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Tuesday, February 23, 2021

जया एकादशी व्रत कथा(Jaya Ekadashi fasting story)




जया एकादशी व्रत कथा(Jaya Ekadashi fasting story):-

        

               (माघ शुक्लपक्ष एकादशी)

धर्मराज ने भगवान श्री केशव जी से कहा कि-हे माधवजी!आप से मैं निवेदन करता हूँ कि मुझे माघ महीने के शुक्लपक्ष में आने वाली एकादशी के बारे में बताये।इस महीने में एकादशी को किस नाम से जाना जाता है और इस एकादशी के व्रत को कैसे करते है?इस माह की एकादशी के व्रत की विधि,व्रत में किस देवता की आराधना करें और व्रत को करने मिलने वाले फायदों के बारे में पूर्ण जानकारी देने का कष्ट करें?


श्री माधवजी ने बताया:-हे कुंती पुत्र धर्मराज!माघ महीने के शुक्लपक्ष में जो एकादशी आती है,उसको 'जया'नाम से जाना जाता हैं।'जया' नाम की एकादशी को करने से सभी तरह के किये गए पापों से मुक्ति मिलती है और यह सबसे से ज्यादा महत्व की तिथि होती है।यह तिथि सबसे श्रेष्ठ पावन होते हुए सभी तरह के बुरे पापों को नष्ट करके मानवों को हिस्सा और जन्म-मरण के बंधन से मुक्ति दिलाने वाली है।यह तिथि ब्रह्महत्या जैसे बड़े पाप कर्म और भूत-पिशाचत्व का भी नाश कर देने वाली होती है।

इस एकादशी के व्रत को करने से व्रत करने वाले मानवों को प्रेतयोनि में नहीं जाना पड़ता है।इसलिए श्रेष्ठ राजन!आप अपनी कोशिश से इस जया नाम से जाने वाली एकादशी तिथि का व्रत करें।


जया एकादशी व्रत की कथा:-एक समय पूर्व की बात है।सुरलोक नाम का लोक था।उस देवलोक में देवताओं के राजा देवेंद्र अपना शासन करते थे।देवगण कल्पद्रुम वृक्षों से युक्त नन्दनवन में सुंदर और मन को हरने वाली अप्सराओं के साथ घूमते थे और उनके साथ कामक्रीड़ा किया करते थे।पचास करोड गन्धर्वों के राजा देवेंद्र ने अपनी स्वंय की चाह के अनुसार उस नंदनवन में घूमते हुए अपनी मन की खुशी के साथ नाचने का समारोह करवाया।सभी गन्धर्व उस समारोह का नाच-गान करते हुए आनन्द ले रहे थे।

उन सब में से एक  गन्धर्व,पुष्पदन्त और चित्रसेन यह तीनों उस नाच-गान में मुख्य थे।उन गन्धर्व में से चित्रसेन नाम के गन्धर्व की पत्नी का नाम मालिनी था।इस तरह चित्रसेन और मालिनी ने अपने जीवनकाल में सुख से रहते हुए उनसे एक कन्या को जन्म दिया।उस कन्या का नाम पुष्पवन्ती रखा था,जो आगे जीवन में प्रसिद्ध हुई थी।

पुष्पदन्त गन्धर्व से एक सुंदर पुत्र हुआ था,पुष्पदन्त के पुत्र का नाम माल्यवान था।माल्यवान पुष्पवन्ती के सुंदर देह पर आकर्षित था और उसके रूप-यौवन पर मोहित हुआ था।इस समारोह में माल्यवान और पुष्पवन्ती दोनों ही देवेंद्र को सन्तुष्ट करने के लिए नाच-गान करने के लिए आये थे।इन दोनों का गायन हो रहा था।इन दोनों के साथ अप्सरायें भी थी।वे गायन करते-करते एक-दूसरे के आपस के प्रेम के कारण एक दूसरे में खो गये।

उनके मन के प्रेम के कारण सुध-बुध खो दिया और मन में भ्रम के कारण वे दोनों शुद्ध गायन नहीं गा पा रहे थे,कभी उनके गायन का राग बिगड़ जाता,कभी गायन का राग सही हो जाता था।देवों के राजा देवेंद्र ने इस तरह की अनवधानता पर चिंतन किया और अपना तिरस्कार समझ। इस तरह देवेंद्र उन दोनों के इस व्यवहार से गुस्सा हो गये।


अंत में देवेंद्रजी ने उन दोनों को अपने गुस्से के वश स्वरूप शाप देते हुए बोले:'ओ अल्पमति!तुम दोनों को भर्त्सना है। तुम दोनों पापी और मेरे आदेश को नहीं मानने वाले हो,अतः तुम दोनों पति-पत्नी के रूप में एक-दूसरे को ग्रहण करते हुए तुम दोनों पिशाच बन जाओ।'इस तरह देवेंद्रजी के गुस्से में दिए गये शाप से दोनों बहुत ही दुःखी हो गये।वे वहां से चले गए।इस तरह चलते-चलते वे दोनों हिमालय गिरी पर पहुंच गये।देवेंद्रजी के द्वारा दिये गए शापवश वे पिशाचयोनि के मिलने से बहुत ही दुःख को भोगने लगे।इस तरह दुःख भोगते हुए अपने शारीरिक पातक से उदित गर्मी से पीड़ित होकर दोनों हिमालय की कंदराओं में घूमते-फिरते थे।कभी बाहर तो कभी अंदर इस तरह उन दोनों को बहुत अपने कष्ट झेलना पड़ रहा था।

