इन्दिरा एकादशी व्रत कथा,विधि और महत्व(Indira Ekadashi fast story, method and importance):-आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को 'इन्दिरा एकादशी' कहते है।
इन्दिरा एकादशी के व्रत के दिन सालीग्राम की पूजा करनी चाहिए।
इस एकादशी व्रत में सालीग्राम पर तुलसीदल जरूर अर्पण करना चाहिए।
धर्मराज ने कहा:हे श्रीकेशवजी!आप कृपया करके आश्विन महीने के कृष्णपक्ष में आने वाली एकादशी के बारे में मुझे बताये,उस एकादशी को कैसे करे,क्या विधि-विधान हैं और कौनसे देव या देवी का पूजन होता है?आप से अरदास करता हूँ कि आप मुझे पूरी जानकारी देवे।
भगवान श्रीकेशवजी ने कहा:हे राजन्!तुम आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी के बारे में जानने की चाह रखते हो,तुम अपने मन को एक जगह पर स्थिर करते हुए ध्यान से सुनना।मैं तुम्हें पूरी जानकारी देता हूँ।आश्विन मास के कृष्णपक्ष में आने वाली एकादशी को 'इन्दिरा' के नाम से जाना जाता हैं।इस एकादशी के व्रत के असर स्वरूप किये गये बड़े-बड़े पापों का नाश हो जाता हैं और जन्म-मरण के चक्कर से मुक्ति मिल जाती है।जो पितर नीच योनि को प्राप्त कर चुके है,उनको इस एकादशी से अच्छी गति मिल जाती है।
श्रीकेशवजी ने कहा कि:हे कुंती पुत्र धर्मराज इस विषय में मैं तुम्हें एक कथा सुनाते हूँ, तुम ध्यान पूर्वक सुनना।
इंदिरा एकादशी व्रत की पौराणिक कथा:-पुराने समय की बात है।एक नगर था,उस नगर का नाम माहिष्मती था।उस माहिष्मती नगर पर बहुत ही ज्यादा प्रसिद्ध राजा राज्य करते थे,उस नगर के राजा का नाम इन्द्रसेन था।उस समय सतयुग चल रहा था।राजा इन्द्रसेन धर्मपूर्वक अपनी प्रजा का ध्यानपूर्वक ख्याल रखते हुए उनका पालन-पोषण करते थे।इस तरह के द्वारा अपनी प्रजा को सन्तान के रूप में पालन करते रहने से उनका यश चारों फैल चुका था।प्रजा राजा की भूरी-भूरी प्रसंशा करती थी।राजा के माता-पिता का स्वर्गवास हो चुका था।राजा इन्द्रसेन भगवान श्रीमाधव जी के परम भक्त थे,भगवान की भक्ति में हमेशा तैयार रहते थे।भगवान वासुदेवजी की भक्ति में हमेशा डूबे रहते थे और भगवान की भक्ति में डूबे रहते हुए भगवान श्रीकेशवजी के मुक्तिदायक नामों का जाप करते हुए अपने जीवन का समय को बिताया करते थे और विधिपूर्वक आध्यात्मक तत्त्व के सोच में विचार करते रहते थे।एक दिन राजा इन्द्रसेन अपनी राजसभा में आराम पूर्वक बैठे हुए थे।
उस राजसभा में उसी समय देवर्षि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र नारदजी देवलोक से उतरकर उस राजसभा में आ गए।इस तरह नारदजी को अपनी राजसभा में आया हुआ देख कर राजा इन्द्रसेन ने नारद जी को हाथ जोड़कर खड़े हो गए और उनको नमस्कार किया।उसके बाद नारदजी का विधिपूर्वक पूजन करके उनको बैठने के लिए आसन पर बिठाया।इसके बाद राजा इन्द्रसेन ने कहा:'हे मुनिश्रेष्ठ।आपकी कृपा दृष्टि के प्रभाव से मेरा सभी तरह से कुशल है।आपके दर्शन हो जाने से मेरे सभी तरह के यज्ञ क्रियाएं सफल हो गयी।देवर्षे!आपके आने का क्या प्रयोजन है,कृपया करके मुझे बताएं?
