श्री सत्यनारायण भगवान व्रत विधि, कथा और महत्व (Shri Satyanarayan Bhagwan vrat vidhi, katha and importance):-सत्यनारायण भगवान से अपनी समस्त मनोकामनाएं को पूरा करने के लिए उनका व्रत करना चाहिए। किसी भी माह के शुक्ल पक्ष के गुरुवार या पूर्णिमा तिथि के दिन व्रत को करना चाहिए।
सत्यनारायण भगवान के पूजन सामग्री:-केले के खंम्भे (कदलीस्तम्भ), कलश, चावल, धूप, पुष्पों की माला, पान के पत्ते, तुलसी दल, दिप, नैवेद्य, गुलाब के पुष्प, वस्त्र, आम के पत्तों का बन्धनवार, पांच रत्न, कपूर, रोली, फल, स्वर्ण प्रतिमा, जल, पंचामृत-शक्कर, दही, घी, शहद और तुलसी।
प्रसाद:-आटा, शुद्ध गाय का घृत और शक्कर से बना।
सत्यनारायण भगवान व्रत की विधि:-व्रत को करने वाले पूर्णिमा, संक्रान्ति या एकादशी के दिन सायंकाल स्नानादि से निवृत होकर, पूजा स्थान में आसन पर बैठकर श्री गणेशजी, गौरी, वरुण, विष्णुजी आदि सब देवताओं का ध्यान करके पूजन करें और संकल्प करें कि मैं श्रीसत्यनारायण जी स्वामी का पूजन व कथा श्रवण सदैव ध्यानपूर्वक करूँगा।
श्री गणेशजी, वरुण देव, देवी गोरी और विष्णु जी की षोडशोपचार पूजा करनी चाहिए।
षोडशोपचारैंः पूजा कर्म:-इस तरह भगवान विष्णु जी का षोडशोपचारैंः पूजा कर्म करना चाहिए-
पादयो र्पाद्य समर्पयामि, हस्तयोः अर्ध्य समर्पयामि,
आचमनीयं समर्पयामि, पञ्चामृतं स्नानं समर्पयामि
शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि, वस्त्रं समर्पयामि,
यज्ञोपवीतं समर्पयामि, गन्धं समर्पयामि,
अक्षातन् समर्पयामि, अबीरं गुलालं च समर्पयामि,
पुष्पाणि समर्पयामि, दूर्वाड़्कुरान् समर्पयामि,
धूपं आघ्रापयामि, दीपं दर्शयामि, नैवेद्यं निवेदयामि,
ऋतुफलं समर्पयामि, आचमनं समर्पयामि,
ताम्बूलं पूगीफलं दक्षिणांं च समर्पयामि।।
पुष्प हाथ में लेकर श्रीसत्यनारायण जी का ध्यान करे। यज्ञोपवीत पुष्प, नैवेद्य आदि से युक्त होकर स्तुति करे। हे भगवान, मैंने श्रद्धा पूर्वक फल, जल आदि सब सामग्री आपके अर्पण की है, इसे स्वीकार कीजिए। मेरा आपको बारम्बार नमस्कार है इसके बाद श्री सत्यनारायण जी की कथा पढ़े अथवा श्रवण करें।
।।पहला अध्याय।।
पहला अध्याय:-एक समय नेमिषारण्य तीर्थ में शौनकादि अट्ठासी हजार ऋषियों ने श्रीसूत जी पूछा-"हे प्रभु! इस कलयुग में वेद-विद्या रहित मनुष्यों को प्रभु भक्ति किस प्रकार मिलेगी तथा उनका उद्धार कैसे होगा? हे मुनि श्रेष्ठ! कोई ऐसा तप बताए जिस को करने से अल्प समय में पुण्य की प्राप्ति हो सके और मन की सभी तरह की कामनाएं की पूर्ति हो सके, उस तप की कथा सुनने को हमारी तीव्र इच्छा है। "सर्वशास्त्र ज्ञाता श्रीसूत जी बोले-"हे वैष्णवों में पूज्य! आप सब ने प्राणियों के हित की बात पूछी हैं। अब मैं उस श्रेष्ठ व्रत को आप लोगों से कहूंगा, जिस व्रत को नारद जी ने श्री लक्ष्मीनारायण भगवान से पूछा था।
यह कथा:- ध्यान से सुनो! एक समय, योगिराज नारदजी दूसरों के भलाई की कामना से अनेक लोकों में घूमते हुए मृत्युलोक में आ पहुंचे। वहाँ बहुत योनियों में जन्में हुए मनुष्यों को अपने कर्मों के द्वारा अनेक दुःखों से पीड़ित देखकर, किस यत्न को करने से निश्चय ही इनके दुःखों का अंत हो सकेगा, ऐसा मन में सोच कर इंद्रलोक को गए। वहाँ श्वेत वर्ण और चार भुजाओं वाले देवों के ईश्वर श्री नारायण जी को (जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पदम् थे तथा वरमाला पहने हुए थे) देखकर स्तुति करने लगे। "हे भगवान! आप अत्यन्त शक्ति से सम्पन्न हैं। मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती। आपका आदि मध्य अंत नहीं हैं। निर्गन स्वरूप सृष्टि के कारण भक्तों के दुःखों को नष्ट करने वाले हो। आपको मेरा नमस्कार हैं।
