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Saturday, March 19, 2022

पूजा में आसन का उपयोग क्यों होता हैं? जानें धार्मिक व वैज्ञानिक महत्व(Why are asanas used in puja?Know religious and scientific importance)

Why are asanas used in puja?Know religious and scientific importance




पूजा में आसन का उपयोग क्यों होता हैं? जानें धार्मिक व वैज्ञानिक महत्व(Why are asanas used in puja?Know religious and scientific importance):-प्राचीन काल में हमारे ऋषि-मुनियों ने अपने धार्मिक एवं सांसारिक कार्यों को करते समय उनको अपने शरीर की ऊर्जा को नियंत्रण में रखने की जरूरत महसूस हुई थी। जिसके फलस्वरूप उन्होंने अपने ऊपर अलग-अलग वस्तुओं का उपयोग किया था। फिर अपने समस्त धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करने के लिए अलग-अलग कार्यों के लिए अलग-अलग आसनों के बारे जानकारी प्राप्त की और उस जानकारी के आधार पर उन्होंने अपनी साधना में कामयाबी हासिल की थी। इस तरह से धार्मिक अनुष्ठान करते समय आसन के उपयोग बिना सफलता नहीं मिल सकती है। इसलिए धार्मिक कार्यों को सफल बनाने के लिए आसनों का प्रयोग करना जरूरी हैं।


ऋषि-मुनियों के मतानुसार:-देह को भी आसन के रूप में बताया गया है, ईश्वर की भक्ति में आदरपूर्वक अपने पूर्ण देह को सौपना ही एक सर्वश्रेष्ठ पूजा होती हैं। जिससे भक्त को अपने इष्टदेव के निकट उनके चरणों मे जगह मिल सके और भक्त का उद्धार हो सके। देव को उनके रीति के अनुसार भक्त को निरन्तर प्रयाश करते रहना चाहिए, की जिससे देव की अनुकृपा हो जावे।


दर्भासन का अर्थ:-ईश्वर को जिस पवित्र जगह पर बैठाया जाता है, उस पवित्र जगह को दर्भासन कहा जाता हैं।

ईश्वर को जिस कुश से बने आसन पर जब बैठाया जाता हैं, तब उस आसन को दर्भासन कहा जाता हैं। 

आसन का अर्थ:-ईश्वर या देवता आदि की भक्ति करने वाला जिस पर खुद बैठता है, तब उसे बिछावन या आसन कहा जाता हैं।

आसन का अर्थ:-पूजा आदि धार्मिक कार्य करते समय जिसको बिछाने के रूप में उपयोग लिया जाता है, जो बैठने के ढंग को अभिव्यक्त करता हैं, उसे आसन कहा जाता है।

आसन का शाब्दिक अर्थ:-संस्कृत के नपुंसक लिंग शब्द 'आसनम् से बना' आसन हैं।

अर्थात्:- संस्कृत के शब्द के विच्छेद करने पर दो शब्दों के योग से आसन बनता हैं, जिसमें शब्द आस्+ल्युट से बना हैं।

आसन का सामान्य रूप से मतलब:-मन को एक जगह पर केंद्रित करते हुए देह के समस्त अंगों को मजबूती बनाये रखने एवं देह को आराम प्रदान करने में सहायक होकर बैठने में जो आधार प्रदान करता हैं, उसे आसन कहा जाता हैं।

कर्मबद्ध कार्यों जो विशेष जगह, विधि एवं विशेष शब्दों के द्वारा किये जाते हैं।

"स्थिरसुखमासनम्

अर्थात्:-जिस पर बैठने पर सुख की अनुभूति का अहसास होता है या जिस पर बैठने पर स्थिरता का अनुभूति होती है, उसे आसन कहा जाता हैं।


भूमौदर्भासने रम्ये सर्व दोष विवर्जिते। (अमृत नादोपनिषद्-१८)

