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Wednesday, May 5, 2021

एकादशी व्रत कथा और महत्व(Ekadashi fasting story and importance)



एकादशी व्रत कथा और महत्व (Ekadashi fasting story and importance):-पूरे साल में चौबीस एकादशी आती हैं और मल या अधिक मास में दो एकादशी आती हैं, इस तरह छब्बीस एकादशी होती हैं, जो इस तरह है और उनके नाम महीने में आने के हिसाब से निम्नलिखित है-

बारह महीनों की चौबीस एकादशियों के नाम:-बारह महीने में चोबीस एकादशी आती हैं।इस तरह हर महीने में एक एकादशी कृष्णपक्ष की और दूसरी एकादशी शुक्ल पक्ष की आती हैं।इस तरह चोबीस एकादशी होती है,जिनके नाम निम्नांकित है-

1.चैत्र मास की एकादशियां:-

१.चैत्र शुक्लपक्ष पापमोचनी एकादशी।

२.चैत्र कृष्णपक्ष कामदा एकादशी।

2.वैशाख मास की एकादशियां:-

१.वैशाख कृष्णपक्ष वरूथिनी एकादशी।

२.वैशाख शुक्लपक्ष मोहिनी एकादशी।

3.ज्येष्ठ मास की एकादशियां:-

१.ज्येष्ठ कृष्णपक्षअपरा एकादशी।

२.ज्येष्ठ शुक्लपक्ष निर्जला एकादशी।

4.आषाढ़ मास की एकादशियां:-

१.आषाढ़ कृष्णपक्ष योगिनी एकादशी।

२.आषाढ़ शुक्लपक्ष देवशयनी एकादशी।

5.श्रावण मास की एकादशियां:-

१.श्रावण कृष्णपक्ष कामिका(पवित्र) एकादशी।

२.श्रावण शुक्लपक्ष पवित्रा एकादशी।

6.भाद्रपद मास की एकादशियां:-

१.भाद्रपद कृष्णपक्ष अजा एकादशी।

२.भाद्रपद शुक्लपक्ष जलझूलनी एकादशी।

7.आश्विन मास की एकादशियां:-

१.आश्विन कृष्णपक्ष इंदिरा एकादशी।

२.आश्विन शुक्लपक्ष पापांकुशा एकादशी।

8.कार्तिक मास की एकादशियां:-

१.कार्तिक कृष्णपक्ष रमा एकादशी।

२.कार्तिक शुक्लपक्ष देवप्रबोधिनी एकादशी।

9.मार्गशीर्ष मास की एकादशियां:-

१.मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष उत्त्पत्ति या उत्त्पन्ना एकादशी।

२.मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष मोक्षदा एकादशी।

10पौष मास की एकादशियां:-

१.पौष कृष्णपक्ष सफला एकादशी।

२.पौष शुक्लपक्ष पुत्रदा एकादशी।

11.माघ मास की एकादशियां:-

१.माघ कृष्णपक्ष षट्तिला एकादशी।

२.माघ शुक्लपक्ष जया एकादशी।

12.फाल्गुन मास की एकादशियां:-

१.फाल्गुन कृष्णपक्ष विजया एकादशी।

२.फाल्गुन शुक्लपक्ष आमलकी एकादशी।


पुरुषोत्तम मास:-पुरुषोत्तम मास में दो एकादशी होती हैं,एक कृष्णपक्ष पुरुषोत्तम मास की और दूसरी शुक्लपक्ष पुरुषोत्तम मास की होती है,उनको परमा एकादशी और पद्मिनी एकादशी के नाम से जाना जाता हैं, जो नाम के अनुसार फल देने वाली होती हैं।इस तरह बारह महीनों की चोबीस और पुरुषोत्तम मास की दो एकादशियों सहित पूरे साल में कुल छ्ब्बीस एकादशी आती हैं।


एकादशी व्रत की विधि:-एकादशी व्रत की विधि श्रीसूतजी ने ब्राह्मणों को बताई है जो इस तरह है-