हे मुनि! श्रेष्ठ आपके मन में क्या हैं? आपका किस काम के लिए आगमन हुआ हैं? निःसंकोच कहो तब नारद मुनि बोले- "मृत्युलोक में सब मनुष्य जो अनेक योनियों में पैदा हुए हैं, अपने-अपने कर्मों के द्वारा अनेक दुःखों से दुःखी हो रहे हैं।हे नाथ मुझ पर दया रखते हो तो बताइए कि उन मनुष्यों के सब दुःख थोड़े से ही प्रयत्न से कैसे दूर हो सकते है।" श्री भगवान जी बोले- हे नारद! मनुष्यों की भलाई के लिए तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस काम के करने से मनुष्य मोह से हट जाता हैं वह मैं कहता हूं। सुनो- बहुत पुण्य देने वाला स्वर्ग तथा मृत्युलोक दोनों में दुर्लभ यह उत्तम व्रत अच्छी तरह विधानपूर्वक सम्पन्न करके मनुष्य मोह से छूट जाता हैं वह मैं कहता हूं। सुनो-बहुत पुण्य देने वाले व्रत तथा मृत्युलोक दोनों में दुर्लभ यह उत्तम व्रत है। आज मैं प्रेमवश होकर तुमसे कहता हूँ।
श्रीसत्यनारायण भगवान का यह व्रत अच्छी तरह विधानपूर्वक सम्पन्न करके मनुष्य तुरन्त ही यहाँ सुख भोगकर मरने पर मोक्ष को प्राप्त होता है।" श्री भगवान के वचन सुनकर नारद मुनि बोले कि उस व्रत का फल क्या हैं? क्या विधान हैं? किसने यह व्रत किया हैं और किस दिन यह व्रत करना चाहिए? हे भगवान मुझसे विस्तार से कहो। भगवान ओले- दुःख शोक आदि को दूर करने वाला, यह व्रत सब स्थानों पर विजयी करने वाला हैं। भक्ति और श्रद्धा के साथ किसी भी दिन मनुष्य श्रीसत्यनारायण की शाम के समय ब्राह्मणों और बन्धुओं के साथ धर्म परायण होकर पूजा करें। भक्तिभाव से नैवेद्य, केले का फल, घी, दूध और गेहूं का चूर्ण सवाया लेवे। गेहूं के अभाव में साठी का चूर्ण, शक्कर अथवा गुड़ लें तथा भक्ति-भाव से भगवान का स्मरण करते हुए समय व्यतीत करें। इस तरह इसे करने पर मनुष्यों की इच्छा निश्चय पूरी होती हैं। विशेष कर कलि-काल में मृत्युलोक पर यही मोक्ष का सरल उपाय हैं।
।।प्रथम अध्याय सम्पूर्ण।।
।।दूसरा अध्याय।।
दूसरा अध्याय:-सूतजी बोले-हे ऋषियों! जिसने पहले समय में व्रत को किया है उसका इतिहास कहता हूं ध्यान से सुनो। सुन्दर काशीपुरी नगरी में एक अत्यंत गरीब ब्राह्मण रहता था। वह भूख और प्यास से बेचैन हुआ पृथ्वी पर घुमता था। ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले श्री भगवान ने ब्राह्मण को दुःखी देखकर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण कर उसके पास जाकर आदर के साथ पूछा- हे विप्र! तुम नित्य ही दुःखी होकर पृथ्वी पर क्यों घूमते हो? हे श्रेष्ठ ब्राह्मण यह सब मुझसे कहो, मैं सुनना चाहता हूं। ब्राह्मण बोला-मैं गरीब ब्राह्मण हूँ, भिक्षा के लिए पृथ्वी पर फिरता हूँ।
हे भगवान! यदि आप इससे छुटकारे का उपाय जानते हो, तो कृपा करके बताए। वृद्ध ब्राह्मण बोला कि श्रीसत्यनारायण भगवान मनवांछित फल देने वाले हैं। इसलिए हे ब्राह्मण तू उनका पूजन कर जिसके करने से मनुष्य सब दुःखों से मुक्त होता हैं। ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान बतला कर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण करने वाले श्रीसत्यनारायण भगवान अन्तर्धान हो गए। जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण ने बतलाया हैं, मैं उसको करूँगा, यह निश्चय करने पर उस वृद्ध ब्राह्मण को रात में नींद नहीं आई। वह सवेरे उठ कर श्रीसत्यनारायण भगवान के व्रत का निश्चय कर भिक्षा के लिए चल दिया।