अर्थात्:-जब भूमि पर दर्भ का आसन बिछाकर धर्म के कार्यों को नियमानुसार शुरू करने में उपयोग में लेने पर समस्त तरह दोष समाप्त हो जाते हैं।

कृष्णाजिनम खण्डम्।-दयानन्दीय सं. विधि, पृष्ठ-५५ 

अर्थात्;-बिना कटा-फटा मृग चर्म का आसन बनाना चाहिए।

आसीनासो अरुणीमुपस्थे।-अर्थव १८/३/४३

अर्थात्:-ऊन निर्मित आसन पर आसीन हो।

धार्मिक कार्यों को करते समय अनुष्ठान कर्ता को भिन्न-भिन्न आसनों पर बैठकर वह कृत्य सम्पन्न करने का विधान किया गया है।


शास्त्रीय या धार्मिक आधार पर आसन के प्रकार:-धर्मग्रन्थों में अनेक प्रकार के आसनों के बारे में बताया गया हैं, जो इस तरह है-

१.कौशेय कपड़े से बने आसन। 

२.सामान्य कपड़े का बना आसन।

३.अभिवास से बनाया हुआ आसन। 

४.कृष्णसार की चर्म से बना हुआ आसन। 

५.मृगेन्द्र चर्म  से बना आसन। 

६.दर्भ का आसन।

७.मृग की चर्म से बना आसन।


आसन का शास्त्रीय या धार्मिक महत्व:-धर्मग्रन्थों में आसन के अनेको महत्त्व को बताया गया है, जो इस तरह है-

काम्यर्थं कम्बलं चैव श्रेष्ठं च रक्त कम्बलम्।

कृष्णाजिने ज्ञानसिद्धिर्मोक्ष श्रीर्व्याघ्र चर्म्माणि।

कुशासने मन्त्र सिद्धिर्नात्र कार्य्या विचारणा।

◆अर्थात्:-काम्य कर्म:-जब किसी भी तरह की कामना की सिद्धि को पूरा करना होता हैं, तब रक्त वर्ण के अभिवास का आसन को उपयोग में लेकर नियमपूर्वक पूजा आदि आरम्भ करना बहुत ही अच्छा बताया गया है, क्योंकि रक्त वर्ण श्री हनुमानजी, माता पार्वतीजी एवं लक्ष्मीजी को खुश करने के लिए बहुत ही अच्छा होता हैं।

◆यदि कम्बल की बिछावन नहीं होने पर वस्त्र से बनाकर या कौशेय कपड़े से बनाकर भी उपयोग में ले सकते हैं।


◆ज्ञान सिद्धि कर्म:-किसी भी तरह के ज्ञान के बारे में पूर्णता से सिद्धि पाने हेतु, कृष्णसार के चर्म से बना हुआ अखण्डित आसन उपयुक्त बताया गया है।


मृगेन्द्र चर्म से बनी बिछावन के द्वारा मोक्ष प्राप्ति:-जब जन्म-मरण कर्मों से मुक्त होने के लिए मृगेन्द्र चर्म से बना हुआ आसन सबसे बढ़िया रहता हैं। इस तरह सारे प्राचीन ऋषि-मुनियों, योग साधना करने वाले आत्मज्ञानी, मनोविकारी एवं भगवान शिवजी भी इस तरह के बिछावन का उपयोग करते हैं। 

मृगेन्द्र के चर्म से बनी बिछावन के गुण:-यह बिछावन सत्व गुणों से सम्पन्न, भूमि सम्पदा, धन-संपत्ति, मान-सम्मान एवं किसी पद की प्राप्ति करवाने में सहायक होता हैं। 


सारंग के चर्म से बनी बिछावन के गुण:-यह आसन मनुष्य को अपना अष्टविध मैथुन से बचाता है, ईश्वरीय ज्ञान को प्राप्त करवाने में एवं उद्धार मार्ग  दिखाने में, कामयाबी, मन की स्थिरता एवं नई जानकारी को देने में सबसे उत्तम बिछावन हैं।

