आरती क्या है और आरती कैसे करनी चाहिए(What is Aarti and how to do Aarti):-हमारे प्रचीन जमाने के ऋषि मुनियों ने अपने अनुभवों के आधार पर सभी तरह के उपायों पर शोध करके उनको मनुष्य के जीवन पर लागू करने के बारे अपने ग्रन्थों में बताया है। कि ईश्वर की पूजा मनुष्य पूर्ण रूप से नहीं कर पाने पर उनके लिए ईश्वर तक पहुंचने के लिए एक छोटे प्रारूप को निर्मित किया है, जिसमें ईश्वर बारे में पूर्ण विवरण मिल जाता है उस आखान को मनुष्य स्तुति करके अपने जीवन को ईश्वर के साथ जोड़ सकता है।
हमारे हिन्दू धर्म में सभी तरह के धार्मिक व मांगलिक कार्यों को करते समय ईश्वर को आभार एवं उनकी दृष्टि मनुष्य के ऊपर बनी रहे, इसलिए हर मनुष्य को किसी भी तरह भी की पूजा, हवन और अनुष्ठान करने के बाद ईश्वर को खुश रखने के लिए उनके गुणों एवं इनके द्वारा कृपा के मनुष्य पूजा के अंत में आरती करते है।
आरती का अर्थ:-आरती में ईश्वर के बारे में उनके जीवन व उनके जो किये हुए कार्यों का आखान होता है।
देवता के सामने प्रज्वलित दीपक को दिखाना ही आरती कहलाता है।
आरती को 'आरात्रिका' का अर्थ गोधूलि बेला पर दीपक, तुलसी वृक्ष के नीचे को प्रज्वलित करना अथवा 'आरार्तिक' कहा जाता हैं।
'नीराजन' का मतलब:-'नीराजन' का मतलब होता है कि जिसमें पानी में अजन हो एवं जिसमें किसी का दर्शन होता है उसे 'नीराजन' कहते हैं। पूजन करने बाद में ईश्वर को खुश करने के लिए आरती की जाती है।
आरती क्यों लेनी चाहिए?:-भगवान की आरती हो जाने के बाद सब भगवान के भक्त उस ज्योति पर हाथ घुमाकर अपने-अपने मुँह पर लगाते हैं यह क्यों? शास्त्रों में लिखा है कि जैसे दीपक की लौ हमेशा ऊपर की ओर गति होती है, इसी प्रकार दिप दान=आरती करने वाले भक्त को भी ऊधर्वगति प्राप्त होती हैं। भगवान की ज्योति आरती जिस भक्त के हाथों को स्पर्श कराती है उसे हजारों यज्ञान्त अवभृत स्नानों का फल मिलता हैं। इसके अलावा देव-प्रतिमा के सान्निध्य से तथा बीज मन्त्र के अभिमन्त्रण से प्रभावित विद्युत ज्योति का हाथों द्वारा ग्रहण करके ज्ञानेन्द्रियों के केंद्र स्थान अपने मुँह पर लगाना एक वैज्ञानिक प्रकिया भी है, जिससे भक्तों के ज्ञान तन्तुओं में एक विलक्षण अदृश्य स्फुरण उत्पन्न होती हैं।
आरती में सृष्टि प्रकियाँ:-प्रायः देवालयों में देखते है कि आरती के समय शंख को मुहँ की ध्वनि से फूंका जाता हैं, दीपक की लौ की ज्योति को पूरे मन्दिर परिसर में घुमाया जाता है, यह सब क्यों? वस्तुतः आरती सृष्टि प्रक्रिया का एक विज्ञानपूर्ण अभिनव हैं, जिसमें भक्तों को कौन तत्व कैसे बना और उन तत्वों का अनुक्रम तथा व्युत्क्रम क्या है-
आत्मनः सकाशात् आकाशः सम्भूत आकाशाद् वायुः वायोरग्निरग्नेरापोअद्रूभ्यः पृथिवी।(छान्दोग्य उपनिषद्रू)
अर्थात्:-आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई।
आरती में पर्दा खुलते ही साधक सर्वप्रथम भगवान् को देखता है,
फिर प्रथम तत्व शब्दगुणक आकाश के प्रतीक शंख को अपने मुँह की ध्वनि से फूंकता है,
फिर दूसरे तत्व=वायु का प्रतीक चँवर ढुलता है या वस्त्र से ही इस क्रिया का प्रदर्शन होता है,
पुनः तीसरे तत्व=अग्नि, धूप से आरती होती है,
इसके साथ-साथ चौथे तत्व=जल का प्रदर्शन कुंभारती के रूप में होता है,
अन्त में पांचवे तत्व=पृथ्वी का प्रदर्शन अर्चन अपनी अंगुली अंगुष्ठादि अंगों द्वारा मुद्राएँ दिखाता हुआ करता है। यह सृष्टि-प्रक्रियाँ का दार्शनिक अभिनय हुआ।