नारदजी बोले:हे उत्तम राजन।मेरी बात को ध्यानपूर्वक सुनो।मेरे द्वारा बताई गई बात तुनको आश्चर्य में डाल देगी।मैं ब्रह्मलोक से भ्रमण करते-करते यमलोक में गया था।मुझे यमराज ने उत्तम आसन पर बैठकर यमराज ने भक्तिभाव पूर्वक मेरी पूजा की।उसी समय मैंने यमराज की सभा में तुम्हारे पिता को भी देखा था।तुम्हारे पिता ने तुमसे कहने के लिए मेरे द्वारा समाचार दिए कि,तुम उस सन्देश को ध्यानपूर्वक सुनो।उन्होंने कहा है कि पुत्र।मुझे इंदिरा एकादशी के व्रत का पुण्य देकर तुम मुझे स्वर्गलोक में भेजो।'उनका समाचार लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ।
राजन्।तुम अपने पिता श्री को यमलोक से मुक्त कराकर उनको स्वर्गलोक की प्राप्ति कराने के लिए 'इंदिरा एकादशी का व्रत करो।
राजा इन्द्रसेन बोले:हे भगवन्।मुझे 'इंदिरा एकादशी के व्रत के बारे बताये।आपसे अनुरोध करता हूँ।कि आप कृपा करके इस व्रत की विधि-विधान के बारे में मुझे जानकारी प्रदान करें।इस व्रत को किस मास के किस पक्ष करना है,उसका पूर्ण विवरण देवे।
नारदजी बोले:राजेन्द्र। तुम अपने मन को एक जगह पर केंद्रित करके मेरी बात को ध्यानपूर्वक सुनये।मैं तुम्हें इस व्रत की शुभकारक विधि-विधान बतलाता हूँ।
इन्दिरा एकादशी व्रत की विधि-विधान:-
आश्विन मास के कृष्णपक्ष में दशमी तिथि के दिन श्रद्धापूर्वक अपने मन से सुबह जल्दी उठकर स्नान करना।
फिर मध्याह्नकाल में स्नान करके अपने मन को एक जगह पर स्थिर करके पूरे दिन-रात के समय में केवल एक बार भोजन को ग्रहण करना।
रात्रिकाल में ईश्वर का गुणगान करते हुए जमीन पर सो जाना।
रात्रि के अंतिम समय में निर्मल प्रभात होने पर एकादशी के दिन दातुन करके मुहँ को धोवे।
इसके बाद में भक्तिभाव रखते हुए निम्नलिखित मंत्र को मन ही मन में दोहराते हुए उपवास व्रत के नियम को ग्रहण करे।
अघ स्थित्वा निराहारः सर्व भोगविवर्जितः।
श्वो भोक्ष्ये पुण्डरीकाक्ष शरणं मे भवाच्युत।।
अर्थात्:-'कमलनयन भगवान नारायण!आज मैं सब तरह के भोगों से अलग हो निराहार रहकर कल भोजन करूँगा।अच्युत।आप मुझे शरण देवे।
इस तरह नियम करके मध्याह्नकाल में पितरों की खुसी के लिए शालग्राम शिला के सामने विधिपूर्वक श्राद्ध करे।
ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर उनको सन्तुष्ट करे।
अपने सत्कार पूर्वक ब्राह्मणों को भोजन करावे।
पितरों को दिए हुए अन्नमय पिण्ड को सूंघकर गाय को खिला देवे।
उसके बाद धूप और गन्ध आदि से भगवान हृषिकेश का पूजन-अर्चना कर।
उसके बाद रात्रि के समय भगवान हृषिकेश की मूर्ति के सामने उनका गुणगान करते हुए जागरण करे।
उसके बाद सुबह होने पर द्वादशी के दिन पुनः भक्तिपूर्वक श्रीहरि की पूजा करनी चाहिए।
उसके बाद ब्राह्मणों को भोजन कराकर भाई, बन्धु,नाती और पुत्र आदि स्वयं मौनव्रत रहते हुए स्वयं भोजन ग्रहण करे।
राजन्।इस विधि से आलस्यरहित होकर यह व्रत को करो।इससे तुम्हारे पीतर भगवान विष्णुजी के विष्णुधाम में चले जायेंगे।
भगवान श्रीकेशवजी बोले:राजन्!राजा इन्द्रसेन से ऐसा कहकर देवर्षि नारद जी अंतर्धान हो गए।राजा ने नारद जी के द्वारा बताई हुई विधि से अन्तःपुर की रानियों,पुत्रों और भृत्यों सहित उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान किया।
कुंती पुत्र धर्मराज।व्रत के पूर्ण होने पर आकाश लोक से पुष्पों की बारिश होने लगा।इन्द्रसेन के पिता गरुड़ पर आरूढ़ होकर श्रीविष्णुधाम को चले गए और राजर्षि इन्द्रसेन भी निष्कण्टक राज्य का उपभोग करके अपने पुत्र को राजसिंहासन पर बैठकर स्वयं स्वर्गलोग को चले गए।इस तरह मैंने तुम्हारे सामने'इन्दिरा एकादशी व्रत के माहात्म्य का वर्णन किया।इसको पढ़ने और सुनने से मानव के सब पापों से मुक्त हो जाता है।इस तरह इस व्रत की इसी दिन से शुरुआत हुई और आज तक चल रही है।