गणेश चतुर्थी क्यों मनाई जाती हैं(Why is Ganesh Chaturthi celebrated?):-गणेश चतुर्थी को कई नामों से जाना जाता हैं, इस चतुर्थी को कलंक चतुर्थी, पत्थर चतुर्थी और गणेश जयन्ती भी कहते हैं। गणेश चतुर्थी भाद्रपद महीने के शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि को गणेश चतुर्थी तिथि कहा जाता हैं। गणेश जी को चतुर्थी तिथि का स्वामी भी माना जाता है, क्योंकि चतुर्थी तिथि को ही उनका जन्मदिन और समस्त तरह के उनके अभिषेक भी चतुर्थी तिथि के दिन ही होते हैं। गणाध्यक्ष के रूप के पद को पाने की तिथि भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि होने से उनका अभिषेक भी इसी दिन होता हैं, क्योंकि इस दिन ही इनको पुनः जीवन मिला था। इसी दिन में उनको गणाध्यक्ष पद की प्राप्ति हुई थी इसलिए इस दिवस को ही गणेश जयन्ती के रूप में मनाया जाता है।
'कलंक' का मतलब:-कलंक का मतलब किसी तरह से भी अपने द्वारा गलत नहीं करने पर भी अपने ऊपर किसी भी तरह का दोष या लांछन लगना होता है, उसे कलंक कहते है।
'कलंक चतुर्थी' का मतलब:-गणेश जी के द्वारा शाप चन्द्रमा को जिस तिथि को मिला था, उस तिथि को कलंक चतुर्थी तिथि कहा जाता हैं।
हिन्दू धर्म ग्रन्थों के अनुसार गणेश जी की जन्म की कथाएं:-गणपति जी सबसे अधिक बुद्धिमान थे। उन्होंने सबसे ऊपर अपने माता-पिता को स्थान दिया था। उन्होंने माता की वंदना की थी।
भगवान गणपति जी का जन्म गण के रूप में:-भाद्रपद कृष्ण चतुर्थी के दिन आदि देव महादेव जी के पुत्र गणपति का जन्म हुआ था। भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष के दिन गणपति जी को गजानन के रूप में जन्म हुआ था। सभी गणों के स्वामी बने और भोलेनाथ जी ने सभी देवताओं की बात को मानकर उनको गणपति के स्वरूप में सिंहासन पर विराजित किया। उसके बाद में गणपति जी ने अपने माता-पिता को भक्ति पूर्वक वंदन किया और उनकी पूजा की थी। इस तरह माता पार्वतीजी और भगवान भोलेनाथ जी बहुत खुश होकर गणपति जी को वरदान दिया कि भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से चतुर्दशी अर्थात् अनन्त चतुर्दशी तक दश दिवस तक गणेश उत्सव के रूप में मनाया जाएगा।
जो मनुष्य चतुर्थी तिथि के दिन व्रत को रखेगा उसकी मन की समस्त इच्छाओं की पूर्ति गणपति जी करेगे। उस मनुष्य को रुपये-पैसों का भण्डार मिलेगा और उसके निवास स्थान पर सुख-शांति एवं सौभाग्य की प्राप्ति होगी। उस मनुष्य को चारों तरफ खुशहाली की प्राप्ति होगी और किसी तरह के दुःख की अनुभूति नहीं रहेगी। इस बात पर किसी तरह की शंका नहीं हैं। क्योंकि जब गणपति जी के जन्म लेने से शिवजी और माता पार्वती को इतनी खुशी मिली थी। इसलिए इस दिन के व्रत का फल निश्चित ही मिलेगा और देवताओं को चारों ओर से बुरे परेशानियों से मुक्ति मिलकर उनको सुख एवं समृद्धि की प्राप्ति हुई थी। सभी तरह के विघ्नों को हरणे वाले श्रीगणेश जी को चतुर्थी का व्रत बहुत प्रिय होता हैं। इसलिए इस चतुर्थी व्रत को हर साल गणेश जयन्ती के रूप में मनाया जाता है।
