मंगला गौरी व्रत उद्यापन विधि, कथा और महत्व (Mangla Gauri vrat udyaapan vidhi, katha and importance):-श्रावण के महीने में आने वाले सब मंगलवार को मंगला गौरी का व्रत करना चाहिए। इस व्रत में माता गौरी जी का पूजा-अर्चना करने का शास्त्र मत बताया गया है। यह व्रत मंगलवार को करने से इस व्रत को मंगला गौरी व्रत कहते है।
मंगला गौरी व्रत विधि:-मंगला गौरी व्रत मुख्यतया औरतों के द्वारा ही किया जाता है।
◆इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर अपनी दैनिकचर्या से निवृत होकर उस दिन सिर धोकर स्नानादि करना चाहिए उसके बादमें स्वच्छ वस्त्रों को धारण करना चाहिए।
◆फिर अपने घर में जहां पर पूजा करनी होती है उस स्थान को साफ-सुथरा करके उस पूजा की जगह पर एक लकड़ी का बाजोट या किसी भी वस्तु का उपयोग करते हुए एक चौकी बनानी चाहिए उस चौकी पर साफ व नवीन एक सफेद और एक लाल रंग का वस्त्र बिछाना चाहिए।
◆सफेद रंग कपड़े पर नव ग्रहों के नाम की नौ चावल की ढेरियां बनाकर नवग्रहों को स्थापित करना चाहिए।
लाल रंग के वस्त्र पर षोडश मातृका की गेंहू से सोलह ढेरियां बनाना चाहिए।
◆उसी चौकी के एक तरफ गेहूं या चावल व पुष्प रखकर उस ढ़ेरी पर भगवान गणपतिजी की प्रतिमा या फोटो को स्थापित करना चाहिए और चौकी की एक ओर कोने पर गेहूं या अक्षत की ढ़ेरी बनाकर उस पर तांबे का कलश पानी से भरकर वरुणदेव के रूप में स्थापित करना चाहिए और कलश पर आम के पत्ते या पंच पल्लव के पत्ते को लगाना चाहिए।
◆उसके बाद एक चार मुखी दीपक को आटे से बनाकर और सोलह धूप बाती बनाकर प्रज्वलित करना चाहिए।
◆उसके बाद में विघ्नहर्ता श्रीगणपति जी को स्मरण करते हुए उनको पूजा में आमंत्रित करके उनकी पूजा शुरू करनी चाहिए।
गणपति जी को चन्दन,रोली, पान, सुपारी, सिंदूर, पंचामृत, जनेऊ, अक्षत, पुष्प, बेल के पत्ते, इलायची, मेवा, प्रसाद तथा दक्षिणा को अर्पण करना चाहिए।
उसके बाद में गणपति जी की आरती को करना चाहिए।
◆उसके बाद कलश के रूप में स्थापित वरुण देवजी का पूजा करनी चाहिए।
एक मिट्टी के सकोर में आटा रखकर उस पर सुपारी को रखते है और दक्षिणा आटे में दबा देनी होती है। फिर बिल के पत्ते को अर्पण करते है। अब गणपति जी की तरह ही सभी सामग्री से कलश के रूप में स्थापित वरुणदेव की पूजा करना चाहिए। लेकिन कलश पर सिंदूर एवं बेल के पत्ते को नहीं अर्पण करना चाहिए।
इनके बाद नवग्रहों के रूप में अक्षत से बनी नव ढेरियों की पूजा करनी चाहिए।
उसके बाद गेहूं या अक्षत से सोलह बनी ढेरियों जो कि षोड़श माता के प्रतीक के रूप में होने से उनकी पूजा करनी चाहिए इन सोलह ढेरियों पर रोली एवं जनेऊ को नहीं चढ़ाना चाहिए। इन सोलह ढेरियों पर मेहन्दी, हल्दी और सिंदूर अर्पण करना चाहिए। इनका पूजन भी गणपति जी और वरुणदेव की पूजा की वैसे ही करनी चाहिए।
