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Friday, May 7, 2021

पुंसवन संस्कार व्रत पूजा विधि, कथा, उद्यापन और महत्त्व (Pusvan sanskar vrat pooja vidhi, katha, udapana)

             


पुंसवन संस्कार व्रत पूजा विधि, कथा, उद्यापन और महत्त्व (Pusvan sanskar vrat pooja vidhi, katha, udapana and importance):-पुराने जमाने में लड़के या बेटे की चाहत ज्यादा थी। जिसके कारण मनुष्यों में यह लालसा रहती थी कि उनके बेटा हुवे,जिससे उनके वंश आगे बढ़ सके और परिवार का जीवन यापन और उनकी सुरक्षा कर सके। इसलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने कई तरह के तरीके बताये है जिनमें से एक तरीका पुंसवन संस्कार का भी है, इस संस्कार को करने पर पुत्र सन्तान की प्राप्ति होती है। हमारे धर्म शास्त्रों में और ज्योतिष विज्ञान के मुहूर्त शास्त्र में पुंसवन संस्कार का विस्तृत वर्णन मिलता है,की किस तरह स्त्री के गर्भाधान में भूर्ण की पुष्टि होने पर उस भूर्ण को पुरुष भूर्ण में कैसे बदले। इसके लिए विधि- विधान भी बताए गए है।


पुंसवन संस्कार (quacking of male child or punjaban sanskaar) का सन्धि विच्छेद:-'पुंसवन'संस्कृत भाषा का अक्षर है,जो पूस् और अवनम् से मिलकर बना है।

पूस् का मतलब पुरुष और अवनम् का मतलब कामना या इच्छा होता है।


पुंसवन संस्कार का मतलब:-पुत्र को पाने की इच्छा या कामना के लिए किये जाने वाले संस्कार को पुंसवन संस्कार कहते है।

पुंसवन संस्कार सन्तान की प्राप्ति के लिए होता है,विशेष कर पुत्र की प्राप्ति के लिए तथापि भागवत में पुंसवन व्रत को सभी कामनाओं की पूर्ति के साधन बताया है।

स्त्री में गर्भ का आधान के लक्षण मिलने पर दूसरे या तीसरे महीने में शुद्धिकरण सम्बन्धी जो संस्कार पुत्र या बेटे को उत्पन्न करने के लिए किया जाता है, उसे पुंसवन संस्कार कहते है।

माता के गर्भ आधान में भूर्ण के बारे में जानने के लिए किया जाता है।

पुंसवन संस्कार को स्त्री के पहले गर्भ के काल मे कर सकते है और पुंसवन संस्कार का विधान गर्भ के लक्षण मिलने पर या तीसरे महीने में करते है। लेकिन तीसरे महीने में गर्भ की पुष्टि नहीं होंने पर चौथे महीने में कर सकते है।

पुंसवन संस्कार को सीमन्तोन्नयन अर्थात केश सँवार कर मांग निकालना के समय पर भी करने का आधान भी है।


पुंसवन संस्कार व्रत की कथा:-कश्यप ऋषि ने दिति को एक बार एक व्रत कि विधि बताई थी,जिस व्रत का पालन करने के कारण दिति के मरूत् नाम के उनचास पुत्र हुए थे। यह कथा सुन कर राजा परीक्षित् ने शुक्रदेव से उस पुंसवन संस्कार के व्रत के करने की विधि को विस्तार से जाननी चाही।

पुंसवन व्रत मार्गशीर्ष मास की शुक्ल पक्ष की प्रतीपदा से शुरू होकर एक साल पर्यंत अगले साल के मार्गशीर्ष मास की अमावस्या तक चलता है।

शुरू में मरूद्गणों की कथा सुननी चाहिए। उसके बाद दाँतो को धोने तथा स्नान करने के बाद सफेद कपड़े पहन कर आभूषण को धारण करना चाहिए।

इसके बाद में बिना कुछ खाए-पिए प्रातःकाल भगवान लक्ष्मीनारायण की पूजा करनी चाहिए।

भगवान लक्ष्मीनारायण को प्रार्थना में कहना चाहिए कि हे भगवान आप पूर्णकाम है। आपको किसी से कुछ भी लेना-देना नहीं है। आप समस्त विभूतियों के मालिक है और सारी सिद्धियां आप में निवास करती हैं। आपको बारम्बार नमस्कार है। आप में कृपालुता, विभूति, तेज, महिमा और वीर्य आदि से गुण रहते है। आप सर्वशक्तिमान है। हे लक्ष्मी मां! आप भगवान की अर्द्धांगिनी और महामाया स्वरूपिणी है।आप मुझ पर प्रसन्न हो। आपको नमस्कार। 

इस तरह स्तुति करने के बाद भगवान और विभूतियों को हमेशा समस्त पूजा की सामग्री अर्ध्य, पाद्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, गन्ध, पुष्प, धूप, दिप और नैवेद्य-निवेदन करना चाहिए। इसके अनन्तर भगवान के लिए अग्नि में बारह आहुतियां देनी चाहिए। इस तरह भगवान लक्ष्मीनारायण की पूजा से समस्त सम्पत्तियां प्राप्त होती है और  समस्त मन की इच्छाएं भी पूरी होती है। 

इसके बाद  'ऊँ नमो भगवते महापुरूषाय महाविभूपतये स्वाहा' इस मंत्र का दस बार जाप करना चाहिए। तदनन्तर एक स्तोत्र का पाठ करना चाहिए जिसका अर्थ इस तरह है-