गणेशजी से सम्बंधित पुराणों के आख्यान:-जब शौनक आदि ऋषियों ने एकत्रित होकर गणपतिजी के जन्म के बारे में जानने के लिए श्री सूतजी के पास गए तब ऋषि श्री सूतजी के द्वारा उनको गणपतिजी के जन्म के बारे में विस्तारपूर्वक बताया जो इस तरह है। इस सब तरहों के जन्म के बारे में सूतजी ने कहा कि मैं तुम सबको पूरी तरह से बताता हूँ, आप सभी ऋषिगण विशेष रूप से अपना ध्यान केंद्रित करते हुए सुने।
हे नारद! इस व्रत को जब भी कोई मनुष्य या देव करेंगे तो उसके सभी तरह की परेशानियों और बार-बार आने वाली बाधाओं से मुक्ति मिलेगी। इस बात में किसी तरह की शंका की जगह नहीं हैं।
शौनक आदि ऋषियों ने पूछा- हे सूतजी आप तो सब तरह के बारे में जानने वाले है और आप तो सब जानते है। आपसे निवेदन करते है कि आप हम सबको बताये की सबसे पहले विनायकजी, उसके बाद में गजानन और उसके बाद में गणपतिजी के जन्म के बारे में विस्तारपूर्वक बताये, जिससे हम सब भी उनके महात्म्य को पूर्णरूप से जान पाए।
श्री सूतजी ने कहा-हे श्री शौनकादि ऋषियों! आप सब मुझसे श्री गणपति कर जन्म के विषय जानने के इच्छुक हो। तो आप ध्यानपूर्वक सुने उनके जन्म के बारे में, किस तरह उनका जन्म हुआ था। लेकिन जगह-जगह पर उनके जन्म के बारे में अलग-अलग तरह की कथाएं बताई जाती है जो कि युग भेद से प्रचलन में चल रही हैं, उनमें से पहली कथा इस तरह है:
कुमार रूप में जन्म की कथा:-एक बार की बात हैं जब भगवान शिवजी किसी बात पर बहुत ही खुश होकर हँस रहे थे तब उनके मुख की हँसी से एक बालक का जन्म हुआ था, उसका नाम कुमार रखा गया था। इस तरह उस बालक कुमार के आकर्षण से माता पार्वती को बहुत ही लगाव हो गया, तब शिवजी को बहुत ही गुस्सा आया उन्होंने उस कुमार बालक को शाप दे दिया कि हे कुमार! तुमको हाथी का मुख प्राप्त होगा और सर्प यज्ञोपवीत हो जाओगे। इस तरह भगवान श्रीशिवजी का गुस्सा बहुत ही बढ़ गया। तब उनके गुस्से के प्रभाव से उनके मुख से तरह-तरह के बहुत सारे विनायक का उद्भव हो गया जिससे सभी देवता भयभीत हो गई और उन सबने मिलकर शिवजी को खुश करने का प्रयत्न किया। देवों के द्वारा शिवजी को खुश करने पर शिवजी ने कहा कि यह कुमार बालक सभी गणों का स्वामी होगा। इस तरह से गणपति की विनायक के स्वरूप में अदियुग में जन्म हुआ था। उसके बाद में गणरूप में रहे फिर गजानन और गणों के स्वामी बनें थे।
श्वेत कल्प के रूप में जन्म की कथा:-एक समय की बात है जब पार्वती माता को स्नान करना था, तब वे कैलाश पर्वत पर स्नान करती है, तब शिवजी अकस्मात वहां पर आ जाते है, इस तरह स्नान करते हुए उनको देखने पर पार्वती माता को शर्म आने लगती है। इस तरह आगे ऐसा नहीं हो पावे इसलिए पार्वती माता ने अपनी सहेलियों से मशविरा किया और उन्होंने अपने स्नान करने के स्थान पर द्वार की रक्षा करने के लिए मन में विचार किया कि कोई भी द्वार की रक्षा करने के लिए गण को बनाना होगा, जिससे स्नान स्थान पर कोई अंदर नहीं आ सके।