आखिर में माता मंगला गौरीजी का पूजन भी करना चाहिए।
माता मंगला गौरी जी का पूजन करने के लिए एक थाली में चकला रखकर उस पर माता मंगला गौरी की मिट्टी से मूर्ति बनाएं या मिट्टी की पाँच डलियां रखकर उन्हें मंगला गौरी माता का प्रतीक मानकर पूजा करे। आटे की लोई बनाकर रखनी होती है।सबसे पहले मंगला गौरी को पंचामृत (जल, दूध, घी, दही और चीनी) बनाकर पूर्ण स्नान करवाना चाहिए उसके बाद उनको वस्त्र पहनाना चाहिए फिर नथ, काजल, सिंदूर, चन्दन, हल्दी, मेहन्दी आदि से श्रृंगार करना चाहिए। उसके बाद सोलह तरह के पुष्प, सोलह माला, सोलह तरह के पत्ते, सोलह फल, सोलह लौंग, सोलह इलायची, सोलह आटे के लड्डू, सोलह जीरा, सोलह धनिया, सोलह बार सात तरह का अनाज, पांच तरह का मेवा, रोली, मेहन्दी, काजल, सिंदूर, तेल, कंघा, शीशा, सोलह चूड़ियाँ, एक रुपया और वेदी दो, उन पर दक्षिणा चढ़ाकर मंगला गौरी की कथा सुननी चाहिए। चौमुखा दीपक बनाकर उसमें सोलह तार की चार बत्ती बनाकर और कपूर से आरती उतारनी चाहिए। इसके बाद सोलह लड्डुओं का भायना अपनी सासुजी को देकर उनसे आशीर्वाद को प्राप्त करना चाहिए। इसके बाद बिना नमक की एक ही अन्न की रोटी कर भोजन को ग्रहण करना चाहिए। सवेरे दूसरे दिन मंगला गौरी को समीप के कुएं, तालाब, नदी आड़ू में विसर्जित करके भोजन को ग्रहण करना चाहिए।
मंगला गौरी व्रत के उद्यापन विधि:-श्रावण मास में जितने भी मंगलवार आये, उन दिनों यह व्रत करके मंगला गौरी का व्रत करना चाहिए। यह व्रत विवाह के बाद पांच वर्षों तक करना चाहिए। विवाह के बाद प्रथम श्रावण पीहर में तथा अन्य चार वर्षों में पति के घर में यह व्रत किया जाता हैं। चार वर्ष श्रावण मास के सोलह या बीस मंगलवारों का व्रत करने के बाद इस व्रत का उद्यापन करना चाहिए। क्योंकि बिना उद्यापन के यह व्रत निष्फल होता हैं।
मंगला गौरी व्रत का उद्यापन श्रावण के सोलह या बीस मंगलवार के व्रत करने के बाद करना चाहिए। उद्यापन के दिन कुछ भी नहीं खाना चाहिए। इस दिन ब्राह्मण द्वारा हवन कराकर कथा सुननी चाहिए और सोलह सहपत्नीक ब्राह्मणों को भोजन करा कर सुहाग पिटारी व दक्षिणा देवें। दक्षिणा अपने सामर्थ्य के अनुसार देनी चाहिए।
साथ ही अपनी सासुजी को कपड़ा, सुहाग पिटारी रुपये, सोलह लड्डुओं का वायना निकालकर उनको देना चाहिए और चरण स्पर्श करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। आखिर में सबको भोजन करने के बाद ही खुद भोजन को ग्रहण करना चाहिए।
।।जय मंगला गौरी।