◆इस बिछावन के उपयोग करने से भक्त मनुष्य में शरीर से सम्बन्धित काम करने में खर्च होने वाली शक्ति को पुनः प्राप्त करवाने में सहायक होता हैं।

◆समस्त पांचों कर्मेन्द्रियों जैसे-दोनों हाथ, मस्तिष्क एवं दोनों पैर आदि पर अपना नियंत्रण करवाने में सहायक होता हैं। 

◆मनुष्य के रक्त से सम्बंधित दोषों एवं त्रिदोषों जैसे: वात, पित एवं कफ आदि से सम्बंधित विकृतियों से बचाव करता है और स्वास्थ्य को प्रदान करने में यह बिछावन सहायक होता हैं।

◆मनुष्य की जीव-जंतुओं से सुरक्षा प्रदान करते हैं, क्योंकि मृग के चर्म में विशेष तरह की गंध होती है, जिससे जीव-जंतु इस गन्ध से दूर रहते हैं।

◆दर्भ का आसन:- योग साधना करने वाले आत्मज्ञानी के लिए सबसे उपयुक्त बिछावन होता हैं, दर्भ जो कि एक तीक्ष्ण धार वाली एक घास होती है, इस पर अमृत की बूंदों के कारण बहुत ही पवित्र माना जाता है, ईश्वर की देह से कुश की पैदाइश माना जाता हैं, जब दर्भ को बिछावन के रूप में उपयोग करते है, तब उपयोग करने वाले आत्मज्ञानी के कार्य में सफलता हैं।

◆मन्त्र सिद्धि हेतु:-जब समस्त तरह के मंत्रों में सिद्धि प्राप्त करनी होती हैं, तब कुश से बने हुए आसन पर बैठकर मन्त्रों की सिद्धि हेतु अपना कर्म करना चाहिए। 

◆कुश से बनी बिछावन का औरतें के द्वारा उपयोग करने से अमंगल होने की सम्भावना बनती हैं, इसलिए औरतों को कुश से बनी बिछावन का प्रयोग धर्मग्रन्थों में निषिद्ध बताया गया है।

◆श्राद्ध पक्ष में तर्पण करने में प्रयोग:-श्राद्ध पक्ष में पितरों के तर्पण में पिंड श्राद्ध आदि कार्यों में पितरों को खुश करने में दर्भ से बनी हुई बिछावन उत्तम रहती हैं।

◆मनुष्य के पांच कर्मेन्द्रियों दोनों हाथ, पैर और मस्तिष्क को विद्युतय तरंगों के प्रभावों से बचाव करती है। इसलिए पूजा-अर्चना के समय में पांच कर्मेन्द्रियों की जगहों की कुशा का आसन सुरक्षा करती हैं।

◆कुश ऊर्जा की कुचालक:- कुश ऊर्जा की कुचालक होती है, इसलिए कुश के बिछावन पर बैठकर पूजा-वंदना, उपासना या अनुष्ठान करने में शक्ति का क्षय नहीं होता है, जिसके परिणामस्वरूप इच्छाओं की जल्दी से पूरा होना होता है। वेदों में कुश को शीघ्र नतीजे को प्रदान करने वाली ओषधि, उम्र को बढ़ाने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण को फैलने से रोकने वाला बताया गया है।

◆कुश से बनी बिछावन के रूप में उपयोग:-कुश से बनी हुई बिछावन को उपयोग करने, देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करते समय कुश बिछावन का उपयोग करने मनुष्य की बुद्धि तेज होकर ज्ञान की प्राप्ति होती हैं और देवी-देवताओं के प्रति भक्तिभाव की जागृति होकर अपने सभी तरह के कार्यों में सिद्धि मिलती है। कुश के बिछावन का उपयोग करके अपने मन को एक जगह स्थिर करते हुए ध्यान साधना करने से देह व चित निर्मल होता है, जीवन में आ रही मुसीबतों से आजादी मिलती है।