उस दिन उसको भिक्षा में बहुत धन मिला जिससे बन्धु-बांधवों के साथ उसने श्रीसत्यनारायण का व्रत किया। इसके करने से विप्र सब दुःखों से छूटकर अनेक प्रकार की सम्पत्तियों से युक्त हुआ। उस समय से वह विप्र हर मास व्रत करने लगा। इस तरह सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो करेगा। वह सब पापों से छूट जाता हैं। क्या कहूँ? ऋषि बोले-हे मुनीश्वर! संसार में इस विप्र से सुनकर किस-किस ने इस व्रत को किया हम सब सुनना चाहते हैं। इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा है।
सूतजी बोले- हे मुनियों! जिस-जिस ने इस व्रत को किया वो सब सुनो। एक समय यह वृद्ध ब्राह्मण धन और ऐश्वर्य के अनुसार बन्धु-बांधवों के साथ व्रत करने को तैयार हुआ। उसी समय एक लकड़ी बेचने वाला बूढ़ा आदमी आया और बाहर लकड़ीयों को रखकर विप्र के मकान में गया। प्यास से दुःखी होकर लकड़हारा उनको व्रत करते देखकर विप्र को नमस्कार कर कहने लगा कि आप यह किसका पूजन कर रहे है और इस व्रत को करने से क्या फल मिलता है? कृपा करके मुझसे कहो।
ब्राह्मण ने कहा-सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत हैं, इनकी ही कृपा से मेरे यहां धन-धान्य आदि की वृद्धि हुई हैं, विप्र से इस बारे में जानकर लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ। भगवान का चरणामृत ले और भोजन करने के बाद अपने घर को गया।
लकड़हारे ने अपने मन में इस प्रकार का संकल्प किया कि आज ग्राम में लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा उसी से सत्यनारायण देव का उत्तम व्रत करूंगा। यह मन में विचार कर वह बूढ़ा आदमी लकड़ीयां अपने सिर पर रखकर जिस नगर में धनवान लोग रहते थे, वह ऐसे सुन्दर नगर में गया। उस रोज वहां पर उसे उन लकड़ीयों का दाम पहले दिनों से चौगुना मिला और प्रसन्न होकर पके केले की फली, शक्कर, घी, दुग्ध, दही और गेहूं का चूरन इत्यादि श्रीसत्यनारायण भगवान के व्रत की कुल सामग्रियों को लेकर अपने घर गया।
फिर उसने अपने भाइयों को बुलाकर विधि के साथ भगवानजी का पूजन और व्रत किया।उस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन, पुत्र आदि से युक्त हुआ और संसार के समस्त सुख भोग कर बैकुण्ठ को चला गया।
।।दूसरा अध्याय सम्पूर्ण।।
।।तृतीय अध्याय।।
तृतीय अध्याय:-श्री सूतजी बोले-हे ऋषि-मुनियों! अब मैं आपको आगे की कथा सुनता हूँ। प्राचीन समय में कनकपुर में उल्कामुख नामक एक बुद्धिमान तथा सत्यवादी राजा राज करता था। वह प्रतिदिन मंदिर में जाकर श्रीसत्यनारायण भगवान की पूजा करता था और निर्धनों को खूब अन्न, वस्त्र और धन दान करता था। उसकी पत्नी सुभद्रा बहुत सुशील थी। वे दोनों हर महीने श्रीसत्यनारायण भगवान की पूजा करते थे। श्रीसत्यनारायण की अनुकम्पा से उनके महल में धन-सम्पत्ति के भण्डार भरे थे। उनकी सारी प्रजा बहुत आनन्द से जीवन-यापन कर रही थी।
एक बार राजा और रानी बहुत से लोगों के साथ जब भद्रशीला नदी के किनारे श्रीसत्यनारायण भगवान की पूजा कर रहे थे, तो नदी के किनारे एक बड़ी नौका आकर ठहरी। उस नाव में धनी व्यापारी यात्रा कर रहा था। वह बहुत-सा धन उस नाव में रखा हुआ था। नाव से उतरकर व्यापारी राजा के पास पहुंचा। राजा को पूजा करते देख उसने कहा, 'हे राजन! आप इन सब लोगों के साथ मिलकर किसकी पूजा कर रहे हैं?