फिर उन्होंने अपने शरीर के अंग राल से मैल को उतारकर उसको इकट्ठा करके एक पुतले का निर्माण किया फिर उसमें अपनी शक्ति से प्राण का संचार किया और उसको गण बनाकर स्नान जगह के द्वार पर द्वारपाल बनाया। उसको एक हाथ में लकड़ी की एक मजबूत छड़ी को दिया। उसको बोला कि पुत्र तुमको जब तक मैं नहीं कहूं तब तक कोई अन्दर नहीं आना चाहिए, चाहे कुछ भी हो जाये। इस तरह वह द्वारपाल के रूप में द्वार की रक्षा करने लगा। थोड़े समय बाद भगवान भोलेनाथ जी वहां पर आ जाते है और अन्दर जाने लगते है, तब वह द्वारपाल उनको रोकता है, कहता है कि आप अन्दर नहीं जा सकते है।
जब तक मेरी माताजी की आज्ञा नहीं मिलती है। तब भगवान शिवजी बहुत समझाते है, लेकिन वह नहीं मानता है। इस तरह जब शिवजी से वह नहीं मानता है तब शिवजी अपने गणों को पुकारते है और कहते है कि इसको द्वार से हटाओं। इस तरह गणों से भी नहीं मानता है तब गणों के साथ उनको संग्राम होता है, इस तरह सभी गण हारने लगते है, तब समस्त देवता भी वही आकर संग्राम करने लगते है और अन्त में सभी की हार होती हैं। इस तरह शिवजी को बहुत गुस्सा आता है, गुस्से के प्रभाव से वे अपनी त्रिशूल से उसका सिर धड़ से अलग कर देते है, इस तरह वह चिल्लाता है हे माँ! हे माँ! इस तरह की आवाज को सुनकर पार्वतीजी बाहर आती है और जब देखती है कि उनके बनाये हुए पुत्र को मार दिया है तब वे चीखती है और कहती है, जिस किसी नहीं मेरे पुत्र का वध किया है वह मेरे सामने आवे नहीं तो मैं समस्त तीनोंलोको को समाप्त कर दूंगी। इस तरह कहते हुए अपने गुस्से के स्वरूप चारो ओर तबाही करना शुरू कर देती है।
देवता और समस्त ऋषियों ने विचार किया कि माता के इस तरह तबाही से समस्त तीनों लोक समाप्त हो जाएगा। इसलिए सभी साथ में श्रीब्रह्माजी के पास जाते है, उनको पूरी बात बताते हैं। इस तरह श्रीब्रह्माजी कहते हैं इस द्वारपाल गण का जन्म मूल नक्षत्र में हुआ था। उसके पिता को उसका मुंह नहीं देखना था। इस मूल नक्षत्र के स्वरूप ही उसकी मृत्यु उसके पिता के हाथ हुई है। इसलिए संहार करने वाले शिवजी के पास चलना चाहिए, इस तरह समस्त देव शिवजी के पास जाते है और उनसे कहते है कि माता के विकराल रौद्र रूप के प्रभाव से आप ही समस्त लोको की रक्षा कर सकते है, अन्यथा समस्त तीनों लोक समाप्त हो जाएगा।
तब उसके बाद में शिवजी कहते है कि देवी मैंने ही तुम्हारे पुत्र का वध किया हैं तब पार्वतीजी ने कहा कि जब तक मेरे पुत्र को जीवन दान नहीं मिलता हैं तब तक मैं नहीं मानूँगी। तब शिवजी ने कहा कि देवी तुम्हारे पुत्र को अभी जीवनदान देता हूं। तब माता ने अपने स्वरूप को बदला और शांत हुई। शिवजी ने कहा कि गण का सिर को ढूंढ कर लायो, लेकिन सूर्य अस्त होने से पूर्व ढूंढना होगा। इस तरह काफी समय बीतने पर सिर नहीं मिलता है तब निराश गण शिवजी को कहते है कि सिर तो कहीं पर नहीं मिल पा रहा हैं समय बीत रहा था। तब शिवजी ने कहा कि उत्तर दिशा में जाओं जो भी प्राणी तुम्हें पहले मिले उसका सिर काटकर लेकर आना और उसको इस धड़ पर जोड़ना।