इस तरह से आसनों का उपयोग करने पर अपने इच्छित कार्य में सफलता के सम्बंध में किसी भी तरह के संदेह की गुंजाइश नहीं रहती हैं।


आसन के बारे में रखनी योग्य सावधानियां एवं आसन पर बैठने की रीति:-साधक को कभी खुली जमीन पर बैठ कर जप, पूजा उपासना नहीं करनी चाहिए, इसलिए पूजा का आसन व वस्त्र अलग रखने चाहिए।

◆भक्त मनुष्य को जो पूजा में देव को अर्पित करने वाले वस्त्रों को एवं बिछावन को एक साथ नहीं रखना चाहिए, क्योंकि एक साथ रखने पर देव को अर्पण करने वाले वस्त्र अपवित्र हो जाते हैं।

◆जब पूजा करते हैं, पैर के नीचे कुछ न कुछ होना चाहिए। 

◆भक्त मनुष्य को अपनी माला एवं बिछावन आदि को दूसरों को उपयोग करने के लिए नहीं देना चाहिए, क्योंकि इस तरह जब माला एवं बिछावन दूसरों को देने से उनकी पवित्रता नष्ट होकर दूसरों के नकारात्मक विचारों का संचार होने लगता है और भक्त मनुष्य का मन भटकने लगता हैं।

◆बिछावन की बनावट चोकोर आकृति का होना चाहिए।

◆जब भी मनुष्य को पूजा-अर्चना करते समय पूजा-अर्चना से पूर्व बिछावन को शुद्ध एवं पवित्रीकरण करना चाहिए, उसके बाद बिछावन को बिछाने से पूर्व निवेदन करते हुए अनुमति लेकर उसको बिछाना चाहिए।

◆बिछावन को बिछाते समय खाली नहीं बिछानी चाहिए, उस बिछावन के नीचे शुद्ध एवं पवित्र जल और पुष्प को रखकर ही उपयोग में लेना चाहिए।

◆पूजा में आसन विनियोग का विशेष महत्त्व:-जब भी किसी तरह की पूजा की जाती हैं, तब उस पूजा से सम्बंधित काम में आने वाली प्रत्येक वस्तु को उस पूजा में आने के लिए आह्वान किया जाता हैं, उसी तरह आसन से पूजा में आने का आह्वान करके उनसे नतमस्तक होकर अरदास करनी चाहिए। हे आसन देव! मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि आपको मैं बिछावन के रूप में प्रयोग करना चाहता हूं, आप मुझे अनुमति देवे और आप पर बैठकर जब तक पूजा आदि धार्मिक कर्म करूँ तब तक आप मेरी सुरक्षा करते हुए मेरे कार्य को सफलता देने में योगदान देवे।

◆आसन विनियोग के बाद:-साधना करने वाले को पूर्व या उत्तर दिशा की ओर अपना मुहं रखते हुए ईश्वर की प्रतिमा का मुहं भी उत्तर या पूर्व दिशा में रखते हुए ईश्वर के सामने शुद्ध गाय के घृत को किसी दीपक में भरकर बाती डालकर उसको प्रज्वलित करते समय निम्नलिखित मन्त्रों का वांचन करना चाहिए- 

 ऊँ अग्नि ज्योतिः परंब्रह्म दीपो ज्योतिर्जनारदनः।

दीपो हरतु मे पापं, दीप ज्योतिः नमोस्तुते।।

◆बिछावन का उपयोग होने के बाद उनको सहसम्मान सहित मोड़कर रखना चाहिए और उस बिछावन में कपूर आदि सुंगधित वस्तु को रखने भी उत्तम रहता हैं।


ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार कुछ वस्तुओं से बनी बिछावन का उपयोग नहीं करें:-ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार कुछ विशेष वस्तुओं से बने हुए आसनों का प्रयोग करने से बचना चाहिए-