इस पूजा के करने से मनुष्य को क्या लाभ होता हैं? राजा ने व्यापारी से कहा-,'हम हर पूर्णिमा को सत्यनारायण भगवान का व्रत करते हैं और फिर पूजा-अर्चना के बाद का प्रसाद लोगों को बांटकर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण करते हैं। सत्यनारायण भगवान की पूजा से निःसन्तान को सन्तान की प्राप्ति होती हैं। दुःखियों के दुःख दूर होते हैं।
राजा की बात सुनकर व्यापारी ने कहा, 'हे राजन! मैं भी सत्यनारायण भगवान का व्रत करना चाहता हूं। कृपया मुझे इस व्रत को करने की विधि बतलाएं। 'राजा ने व्यापारी को सत्यनारायण भगवान के व्रत की पूरी विधि बताई। राजा ने व्रतकथा सुनने के बाद व्यापारी को भी प्रसाद दिया। श्री सत्यनारायण भगवान का स्मरण करते हुए व्यापारी ने प्रसाद ग्रहण किया और वापस लौटकर अपनी पत्नी लीलावती से कहा, 'हमारी कोई सन्तान नहीं हैं।
कनकपुर के राजा उल्कामुख ने मुझे बताया है कि श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करने और उनकी कथा सुनने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। यदि सत्यनारायण भगवान की अनुकम्पा से हमारे कोई सन्तान हुई तो मैं श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत अवश्य करूंगा।
व्यापारी के ऐसा निश्चय करने के कुछ समय बाद लीलावती गर्भवती हुई। दसवें महीने में उसने एक सुन्दर कन्या को जन्म दिया। व्यापारी ने पुत्री जन्म पर बहुत खुशियां मनाई, लेकिन सत्यनारायण भगवान का व्रत नहीं किया।
जब उसकी पत्नी लीलावती ने अपने पति से श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत करने के लिए कहा तो वह बोला, 'अभी क्या जल्दी हैं। मैं इधर व्यापार में बहुत व्यस्त हूँ। मुझे अभी फुर्सत नहीं हैं। जब अपनी बेटी बड़ी हो जाएगी और इसका विवाह करूंगा तो मैं अवश्य श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करूंगा। अपने पति के वचन सुनकर लीलावती चुप रह गई। व्यापारी की कन्या कलावती शुक्लपक्ष के चन्द्रमा की तरह तेजी से बड़ी होने लगी। पलक झपकते ही सोलह वर्ष बीत गए। एक दिन व्यापार में बहुत-सा धन कमाकर घर लौटे व्यापारी ने अपनी बेटी को सहेलियों के साथ उपवन में घूमते देखा तो उसके विवाह की चिन्ता होने लगी। व्यापारी ने कलावती के लिए सुयोग्य वर ढूंढ़ने के लिए अपने सेवकों को दूर-दूर के नगरों में भेजा।
व्यापारी के सेवक कंचनपुर नगर में पहुंचे। उस नगर में उन्होंने एक वणिक पुत्र को देख। वणिक का बेटा अत्यंत सुन्दर और गुणवान था। सेवकों ने वापस लौटकर व्यापारी को उस वणिक ले बेटे के बारे में बताया। व्यापारी उस सुंदर लड़के को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और कलावती का विवाह धूमधाम से उसके साथ कर दिया। दहेज में उसने वणिक पुत्र को बहुत सा धन दिया। कलावती का विवाह भी हो गया, लेकिन व्यापारी ने श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत नहीं किया।
लीलावती ने अपने पति से कहा, 'नाथ! आपने कलावती के विवाह पर श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत करने का निश्चय किया था। अब तो आपको व्रत कर लेना चाहिए। 'पत्नी की बात सुनकर व्यापारी ने कहा, अभी तो मैं अपने दामाद के साथ व्यापार के लिए जा रहा हूँ, व्यापार से लौटने पर श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत-पूजा अवश्य करूंगा। 'यह कहकर व्यापारी ने कई नावों में सामान भरा और अपने दामाद तथा सेवकों के साथ व्यापार के लिए निकल पड़ा। उस व्यापारी द्वारा बार-बार व्रत का निश्चय करने और फिर व्रत न करने से सत्यनारायण भगवान क्रोधित हो गए और व्यापारी को दण्ड देने का निश्चय किया।
व्यापारी अपने दामाद के साथ रत्नसारपुर में पहुंचकर व्यापार करने लगा। एक दिन कुछ चोर महल में चोरी करके भाग रहे थे। सैनिक उनका पीछा कर रहे थे। भागते हुए चोरों ने सैनिकों से बचने के लिए चोरी का धन अवसर पाकर व्यापारी की नावों में छिपा दिया। खाली हाथ चोर आराम से भाग गए। चोरों का पीछा करते हुए सैनिक व्यापारी के पास पहुंचे।
उन्होंने व्यापारी की नावों की तलाशी ली तो उन्हें राजा का चोरी किया गया धन मिल गया। तब सैनिक व्यापारी और उसके दामाद को बंदी बनाकर राजा के पास ले गए। राजा ने उन दोनों को बन्दीगृह में डाल दिया और उनका सारा धन ले लिया। श्रीसत्यनारायण प्रकोप से उधर लीलावती पर भी मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। उसके घर में चोरी हो गई और चोर सारा धन चुराकर ले गए। घर में खाने के लिए भी अन्न का एक दाना नहीं बचा।
