक्कर को पूरा करते है और मैं एक राशि में ढाई साल से लेकर साढ़े सात साल तक रहता हूं तो मैं कैसे छोटा हुआ।सभी बड़े-बड़े देवताओं को मैने बहुत ही बड़े कष्ट दिए है। हे महाराज!आप सुनो। की मेने भगवान रामजी को चौदह साल का वनवाश मेरे कारण भोगना पड़ा।

रावण के ऊपर मेरा साया आया तो रावण को वानरों की सेना के द्वारा भगवान रामजी लंका पर धावा बोलकर जीतकर रावण के वंश को समूल नष्ट कर दिया था।हे महराज आप सचेत रहना में आ रहा हूँ!इतना कहने के बाद शनि देव चले गए और विक्रमादित्य को सचेत रहने को कहा तो विक्रमादित्य ने कहा कि जो भाग्य में लिखा है तो वह भोगना ही पड़ेगा।इस तरह सभी ग्रह खुश होकर चले गए और शनिमहाराज गुस्से से लाल पीले होकर चले गए।

कुछ समय बीतने पर जब शनि महाराज की दशा साढ़े सात साल के लिए विक्रमादित्य पर आए तो शनिदेवजी घोड़ो के सौदागर बनकर उनके राज्य में आये।इस तरह की सूचना मिलने पर राजा विक्रमादित्य ने अपनी सेना के लिए नये-नये घोड़ो को खरीदने के लिए अश्वपाल स कहा और उसको आदेश दिया कि बढ़िया घोड़ो को छुहकर अपनी सेना के लिए लावे।तब अश्वपाल ने अच्छी किस्म के घोड़ो को लाकर राजा से निवेदन किया कि आप इस घोड़े की सवारी करे। जैसे ही राजा विक्रमादित्य घोड़े बैठे तो घोड़ा हवा से बाते करते हुए राजा विक्रमादित्य को बहुत दूर लेकर निकल गया और फिर वह घोड़ा गायब हो गया।इस तरह राजा विक्रमादित्य रास्ते को खोजने के चक्कर में जंगल मे मारे-मारे फिरने लगे।राजा भूखे-प्यासे कष्टो को भोगते हुए एक गाय को करने वाले को देख और उस गाय के चरवाहे से कहा कि मुझे भूख और प्यास लगी है कृपया करके मुझे पानी पिलाओ।

ग्वाले ने राजा को पानी पिलाया तब राजा खुश अपने हाथ की अंगुली में पहने हुए अंगूठी को निकाल कर उस ग्वाले को दे दी और राजा नगर की तरफ चल पड़े।

राजा विक्रमादित्य नगर में सेठ की दुकान पर जाकर बैठ गए और अपने आपको उज्जैन नगर का रहने वाला तथा वीका नाम उस सेठ को बताया। सेठ ने उनको एक अच्छा आदमी समझकर पानी पीने को दिया। किस्मत वश उस दिन उस सेठ की दुकान पर ज्यादा समान बिका तो उस सेठ ने उनको अपने लिए किस्मतवाला मानकर अपने घर ले जाकर उनको खाना खिलाया।खाना करते समय विक्रमादित्य ने एक विस्मयकारी घटना को देख की,जिस खूंटी पर हार लटक रहा था उस हार को खूंटी ने निगल लिया था।