इस तरह समस्त देव एवं गण उत्तर दिशा की ओर चल पड़े। लेकिन कोई जीव उनको नहीं मिला था। समय बीत रहा था। तब उनको एक हथिनी दिखाई दी जो की अपने पुत्र की तरफ पीठ करके सो रही थी। उसका बच्चा हाथी जो पास में बैठा था। तब देवता ने उस हथिनी के बच्चे का सिर काटकर लेकर आ गए। उस सिर को गण के धड़ पर रखकर जोड़ दिया। भगवान शिवजी ने अपनी चैतन्य शक्ति से उसमें प्राण को संचार कर दिया। जैसे ही उसमें प्राण का संचार हुआ तो वह जाग उठा और बोला हे माँ! हे माँ! इस तरह की वाणी सुनकर पार्वतीजी ने आकर उसको गले लगा लिया। तब पार्वतीजी ने कहा कि यह मेरा पुत्र का सिर नहीं है यह तो एक हाथी के बच्चे का सिर हैं।
मेरे को तो मेरे बच्चे का सिर चाहिए। इस तरह समस्त देवता उनको मनाने के लिए उस हस्ति मुख गण को अपनी-अपनी तरफ से आशीर्वाद देने लगे। तब जाकर माता पार्वतीजी मानी और उस गण को अपने पिता से परिचित करवाया। इस तरह आदिदेव गणपति माता पार्वतीजी और शिवजी के अयोनिज पुत्र हैं। इस तरह माता पार्वती को पुनः पुत्र मिलने पर वहां पर उत्सव मनाया गया। यह उत्सव निरन्तर दश दिवस तक चलता रहा था। इस तरह शिवजी ने गणपति जी को आशीर्वाद दिया कि समस्त गणों एवं देवताओं के तुम आज से अध्यक्ष पद की प्राप्ति होती हैं। समस्त तरह की बाधाओं को दूर करोगे।
इस तरह आशीर्वाद के फलस्वरूप ही गणपति जी को समस्त विघ्नों का निवारक, गणाध्यक्ष और गजानन आदि नामों के रूप में जाना जाता हैं।
गणेश चतुर्थी व्रत का महत्त्व:-शिवजी बोले-हे पुत्र गणेश्वर! तुम्हारा जन्म भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को सोम के शुभ उदय काल में होने से हुआ था। किन्तु भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि के दिन मेरे आशीर्वाद एवं खुशी के प्रभाव से तुम्हें पुनः पुत्र स्वरूप मिला है और तुमको गणों के अध्यक्ष का पद भी मिला हैं। इसलिए मैं तुमको वरदान देता हूँ। जो कोई मेरे बताये अनुसार व्रत को करेगा उसको निम्न तरह के फल प्राप्त होंगे, जो इस तरह हैं:
◆जो कोई भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि के दिन जो भी प्राणी तुम्हारा व्रत को विधिवत करेगा उसको किसी भी तरह की बाधाओं और झूठे कलंक कभी नहीं लगेगा।
◆उसकी सभी तरह की मुसीबत हल हो जाएगी।
◆कलंक चतुर्थी व्रत भगवान गणेश जी और माता पार्वती को अपनी पूजा विधि प्रसन्न करके उनसे आशीर्वाद को पाने का प्रयत्न करना चाहिए।
◆कलंक चतुर्थी का व्रत करने से मनुष्य को जीवन में कभी बाधाओं का सामना नहीं करना पड़ता है और सभी तरह के कष्टों से मुक्ति मिल जाती है।
◆गणेश जी की पूजा करके उनको खुश करने पर गणेश की कृपा से मनुष्य कुबेर के समान धन-धान्य का स्वामी बन जाता है।
◆भगवान गणेश की पूजा से एक पक्ष के पापों की समाप्ति हो जाती है और उत्तम तरह से जीवन को जीते हुए फलों को पाते है।
◆व्रत करने वालों को अपने भाई-बन्धुओ से प्यार बढ़ता है और प्रेम भावना स्थायी होती हैं।
◆पुत्रवती माताओं को अपने पुत्र सन्तान का सुख मिलता है।
◆व्रत करने ओरतों को अपने पति के सुख की प्राप्ति होती है और गृहस्थी जीवन में खुशहाली प्राप्त होती है।