भूख-प्यास से व्याकुल होकर व्यापारी की बेटी कलावती एक ब्राह्मण के घर गई। उस ब्राह्मण के घर में श्री सत्यनारायण भगवान की व्रत कथा हो रही थी। उसने भी वहां बैठकर व्रत कथा सुनी और प्रसाद लिया। घर लौटकर कलावती ने अपनी मां लीलावती को सारी बात बताई। कलावती से श्रीसत्यनारायण भगवान की व्रत कथा की बात सुनकर लीलावती ने भी व्रत करने का निश्चय किया। अगले दिन लीलावती ने अपने परिवार और आसपास के लोगों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा की। पूजा के बाद सबको प्रसाद बांटकर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण किया। लीलावती ने अपने पति और दामाद के घर लौट आने की मनोकामना से श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत किया था।
लीलावती के विधिपूवर्क व्रत करने से और प्रसाद ग्रहण करने से श्री सत्यनारायण भगवान ने प्रसन्न होकर उसकी मनोकामना पूरी की। उन्होंने राजा चन्दकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा, 'हे राजन! व्यापारी और उसका दामाद बिल्कुल निर्दोष हैं। सुबह उठते ही दोनों को मुक्त कर दो। उन दोनों का सारा धन भी वापस लौटा दो।
यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं तुम्हारा सारा वैभव नष्ट कर दूंगा। इतना कहकर श्री सत्यनारायण भगवान अंतर्धान हो गए।प्रातः होते ही राजा चन्दकेतु ने अपने मंत्रियों और राजज्योतिषी को रात के स्वप्न की बात बताई तो सबने व्यापारी और उसके दामाद को छोड़ देने को कहा। राजा चंदकेतु ने तुरन्त अपने मंत्रियों व्यापारी और उसके दामाद को छोड़ दिया। उनका सारा धन भी वापस कर दिया।इस प्रकार श्री सत्यनारायण भगवान की अनुकम्पा से व्यापारी और दामाद दोनों खुशी-खुशी अपने नगर की ओर चल दिए।
।।तृतीय अध्याय समाप्त।।
।।चतुर्थ अध्याय।।
चतुर्थ अध्याय:-श्री सूतजी बोले, 'उस व्यापारी ने अपने दामाद के साथ शुभ मुहूर्त में नावों द्वारा रत्नसारपुर से प्रस्थान किया। लंबी यात्रा करने के बाद व्यापारी एक नगर के किनारे नावों को रोककर भोजन किया और फिर दोनों विश्राम करने लगे। तभी श्री सत्यनारायण भगवान साधु के रूप में व्यापारी के पास पहुंचे और पूछा, 'हे वणिक! तेरी नावों में क्या सामान लदा हुआ है?' व्यापारी ने मन ही मन में सोच, दण्डी साधु अवश्य ही कुछ मांगने की इच्छा से सामान के बारे में पूछ रहा हैं।
यह सोचकर व्यापारी ने झूठ बोला, 'हे दण्डी स्वामी! मेरी नावों में तो बेल और पत्र (पत्ते) भरे हुए हैं। व्यापारी के झूठे वचन सुनकर श्रीसत्यनारायण भगवान के रूप में बने साधु वेश रूपी भगवान बहुत क्रोधित होते हुए कहा, हे वैश्य! जो तुमने कहा हैं, वही सत्य होगा। इतना कहकर सत्यनारायण भगवान कुछ दूर जाकर अन्तर्धान हो गए।
उधर व्यापारी दण्डी साधु को वहां खाली हाथ लौटकर बहुत प्रसन्न हुआ। लेकिन जब व्यापारी ने अपनी नावों में बेल और पत्र (पत्ते) भरे हुए देखे तो वह जोर-जोर से विलाप करने लगा और मन ही मन अपने झूठ बोलने पर प्रायश्चित करने लगा। रोते-रोते व्यापारी मूर्च्छित हो गया। कुछ देर बाद जब उसकी मूर्च्छा नष्ट हुई तो वह फिर विलाप करने लगा।
तब उसके दामाद ने कहा, आप इतना मत दुःखी होइए। यह सब उस दण्डी साधु के शाप के कारण हुआ है। अतः वही दण्डी महाराज हमें इस विपत्ति से छुटकारा दिला सकते हैं। दामाद के वचन सुनकर व्यापारी दण्डी साधु की तलाश में चल दिया। कुछ देर ढूंढ़ने पर उसे एक वृक्ष के नीचे दण्डी साधु के रूपमें सत्यनारायण भगवान मिल गए। व्यापारी दण्डी साधु के चरणों पर गिरकर झूूूठ बोलने की क्षमा मांगी। दण्डी स्वरूप सत्यनारायण भगवान बोले, 'हे वणिक पुत्र! तेरे बार-बार झूठ बोलने के कारण ही मैंने तुझे इतना दण्ड दिया हैं। तूने बार-बार सत्यनारायण भगवान अर्थात मेरी पूजा करने के लिए कहा, लेकिन कभी पूजा की नहीं। 'व्यापारी ने हाथ जोड़कर कहा, 'हे भगवन! आप तो दीन-दुःखियों के कष्ट दूर करने वाले हैं।
सबकि मनोकामनाएं पूरी करते हैं। मेरी इस गलती को भी क्षमा करें। आपके रूप को तो ब्रह्मा भी नहीं जान पाते। फिर भला मैं अज्ञानी कैसे आपकी लीला को समझ पाता। अब मैं जीवन में कभी झूठ नहीं बोलूंगा। सदैव श्रीसत्यनारायण भगवान का व्रत और पूजा किया करूंगा। आप मुझ पर अनुकम्पा करें।' व्यापारी की क्षमा याचना सुनकर दण्डी साधु ने उसे क्षमा कर दिया।
उसी समय व्यापारी की नावों में भरे हुए बेल और पत्ते धन-धान्य में परिवर्तित हो गए। व्यापारी ने अपने सेवकों के साथ अगले दिन श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करके उनकी पूजा की। सबको प्रसाद वितरित करके स्वयं भी प्रसाद ग्रहण किया। उसके बाद व्यापारी ने अपने नगर की ओर प्रस्थान किया!