मंगला-गौरी व्रत कथा:-कुण्डिनपुर में धर्मपाल नामक एक धनी सेठ रहता था। उसकी पत्नी सती, साध्वी एवं पतिव्रता थी। परन्तु उनके कोई पुत्र नहीं था। सब प्रकार के सुखों से समृद्ध होते हुए भी वे दम्पत्ति बड़े दुःखी रहा करते थे। उनके यहां एक जटा-रुद्राक्षमालाधारी भिक्षु प्रतिदिन आया करता था। सेठानी ने सोचा कि भिक्षु को कुछ धन आदि दे दें। सम्भव हैं कि इसी पुण्य से मुझे पुत्र प्राप्त हो जाए। ऐसा विचार कर पति की सहमति से सेठानी ने भिक्षु की झोली में छिपाकर सोना डाल दिया। परन्तु इसका परिणाम उल्टा ही हुआ।भिक्षु अपरिग्रहवृति (एकत्रित नहीं करना) थे।
उन्होंने अपना व्रत भंग हो जाने पर सेठ-सेठानी को सन्तान हीनता का श्राप दे डाला। फिर बहुत अनुनय-विनय करने से उन्हें मंगला गौरी की कृपा से एक अल्पायु पुत्र प्राप्त हुआ। उसे गणेश ने सोलहवें वर्ष में सर्पदंश का श्राप दे दिया था। परन्तु उस बालक का विवाह ऐसी कन्या से हुआ, जिसकी माता मंगला गौरी का व्रत किया था। उस व्रत के प्रभाव से उत्पन्न कन्या विधवा नहीं हो सकती थी। अतः वह बालक शतायु हो गया। न तो उसे सांप ही डस स्का और न ही यमदूत सोलहवें वर्ष में उसके प्राण ले जा सके। इसलिए ये व्रत प्रत्येक नवविवाहिता को करना चाहिए। काशी में इस व्रत को विशेष समारोह के साथ किया जाता हैं।
मंगला गौरी व्रत विस्तार से:-इसके करने से वैधव्य का नाश होता हैं। सभी पापों को नष्ट करने वाला हैं। विवाहोत्तर पांच साल तक इस व्रत को करें। विवाह के अनन्तर पहले श्रावण शुक्ल पक्ष के पहले मंगलवार को इस व्रत का शुभारंभ करें। पुष्प मण्डप निर्माण कर उसे कदली स्तम्भ से शोभित करें। नाना प्रकार के फलों तथा रेशमी कपड़ों से विभूषित करें। उसमें देवी की प्रतिमा में मंगला गौरी का षोड़श उपचारों से, सोलह दूर्वा दलों और सोलह चिड़-चिड़ दलों से सोलह चावल तथा सोलह चने की दाल से अर्चन करें। सोलह बत्तियों का एक दीपक हो या सोलह दिप जलाकर भक्ति द्वारा दही तथा चावल का नैवेद्य समर्पण करें। देवी नजदीक सिला-लोढ़ी रखें। इस प्रकार पांच साल तक व्रत करें। फिर उद्यापन कर माता को बायना दे। बायना का प्रकार सुने।
मंगला गौरी की एक पल सोने की प्रतिमा या आधे पल या आधे के आधे पल या यथा शक्ति सोने या सोने की पॉलिश की प्रतिमा बनवावें। श्रद्धानुसार सोने-चांदी या स्टील के घड़े (कलश) को चावलों से भरें। उसके ऊपर पहनने के कपड़े रखें। देवी के नजदीक सिला-लोढ़ी रखे। इस प्रकार माता के लिए बायना दें। हे विष्णु! इस प्रकार व्रत करने से मात्र से सात जन्म तक अखण्ड सौभाग्य रहता हैं। पुत्र-पौत्र आदि से युक्त होकर क्रीड़ा करती हैं। सनत्कुमार ने ईश्वर से पूछा-हे शम्भो! इस व्रत को पहले किसने किया और क्या फल मिला? ईश्वर बोले-हे विष्णु! पूर्वकाल में कुरुदेश में श्रुति कीर्ति नाम का शास्त्रज्ञाता, कीर्तिमान शत्रु रहित राजा था।