हे लक्ष्मीनारायण! आप सर्वव्यापक है। आप सबके अंतिम कारण है। आप कोई कारण नहीं। मां लक्ष्मी भगवान की माया शक्ति है।वे ही अव्यक्त प्रकृति है। भगवान स्वयं परमपुरुष है और महामाया के अधीश्वर है। लक्ष्मी यज्ञ क्रिया है और भगवान यज्ञ है। लक्ष्मी क्रिया है तो भगवान उस क्रिया के फल के भोक्ता है। लक्ष्मी शरीर, इंद्रियां और अन्तःकरण है और भगवान सब प्राणियों की आत्मा है। लक्ष्मी नाम-रूप है, भगवान नाम-रूप के प्रकाशक है। भगवान की कीर्ति पवित्र है। उनकी कृपा से सारी आशाएं पूरी होती है।

इसके बाद भगवान के सामने से नैवेद्य को हटा देना चाहिए और आचमन करना चाहिए। भक्तिभाव से भगवान की पूजा करके यज्ञविशेष को सूंघना चाहिए। पत्नी को पति की प्रिय वस्तुएं लाकर देनी चाहिए और पति को पत्नी की प्रिय वस्तुएं लाकर देंनी चाहिए। पति को पत्नी के छोटे-बड़े सभी कामों में पूरा-पूरा हाथ बंटाना चाहिए। 

पति-पत्नी से जो कोई भी एक काम करता है, उसका फल दोनों को मिलता है। इसलिए यदि पत्नी उपर्युक्त नियमों का पालन न कर पाए तो पति उन नियमों का पालन करना चाहिए, उन नियमों में से कोई भी नियम नहीं छूटना चाहिए। इस व्रत की अवधि में भगवान तथा सत्पुरुष एवं सन्नारियों का लगातार सम्मान करना चाहिए। पूजन के बाद में ही भगवान का प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।


पुंसवन संस्कार उद्यापन का समय और विधि-विधान:-एक साल के बाद इस व्रत का उद्यापन करना चाहिए। उद्यापन के दिन सुबह उठ कर विधिवत भगवान विष्णु जी का पूजन करें। उसके बाद में घृतमिश्रित खीर की अग्नि में बारह आहुति देवें। फिर तदनन्तर विद्वानों से आशीर्वाद लेवें।  फिर उनकी आज्ञा लेकर भोजन करें। सबसे पहले आचार्य को भोजन करना चाहिए।फिर मौन भाव से भाई-बन्धुओं सहित खुद भोजन करें। हवन से बची हुई घृतमिश्रित खीर खाने को देंनी चाहिए। इस प्रसाद को पाकर पत्नी की सब कामना पूरी होती है।

पुंसवन संस्कार का महत्व:-भागवत में पुंसवन व्रत की अपरम्पार महिमा का गुणगान बताया गया है। इस व्रत से भगवान परम् सन्तुष्ट होकर सारी इच्छाओं को पूरी कर देते है। यह व्रत औरतों के लिए विशेष रूप से है। वे इस व्रत से सौभाग्य,सम्पत्ति, सन्तान, यश,गृह आदि सब कुछ प्राप्त कर लेती है। यह व्रत रोगों से भी मुक्ति दिलाता है।

दिति ने इसी व्रत पालन करके मरूतों जैसे पुत्रों को प्राप्त किया था जिनकी गणना दिति से उत्पन्न होने पर भी दैत्यों में न होकर देवों में की जाती है।

पुराण वेदों के सरल व्याख्या करते है।श्रौत यज्ञों का अनुष्ठान तो अग्निहोत्री ही कर सकता है और वे सरल भी नहीं है।

पुराणों में श्रौत यज्ञों का स्मार्त्त रूप प्रकट किया गया। पुंसवन संस्कार का वेदों में उल्लेख है। अथर्ववेद के तीसरे काण्ड के 23 वें सूक्त में और छठे काण्ड के 11 वें सूक्त में पुंसवन संस्कार का वर्णन मिलता है। वहां पुंसवन संस्कार से निःसन्तान के सन्तानोत्पत्ति के नतीजे बताये गये है। कहा गया है कि पुंसवन संस्कार से गर्भ की रक्षा होती है। इस व्रत से बलवान, वीर तथा स्वस्थ सन्तान उतपन्न होती है।इस व्रत में किन्ही ओषधियों के सेवन का भी विधान है। विशेष बात यह है कि पति-पत्नी को परस्पर स्नेहशील होनी चाहिए। यह बात वेदों में भी कही गई है और ऊपर भागवत की कथा में इसी का विस्तार करते हुए यह भी कहा गया है कि पति-पत्नी को एक दूसरे का सहयोग करना चाहिए।

आज के युग के सन्दर्भ में यह बात विशेष महत्व है कि बालक के गर्भ में आने से लेकर ही पति-पत्नी का व्यवहार प्रेमपूर्ण हो तो बालक शरीर से स्वस्थ,मन से प्रसन्न और बुद्धि से प्रखर होता है। यदि दम्पति में परस्पर तनाव रहे तो सन्तान कुंठाग्रस्त होकर असामाजिक कार्यों में लिप्त हो जाती है। यह तथ्य आज का मनोविज्ञान भी स्वीकार करता है और वेदों ऋषियों को भी इस तथ्य की जानकारी थी। भागवत पुराण ने ऐसे अनेक लोक-कल्याण के सन्देश दिए है। इस वर्णन के साथ ही भागवत का षष्ठ स्कंध समाप्त हो जाता है।