अपने नगर में पहुंचकर व्यापारी ने एक सेवक को अपने घर भेज। सेवक ने उसके घर पहुंचकर लीलावती को सूचित किया। उस समय लीलावती और कलावती दोनों श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा कर रही थीं। पति और दामाद के लौट आने का समाचार सुनकर लीलावती ने पूजा पूरी करके प्रसाद ग्रहण करने के बाद कलावती से कहा, 'बेटी! मैं नदी किनारे जा रही हूं तू घर का काम पूरा करके जल्दी आ जाना।' कहकर लीलावती नदी की ओर चल पड़ी। परन्तु कलावती पति से मिलने की खुशी में प्रसाद ग्रहण किए बिना ही घर से निकलकर नदी किनारे जा पहुंची।
उसके प्रसाद ग्रहण न करने के कारण सत्यनारायण भगवान क्रोधित हो उठे। उन्होंने व्यापारी की नावों को नदी में डुबो दिया। अपने पति को वहां न देख कलावती ने जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया। तब व्यापारी ने कहा, 'पुत्री! अवश्य ही तुझसे कोई भूल हुई है।
उस भूल के कारण श्री सत्यनारायण भगवान ने तुझे दण्ड दिया है।' तब व्यापारी ने सत्यनारायण भगवान से प्रार्थना की, 'हे भगवान! मेरे परिवार के किसी स्त्री-पुरुष से कोई भूल हुई हो तो उसे अवश्य क्षमा कर देना।' तभी आकाशवाणी हुई, 'हे वणिक पुत्र! तेरी कन्या मेरा प्रसाद ग्रहण किए बिना ही चली आई है। यदि अब घर पहुंचकर तेरी कन्या प्रसाद ग्रहण करके प्रसाद ग्रहण करके वापस आए तो उसे पति के दर्शन होंगे और डूबी हुई नावें भी जल के ऊपर आ सकेंगी।' कलावती ने वैसा ही किया। उसके प्रसाद ग्रहण करके वापस लौटने पर नावें जल के ऊपर आ गई।
दामाद भी सुरक्षित नदी से निकल आया। घर लौटकर व्यापारी ने अपने परिवार और बंधु-बांधवों के साथ मिलकर विधिनुसार श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा की उसकी सभी मंगलकामनाएं पूरी हुई और वह आनंद पूर्वक जीवन-यापन करता हुआ विष्णुलोक को चला गया।
।।चतुर्थ अध्याय समाप्त।।
।।पंचम अध्याय।।
पंचम अध्याय:-श्री सूतजी बोले, 'हे ऋषि-मुनियों! मैं और भी कथा सुनाता हूं। कौशलपुर में एक राजा राज्य करता था। उस राजा नाम तुंगध्वज था। तुंगध्वज राजा अपने राज्य में अपनी प्रजा का बहुत ध्यान रखते थे और उनकी प्रजा उनकी छत्रछाया में आनन्दपूर्वक जीवन को जी रही थी। राजा तुंगध्वज अपनी प्रजा के लोगों का सभी तरह से ध्यान रखते और उनके दुःख और सुख में बहुत मदद करते थे। लेकिन एक बार उसने भी सत्यनारायण भगवान का प्रसाद ग्रहण नहीं किया। तब सभी को चिंताओं से मुक्त करके, धन-सम्पत्ति से भण्डार भरकर प्राणियों को जीवन के सभी सुख देने वाले श्रीसत्यनारायण भगवान ने राजा को प्रसाद ग्रहण न करने का दण्ड दिया।
एक दिन राजा तुंगध्वज जंगल में हिंसक पशुओं का शिकार करने निकाला था। तेजी से घोड़ा दौड़ाकर शिकार का पीछा करते हुए वह अपने सैनिकों से अलग हो गया और देर तक हिंसक जानवरों का शिकार किया। अतः कुछ देर विश्राम करने की इच्छा से वह एक बड़े वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गया। समीप ही कुछ चरवाहे श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा कर रहे थे।
राजा ने उनके पास गुजरते हुए सत्यनारायण भगवान को नमस्कार नहीं किया। चरवाहों ने राजा को पूजा के बाद प्रसाद दिया, तो राजा ने उन्हें छोटे लोग समझकर प्रसाद ग्रहण नहीं किया और घोड़े पर सवार हो अपने नगर की ओर चल दिया। राजा जब नगर में पहुंचा तो देखा कि उसका सारा वैभव तथा धन-सम्पत्ति आदि नष्ट हो गया है। श्री सत्यनारायण भगवान के प्रकोप से राजा निर्धन हो गया। तब राज ज्योतिषी ने राजा से कहा, महाराज! आपसे अवश्य ही कोई भूल हुई है।