धरण्यां दुःख सम्भूति दौर्भाग्यं दारूजासने।

वंशासने दरिद्रः स्यात, पाषाणों व्याधि पीड़नम्।।

तृणासने यशोहानिः पल्लवे चिन्तविभ्रमः।

जपध्यान तपोहानि वस्त्रासनं करोति हि।। (ब्रह्माण्ड पुराण)

अर्थात्:-इन वस्तुओं के बारे में जानकारी निम्नलिखित हैं:

◆पृथ्वी माता पर बिना बिछावन के पूजा करने पर:-जो भक्त मनुष्य पृथ्वी पर बिना बिछावन के ही पूजा-अर्चना करते हैं, तो इस तरह की पूजा-अर्चना को ईश्वर ग्रहण नहीं करते हैं और उस पूजा-अर्चना का कोई महत्व नहीं होता हैं, जिससे उस भक्त मनुष्य को उचित रूप से पूजा-अर्चना करने पर भी पुण्य नहीं मिलता हैं। इस तरह बिना बिछावन के भूमि पर बैठने वाले को दुःख व क्लेश की प्राप्ति होती हैं।

◆जब कष्ट या लकड़ी के बने आसन का प्रयोग करने से बुरा भाग्य शुरू हो जाता है।

◆जब बांस से बने आसन का प्रयोग करने पर गरीबी में बढ़ोतरी होती हैं।

◆जब पत्थर पर बैठकर आसन के रूप में प्रयोग करने से व्याधियों में बढ़ोतरी शुरू होने लगती हैं।

◆जब घास-फूस के आसन पर बैठने से जप-तप एवं ध्यान करने में बाधा आने लगती हैं और नुकसान होने लगता हैं।

◆पल्लवों को इकट्ठा करके बनाये हुए बिछावन का जब मनुष्य के द्वारा उपयोग में लिया जाता है, तब इन बिछावन के कारण मनुष्य के चित्त में गलत विचारों का संचार होने से चित्त में एकाग्रता नहीं हो पाती है, जिससे मनुष्य की मति से विचलित हो जाता हैं। कई तरह की शारीरिक एवं मानसिक व्याधियों का असर होने लगता हैं, मनुष्य का शरीर कमजोर होने लगता है, उसका उत्साह समाप्त हो जाता हैं और उदासीनता होने लगती हैं।


धर्मग्रन्थों के सबूत आसन के बारे में:-इस तरह से अनेक ऐसे बहुत सबूत धर्मग्रन्थों में मौजूद हैं, जिनमें बिना आसन का प्रयोग किये धार्मिक कार्यों को नियमपूर्वक नहीं किया जा सकता है, इस तरह हिन्दुधर्म में हीं आसन की व्यवस्था बताई हैं।

बल्कि मुस्लिम पंथ में भी मुसलमानों की नमाजी चटाई (मुसल्ला) भी इसी उद्देश्य के लिए बिछाई जाती हैं।

ईसाई पंथ में भी आसन के रूप में कुर्सियों का प्रयोग जब वे प्रार्थना करते हैं, तब उपयोग में लेते हैं।

इसी तरह अन्य पंथावलंबी भी कुछ-न-कुछ बिछा कर ही अपने धार्मिक कार्यों को नियमानुसार करने में उपयोग लेते हैं।


आसनों का वैज्ञानिक महत्व:-धार्मिक कार्यों में तो बहुत ही महत्व बताया गया हैं। लेकिन धार्मिक कार्यों के अलावा वैज्ञानिक रूप में भी महत्व साफ रूप से दिखाई देता हैं। भूमि पर बैठने से बचने के लिए एवं वस्त्र को गंदा होने से बचाने के लिए ही आसनों का प्रयोग नहीं होता हैं। इसका वैज्ञानिक महत्व भी होता हैं।

