(मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी)
एकादशी का जन्म:-मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की एकादशी को एकादशी का जन्म आता है।
उत्पन्ना एकादशी व्रत की विधि-विधान:-
◆इस दिन व्रत कर गंगा स्नान कर दान-पुण्य करना चाहिए।
◆इस एकादशी व्रत की रात्रि में रात्रि जागरण करते हुए भगवान के नाम का कीर्तन करना चाहिए।
◆दूसरे दिन सवासनी, बहिन-बेटियां व ब्राह्मणों को भोजन करवाकर दक्षिणा देंनी चाहिए।
आलंदीरी एकादशी:-मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी में आलंदीरी यात्रा में जाने का भी महत्व है।
वेतरणी व्रत:-ये व्रत मार्गशीर्ष महीने में आता है।पहली दशमी से व्रत करना चाहिए।
◆दशमी के दिन हविष्य धान खाना चाहिए।
◆एकादशी को निगोट व द्वादशी को नमकरहित फलाहार करना चाहिए।
◆एकादशी व्रत में सिंघोडे के आटे का हलवा बनाकर खाया जा सकता है।
◆तेरस को हविष्य धान खाना चाहिए।
इस तरह कोई दो साल व्रत करते हैं, तो कोई एक साल व्रत करके उद्यापन करना चाहिए।
उत्पन्ना एकादशी के व्रत की उद्यापन विधि:-एकादशी को उद्यापन करना चाहिए।
◆लक्ष्मीपतिविष्णुजी की मूर्ति एवं अपने सामर्थ्य के अनुसार गाय की मूर्ति बनाकर किसी ब्राह्मण को दान में देंनी चाहिये।।
◆इच्छानुसार मृत्यु पहले सुखसेज देते है।सुख-सेज में जोड़ा-जोड़ी के कपड़े और काम में आने वाले बिस्तर से लेकर ओढ़ने तक के सामान, सोलह श्रृंगार के सामान-जैसे छाता, लालटेन आदि देना चाहिए।
◆कोई-कोई अपने घर गाय की पन्द्रहा-बीस दिन तक सेवा करके जिसके निमित्त देंनी हो,उस प्राणी को हाथ लगाकर के ब्राह्मण को बुलाकर ब्राह्मण को दान भी कर सकते है।
◆शास्त्र के मतानुसार यह गाय उस प्राणी को वेतरणी नदी पार कराते हैं जो खून व पीप से भरी हुई होती है। ऐसा गरुड़ पुराण में बताया गया है।
धर्मराज जी भगवान श्रीकेशवजी से निवेदन पूर्ण कहा:हे तीनों लोकों के स्वामी पुण्य देने वाली एकादशी तिथि के बारे में बताये की पुण्य फल देंनी वाली एकादशी किस तरह उदित हुई? इस एकादशी को बहुत ही पावन इस जगत् में क्यों मानी गयी है तथा समस्त देवताओं को किस तरह प्यारी हुई ?
श्रीमाधव जी ने बताया:हे धर्मराज पुराने जमाने की एक बात है। मुर नाम का एक राक्षस निवास किया करता था। उस समय सत्ययुग चल रहा था। मुर राक्षस अलग तरह का, बहुत ज्यादा रोप और सभी देवताओं के लिए विकराल था।उस काल रूप को धारण किये हुए बुरी आत्मा महादैत्य ने इंद्रलोक के राजा इंद्र को अपनी शक्तियों के बल पर हराकर इंद्रलोक को जीत लिया था। इस तरह इंद्रलोक को जीतने पर उसने सभी देवताओं को उसने इंद्रलोक से बाहर निकाल दिया और स्वयं इंद्रलोक का राजा बन गया।