श्री सूतजी महाराज ने ब्राह्मणों को कहा :हे ब्राह्मणों ! इस विधि युक्त उत्तम माहात्म्य को श्रीकेशवजी ने कहा था, विशेष कर जो इस व्रत की उत्त्पत्ति भक्ति से सुनते है, वह इस लोक में अनेक तरह के सुख भोगकर अन्त में दुष्प्राप्य विष्णुधाम को पाते है।

पूर्व काल में श्रीकेशवजी भगवान ने धनंजय कौंतेय के प्रति एकादशी व्रत की उत्पत्ति विधि इत्यादि कहि थी सो उन्हीं के कथोपकथन रूप से मैं कहता हूँ।

धनंजय कौंतेय ने पूछा : कि हे मुरलीधर जी! जो रात के समय में उपवास करते हैं तथा जो एक समय ही भोजन को ग्रहण करते है उन्हें किस तरह व कैसा पुण्य मिलता हैं और उस उपवास को करने की विधि-विधान क्या है ?आप से अरदास करता हूँ कि आप कृपया करके मुझे बताने की कृपा कीजिये।

◆इस तरह के धनंजय के वचन को सुनकर श्रीकेशवजी भगवान बोले कि सबसे पहले दशमी तिथि की रात्रि को दन्तधावन करना चाहिए अर्थात् दिन के आठवें प्रहर में जब सूरज भगवान की तेज किरणें कम हो जाती है तब दन्तधावन करना चाहिए।

◆रात के समय में भोजन को ग्रहण नहीं करना चाहिए।

◆उसके बाद फिर प्रातःकाल निश्चित मन को करके मन में व्रत करने का संकल्प करना चाहिए।

◆मध्यान्ह के समय में भी संकल्प करते हुए स्नान करना चाहिए।नदी, सरोवर और वापी कूप आदि में स्नान करना चाहिए।

◆स्नान करने से पूर्व मृत्तिका स्नान अर्थात् मिट्टी का स्नान करना चाहिए।

◆स्नान करने वाले व्रती मनुष्य पापी, चोर, पाखंडों, मिथ्या दूसरों का अपवाद करने वाला देवता, वेद और ब्राह्मणों को निन्दा करने वाला और जो अगम्या गमन करने वाला, दुराचारी दूसरों के धन को चुराने वाले इन समस्तों से बात नहीं करना चाहिए

◆यदि दैवत इनको देखले तो इस पाप को दूर करने के लिए सूर्य देव के दर्शन करना चाहिए।

◆स्नान करने के बाद सादर नैवेद्य आदि को अर्पण करना चाहिए।

◆उस दिन निद्रा और सहवास नहीं करना चाहिए।

◆दिन और रात के समय नाच-गायन आदि सदवार्ता से दिन और रात के समय को बिताना चाहिए।

◆भक्ति युक्त होकर अपने सामर्थ्य के अनुसार ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा को देना चाहिए और ब्राह्मणों को प्रणाम करते हुए अपने द्वारा की गई त्रुटि या भूल के लिए क्षमा की अरदास करनी चाहिए।


अर्जुन ने पूछा : हे देव! आप इस तीर्थ को सब तीर्थों से श्रेष्ठ तथा पवित्र कहते है।इसमें क्या कारण है?

भगवान ने कहा कि :हे धनंजय सुुुुनो !मैं तुम्हें एकादशी की उत्पति के बारे में बताता हूँ तुम ध्यानपूर्वक मन को एक जगह पर स्थिर करके सुनना।

श्रीकृष्णजी के द्वारा मधुर वाणी से एकादशी उत्त्पति की पौराणिक कथा:-पहले सतयुग में मुर नामक एक भयंकर राक्षस था जिसके डर से सभी देवता भयभीत राक्षस थे। उसने इंद्र आदि सभी देवताओं को जीतकर उन्हें उनके स्थान से भ्रष्ट कर दिया था।

तब इंद्र ने महादेवजी से कहा: कि हम लोग इस समय मुर दैत्य के अत्याचार से पीड़ित होकर मृत्युलोक में अपना काल बिता रहे हैं और देवताओं की दशा तो कहीं नहीं जाती है सो कृपा करके इस दुःख से छूटने का उपाय बतलाइये।