अगर आप उस भूल का प्रायश्चित कर लें तो सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा।" राजा को तुरन्त अपनी भूल का स्मरण हो गया। अतः मन्दिर में जाकर राजा ने श्री सत्यनारायण भगवान से क्षमा मांगी और उनकी पूजा की। पूजा के बाद प्रसाद ग्रहण करने से श्री सत्यनारायण भगवान की अनुकम्पा से चमत्कार हुआ। राजा का खोया वैभव पुनः लौट आया। श्री सत्यनारायण भगवान की अनुकम्पा से जीवन के सभी सुखों का भोग करते हुए अंत में राजा तुंगध्वज वैकुण्ठ धाम को गया और मोक्ष को प्राप्त किया।
श्री सत्यनारायण भगवान के व्रत-पूजा को जो भी मनुष्य करता हैं, उसके सभी दुःख, चिंताएं नष्ट होती हैं। उसके घर में धन-धान्य के भण्डार भरे रहते हैं। निः सन्तानों को सन्तान की प्राप्ति होती हैं और सभी मनोकामनाएं को प्राप्त कर मनुष्य अंत में मोक्ष को प्राप्त कर सीधे वैकुण्ठ धाम को प्राप्त हो जाता हैं।
श्री सूतजी ने कुछ पल रुककर कहा, 'हे श्रेष्ठ मुनियों! श्री सत्यनारायण भगवान के व्रत को पूर्व जन्म में जिन लोगों ने किया उन्हें दूसरे जन्म में भी सभी तरह के सुख प्राप्त हुए। वृद्ध शतानंद ब्राह्मण ने पूर्वजन्म में सत्यनारायण भगवान का व्रत विधिवत किया, तो दूसरे जन्म में सुदामा के रूप में भगवान की पूजा करते हुए अंत में मोक्ष को प्राप्त कर वैकुण्ठ धाम को चला गया। उल्कामुख राजा अगले जन्म में राजा दशरथ के रूप में मोक्ष को प्राप्त करके बैकुण्ठ को गए। व्यापारी ने मोरध्वज राजा के रूप में जन्म लिया और अपने पुत्र को आरे से चीरकर भगवान की अनुकम्पा से बैकुण्ठ को प्राप्त किया।
राजा तुंगध्वज अगले जन्म में मनु के रूप में जन्म लेकर भगवान का पूजा-पाठ करते हुए, लोकप्रिय होकर सद्गति को प्राप्त कर बैकुण्ठ धाम को चले गए। हे ऋषि-मुनियों! श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत और पूजा मनुष्य को सभी चिंताओं से मुक्त करके, धन-सम्पत्ति के भण्डार भरकर अंत में जन्म-जन्मान्तर के चक्रव्यूह से मुक्ति दिलाकर मोक्ष प्रदान करता हैं।
।।पंचम अध्याय समाप्त।।
।।अथ आरती श्री सत्यनारायण जी की।।
जय श्री लक्ष्मीरमणा, जय श्री लक्ष्मीरमणा।
सत्यनारायण स्वामी, जन-पातक-हरणा।।
जय श्री लक्ष्मीरमणा, जय श्री लक्ष्मीरमणा।
सत्यनारायण स्वामी, जन-पातक-हरणा।।
रत्न जड़ित सिंहासन, अद्भुत छवि राजै।
नारद करत निराजन, घण्टा ध्वनि बाजै।।
जय श्री लक्ष्मीरमणा, जय श्री लक्ष्मीरमणा।
प्रकट भये कलिकारण, द्विज को दर्श दियो।
बूढ़ों ब्राह्मण बनके, कंचन महल कियो।।
जय श्री लक्ष्मीरमणा, जय श्री लक्ष्मीरमणा।
दुर्बल भील कठारो, जिन पर कृपा करी।
चंद्रचूड़ एक राजा, जिनकी विपत्ति हरि।।
जय श्री लक्ष्मीरमणा, जय श्री लक्ष्मीरमणा।
वैश्य मनोरथ पायो, श्रद्धा तज दीन्हीं।
सो फल भोग्यो प्रभुजी, फिर अस्तुति किन्हीं।।
जय श्री लक्ष्मीरमणा, जय श्री लक्ष्मीरमणा।
भाव-भक्ति के कारण, छिन-छिन रूप धरयो।
श्रद्धा धारण कीनी, तिनको काज सरयो।।
जय श्री लक्ष्मीरमणा, जय श्री लक्ष्मीरमणा।
ग्वाल-बाल संग राजा, बन में भक्ति करी।
मनवांछित फल दीन्हों, दीनदयालु हरी।
जय श्री लक्ष्मीरमणा, जय श्री लक्ष्मीरमणा।