दार्शनिक सिद्धान्त है कि-जिस क्रम से ये तत्व उत्पन्न होते है उसी विलोम क्रम से एक दूसरे में विलीन हो जाते है और अन्त में वहीं एक आत्मतत्व शेष रह जाता है।
सो आरती में भी पूर्वोक्त अनुक्रम दिखाने के साथ-साथ फिर उल्टा क्रम आरम्भ होता हैं। पुनः प्रथम मुद्राएँ इसके बाद जल पूरित शंख भ्रमण, तदन्तर दिप आरती, चौथे नम्बर पर वहीं चँवर अथवा वस्त्र प्रदर्शन और अन्त में शंख का जल दर्शक भक्तों पर छिड़क कर खाली शंख प्रदर्शन और सब कुछ हो जाने पर ही वही एकमात्र भगवान के दर्शन।
हो सकता है कि बहुत से पुजारी इस क्रम से अपरिचित होने के कारण अमुक कार्य को आगे-पीछे भी कर डालते हैं, परन्तु वस्तुतः आरती का शास्त्रीय रूप यही है जो ऊपर बताया गया हैं। न्यूनाधिक शंख, वस्त्र, दीप और मुद्रा, नहीं तो हाथ जोड़ना ये मोटी-मोटी पाँच क्रियाएँ तो प्रायः सभी जगह पर होती हैं। अतः इस सृष्टि क्रम की दृष्टि से मनन करना चाहिए।
आरती करने की विधि:-आरती करने से पूर्व अपने इष्टदेव की पूजन सम्बन्धित सामग्री की तैयारी करनी चाहिए, उसके बाद निम्न प्रक्रिया करनी चाहिए-
1.आरती में सबसे पहले भगवान या जिस देवी-देवताओं का उनके मन्त्रों के द्वारा पूजा-पाठ करने पर सबसे पहले फूलों को अपने हाथों की हथेली में रखकर तीन बार उस देव-देवी को अर्पण करना चाहिए।
2.उसके बाद ढ़ोल, थाली, नगारे, शंख, घण्टा-घड़ियाल आदि जो पूजन की आरती के समय बजाये जाते है उनकी तीव्र आवाज के साथ-साथ आरती के समय उपस्थित भक्तजनों के द्वारा ईश्वर के नाम के स्वरूप उनकी जय-जयकार करना चाहिए।
3.जय-जयकार करते हुए घण्टा-घड़ियाल, शंख, थाली, ढ़ोल-नगारे को लगातार बजाते रहना चाहिए।
4.उसके बाद इस प्रक्रिया के चलते हुए आरती करने वाले को गाय के शुद्ध देशी घी को स्वच्छ किसी भी धातु विशेषकर ताम्र, पीतल, कांसे या मिट्टी के पात्र में भरकर या घनसार को उपयोग करना चाहिए।
5.उसके बाद चन्दन शुद्ध रुई, कपड़े की या मौली की फुलबत्ति बनाकर उस पात्र में रखकर प्रज्वलित करके आरती करना चाहिए।
6.आरती में उपयोग में लिए जाने वाली फुलबात्ति को हमेशा दो, चार, छः आदि की सम संख्या में नहीं उपयोग करना चाहिए।बल्कि एक, तीन, पांच, सात, नौ या ग्यारहा आदि की गिनती में रखते हुए अंत में फुलबात्ति के एक कि संख्या में प्रज्वलित करना चाहिए।
7.मुख्यतया ईश्वर की आरती करते समय पाँच फुलबात्ति से बनी हुई बात्ति का ही आरती करते समय उपयोग में लेते है, इस पाँच फुलबात्ति को प्रज्वलित करके जो आरती की जाती हैं उसे 'पंच प्रदीप' या पाँच तरह से प्रज्वलित करना कहा जाता है।
ततश्च मुलमन्त्रेण दत्वा पुष्पांजलित्रयम्।
महानीराजनं कुर्यान्महावाद्यजयस्वनैंः।।
प्रज्वलयेत् तदर्थ च कर्पूरेण घृतेन वा।
आरार्तिक शुभे पात्र विषमानेकवर्तिकम।।
आरती करने के विधान के रूप में आरती के भाग धर्मग्रन्थों:-में आरतीके पाँच भाग बताये गए हैं।
1.प्रथम दीपक को जलाकर माला के रूप:-शास्त्रों में बताया गया हैं की दीपक को विषम शंख्या में प्रज्वलित करते हुए उनको माला का रूप देकर आरती करते समय उपयोग में लेकर आरती करनी चाहिए।
2.द्वितीय जल से भरे हुए शंख:-शास्त्रों में शंख को समुद मंथन से प्राप्त होने के कारण पवित्र व ईश्वर के प्रतिनिधित्व के रूप में मानते हुए जल से परिपूर्ण करके आरती करना चाहिए।
3.तीसरे स्वच्छ एवं शुद्ध कपड़ो के द्वारा:-स्वच्छ एवं शुद्ध कपड़ों को उपयोग में लेते हुए आरती करना चाहिए।