श्रीमहादेवजी ने कहा :कि देवो के राजा इंद्र आप भगवान विष्णु के पास जाइये।महादेवजी के वचन सुनकर देवराज इंद्र देवताओं को साथ लेकर क्षीर सागर में जहां जगत्पति जनार्दनजी सोये थे,वहाँ गये।

भगवान को सोये देखकर इंद्र ने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की-हे देवताओं के देव ! हे देवपुजित ! आपको नमस्कार है।दैत्यों के नाशक मधुसूदनजी ! हे पुण्डरीकाक्ष !दैत्यों से डरकर सब देवता मेरे साथ आपकी शरण में आए है।

आप हम लोगों की रक्षा करे। आप इस जगत् के स्थितिकर्ता, उत्पत्तिकर्ता और संहारकर्ता है।आप देवताओं के सहायक है तथा उन्हें सुखकर्ता, उत्पत्तिकर्ता औदेने वाले है। आप पृथिवी है, आकाश है और संसार के प्राणियों के उपकारक है। 

आप ही संसार है तथा सम्पूर्ण त्रैलोक्य की रक्षा करने वालेे है।आप देवताओं के सहायक है और सुख देने वाले है।आप ही सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, हव्य, मन्त्र, तन्त्र, यजमान,यज्ञ और समस्त कर्म फल भोक्ता ईश्वर भी है।इस सम्पूर्ण जगत् में इस कोई स्थान नहीं हैं जहाँ आप न होवे। 

हे शरणदः। आये हुओ के रक्षक है।हे देव-देव भगवान!आप हम लोगों की रक्षा करे।इस समय दानवों ने देवताओं को जीत लिया है और उन्हें स्वर्ग से निकल दिया हैं अब देवता लोग अपने स्थान को छोड़कर भूमिलोक में भटकते हुए मारे-मारे फिर रहे है।

आप ही हम सब देवताओं की रक्षा कर सकते है और हमें पुनः स्वर्गलोग दिलवा सकते है। हम सब आपकी शरण में आये है।

इस तरह की करुण स्वर देवराज इंद्र के सुनकर भगवान विष्णुजी ने कहा- हे देवराज इंद्र !वह कौन सा असुर है? जिसने स्वर्गलोग को जीतकर आपको स्वर्गलोक से बाहर निकाल दिया है।वह किस जगह पर रहता है,उस राक्षस का नाम क्या है और उस राक्षस में ताकत कितनी है? हे इंद्रराज !यह सब आप मुझे पुरा विवरण देवे और उस राक्षस के बारे में पूर्ण जानकारी करवाये और उस राक्षस का डर अपने मन से निकाल देवे।

इस तरह भगवान विष्णुजी के द्वारा सांत्वना देने के बाद इंद्रदेव बोले-हे देवों के देव विष्णुजी! पूर्व में एक विशाल भारी-भरकम नाड़ीजंघ नाम का राक्षस था।उसकी उत्पत्ति ब्रह्मकुल में हुई थी और वह नाड़ीजंघ को मिली ताकत से वह अपनी ताकत के घमंड से घमंडी होकर देवों को हमेशा अपनी ताकत से कष्ट पहुंचाने लगा।इस सब तरह वह देवों को कष्ट देता रहता था।

उसी नाड़ीजंघ के एक पुत्र हुआ उसका नाम मरु राक्षस रखा गया।उस मरु राक्षस ने अपना एक राज्य स्थापित किया उस राज्य की राजधानी चन्द्रावती थी।चन्द्रावती नगर बहुत सुंदर और मन को मोह लेना वाला था।

वह मरु राक्षस अपने तेज वीर्य से सभी संसार को जीत लिया और सभी संसार को जीत लेने के बाद उसने देवताओं को स्वर्गलोक से बाहर निकाल दिया,उस पर स्वर्गलोग पर अपना अधिकार कर लिया उसके बाद उसने इंद्र, अग्नि, यम, वरुण और चन्द्रमा आदि लोकपाल स्वयं को बना दिया और स्वयं सूर्य बनकर पुराए संसार को अपने ताप से तपा रहा है।