भोजन के बाद जब सेठ लौट कर आये तो उनको उस खूंटी पर हार नहीं देखा तब सेठ ने सोचा कि उस कमरे में वीका के अलावा कोई दूसरा आदमी नहीं था। इसलिए वीका ने हार को चुरा लिया है जब वीका को पूछा तो वीका ने मना किया कि मैने हार की चोरी नहीं कि है आप मेरी तलाशी लेकर देखे की मेरे पास हार है या नहीं। तब सेठ नहीं माना और वीका को चोर मानते हुए उस सेठ ने अपने पांच-सात लोगों को बुलाकर वीका को पकड़कर नगर के कोतपाल के पास ले गए और कोतपाल ने उस वीका को अपने राजा के दरबार की सभा मे ले जाकर राजा से कहा कि हे महाराज हम एक चोर को पकड़कर आपके पास लाये है इनका न्याय कीजिये। तब सेठ से राजा ने पूछा कि हे सेठ क्या हुआ मुझे पूरा वृतान्त बताओ तब सेठ ने राजा को बताया कि हे महाराज मेने इसे सीधा और भला जानकर अपने घर पर ले जाकर भोजन करवाया।भोजन के वक्त मेरे घर में इसके सिवाय उस कमरे कोई नहीं था इसलिए इसने उस कमरे की खूंटी पर रखे हार की चोरी की लेकिन इसने तो मेरे घर पर ही चोरी की है। इस तरह राजा ने सेठ की बात को सुनकर बिना उस वीका से पूछे ही आदेश दिया की इस चोर के दोनों हाथ-पैर काटकर चौरंगिया किया जाए।उसके बाद राजा के आदेश पर तुरंत ही वीका के दोनों हाथ-पैर काट दिए गए।

थोड़े समय के बीतने के बाद एक तेली अपने घर पर ले गया और उसको कोल्हू पर बिठा दिया।वीका उस कोल्हू पर बैठकर अपनी जिव्हा से बैल को चलाता था। 

उस समय में राजा की शनिदेवजी दशा खत्म हो गयी।जब वर्षा ऋतु के समय में राजा बने वीका ने अपनी मीठी धुन में मल्हार धुन गा रहा था ति उस मीठी धुन की आवाज उस नगर के राजा की लड़की के कानों में सुनाई पडी तो वह राजा की राजकुमारी उस राग पर मोहित हो गयी और अपनी सेविका को इस मीठी आवाज को गाने वाले के विषय में जानकारी लेने के लिए भेजा।

तब सेविका पूरे नगर में फिरते-फिरते उस तेली के घर पर पहुंची तो उसने देखा कि कोल्हे पर बैठा चौरंगिया उस धुन को गा रहा है।तब दासी ने पूरी जानकारी लेकर अपनी राजकुमारी को पूरी बात बताई तो उस राजकुमारी ने अपने मन में सोच की मैं इस मीठी मन को हरने वाली मल्हार राग को गाने वाले से ही विवाह करूँगी। प्रातःकाल के होते ही जब सेविका अपनी राजकुमारी को उठाने के गई तो उसने देखा कि राजकुमारी मन में अनशन व्रत लेकर सोई हुई है।

जब राजकुमारी के इस तरह के व्रत को जानकर सीधे रानी के कमरे में गयी और पूरी बात को बताया।इस तरह रानी अपनी राजकुमारी के कमरे में जाकर देखा और अपनी पुत्री मनभावनी से उदासी और चिंता के बारे में जानना चाहा तब मनभावनी ने अपनी राजमाता को अपने मन में धारण व्रत के बारे में बताया कि हे माँ! मैं उस मीठी मल्हार राग गाने वाले चौरंगिया से शादी करना चाहती हूँ, जो तेली घर पर कोल्हू पर बैठकर बैल को हांकता है और अपनी राग से बैल को चलता है।तब रानी ने कहा कि हे पगली पुत्री तू यह क्या कह रही?

तुमको तो किसी राज्य के नृप से शादी करनी है।तब राजकुमारी ने कहा कि माँ मैं तो मन में व्रत ले चुकी हूँ कि अपना इरादा नहीं छोडूंगी। इस तरह के अपनी पुत्री के व्रत को जानकर अपने स्वामी महाराज के पास जाकर पूरा बात अपनी पुत्री की बताती है।तब महाराज अपनी पुत्री को बहुत समझाते हुए कहते है कि मैं तत्काल अपने सेवकों और सन्देशवाहक को दूसरे राज्यो में भेजकर तुम्हारे लिए सुंदर,गुणवान और अच्छे राज-कुमार को ढूंढकर उनके साथ विवाह करवाऊंगा।