4.चौथे आम्र और वटवृक्ष आदि के पल्लवों:-आम्र व वटवृक्ष के पल्लवों को शास्त्रों में पवित्र मानते हुए आरती करने को कहा हैं।
5.पाँचवें साष्टांग झुकते हुए नमन करते हुए:-आरती करने वालों को साष्टांग झुकते हुए नमन करते हुए आरती करना चाहिए।
आरती इष्टदेव के सम्पूर्ण शरीर अंगों पर घुमाने की विधि:-जिस किसी भी देवी-देवताओं की आरती करते समय उनके पूरे शरीर पर आरती को घूमना चाहिए, धर्मग्रन्थों के अनुसार समस्त तरह के देवताओं के सम्पूर्ण शरीर पर चौदह बार आरती को घुमाना चाहिए जिससे उस देवताओं के प्रत्येक अंग का पूजन हो जावें और आरती से देव की पूजा हो जावें।
◆सर्वप्रथम जिस देव की मूर्ति की आरती कर रहे हैं तो
◆सबसे पहले चार की संख्या में उस सम्बन्धित देव के चरणों पर आरती करनी चाहिए।
◆उसके बाद में उस देव की मूर्ति की कुक्षि क्षेत्र पर आरती को दो बार घुमाना चाहिए।
◆उसके बाद उस सम्बन्धित देव के आभामण्डल पर एक बार बहुत ही धीमी प्रक्रिया से आरती को घुमाना चाहिए।
◆उसके बाद उस देव की मूर्ति रूप पर सम्पूर्ण देव मूर्ति के शरीर पर सात की संख्यां में पूरे शरीर पर आरती को घुमाना चाहिए।
◆इस तरह किसी भी देव की आरती करने का विधान धर्मग्रन्थों में बताया गया हैं।
◆आरती करते समय बहुत ही धीरे-धीरे आरती को घुमाना चाहिए।
कदलीगर्भसम्भूतमं कर्पूरं च प्रदीपितम्।
आरार्तिक्यमहं कुर्वे पश्य मे वरदो भव।।
आरती की उपयोगिता:-आरती की उपयोगिता को धर्मग्रन्थों में बताया गया हैं, जो इस तरह हैं-
◆मनुष्य के द्वारा पूजा करते समय किसी तरह भी तरह के मंत्रों के उच्चारण व ईश्वर के आख्यानों को करते समय मनुष्य की जिव्हा से गलत उच्चारण होने पर उस गलत उच्चारण के लिए माफी के रूप में ईश्वर से क्षमा याचना करते है तो उस गलत उच्चारण को सही करने के लिए आरती करने पर उसकी शुद्धि हो जाती हैं।
चक्षुर्दं सर्व लोकानां तिमिरस्य निवारणं।
आर्तिक्यं कल्पित भक्तयां गृहाण परमेश्वरः।।
◆आरती करने से सम्पूर्ण लोकों के अंधकार नष्ट हो जाता है एवं उजाला होकर अंधकार का निवारण हो जाता हैं।
◆जिससे आरती करने से अपने कल्पित ईश्वर के दर्शन को भक्त कर लेते है।
◆स्कन्दपुराण के अनुसार:-स्कन्दपुराण में बताया गया हैं कि जो मनुष्य पूजा के मंत्रों के बारे में नहीं जानता है एवं उस पूजन की विधि को भी नहीं जानता हैं तब भी मनुष्य के द्वारा में बिना मन्त्रों के व बिना क्रिया के पूजा-पाठ के बारे में जानकारी नहीं होने पर भी जो मनुष्य ईश्वर की आरती को कर लेता है उसको उस पूजन का फल प्राप्त होकर उस पूजन में परिपूर्णता की प्राप्ति कर लेता हैं।
मन्त्रहीनं क्रियाहिनं यत् पूजनं हरेः।
सर्वं सम्पूर्तामेति कृते नीराजने शिवे।।
◆पूजन करने के बाद आरती की जाती है, जिससे उस मनुष्य को अपने इष्ट से सम्बंधित ईश्वर को खुश करने का मौका प्राप्त होता है।
◆आरती में प्रज्वलित दीपक की ज्योति को अपने ईष्टदेव को दिखाने से उस देव के प्रति विश्वास व श्रद्धाभाव बढ़ जाता हैं।
◆आरती करने से मनुष्य को अपने इष्ट देव के गुणगान करने का मौका मिलता है, जिससे उसके मन में चल रहे बुरे विकार समाप्त हो जाते है।
◆मनुष्य जब कभी भी आरती करता है तब उसको ताजगी व स्फूर्ति का अनुभव प्राप्त हो जाता है।
◆सभी तरह की चिंताओं से मुक्ति मिल जाती है।
◆आरती के परिणाम स्वरूप मनुष्य के जीवन में नयी बातों का संचार होता है, जिससे वह आनन्द की प्राप्ति करता है।