विजयादशमी क्यों मनाया जाता है, पूजा विधि, कथा एवं महत्त्व(Why Vijayadashami is celebrated, puja vidhi, katha and importance):-आश्विन शुक्ल दशमी को दशहरा कहते है। यह त्यौंहार पूरे भारतवर्ष में मनाया जाता हैं। क्षत्रियों का यह बहुत बड़ा पर्व हैं। शारदीय नवरात्रि, विजयादशमी और शरद्पूर्णिमा ये तीनों पर्व एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
आश्विनस्य सिते पक्षे दशम्यां तारकोदये।
स कालो विजयो ज्ञेयः सर्वकार्यर्थ सिद्धये।।
अर्थात्:-आश्विन माह के शुक्लपक्ष की दशमी के दिन सायंकाल के समय को आकाश में चमकने वाले नक्षत्र या सितारा प्रकट होता है, उस समय विजयकाल या सब पर जीत दिलाने का समय रहता हैं, इसे इसलिए विजयादशमी कहा जाता हैं।
विजयादशमी के दिन पूजन विधि:-विजयादशमी के दिन पूजा-अर्चना के करने फल प्राप्त होता है:
◆विजयादशमी के दिन प्रातःकाल देवी का विधिवत पूजन के करके विजयादशमी को विसर्जन तथा नवरात्रि को पारणा करना चाहिए।
◆इस दिन विधिपूर्वक अपराजिता देवी के साथ जया तथा विजया देवियों का पूजन करने का विधान हैं और सायंकाल में दशमी पूजन तथा सीमोल्लंघन का विधान हैं।
◆भारतवर्ष के कोने-कोने में इस पर्व से कुछ दिन पूर्व ही रमलीलाऐं शुरू हो जाती हैं।
◆सूर्यास्त होते ही रावण, कुम्भकर्ण तथा मेघनाद के पूतले जलाए जाते हैं।
◆इस पर्व को भगवती या विजया के नाम पर विजयादशमी कहते हैं। साथ ही इस दिन भगवान श्रीरामचन्द्रजी ने दशमुख रावण का वध किया था। इसलिए इस पर्व को विजयादशमी कहा जाता हैं। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन अपनी विजय यात्रा आरम्भ करते थे। वैश्य अपने बही खातों का पूजन भी इसी दिन को किया करते हैं।
◆राजस्थान आदि कुछ प्रदेशों की परम्परा के अनुसार इस दिन घरों में दीवार पर गेरू से दशहरा का चित्र बनाकर जल, रौली और चावल से पूजा की जाती हैं।
◆दीप, धूप से आरती होती हैं। दशहरा पर जो दो गोबर की हान्डी रखी जाती हैं। उनमें से एक में तो रुपया तथा दूसरी में फल, रोली एवं चावल रखकर दोनों हांडियें को ढ़क दिया जाता हैं।
◆दीपक जलाकर परिक्रमा देकर दण्डवत किया जाता है।
◆थोड़ी देर के बाद हान्डी में रुपया निकालकर अलमारी में रख लिया जाता हैं तथा हांडियों का विसर्जन तालाब में कर दिया जाता हैं।
विजयदशमी हिंदुओं का मुख्य त्यौंहार हैं। दशहरा के दिन रामचन्द्रजी की सवारी बड़ी सज-धज कर बाजारों में घूमती हुई बड़ी धूमधाम से निकलती हैं। रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण का वध करते हुए लंका नगरी का विनाश करने की लीला करते हैं। इस दिन नीलकण्ठ दर्शन को बहुत ही शुभ माना जाता हैं।
विजयादशमी पर्व की कथा:-बहुत समय पूर्व की बात हैं। एक बार माता पार्वतीजी ने भगवान शिवजी से पूछा-की लोगों में जो दशहरा का त्यौंहार मनाते हैं। इसका क्या फल हैं?