इस तरह से सभी देवताओं को इंद्रलोक से निकाल देने पर सभी देवता शंका से युक्त होर डरते हुए भूमिलोक में इधर-उधर घूमने-फिरने लगे।इस तरह परेशान होकर सभी देवता ने विचार किया कि इस तरह कितने समय तक बिना इंद्रलोक के भूमिलोक पर फिरते रहेंगे,तब उन सभी देवताओं ने निर्णय लिया कि क्यों नहीं दुष्टों का संहार करने वाले देवों के देव महादेवजी के पास चले। इस तरह निर्णय लेकर महादेवजी की शरण में सभी देवता जाते है और कैलाश पर पहुंचकर महादेवजी को नमस्कार करते है।
तब महादेवजी देवों के राजा इंद्र से पूछते:-हे स्वर्गलोग के राजा इंद्र कैलाश आने का क्या प्रयोजन है? तब इंद्र देव अपने साथ जो राक्षश मुर ने आक्रमण करके इंद्रलोक को उनसे छिनने का पूरा हाल बताया।
देवराज ने कहा:हे देवों के देव महादेवजी! सभी देवता इंद्रलोक को हारने के बाद इधर-उधर भूमिलोक पर घूम-फिर रहे है। इस तरह अपने लोक से दूर होकर मानवों के बीच में रहना इन देवताओं को अच्छा नहीं लगता है। हे महादेवजी!कोई इस तरह का समाधान बतलाइए जिससे हम देवों को फिर से इंद्रलोक मिल जाये औए दैत्य मुर का अंत हो जाये।हम सभी देवता आपकी शरण में आये है और आप ही हमारी मदद कर सकते है।
भोलेनाथजी बोले:हे सुरपति! सभी की रक्षा करने वाले,सभी को अपने शरण में आये हुए की सुरक्षा करने को तैयार रहने वाले भगवान विष्णुजी की शरण में जाओ,जिससे तुम्हारी रक्षा होगी और खोया हुआ इंद्रलोक को वापस दिलवाने में मदद मिलेगी।
भगवान श्रीकेशवजी बोले:धर्मराज इस तरह भगवान शिवजी की बात को सुनते ही ज्ञानवान सुरपति इंद्र देव सभी देवताओं को अपने साथ लेकर क्षीरसागर की ओर चल पड़े।क्षीर सागर में भगवान लक्ष्मीपतिनारायण शेषनाग की छत्रछाया में सोये हुए थे। इस तरह देवों के राजा देवराज ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया उनकी स्तुति की।
देवराज ने कहा:हे देवों के देव लक्ष्मीपतिविष्णुजी आपको नमस्कार है! देव! आप ही स्वामी, आप ही बुद्धि,आप ही करने वाले और ही कारण हैं। आप ही इस सम्पूर्ण संसार के तात और आप ही संसार के जनों को जन्म देने वाले हो।आपका अभिवादन सभी आदितेय और दानव दोनों ही करते है।
हे लक्ष्मीपतिविष्णुजी! हम सब देव आपकी शरण में आये है आप हम सब देवों की रक्षा कीजिए। दानवों के आप दुश्मन है। जनार्दन! प्रभु! चतुर्भज! बहुत ही ज्यादा तेज मिजाज वाले महापराक्रमी मुर नाम के दानव ने स्वर्गलोक हम देवों से युध्द करके छीन लिया है आप उस दैत्य को परास्त करके हम देवों को पुनः स्वर्गलोग दिलवाये।
भगवन्! पिताम्बर! शरण आये हुए आपके बच्चों की रक्षा करें।सभी सुर डरकर आपकी शरण में रक्षा के लिए आये है।दानवों को अपनी शक्ति से परास्त करने वाले चक्रपाणि!भक्तों को अपने बच्चों की तरह प्रेम करने !जनार्दन! चतुर्भुज! हम सब देवों की रक्षा कीजिये। भगवन्! शरण में आये हुए हम सब देवों की सुरक्षा कीजिये।
देवराज की इस तरह करुण याचना को सुनकर विष्णुजी ने कहा:सुरपति! यह राक्षस किस तरह का है?उसका स्वरूप और ताकत कितना है तथा उस बुरे राक्षस किस जगह पर रहता है?