वह चौसठ कलाओं का ज्ञाता, धनुर्विद्या विशारद था। पुत्र सुख को छोड़ उसको सब आनन्द था। सन्तान के लिये वह बहुत चिन्तित-व्याकुल था। जप तथा ध्यानयुक्त होकर देवी की आराधना की। उसके इस तप से ही देवी प्रसन्न होकर उससे बोली-हे व्रती! वर मांग। जब श्रुति कीर्ति ने कहा-हे देवी! आप यदि प्रसन्न हैं तो शोभन पुत्र दो। हे देवी! आपकी कृपा रूपी आशीर्वाद से किसी अन्य चीज की कमी नहीं हैं। राजा की बात सुनकर मन्द-मन्द मुस्कुराती हुई उस देवी ने कहा-हे राजन! तुम दुर्लभ वस्तु की याचना करते हो, लेकिन कृपा कर तुमको पुत्र दूंगी। हे राजेन्द्र सुनो! पुत्र अत्यंत गुणी होगा।
लेकिन सोलह साल से अधिक नहीं जीवित रहेगा। यदि सुंदरता तथा विद्याविहीन पुत्र होगा तो वह बहुत समय तक जीवित रहेगा। देवी की वाणी सुनकर राजा चिंता करने लगा। उसने अपनी भार्या से विचार कर गुण विशिष्ट पूर्ण लक्षण युक्त, सोलह साल की आयु वाला पुत्र मांगा। देवी ने उस समय भक्त राजा के लिए आज्ञा दी। हे नवनंदन! मेरे दरवाजे पर आम का पेड़ हैं। मेरी आज्ञा से उस पेड़ के फल को लेकर अपनी पत्नी को खाने को दो, उसके खाने से उसी समय रानी निःसन्देह गर्भ धारण करेगी। राजा प्रसन्न होकर देवी की आज्ञा से अपनी पत्नी को आम खाने को दे दिया। जिसके खाने से पत्नी ने गर्भ धारण किया।
उसने दसवें महीनें में देव तुल्य पुत्र का जन्म हुआ। हर्ष से सम्पन्न राजा ने पुत्र का जातकर्म आदि संस्कार कर दिया और शिव स्मरण करते हुए उसका नाम चिरायु रखा। जिस समय उसका सोलहवां साल प्रारम्भ हुआ, उसी दिन सपत्नीक राजा को चिन्ता होने लगी। राजा ने विचार किया कि यह पुत्र बड़े ही कष्ट व मन्नत से प्राप्त हुआ हैं। अपने समक्ष उसकी दुःखद मृत्यु कैसे देख पायेंगे। अतः राजा-रानी ने अपने पुत्र चिरायु को उसके मामा के साथ काशी भेजने का प्रबन्ध किया। यशस्विनी राजपत्नी ने अपने भाई से कहा-तुम कार्पटिक वेश धारण करके इस लड़के को काशी ले जाओ।मैंने पूर्व में पुत्र प्राप्ति के निमित्त भगवान मृत्युंज्य की प्रार्थना की थी हे विश्वेश!पुत्र की प्राप्ति पर जगतपति की यात्रा के लिए भेजूंगी। अतः पुत्र को इसी समय ले जाओ। इसकी यत्न से रक्षा करना।
वह अपनी बहिन की आज्ञा मानकर भानजे को साथ लेकर काशी गया।रास्ते में जाते हुए कई दिन बाद आनन्द नगर पहुंचे। वहां सम्पूर्ण समृद्धि से युक्त वीरसेन नाम का राजा था। उसकी कन्या सम्पूर्ण लक्षण सम्पन्न मंगला गौरी नाम वाली रूपलावण्य सम्पन्ना थी। उस समय वह बालिका सखियों सहित अपने गांव के समीप एक रमणीक बगीचें में खेलती थी। उसी वक्त राजा पुत्र चिरायु तथा उसका मामा दोनों वहां पहुंचे। वे दोनों बालिकाओं को देखने की इच्छा से ठहर गए। इतने समय में ही क्रीड़ा करती हुई इन बालिकाओं में से एक क्रोधित हो अत्यन्त कठिन दुर्वचन (गाली) कहा।