गुरुत्वाकर्षण शक्ति से समस्त तरह के पार्थिव पदार्थों को पृथ्वी अपनी तरफ खिंचती हैं, जिस तरह चुम्बक लोहे से बने पदार्थों को अपने तरफ खिंचती हैं। भारतीय मनीषी को हजारों वर्ष पहले जानकारी थी, की प्रत्येक वस्तु ऊपर से नीचे पृथ्वी की ओर ही आती हैं।

पृथ्वी का यह गुरुत्वाकर्षण भजन, पूजा-पाठ आदि धार्मिक अनुष्ठान करते समय मनुष्य को प्रभावित न कर सकें, इसके लिए पृथ्वी एवं अनुष्ठान कर्ता के बीच किसी ऐसे पर्दाथ का होना भी आवश्यक है, जो कि विद्युत के संक्रमण को मनुष्य के शरीर पिंड से निः सृत विद्युत आवेश को एकाकार न होने दे।

आधुनिक युग में सुनने को मिलता है, अमुक प्राणी विद्युत के नगें तार  छूने मात्र से उसके प्राण समाप्त हो गई। इसी तरह जब विद्युत के मिस्त्री बिजली के तार दिन भर छूते और बनाते हैं, किन्तु उन्हें कभी भी विद्युत का झटका नहीं लगता हैं। इसका कारण कुछ और नहीं बस यही हैं कि उनके और पृथ्वी के बीच में कोई ऐसा पदार्थ रहता है जो विद्युत प्रवाह का सम्बंध पृथ्वी से होने से रोकता हैं। वह वस्तु होती है सूखी लकड़ी, रबड़ की चप्पल, जूते आदि जो विद्युत के कुचालक कहे जाते हैं।

शुचि का अर्थ:-जिन पदार्थों में विद्युत का प्रवाह नहीं होता, उन पदार्थों को वैदिक वाङमय में शुचि कहते हैं।

अशुचि का अर्थ:-जिन पदार्थों में विद्युत का प्रवाह सुगमता से होता, उन पदार्थों को वैदिक वाङमय में अशुचि कहे जाते हैं। जैसे:-धातुएं जैसे लोहा, सोना, चांदी, मनुष्य का शरीर, जल आदि। इन्हें अंग्रेजी में कंडक्टर या संक्रामक एवं नान-कंडक्टर या बैड कंडक्टर या असंक्रामक कहा जाता है।

इस प्रकार वे बिजली बनाने वाले प्रायः अपने हाथों में ऐसे अशुचि पदार्थ पहने रहते हैं या शरीर पर, पांवों में धारण किए रहते हैं जिससे विद्युत प्रवाह उनका कोई नुकसान नहीं कर पाता। यदि यही मनुष्य पृथ्वी आदि अशुचि पदार्थ पर खड़ा होकर विद्युत का तार छू ले तो उसका प्राण संकट में पड़ जाएगा क्योंकि विद्युत का प्रवाह मनुष्य के शरीर में आएगा और शरीर में बहते रक्त को प्रभावित करने लगेगा। जबकि वही मानव शुचि पदार्थ लकड़ी, रबर आदि पर खड़ा होकर तार छूता है तो विद्युत प्रवाह मानव शरीर के माध्यम से काठ पर खड़े होने के कारण पृथ्वी से असम्बद्ध रहता है और कोई दुष्प्रभाव नहीं डाल पाता।

ठीक इसी वैज्ञानिक कारण से धार्मिक अनुष्ठानों में आसन बिछाकर बैठने की व्यवस्था हमारे प्राचीन मनीषियों न दी। क्योंकि गोबर का चौका, काष्ठ का पटर, कुश का आसन, मृगचर्म, ऊन से निर्मित आसन विद्युत के कुचालक होते हैं। इसी कारण संक्रमण शून्य होते हैं। पार्थिव विद्युत प्रवाह अनुष्ठान कर्ता पांवो के माध्यम से शरीर पिंड को प्रभावित नहीं कर पाता।