सुरपति ने कहा:हे विष्णुजी! पहले के समय में ब्रह्माजी के कुल में तालजंघ नाम का एक बहुत बड़ा राक्षस पैदा हुआ था,जो बहुत ही डरावना और उग्र मिजाज का था। उसके एक पुत्र हुआ जिसका नाम मुर रखा गया था। मुर दानव बहुत ही उद्दंड स्वभाव का, बहुत ही ताकत वाला और सभी देवों के लिए कष्टकारी एवं पीड़ा देने वाला है।
उत्पन्ना एकादशी व्रत की पौराणिक कथा:-एक नगरी थी उस नगरी का नाम चंद्रावती था, जो बहुत ही ज्यादा विख्यात थी। उस चंद्रावती नगरी में अपने रहने की जगह बनाकर वहां पर रहता था। उस राक्षस ने सभी देवताओं को युद्ध में हराकर स्वर्गलोक को जीतकर छीन लिया,हम सब कैसे करके अपनी-अपनी जान को बचाने के लिए भटक रहे है।
उसने स्वर्गलोक को जीतने के बाद उसने इंद्र देव के शासन पर इंद्र के रूप में दूसरे को शासन पर बैठाया है।उसने अग्नि देव, वरुण देव, भास्कर देव और पवन देव को भी दूसरे बनाये है चक्रपाणि! मैं आपको सही-सही बात बता रहा हूँ। उसने हम सब देवों की जगह पर उसने दूसरों को हम सब देवों की जगह पर रख लिया और उनको स्थान दिया है।
उसने हम सब देवों को अपनी-अपनी जगह पर से दूर कर दिया है।इस तरह के देवराज के द्वारा विवरण देने पर भगवान पिताम्बर को बहुत ही ज्यादा गुस्सा आया।भगवान पिताम्बर सब देवों को अपने साथ लेकर उस चंद्रावती नगरी में पहुंचे। जब वे सब चंद्रावती नगर में पहुंचे तो भगवान विष्णुजी ने देखा की वह "दानव राजा" बार-बार तेज आवाज से चीला रहा था। "उससे सभी देवता दसों दिशाओं की तरफ इधर-उधर भाग रहे है।
दानवराज ने जब भगवान जनार्दन को देखकर बोला: 'रुक जा...रुक जा,वही खड़ा रहे।' उस दानवराज के द्वारा इस तरह बोलने पर भगवान विष्णुजी को बहुत ही ज्यादा गुस्सा आया और उनकी आंखें लाल-लाल होकर आंखों से अग्नि निकलने के समान दिखाई देने लगी।भगवान जनार्दन बोले:'हे नीच दुष्ट आत्मा राक्षस! मेरी इन चारों भुजाओं को देख।'
इस तरह बोलने के बाद उन्होंने अपने चमत्कारी विराट शरीर को प्रकट कर अपने तरकस से बाणों की वर्षा उस दैत्य को मारने की लिए शुर कर दिया। दैत्य डर के मारे इधर-उधर छुपने लगा, उसके बाद जनार्दन ने राक्षस की सेना पर अपने चक्र से प्रहार किया। उस चक्र के आघात से बहुत सारे दैत्य सेना के योद्धा मौत के घाट उतर रहे थे। इस तरह प्रहार करने के बाद भगवान विष्णुजी बद्रिकाश्रम को चले गए।
बद्रिकाश्रम में एक गुफा थी उस गुफा का नाम सिंहावती था,जो लम्बाई में बारह योजन तक लंबी थी। धर्मराज! उस गुफा के एक तरफ बड़ा दरवाजा था। भगवन् उस गुफा में जाकर सो गए। दैत्य मुर भगवान विष्णुजी को मारने के उद्देश्य से उनके पीछे-पीछे चल रहा था। वह चलते-चलते हुए उस गुफा के द्वार पर पहुंच जाता है। उस द्वार से गुफा में घुस जाता है। गुफा में जाने के बाद में उसे भगवान विष्णुजी सोये हुये दिखाई देते है, तो वह बहुत ही खुश होता है। वह विचार करता है कि'यह राक्षसों को डराने वाला देवता है। अतः बिना किसी शंका से मैं इसको मार दूंगा।
'धर्मराज! इस तरह उस मुर दैत्य के सोचते ही भगवान जनार्दन की देह से एक लड़की जाहिर हुई, वह लड़की देखने में बहुत ही सुंदर, रूप को मोहने वाले, अच्छे गुणों से युक्त तथा अनेक दैवीय अस्त्र-शस्त्रों से श्रृंगार किये हुए थी। वह भगवान के तेज अंश से पैदा हुई थी। उस लड़की का प्रताप और ताकत बहुत ही ज्यादा थी।
धर्मराज! दैत्यराज मुर ने जब उस सुंदर लड़की को देखा। तब उस लड़की ने युद्ध के लिए उस राक्षस से विनती की। तब युद्ध शुरू हो गया। वह लड़की सब तरह से युद्ध में कौशल और निपुण थी। उस कन्या के चिलाने मात्र से ही वह मुर नाम का दैत्य राख में बदल गया। इस तरह कन्या के द्वारा उस राक्षस के मरने की आवाज से भगवान जनार्दन की निंद्रा टूट गई और वे जग गये। तब वे जाग जाने पर उनके सामने विशाल दैत्य की मृत लाश के रूप में देखकर उस लड़की से पूछा: मेरा यह दुश्मन बहुत ही ज्यादा तेज और डरावना था।किसने इसको मार डाला?