इस पर राजकुमार ने कहा- तुम अयोग्य वाणी क्यों कहती हो? मेरे वंश में ऐसी स्त्री नहीं हैं। मंगला गौरी के वर प्रसाद से तथा उसके व्रत के प्रभाव से मेरे हाथ से चावल जिसके मस्तक पर गिरे। हे सखी! उसके साथ विवाह हो जाने पर यदि थोड़ी आयु वाला हैं तो भी चिरायु हो जायेगा। तदन्तर सब बालिका अपने-अपने घर चली गयी। उसी रोज राजकुमार के विवाह का दिन था। बाल्हिदेश के दृढ़धर्मा राज के पुत्र सुकेतु को देना निश्चित हो चुका था। लेकिन वह सुकेतु मूर्ख, कुरूप तथा बहरा था। अतः वर पक्ष वालों ने मण्डल में अन्य अच्छा वर ले जाने का निश्चय किया।
विवाह होने पर वहां सुकेतु चला जायेगा। यह विचार कर चिरायु के समीप जाकर उसने मामा से कहा- यह बालक हमें दे दो, क्योंकि आपके बालक द्वारा हमारा कार्य सिद्ध होगा। इस भूमि पर परोपकार के तुल्य अन्य कोई धर्म नहीं हैं। यह वाणी सुनकर उसका मामा हृदय से राजी हुआ। क्योंकि उन्होंने पूर्व में वाटिका में बालिका की वाणी सुनी थी। लेकिन वर पक्षीय जनों से कहा-आप लोग इस बालक को क्यों चाहते हैं? कार्य सिद्ध के लिए वस्त्रालंकार आदि मांगा जा सकता हैं।
परन्तु वर की भिक्षा नहीं दी जा सकती हैं। आप लोगों के गौरवार्थ फिर भी मैं देता हूँ। उन्होंने चिरायु को ले जाकर विवाह कार्य सिद्ध किया। जब सप्तपदी आदि कार्य होने पर रात में गौरी शंकर के समीप वह सुप्रसन्न चित्त से राजकुमारी के साथ विवाह हो गया। उसी दिन चिरायु का सोलहवां वर्ष समाप्त था। उसी रात सांप के रूप में काल वहां आया। उस समय देवयोग से राजकन्या उठ गई। वह महासर्प को देख भय से विहल होकर कांपने लगी।
उसी समय राजकन्या ने सर्प की पूजा की। सोलह उपचार से अर्चन कर पीने के लिये बहुत-सा-दूध दिया और प्रार्थना की कि मैं उत्तम व्रत करूँगी। मेरे पति इस सर्प से जीवित हो तथा चिरंजीवी हो ऐसा कीजिए। उस समय सांप ने कमण्डलु में प्रवेश किया। अपनी काचुली चोली से राजकन्या ने उस कमण्डल का मुख बांधा। तदन्तर उसके पतिदेव शरीर के अंगों को ऐंठते हुए जाग उठे। अपनी पत्नी से कहा-हे प्रिय! मुझे भूख सता रही हैं। उसने माता के समीप जाकर पायस लाडू आदि लाकर पति को दिया। उसने प्रसन्नता से भोजन किया। हाथों को धोते समय उसके हाथ से अंगूठी गिर गई।वह जल-पान कर फिर से सो गए। फिर वह राजकुमार का कमण्डलु पात्र फेंकने गई। लेकिन विधि-विधान से बाहर जाने पर चमकते हुए हार की कान्ति को देखकर विस्मय को प्राप्त हो गयी। उस घट में स्थित हार को अपने गले में धारण किया।