◆व्रत करने वालों को सुख-समृद्धि और ऐश्वर्य के सभी तरह के साधनों की प्राप्ति होती है।
बन
शिवपुराण के अनुसार महत्व:-शिवपुराण के अनुसार भी हम इस व्रत के बारे बहुत से महत्व की जानकारी मिलती है, जो इस तरह है:
"महागणपतेः पूजा चतुर्थ्यां कृष्णपक्ष के।
पक्षपापक्षयकरी पक्षभोगफलप्रदा।।
अर्थात्:-हर मास की कृष्णपक्ष की चतुर्थी तिथि को गणपति जी की पूजा-अर्चना करने से समस्त बुरे किये गए कर्मो से मुक्ति मिलती हैं और एक पखवाड़े के लिए सबसे अच्छे फल मिलते हैं।
गणेश अथर्वशीर्ष में जानकारी महत्व के बारे में:-गणेश अथर्वशीर्ष में भी हमें जानकारी मिलती है, जो इस तरह हैं:
"यो दूर्वांकुरैंर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति"।
अर्थात्:-जो कोई भी दूर्वांकुर के द्वारा भगवान गणेश जी का पूजन करने वाला कुबेर की तरह धन-धान्य का मालिक बन जाता है।
"यो मोदकसहस्रेण यजति स वाञ्छित फलमवाप्रोति"
अर्थात्:-जो सहस्त्र या हजार लड्डुओं या मोदकों को भगवान गणपति जी को भोग लगाते है उनको शुभ फल की प्राप्ति होती है।
गणेश चतुर्थी व्रत की विधि:-भगवान शिवजी ने कहा की भाद्रपद कृष्ण पक्ष की चतुर्थी से मार्गशीष कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि तक जो कोई भी मानव एक वर्ष या सवा वर्ष तक तुम्हारी कथा और व्रत को विधिवत करेगा। जब कोई भी मानव इस तरह से प्रत्येक चतुर्थी तिथि को व्रत करते हुए उस व्रत को पूर्ण करेगा, उस मानव के सभी तरह की मन की इच्छाएं पूरी होगी।
जब कोई मानव भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि से चतुर्दशी तिथि तक दस दिन तक गणेश जी के त्यौहार को उनके जन्मदिन के रूप में मनाएँगे।
तब उस व्रत एवं कथा करने वाले मनुष्य को यदि उसके सन्तान की प्राप्ति नहीं हो रही हैं, तो उसको सन्तान की प्राप्ति होगी।
जिस किसी मनुष्य को पुत्र सन्तान की इच्छा रखते हो उनको पुत्र सन्तान की प्राप्ति होगी।
यह व्रत करने से जो भी मनुष्य बीमारी से ग्रसित होगा उसकी बीमारी ठीक होगी।
इस व्रत के प्रभाव से निर्धन को रुपये-पैसों की प्राप्ति होगी।
व्रती का भाग्य साथ देने लग जायेगा।
जिस किसी औरत के पुत्र और रुपये-पैसों की समाप्ति हो गई हो तो उनको व्रत के प्रभाव से पुनः प्राप्ति होगी।
जिस किसी औरत ने यह व्रत किया तो उसको पति का सुख मिलेगा।
व्रत करने वाले व्रत के सभी तरह के दुःख का अन्त होगा और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होगी।
जब यह व्रत पूर्ण अपने संकल्प के आधार पूरा हो जाता है अर्थात् इस व्रत की समय सीमा सवा वर्ष पूर्ण हो जाते है, तब व्रत करने वाले मनुष्य को व्रत का उद्यापन के काम को पूर्ण करना चाहिए।