इस तरह की बातों से अपनी पुत्री को बहुत समझाया लेकिन राजकुमारी नहीं मानते हुए कहा-"कि हे महाराज पिताश्री मैं अपने व्रत को छोड़ दूंगी लेकिन मैं दूसरे से शादी नहीं करूंगी।" इस तरह की बात को सुनकर राजा ने गुस्से में आकर कहा कि यदि तेरी किस्मत में यह ही लिखा है तो जैसी तेरी इच्छा हो वैसा ही कर।  

राजा ने उस तेली को बुलाकर कहा कि तेरे घर में जो चौरंगिया है उसके साथ मैं अपनी राजकुमारी का लग्न करवाना चाहता हूँ।   

तब तेली ने कहा कि महाराज यह कैसे हो सकता है? राजा ने कहा कि किस्मत के लिखे हुई लेख को कोई भी नहीं बदल सकता है? 

तुम अपने घर जाकर शादी की तैयारी करो।राजा ने सभी तरह की तैयारी करके तोरण और बंदनवार लगवाकर अपनी पुत्री राजकुमारी का विवाह चौरंगिया के साथ करवा दिया।

रात के समय में चौरंगिया बना हुआ राजा विक्रमादित्य और राजकुमारी मनभावनी महल में सोये तब अधोरात्री के समय में शनिदेवजी ने विक्रमादित्य को सपना दिया और कहा कि राजन मुझको चोट बतलाकर तुमने कितनी पीड़ा और दुःख को भोगा हैं?

राजा विक्रमादित्य ने शनिदेवजी से माफी मांगी।शनिदेवजी ने राजा को माफ कर दिया और खुश होकर विक्रमादित्य को हाथ-पैर दिए।तब राजा विक्रमादित्य ने शनिदेवजी से अरदास की-"हे महाराज मेरी विनती को मंजूर करें,जिस तरह अपने मुझे कष्ट और पीड़ा दी है और ऐसा दुःख आप किसी दूसरे को नहीं देवे।"   

शनिदेवजी ने कहा-तुम्हारी विनती को मंजूर करता हूँ,जो कोई भी मानव मेरी कथा सुनेगा और कहेगा उसको मेरी दशा में कभी भी दुःख और कष्ट नहीं होगा जो हमेशा मेरा ध्यान करेगा या चींटियों को यत् डालेगा उसके सभी तरह की मन की इच्छाओं की पूर्ति होगी। इतना कहकर शनिदेवजी अंतर्ध्यान होकर अपने धाम को चले गए।

जब राजकुमारी मनभावनी की आँख खुली और उसने चौरंगिया को हाथ-पैर के साथ देखा तो आश्चर्यचकित हो गई उसको देखकर राजा विक्रमादित्य ने अपना सभी हाल कहा कि मैं उज्जैन राज्य का राजा,विक्रमादित्य हुन।यह घटना सुनकर राजकुमारी अधिक खुश हुई।

सुबह राजकुमारी से उसकी सखियों ने पिछली रात के हाल-चाल के बारे में पूछा तो उसने अपने पति विक्रमादित्य का सभी वृतांत बताया।तब सबने सुना तो अपनी-अपनी खुशी व्यक्त की और कहा कि ईश्वर ने आपकी मन की इच्छा को पूरा कर दिया।

जब उस सेठ ने यह घटना सुनी ति वह राजा विक्रमादित्य के पास आया और उनके चरणों में गिरकर माफी मांगने लगा कि आप पर मैने चोरी का मिथ्या आरोप लगाया।आप जो चाहे मुझे दण्ड दे।राजा ने कहा-मुझ पर शनिदेवजी का कोप था। इसी कारण यह सब दुःख मुझको प्राप्त हुए इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। 

तुम अपने घर जाकर अपना काम करो,तुम्हारा कोई गुनाह नहीं है।सेठ बोला-"महाराज मुझे तभी राहत मिलेगी जब आप मेरे घर चलकर प्रीतिपूर्वक भोजन करेंगे।" राजा ने कहा जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा ही करें। सेठ ने अपने घर जाकर अनेक तरह के सुंदर स्वादिष्ट व्यंजन बनवाए औरराज विक्रमादित्य को प्रीतिभोज दिया।