कुछ रात शेष रही तो चिरायु का मामा उसे ले गया। चिरायु के जाने के बाद वर पक्षीय सुकेतु को ले गये। मंगला गौरी ने उस सुकेतु को देखा तो वह कहने लगी। यह मेरे स्वामी नहीं हैं। सभी वर पक्षीय महानुभाव राजकन्या से कहने लगे। हे शभे! यह क्या कह रही हो? यदि कोई पहचान हो तो कहो। तब मंगलागौरी ने कहा जिसने रात में नवरत्नों से निर्मित अंगूठी मुझे दी वह इस अंगुली में देखकर पहचान करो। रात में स्वामी पतिदेव ने मुझे हार दिया हैं। उस हार के रत्नों की सुन्दरता कैसी हैं, यह बतावें। यह तो कोई अन्य ही हैं।
रात्रि में आग्र सेवन के समय मेरे पतिदेव का केसर युक्त पैर मेरी जांघ में लगा हुआ है। सब लोग उसे भी देखें देरी नहीं करें। रात्रि के समय जो बातचीत हुई तथा भोजन क्या हुआ? जैसे भी यह कहे तो वही मेरा पति होगा। यह मंगला गौरी की वाणी सुनकर सब लोगों ने कहां ठीक हैं, ठीक हैं। लेकिन चिन्हों में से सुकेतु ने मना किया। वर पक्षीय जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। मंगला गौरी के पिता श्रुतकीर्ति ने प्रसन्न चित्त से अन्न-जल आदि का एक सत्र यज्ञ किया तथा वर पक्षीय सब कथा कानों-कान सुनी की स्वरूप के कुरूप हो जाने से आदर से किसी को ले आये थे। महल के बरामदे में चिक के भीतर कन्या को राजा ने बैठाया।
इस प्रकार एक साल यात्रा करते हुए अपने मामा के साथ वह फिर अपनी ससुराल का वृतान्त देखने के लिए आया। जब मंगला गौरी ने चिक के भीतर से उसे देखा तो लोकोत्तर प्रसन्न होकर अपने माता-पिता से पूर्व कही हुई सारी सहदगणों को बुलाकर राजा से पूर्व कहे हुए सारी पहचान देख पवित्र मुस्कान वाली पुत्री को चिरायु को दिया। शिष्ट लोगों के सहित राजा ने विवाहोत्सव का वस्त्राभरण आदि अश्व, गज, रथ तथा बहुत-सी चीजें देकर विदा किया। फिर वह चिरायु अपनी पत्नी एवं मामा के सहित कुलनन्दन सेना सहित अपने नगर गया। जब चिरायु के माता-पिता ने नगर के लोगों के मुखारविन्द से उसके आने का समाचार सुना तो विश्वास नहीं किया। क्योंकि भाग्य विपरीत कैसे हो सकता हैं? इसी बीच वह चिरायु माता तथा पिताजी के पास गया। प्रेम मग्न होकर चिरायु ने भक्ति द्वारा माता-पिता के चरणों में प्रणाम किया और माता-पिता ने उस चिरायु का मस्तक चूमकर परम आनन्द प्राप्त किया।
मंगला गौरी पुत्र वधू ने भी सास-ससुर को नतमस्तक होकर प्रणाम किया। पुत्र वधू को सास ने अपनी गोद में बैठाकर सब बात पूछी। हे महामने मंगला गौरी पुत्र वधू ने श्रेष्ठ व्रत महात्म्य जो कुछ इतिहास था सब कहा। शिव सनत्कुमार से कहते हैं कि सनत्कुमार इस मंगलागौरी व्रत को आपसे कहा। इसे जो भी सुनेगा व कहेगा उसके सभी मनोरथ सिद्ध होंगे। इसमें कोई संशय नहीं हैं।
मंगला गौरी व्रत का महत्व:-मंगला गौरी का व्रत सभी तरह के सुखों को प्रदान करने वाला होता है।
मंगला गौरी का व्रत स्त्रियों के द्वारा करने पर वैधव्य नाश होकर दीर्घ समय तक पति का साथ मिलता है।
मंगला गौरी के व्रत करने से व्रती के सभी तरह के पापों से मुक्ति मिल जाती है।