खुद पर्जन्य या बादल बन गया है।इस कारण से देवताओं को कष्ट पहुंचाने वाले और सब को हैरान करने वाले मरू राक्षस को आप वध करके देवताओं को उसके द्वारा जीता हुआ स्वर्गलोग को दिलवाये।

इस तरह देवराज इंद्र के स्वरों को सुनकर भगवान विष्णुजी बहुत ही क्रोधित हुए और इंद्रदेव से कहा कि-हे देवराज इंद्र! अब आप सभी देवताओं को उस राक्षस के डर से जल्दी ही मुक्ति मिलेगी।उस मरु राक्षस को हमेशा के लिए नष्ट करूँगा और हे बलशाली देवों। आप सभी लोग मिलकर चन्द्रावती नगरी को जाओ।

इस तरह भगवान विष्णुजी भी उन सभी देवों के पीछे-पीछे चलते हुए चन्द्रावती नगरी में पहुंचते हैं,जब उस नगर में भगवान पहुंकर वहां जाकर देखते है कि दैत्याधिप मुरू अपने बहुत से राक्षसों से युक्त होकर संग्राम भूमि में तेज आवाज के साथ चीला रहा था।युद्ध शुरू होने पर असंख्यात सहस्त्र राक्षस दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर लड़ने लगे।अंत में देवता लोग दानवों से लड़ नहीं सके,तब दैत्यों ने देखा कि चक्रपाणि भगवान विष्णुजी रणभूमि में उपस्थित है।

उन्हें देखकर बहुत दैत्य अस्त्र-शस्त्र से भगवान पर टूट पड़े।जब भगवान ने देखा कि देवता भाग गए है तब शंख, चक्र, गदाधारी भगवान अस्त्र-शस्त्रों से राक्षसों को मारने लगे।उन पर सर्प समान अस्त्रों से विद्ध अनेक दांव इस लोक से चिरदिन के लिए प्रस्थित हुए परन्तु दैत्याधिप निश्चलभाव से युद्ध करता रहा।

भगवान जिन-जिन अस्त्रों का प्रयोग उस पर करे वह सब उसके तेज से कुण्ठित होकर पुष्प के समान उसके अंगों में मालूम पड़ते थे।अनेक शस्त्रों के प्रयोग करने पर भी जब भगवान उसको जीत नहीं सके तो तब क्रोधित होकर परिघ तुल्य बाहुओं से मल्ल युद्ध करने लगे।देवताओं के हजार वर्ष भगवान ने उससे युद्ध किया लेकिन वह हारा नहीं।

तब भगवान शांत होकर विश्राम करने की इच्छा से बद्रिकाश्रम चले गए। वहां अवतालिस कोस की लम्बाई में विस्तृत और एक द्वार युक्त हेमवती नामक गुफा में शयन करने के अर्थ से भगवान ने प्रवेश किया।

हे सेव्यसाची ! मैं उस गुफा जब सोया हुआ था।वह मुरू दैत्य भी मेरे पीछे-पीछे उस गुफा में चला आया और मुझे सोता हुआ देखकर मुझे मारने के लिए तैयार हुआ।वह समझता था कि आज मैं दानवों के चिर शत्रु इनको मारकर उन्हें निष्कण्टक बनाऊँ।

उसी समय मेरे शरीर से बहुत ही सुंदर सुंदरी दिव्य अस्त्र-शस्त्रों को लिए एक कन्या उत्पन्न होकर उस दानवराज के सम्मुख युद्ध के लिए उपस्थित हुई।उस सुंदर कन्या ने उस मुरू दानवेन्द्र को कहा मुझसे युद्ध कर और वह युद्ध करने लगी।उस युद्ध में उस कन्या की निपुणता देखकर मुरू दैत्य सोचने लगा कि इस रुद्रास्वरुओ स्त्री को किसने बनाया जिसके बाण बज्र के समान है।