जिस समय राजा भोजन कर रहे थे तब एक आश्चर्यजनक हादसा घटते हुए सबको दिखाई दिया।जो खूंटी पहले हर निगल गई थी,वह अब हार उगल रही थी।जब भोजन समाप्त हो गया तो सेठ ने हाथ जोड़कर बहुत सी मौहरें राजा को सौगात की और कहा-"मेरी श्रीकंवरी नामक एक लड़की है उसका आप पाणिग्रहण करें।राजा विक्रमादित्य ने उसकी अरदास मंजूर कर ली। 

तब सेठ ने अपनी लड़की की शादी राजा के साथ कर दी और बहुत सा दान-दहेज आदि दिया।कुछ दिन तक उस राज्य में निवास करने के बाद राजा विक्रमादित्य ने अपने स्वसुर राजा से कहा कि अब मेरी इच्छा अपने राज्य उज्जैन जाने की है।

कुछ दिन के बाद राजा विक्रमादित्य विदा लेकर राजकुमारी मनभावनी, सेठ की लड़की तथा दोनों जगह से मिला दहेज में प्राप्त अनेक दास-दासी,रथ और पालकियों सहित राजा विक्रमादित्य उज्जैन की तरफ चले।

जब वें अपने राज्य के पास पहुंचे और पुरवासियों ने राजा के आने का सम्वाद सुना तो उज्जैन की सभी प्रजा उनकी अगवानी के लिए आई।खुशीपूर्वक राजा विक्रमादित्य अपने महल में पधारे।   

सारे राज्य में भारी उत्सव मनाया गया और रात्रि को दीपमाला की गई।दूसरे दिन राजा ने अपने पूरे राज्य में ऐलान करवाया की शनिदेवजी सब ग्रहों में सर्वोपरि है।मैंने इनको छोटा बतलाया इसी से मुझको यह सब दुःख भोगने पड़े।

इस तरह पुरे राज्य में हमेशा शनिदेवजी की पूजा और कथा होने लगी।राजा और प्रजा अनेक तरह से सुख भोगती रही जो कोई शनिदेवजी की इस कथा को पढ़ता या सुनता है,शनिदेवजी की कृपा से उसके सभी तरह के दुःख दूर हो जाते है।व्रत के दिन शनिदेवजी की कथा को अवश्य सुनना चाहिए।



शनिवार व्रत के अंतिम दिन के लिए हवन-यज्ञ:-मनुष्य को अंतिम शनिवार व्रत के दिन हवन-यज्ञ करना चाहिए।

 शमी-खेजड़ा के वृक्ष की लकड़ी का प्रयोग हवन के लिए करना चाहिए।



शनिवार व्रत के दिन दान देना:-मनुष्य को उड़द की दाल से बने हुए चीजों, फलों में केला, तिल के तेल बनी वस्तुओं,तिल का तेल, छतरी,जूता, कम्बल,नीला-काला कपड़ो का,लोहा,कुर्सी,तिल के लड्डू का दान आदि को अपने आखिरी व्रत के दिन मनुष्य को किसी गरीब मनुष्य को या भिक्षा मांगने वाले को दान के रूप में देना चाहिए।



शनिवार के व्रत को करने के फायदे:-शनिवार के व्रत करने के बहुत सारे फायदे है।

◆मनुष्य शनिवार के दिन व्रत करके शनिदेवजी को खुश करने उसके सारे विकार खत्म हो जाते है।

◆मनुष्य को आने वाली सभी बाधाओं से मुक्ति मिलती है।

◆मनुष्य को अपने जीवनकाल के विरोधियों से बचाते है।

◆मनुष्य को शनि ग्रह के सम्बन्धित परेशानी से मुक्ति के लिए काले घोड़े की नाल अथवा नौका के कील को मंत्रो से ब्राह्मण के द्वारा सिद्ध करवाके मध्यमा अंगुली में शनिवार के दिन पहनना चाहिए।जिससे शनि देवजी कृपा मनुष्य के ऊपर हो सके।

◆मनुष्य को अपने जीवन में संघर्षों से मुक्ति मिल जाती है और मनुष्य का विकास होता है।