लड़की ने कहा:स्वामिन! आपकी कृपा दृष्टि के प्रभाव से मैने इस बड़े राक्षस को मार दिया है।
श्रीमाधव जी बोले:हे कल्याणी! तुम्हारे द्वारा इस राक्षस का वध करने तीनों लोकों के ऋषिमुनि और सभी देव बहुत ही ज्यादा खुश हुए है। तुम मुझे से जो वर मांगना चाहो वह तुम मांग सकती हो तुम्हारी मन की जो चाह है, वह मैं पूरी करूँगा। इस तरह वह कन्या प्रत्यक्ष एकादशी ही थी।
उस कन्या ने कहा:हे स्वामी! यदि आप खुश हैं तो मैं आपकी कृपा से सब तीर्थों में मुख्य, सभी तरह की बाधाओं को खत्म करने वाली और सभी तरह की सिद्धि देने वाली देवी होउँ इस तरह का वरदान दीजिये। पिताम्बर! जो कोई भी आपकी भक्ति भाव रखने वाले है वे सब मेरे दिन को उपवास करेंगे, उन्हें सब तरह की सिद्धि मिल जावे। केशव!जो कोई उपवास, बिना भोजन या एक समय में भोजन करके मेरे व्रत को विधि-विधान से करेगा, उन्हें आप धन, धर्म और जीवन के आने-जाने वाले चक्र से मुक्ति देकर उनकी गति को मोक्ष दीजिये।
श्रीकेशवजी ने कहा:कल्याणी! जो तुम्हारी इच्छा है और जो कुछ तुमने मुझे से वर के रूप में माँगा है, वह सब तुम्हारी इच्छा के अनुसार पूरा होगा।
भगवान श्री केशवजी बोले:हे धर्मराज! इस तरह का वरदान भगवान विष्णुजी से पाकर महाव्रता एकादशी बहुत ही ज्यादा खुश हुई। दोनों पक्षों की एकादशी के तुल्य रूप में कल्याण देने वाली है। इस तरह तिथि के शुक्ल और कृष्ण का कोई तरह का भेद नहीं करना चाहिए।
त्रिस्पृशा एकादशी का मतलब:-यदि शुरुआत में कुछ सी एकादशी, बीच में पूर्ण द्वादशी और आखिर में किंचित त्रयोदशी होने पर वह एकादशी त्रिस्पृशा एकादशी कहलाती है। यह त्रिस्पृशा एकादशी भगवान को बहुत ही प्यारी है।
◆यदि एक त्रिस्पृशा एकादशी का उपवास जो कोई भी कर लेता है, उसकी एक हजार एकादशी व्रतों का फल मिल जाता हैं। इसी तरह द्वादशी में करने पर हजार गुना फल माना गया है।
◆अष्टमी, एकादशी, षष्ठी, तृतीय और चतुर्दशी:-ये पूर्वतिथि से विद्ध होने पर इन तिथियों में उपवास नहीं करना चाहिए।
◆परवर्तिनी तिथि से युक्त होने पर अष्टमी, षष्ठी, तृतीय, एकादशी और चतुर्दशी तिथि में उपवास करने का शास्त्र रीति मानी गई है।
◆पहले दिन में और रात के समय में भी एकादशी होने पर तथा दूसरे दिन केवल प्रातःकाल एकदण्ड एकादशी रहने पर पहली तिथि को छोड़कर दूसरे दिन की द्वादशी युक्त एकादशी तिथि का व्रत करना चाहिए।
◆यह विधि श्रीकेशवजी ने दोनों तरह के शुक्ल और कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि में बतायी है।
◆जो कोई भी मनुष्य एकादशी तिथि का व्रत विधि-विधान से करता है, उसको विष्णुधाम में जगह मिलती है, जहां पर भगवान प्रत्यक्ष रूप से गरुड़ध्वज में विराजमान होते है।
◆जो कोई एकादशी व्रत की महत्ता को प्रतिक्षण पाठ का पाठन करता है, उसको हजार गायो के दान के समान पुण्य का फल मिलता है।
◆जो एकादशी व्रत की कथा का दिन या रात में महत्ता का गुणगान करते हुए सुनता है, उसको बड़े पापों के रूप में ब्रह्महत्या से मुक्ति मिल जाती है।
◆एकादशी की तरह कोई भी व्रत नहीं है, जो समस्त तरह के पापों को नाश कर सके, इसलिए एकादशी के व्रत को करते रहना चाहिए।