सबसे पहले पृथ्वी लोक में शुरू होने का समय:-इस तरह से सभी शौनकादि ऋषियों ने सब तरह से विधिवत पूजा जानने के बाद उनकी इच्छा हुई कि इस व्रत को करने से क्या प्रभाव और फल की प्राप्ति होती हैं? तब उन्होंने एक स्वर में ऋषि सूतजी से पूछा-हे ब्राह्मणदेव! आप से आग्रह करते है कि इस व्रत को करने से क्या-क्या प्रभाव होते है और किस तरह के फल मिलते है? इसके साथ हम सब आपसे यह जानने के इच्छुक हैं कि पृथ्वी लोक पर सबसे पहले किसने यह व्रत किया था और किस तरह से समस्त जगह इस व्रत का प्रसार हुआ था? आप कृपया करके हमें बताएं। तब सूतजी कहते है-हे ऋषियों! आप सब यह जानने के इच्छुक हो तो अपने मन को एक जगह पर स्थिर करके ध्यानपूर्वक सुने।
सूतजी ने कहा-इस व्रत के बारे में जानने से पूर्व इस व्रत की कथा आप सबको सुनाता हूँ। बहुत समय पूर्व की बात है जब द्वापर युग चल रहा था। द्वापरयुग में मथुरा नामक एक सुन्दर और मन को हरने वाली नगरी थी। उस मथुरा नामक नगरी में सत्राजित नामक यादव निवास करता था। वह भगवान सूर्यदेव का परम भक्त था। उसने सूर्यदेव भगवान की कठोर आराधना एवं तपस्या की थी। उस सत्राजित यादव की कठोर तपस्या से खुश होकर सूर्यदेव ने उसको दर्शन दिए और कहा भक्त मैं तुम्हारी तपस्या से खुश होकर मैं तुम्हें एक अमूल्य मणि देता हूँ जिसका नाम स्यमन्तक मणि हैं, इस मणि के प्रभाव से हर दिन एक मण सोना देती हैं।
इस तरह से सत्राजित ने वह मणि सूर्यदेवजी से मिल गई। इस तरह श्री कृष्ण को जब मालूम पड़ा कि सत्राजित व्यक्ति के पास मणि है जो कि हर दिन एक मण सोना देती है तब श्रीकृष्ण ने सत्राजित को दरवार में बुलाकर कहा कि यह मणि तो तुम्हारे पास ही रहेगी लेकिन इससे प्राप्त होने वाले सोने का टैक्स तुम्हे राज्य के कोषघर में जमा करना होगा। इस बात से सत्राजित बहुत ही नाखुश हो गया। इस तरह वह मणि अपने भाई प्रसेनजित को दे दी और कहा कि इसका ध्यान रखना। एक बार प्रसेनजित उस मणि को अपने गले मे धारण करके वन के अंदर आखेट के लिए गया। उस वन में आखेट करते समय शेर ने हमला करके उसका वध कर दिया।
इस तरह एक जाम्बवंत ने भी उस शेर को मार दिया। उस मणि को लेकर अपनी गुफा में चला गया। जब प्रसेनजित को बहुत समय होने पर भी नहीं आने पर उसके भाई सत्राजित ने सब जगह पर यह बात फैला दी कि श्री कृष्ण ने मणि के लिए उसके भाई का वध करवा दिया। उस स्यमन्तक मणि को ले लिया। इस तरह की बातें जब श्री कृष्ण के कानों तक पहुंची तब इस तरह की झूठी बातों से श्रीकृष्ण को बहुत ही दुःख हुआ। इस बात की गहराई का पता लगाने के लिए यादवों सहित श्रीकृष्ण प्रसेनजित की तलाश के लिए उसी वन में जाते है, तब उस वन में उन्हें मरा हुआ शेर और उसके पास ही प्रसेनजित एवं उसके घोड़े की लाश पड़ी मिलती है, तब वे समझ जाते है कि इस शेर ने इसका वध किया हैं।
इस तरह वहां देखने पर उन्हीं भालू के पद चिन्ह मिलते है तब वे उन पदचिन्हों के अनुसार आगे बढ़ते है तब उनको एक गुफा दिखती हैं। इस तरह गुफा में जाने से पूर्व श्रीकृष्णजी अपने साथ आये हुए समस्त यादवो को कहते हैं कि मैं इस गुफा के अन्दर जाता हूँ आप यहां पर एक पक्ष तक प्रतीक्षा करना। यदि मैं एक पक्ष तक नहीं आवु तो आप सब यहां से चले जाना। जब श्रीकृष्ण गुफा के अन्दर गए तब उन्होंने देखा कि जाम्बवती मणि के साथ खेल रही थी। उस मणि की रोशनी उस गुफा को चारों ओर से उजाला दे रही थी। इस तरह उस गुफा में श्रीकृष्ण और जाम्बवंत के बीच इक्कीस दिनों तक संग्राम चला था।