चढ़त प्रसाद सवायो, कदली फल मेवा।
धूप दीप तुलसी से, कदली फल मेवा।
जय श्री लक्ष्मीरमणा, जय श्री लक्ष्मीरमणा।
श्री सत्यनारायण जी की आरती जो कोई नर गावै।
कहत शिवानंद स्वामी मनवांछित फल पावे।
जय श्री लक्ष्मीरमणा, जय श्री लक्ष्मीरमणा।
सत्यनारायण स्वामी, जन-पातक-हरणा।।
।।इति श्री सत्यनारायण भगवान जी की आरती।।
।।अथ श्री सत्यनारायण भगवान जी की आरती।।
जय कमणास्वामी, प्रभु जय कमणा स्वामी।
सत्यनारायण स्वामी विभुवर बहुनामी।।
जय कमणास्वामी, प्रभु जय कमणा स्वामी।
भिन्न-भिन्न रूप धरेल, भक्तों भय हरवा प्रभु।
प्रताप प्रसर्यो प्रभु तव, जगतनुं जय करवा।।
जय कमणास्वामी, प्रभु जय कमणा स्वामी।
सुंदर रूप स्वरूप प्रभु, अमने प्यारुं प्रभु।
दर्शन करवा नित्ये, मन दोड़े मारू।।
जय कमणास्वामी, प्रभु जय कमणा स्वामी।
गाये गुण अपार, शुक्र शौनिक आदि प्रभु।
महिमा महिमा, मोटो सेवे ब्रह्मादि।।
जय कमणास्वामी, प्रभु जय कमणा स्वामी।
गरुड़ासन पर देव शोभो, सुखराशि प्रभु।
सहाय सर्वनी करवा, तत्पर अविनाशी।।
जय कमणास्वामी, प्रभु जय कमणा स्वामी।
आ कणिकाणे आप छो, प्रत्यक्ष सदा प्रभु।
क्रैंं दिनने दर्शन दर्द, करवा सुख सदा।।
भक्तों ने दर्शन दई, करवा सुख सदा।
शतानंदनुं क्रार्य प्रेमे पूर्ण, क्रर्युं प्रभु।।
धन-संपत्ति सघणी, दर्द विप्रनुं क्रार्य सर्युं।
कठियाराणां नाथ क्रोडे, कष्ट हर्यां प्रभु।।
दुःख दारिद्रय हठावी, भीलनां भाग्य भर्या।
उल्कामुख महिपतिनी, लज्जाने राखी प्रभु।।
भद्रशिलाने भावे, स्नेह सांकण नाखी।
साधु वणिक श्रीपुर, तेने बहु ताव्यो प्रभु।।
भूल भयंकर तेनी, तेथी नव फाव्यों।
कलावतीने भावे, सहाय थया नित्ये।।
गोपमंडणी धेर, अंगध्वज आव्यो प्रभु।
प्रसाद पडतो मेल्यो, हरिये लई ताव्यो।।
शत पुत्रोंनो नाश, थयो अनादरथी प्रभु।
प्रसाद जव लीधो, तव शुभ थयुं श्रीवरथी।।
अनेक ऐवा भक्त, तार्या भाव थकी प्रभु।
अमने पण आपोने, सत्यदेव सुमति।।
सर्व शक्ति सर्वेश, दस दिश रहो जामी प्रभु।
जगधामी भयवामी, जरी रही नहि खामी।।
अधम उद्धारण नाथ, कारण निष्कामी प्रभु।
बलदामी सहु ठामी, मति गति नव पामी।।
प्रेम थकी जे भक्त, सत्यनारायण सेवे प्रभु।
श्री आयुष्य कीर्ति सुत, जगपति सुख देवे।।
कथा श्रवण करी भक्त, आ आरती गाशे प्रभु।
केंक जनमनां पापो, प्रल्ले तो थाशे।।
शरणागत श्रीदेव, सत्यनारायण जी प्रभु।
सुनील जोशी गाये छे, भक्ति भाव राखी ।।
जय कमणास्वामी, प्रभु जय कमणा स्वामी।
सत्यनारायण स्वामी, विभुवर बहुनामी।।
।।इति श्री सत्यनारायण भगवान जी की आरती।।
।।बोलो सत्यनारायण भगवान जी की जय।।
श्री सत्यनारायण भगवान के व्रत का महत्त्व:-जो मनुष्य चाहे स्त्री या पुरुष हो जो भी यह व्रत करता हैं, उसकी सभी तरह से मुसीबतों से छुटकारा मिल जाता हैं।
◆दाम्पत्य जीवन में आ रही परेशानी दूर हो जाती है और घर-परिवार में सुख-शांति बनी रहती हैं।
◆जिनको सन्तान सम्बन्धी परेशानी हो उनको यह व्रत अवश्य करना चाहिए।
◆जिनकी आर्थिक स्थिति खराब हो और रुपये-पैसों की तंगी हो उनको यह व्रत करने से अवश्य ही धन की प्राप्ति होती हैं।
◆जिनको बिना मतलब की चिंता और परेशानियों का सामना करना पड़ता है, उनको यह व्रत अवश्य करने पर फायदा मिल जाता हैं।
◆यह व्रत करने से श्री सत्यनारायण जी की अनुकृपा बनी रहती हैं और अंत समय में विष्णुधाम को प्राप्त हो जाता हैं।
श्रीश्री