शिवजी ने बताया कि अश्विन शुक्ल दशमी को सायंकाल में तारा उदय होने के समय विजय नामक काल होता है। जो सब इच्छाओं को पूर्ण करने वाला होता है। शत्रु पर विजय प्राप्त करने वाले राजा को इसी समय प्रस्थान करना चाहिए। इस दिन यदि श्रवण नक्षत्र का योग हो तो और भी शुभ माना जाता है।
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीरामचन्द्रजी ने इसी विजय काल में लंका पर चढ़ाई की थी। इसलिए यह दिन बहुत पवित्र माना जाता है और क्षत्रिय लोग इसे अपना प्रमुख त्यौंहार मानते हैं।
शत्रु से युद्ध करने का प्रसंग न होने पर भी इस काल में राजाओं को अपनी सीमा का उल्लंघन अवश्य करना चाहिए। अपने तमाम दल-बल को सुसज्जित करके पूर्व दिशा में जाकर शमी वृक्ष का पूजन करना चाहिए।
पूजन करने वाला शमी के सामने खड़ा होकर इस तरह ध्यान करे-हे शमी! तुम सब प्राणियों के पापों को नष्ट करने वाले और शत्रुओं को भी पराजय देने वाले हो। तुमने अर्जुन का धनुष धारण किया और रामचन्द्रजी से प्रियवाणी कही।
पार्वतीजी बोली-शमी वृक्ष ने अर्जुन का धनुष कब और किस कारण धारण किया था तथा रामचन्द्रजी से कब और कैसी प्रियवाणी कहीं थीं, जो कृपा करके समझाइए?
शिवजी ने उत्तर दिया-दुर्योध्यन ने पांडवो को जुए में हराकर इस शर्त पर वनवास दिया था कि वे बारह वर्ष तक प्रकट रूप से वन में जहां चाहें घूमें, लेकिन एक वर्ष तक बिल्कुल अज्ञात वास में रहे। यदि इस वर्ष में उन्हें कोई पहचान लेगा तो उन्हें बारह वर्ष और भी वनवास भोगना पड़ेगा। उस अज्ञात वास के समय अर्जुन अपना धनुष बाण एक शमी वृक्ष पर रखकर राजा विराट के यहां वृहन्लता के वेश में रहे थे। विराट के पुत्र कुमार ने गौओं की रक्षा के लिए अर्जुन को अपने साथ लिया और अर्जुन ने शमी के वृक्ष पर से अपने हथियार उठाकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त की थी। शमी वृक्ष ने अर्जुन के हथियारों की रक्षा की थी।
विजय दशमी के दिन भगवान श्रीरामचन्द्रजी ने भी लंका पर चढ़ाई करने के लिए प्रस्थान करने के समय शमी वृक्ष ने भगवान श्री रामचन्द्रजी से कहा था कि आपकी विजय निश्चित होगी। इसलिए विजयकाल में शमी वृक्ष की भी पूजा होती हैं।
एक बार राजा युधिष्ठिर के पूछने पर श्रीकृष्णजी ने उन्हें बतलाया था कि हे राजन! विजयादशमी के दिन राजा को स्वयं अलंकृत होकर अपने दासों और हाथी-घोड़ा का श्रृंगार करना चाहिए तथा बाजे-गाजे के साथ मंगलाचार करना चाहिए। उसे उस दिन अपने पुरोहित को साथ लेकर पूर्व दिशा में प्रस्थान करके अपनी सीमा से बाहर जाना चाहिए और वहां वास्तु पूजा करके अष्ट दिग्पालों तथा पार्थ देवता की वैदिक मंत्रों से पूजा करनी चाहिए। शत्रु की मूर्ति अथवा पुतला बनाकर उसकी छाती में बाण लगाएं और पुरोहित वेद मंत्रों का उच्चारण करें। ब्राह्मणों की पूजा करके हाथी-घोड़ा, अस्त्र-शास्त्रादि का निरीक्षण करना चाहिए। यह सब क्रिया सीमांत में करके अपने महल में लौट आना चाहिए। जो राजा इस विधि से विजय उत्सव करता हैं वह सदा अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता हैं।