अन्त में जाम्बवंत ने हार मानकर श्रीकृष्ण से माफी मांगी और कहा कि प्रभु मैं आपको पहचान नहीं सका इसलिए मुझे आप क्षमा देवे। आपसे एक अरदास करता हूँ कि मेरी पुत्री जाम्बवती से आप विवाह करलो। इस तरह जाम्बवती का लग्न श्रीकृष्ण के साथ करके उनको वह स्यमन्तक मणि दे दी। दूसरी तरफ सब यादवों ने बारह दिन तक प्रतीक्षा करने के बाद वापस चले गए। द्वारका नगरी में जब वे सभी पहुंचे और उन्होंने बताया कि श्रीकृष्ण का अन्त हो गया है, तब द्वारका नगरी में चारो तरफ शोक ही शोक होकर दुःख का माहौल बन गया।
इसके लिए सभी सत्राजित को दोषी मानने लगे। सभी द्वारका के रहने वाले विविध तरह के व्रत और देवी माता की पूजा आदि करने लगे। उस तरफ रुक्मणि भी श्रीकृष्ण के इस तरह के दुःख में दुःखी होकर चिंता करने लगी। फिर रुक्मणि ने श्री नारदजी को याद किया तब नारदजी आकाश लोक से विचरण करते हुए पृथ्वी लोक पर आए। तब श्री नारदजी ने रुक्मणि और समस्त द्वारिका में रहने वालोन की भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि अर्थात् गणेश चतुर्थी का व्रत की कथा को बताया। गणेश चतुर्थी के व्रत की कथा को सुनने मात्र से भी सभी तरह के कष्टों से मुक्ति मिल जाती है।
नारद जी की बताई हुई विधि:-को जानने के बाद समस्त द्वारका के रहने वाले जनों ने एवं श्री कृष्ण जी की समस्त सोलह हजार एक सौ आठ रानियों के साथ रुक्मणि जी ने गणेश चतुर्थी तिथि का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से भगवान श्री कृष्ण जी का कलंक दूर हुआ। आकाश में चन्द्रमा के उदय होने के साथ ही गरुड़ देव पर विराजित होकर जाम्बवती के साथ द्वारिका नगरी में आये। इस तरह चारो तरफ खुशी छा गई। उस दिन समस्त नगरी में उत्सव को श्री कृष्ण जी आने के रूप में मनाया गया। इस तरह से श्री कृष्ण जी को चन्द्रमा के देखने के कलंक दोष से मुक्ति मिली थी। तब से ही यह उत्सव 'गणेश उत्सव' के रूप में मनाया जाता हैं। इस तरह नारद जी के कहने पर यह व्रत को किया आज भी समस्त मनुष्य इस चतुर्थी तिथि के व्रत को करके अपने मन की इच्छाओं को गणेश जी पूरा करते हैं।
जो भी मनुष्य अपनी मन को जीतकर इस परम् शुभकारी व्रत को अपनी श्रद्धाभावना पूर्वक करता है इस व्रत के आख्यान को सुनता है और दूसरों को भी बताता हैं, वह मनुष्य सभी तरह से सुख को प्राप्त होता हैं। इसमें थोड़ा भी शक नहीं हैं।
गणपति जी के व्रत की महिमा का चारों ओर गुणगान करके उनके व्रत की कथा का प्रचार-प्रसार करते हैं, तो उस मनुष्य से गणपति जी खुश होकर उसकी समस्त मनोरथो को पूर्ण कर देते हैं।
आठ लोगों को यह व्रत पकड़ाने से यह व्रत बिना क्षय का हो जाता हैं।
इस व्रत की कथा को यात्रा करते समय अथवा किसी पावन पर्व पर मन लगाकर कहते है या सुनाते है तो उस मनुष्य पर श्री गणपति जी की अनुकृपा से समस्त तरह से विघ्नों का नाश होकर समस्त तरह मंगल ही मंगल होता हैं।