पुनः उन दोनों में घमासान युद्ध शुरू हुआ।इस मुहूर्त में ही उस कन्या ने दानवराज के अस्त्र-शस्त्रों को काटकर उसे रथहीन कर दिया।वह दांव विरत और निःशस्त्र होकर आक्रमण करने के लिए दौड़ा परन्तु भगवती ने उसे आते हुए देखकर उसे मुष्टिक मारकर जमीन पर गिरा दिया।

पुनः उठकर कन्या को मारने की इच्छा से दौड़ा, उसे आते देखकर भगवती ने उसका सिर धड़ से अलग करके उसे यमलोक को भेज दिया और उसके साथी भयभीत होकर पाताललोक को चलेगये।तब भगवान उठे और सामने हाथ जोड़ खड़ी हुई उस कन्या को देखकर परम् खुश हुए और बोले कि सम्पूर्ण देव गन्धर्व नाग लोकेश सभी को जीतने वाले इस दुष्ट दांव को रण में किसने मारा है?जिसके डर से मैंने इस कन्दरा का आश्रय लिया था।सो किसने कृपाकर मेरी रक्षा की है।

कन्या ने उत्तर दिया कि-हे प्रभो!आपको सोया हुआ देखकर वह राक्षस आपको मारना चाहता था कि आपके अंश से उत्पन्न हुई मैनें ही इस दैत्य का संहार करके देवताओं को निर्भय किया है।मैं सर्व शुभ दमन्कारिणीअपकि ही महाशक्ति हूँ।हे प्रभु ! आप बतलाइये की इसके मारने से आपको क्यो आश्चर्य हो रहा है ?

भगवान बोले कि- हे निष्पाप! इस दानव को मारने से तुमसे मैं बहुत ही खुश हूँ इस समय समस्त देवता भी बहुत हर्षित हो गए है और तीनों लोकों में इस समय आनन्द छा रहा है।अतएव निस्संकोच होकर तुम्हारी जो इच्छा हो सो वर मांगो।याद रखों की देवताओं को दुर्लभ वर भी तुम मांगोगी तो तुम्हें मैं दूंगा।

कन्या बोली कि भगवान !यदि आप मुझ पर खुश है और यदि मुझे वर देना चाहते है तो मुझे वह वर  दीजिए कि यदि कोई उपवास करे तो मैं उसके सभी पापों से उसे तारने में समर्थ होउँ और उपवास से जो पुण्य होता है उससे आधा रात्रि भोजन में होने और उसका आधा पुण्य एक संध्या में भोजन करने वालो को हो।जो मेरे दिन को जितेन्द्रिय भक्ति युक्त होकर उपवास करे सो विष्णुलोक को प्राप्त होवे और अनेक कोटि वर्ष तक वह वहां अनन्त सुख भोग करे। भगवन् !यदि आप खुश है,तो यही वर दीजिए। 

यह सुनकर भगवान बोले कि: हे कल्याणी!जो तुम कहती हो वह सत्य होवे।जो हमारे और आपके भक्त है उनकी कीर्ति जगत् में प्रसिद्ध होगी तथा वे मेरे समीप वास करेंगे।हे मेरी उत्तम शक्ति तुम एकादशी तिथि को उत्पन्न हुई हो इस कारण तुम्हारा नाम भी एकादशी होगा।


एकादशी का महत्व:-शुक्ल पक्ष की और  कृष्णपक्ष की एकादशी दोनों धार्मिको के लिए समान होती हैं, इन दोनों पक्षों की एकादशी में भेद बुद्धि ठीक नहीं हैं।

◆इस तरह जो एकादशी का व्रत करते हैं, उन मनुष्यों को शंखों शंखोद्धार तीर्थ में स्नान करके भगवान के दर्शन से जो पुण्य होता हैं,वह एकादशी व्रत के पुण्य के सोलहवें हिस्से के भी बराबर नहीं है,व्यतिपात योग में संक्रांति समय में, चन्द्र-सूर्य ग्रहण में, कुरुक्षेत्र में स्नान से जो फल प्राप्त होता है, वह सब एकादशी के व्रत करने से मनुष्य को प्राप्त होता है।