एक दिन पिशाच ने अपनी पत्नी पिशाची से बोले:हम दोनों ने क्या बुरे पाप किये है,जिससे यह पिशाचयोनि मिली है?नरक का पीड़ा तो बहुत डरावनी होती है और पिशाच योनि भी बहुत ज्यादा कष्ट और दुःख देने वाली है।इसलिए हम दोनों को अपने पूरे प्रयास करना चाहिए, जिससे इस पिशाच योनि के पाप से मुक्ति मिल सके।इस तरह मन में सोचते हुए दोनों दुःख और पीड़ा से उनका शरीर कमजोर पड़कर सूखता जा रहा था।दैवयोग से उन्हें माघ महीने की शुक्लपक्ष की तिथि प्राप्त हो गयी।सब तिथियों में सबसे श्रेष्ठ तिथि जिसे 'जया' कहते है।इस तरह तिथि मिलने से उस दिन दोनों ने सभी तरह के आहार को छोड़ दिया और जल को पीना भी छोड़ दिया।किसी भी तरह से किसी भी जीव-जंतुओं को नहीं मारा। 

उन दोनों ने भोजन के लिए फल तक नहीं लिया।इस तरह के लगातार संताप और पीड़ा से युक्त होकर वे दोनों एक पीपल के वृक्ष के पास जाकर उसके नीचे बैठ गए।सूर्य भी अस्त हो गया।उनके जीवन को कष्ट पहुंचाने वाली रात्र भी शुरू हो गई।उन्हें निद्रा भी नहीं आ रही थी।वे नहीं रति या और कोई दूसरा सुख भी नहीं ले पा रहे थे।इस तरह रात बीतने पर सूर्य उदय हो गया,द्वादशी तिथि का दिन आ गया।


इस तरह उन दोनों पिशाच पति-पत्नी ने 'जया' एकादशी के व्रत का अच्छी तरह से निभ गया।उन्होंने रात के समय जागरण भी किया था। उस व्रत के प्रभाव तथा भगवान लक्ष्मीपति नारायण जी की शक्ति से दोनों का पिशाचत्य समाप्त हो गया।वे फिर पुष्पवन्ती और माल्यवान के रूप को पुनः प्राप्त कर लिया।


इस तरह अपने पूर्व रूप को पाते ही उन दोनों का पहले का प्रेम पुनः उन दोनों के हृदय में जाग्रत हो गया।वे दोनों ही अपनी देह पर पूर्व की तरह अलंकार सौंदर्य को प्राप्त कर रहे थे।वे दोनों अच्छा मन को हरने वाले रूप को ग्रहण करके विमान पर जाकर बैठे और देवलोक की ओर चल पड़े।


जब वे देवलोक पहुंचे।देवलोक में पहुंचकर देवराज इंद्र को अपनी खुशी से प्रणाम किया।इस तरह उन दोनों को पुनः अपने रूप में देखकर देवराज को आश्चर्यचकित हो गए।


देवराज इंद्र ने पूछा:-'किस तरह से तुम्हारा पुनः रूप मिला और तुम दोनों ने क्या पुण्य क्या जिससे तुम्हारा पिशाचत्व समाप्त ही गया?तुम दोनों तो मेरे शाप से ग्रसित थे।तुम्हें किस देव ने पिशाचत्व से मुक्ति दी है।


माल्यवान ने कहा:-स्वामिन!भगवान मध्वदेवजी के अनुकृपा तथा'जया'नाम की एकादशी के व्रत के कारण हम दोनों का पिशाचत्व योनि से मुक्ति मिली है।


देवराज देवेंद्र बोले: तो अब तुम दोनों मेरे कहने से सुधापन कड़ी।जो लोग एकादशी के व्रत में तैयार रहते है और भगवान श्रीकृष्ण जी के शरण में गया होता है,वे हमारे लिए पूजनीय होते है।


भगवान श्रीमाधवजी कहते है:हे राजन!इस कारण से एकादशी का व्रत करते रहना चाहिए।राजाओं में उत्तम राजा धर्मराज!'जया'ब्रह्महत्या के पाप को दूर करने वाली होती है।जिस किसी ने'जया'एकादशी का व्रत किया है,उसने सभी तरह के दान को दे दिया है।वह सम्पूर्ण यज्ञों का अनुष्ठान कर लिया।इस महात्म्य के पढ़ने और सुनने से अग्निष्टोम यज्ञ का फल मिलता है।