◆अश्वमेघ यज्ञ करने से जो फल होता है उससे सौ गुना अधिक पुण्य एकादशी व्रत को करने से मिलता है जिस मनुष्य एक सहस्त्र तपस्वी साठ हजार साल भोजन करे,उसे जो पुण्य मिलता है सो एकादशी व्रत से भी होता है।

◆वेद में वेदांग पूर्ण ब्राह्मण को एक हजार गौदान करने से जो पुण्य होता हैं,उससे दस गुना अधिक पुण्य एकादशी व्रत से होता है।

◆दस उत्तम ब्राह्मणों मो भोजन करने से जो पुण्य होता है, उससे दस गुना अधिक पुण्य एकादशी व्रत से होता है।

◆दस उत्तम ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो पुण्य होता है उससे दस गुना अधिक ब्रहाचारियो के भोजन से होता है।

◆इससे हजार गुना अधिक कन्या और भूमिदान से पुण्य है इससे दस गुना अधिक विद्यादान से पुण्य है,विद्यादान से दस गुना अधिक पुण्य भूखे को अन्न देने से होता है।

◆अन्न दान के बराबर और दूसरा पुण्य नहीं है। 

◆इसके द्वारा स्वर्गीय पितर तृप्त होते है इसके पुण्य का प्रभाव देवताओं को भी जानना दुर्लभ है।

◆नत्तव्रत करने का आधा फल एक भुक्त व्रत से होता है।एकादशी को इनमे से कोई करना चाहिए।तीर्थ तभी तक गर्जना करते है,दान नियम यम अपने फल को तभी तक घोषणा करत है,यज्ञों का फल तभी तक है।

◆जब तक कि दस एकादशी प्राप्त नहीं हुई है।इस कारण अवश्य एकादशी व्रत करना चाहिए।

◆शंख से जल नहीं पीना चाहिए।

◆मछली और सुआ नहीं खाना चाहिए और अन्न नही खाना चाहिए, एक एकादशी के समान हजार यज्ञ भी नही है।

एकादशी तिथि के दिन उपवास करने वाले के सम्पूर्ण पापो को दूर कर मैं उन्हें उत्तम गति दूंगा।विशेष कर अष्टमी,चतुर्दशी एकादशी ये तिथियाँ मुझे बहुत ही प्यारी है।

हे पार्थ! सब तीर्थों से सब दानों से,सब व्रतों से अधिक पुण्य एकादशी तिथि में है।

◆विष्णु भगवान इतना वर देखे वही अंतर्ध्यान हो गए और एकादशी तिथि भी वर पाकर परम् सन्तुष्ट तथा हर्षित हुई। हे धनंजय!जो मनुष्य एकादशी का व्रत करते है,मैं उनके शत्रुओं को नाश करके अवश्य उत्तम फल देता हूँ।इस तरह एकादशी की उत्पत्ति हुई है।

◆यह नित्य एकादशी व्रत सब पापी को नाश करने वाला है। सब पापो को दूर करने वाला और सभी तरह के मन की इच्छाओं को सिद्ध करने के लिए यह एक तिथि प्रसिद्ध है।

◆शुक्ल पक्ष की एकादशी अथवा कृष्णपक्ष की एकादशी इन दोनों में भेद करना उचित नहीं है।दोनों समान है।

◆जो एकादशी का माहात्म्य जो हमेशा सुनता या पाठ करते है उन्हें अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है।

◆जो विष्णुपरायण मनुष्य दिन-रात विष्णुजी के द्वारा विष्णुजी की कथा सुनते ही वह अनेक कोटि पुरुष के साथ विष्णुलोक में जाकर पूजित होते है।

◆जो एकादशी माहात्म्य का चतुर्थांश भी सुनते ही उसको ब्रह्म हत्यादिक पाप छूट जाते है। विष्णुधर्म नहीं है और एकादशी व्रत के समान दूसरा व्रत नहीं है।