दत्तात्रेय जयंती क्यों मनाई जाती हैं, जानें पूजा विधि, कथा और महत्त्व(Why Dattatreya Jayanti is celebrated, know the puja vidhi, katha and importance):-मार्गशीर्ष पूर्णिमा महायोगीश्वर दत्तात्रेय जी भगवान विष्णुजी के अवतार हैं। इनका अवतरण मार्गशीर्ष की पूर्णिमा को प्रदोषकाल में हुआ था। श्रीदत्तात्रेय जी की जयन्ती को दक्षिण भारत में एक पर्व के रूप में मनाया जाता है, इस दिन मनुष्यों में बहुत खुशी एवं उमंग रहती हैं। दत्तात्रेय जी के मन्दिर परिसर को फूलों से सजाया जाता है। मन्दिरों में अनेक तरह के फलों का भोग लगया जाता हैं। भगवान श्रीविष्णुजी, शिवजी एवं ब्रह्माजी के रूप के स्वरूप एक रूप में पूजा-अर्चना की जाती हैं। भगवान दत्तात्रेय जी की जयंती के दिन जो मनुष्य पूजा, व्रत आदि करते हैं, तो उन मनुष्य के मन में सही राह पर चलने की तरफ अग्रसर होते हैं। श्रीमद्भागवत् में आया है कि महर्षि अत्रि मुनिवर के द्वारा कठिन तपस्या या साधना पुत्र की कामना से करने पर श्रीविष्णुजी के द्वारा वरदान दिया जाता हैं, कि "दत्तो मयाहमिती यद् भगवान स दतः" मैंने अपने आपको तुम्हें दे दिया हैं। श्री विष्णुजी के द्वारा इस तरह का वरदान देने से भगवान विष्णुजी को महर्षि अत्रि के पुत्र के रूप में अवतार लेना पड़ा था। इस तरह से उनको अवतरित होना पड़ा और दत्त कहलाये। अत्रिपुत्र होने से ये 'आत्रेय' कहलाये हैं। दत्त और आत्रेय के सयोंग से इनका 'दतात्रेय' नाम से जाने लगे। इनकी माता का नाम अनसूया हैं, जो सतीशिरोमणि हैं तथा उनका पातीव्रत्य संसार में प्रसिद्ध हैं।
दत्तात्रेय जयन्ती के दिन की पूजन विधि:-उत्पत्ति एकादशी भी दत्तात्रेय जयन्ती के दिन ही आती है। कथा भी दोनों की एक ही हैं-यह व्रत मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष में किया जाता है। दत्तात्रेय जयंती का पर्व एकादशी तिथि से शुरू होकर पूर्णिमा तिथि के दिन समाप्त होता हैं।
◆इस दिन भगवान श्री कृष्णजी की पूजा का विधान है।
◆व्रत करने वाले को दशमी के दिन दिन-रात में भोजन नहीं करना चाहिए।
◆एकादशी के दिन प्रातःकाल ब्रह्म वेला में ही भगवान की पुष्प, जल, धूप, दीप, अक्षत से पूजन करके नीराजन करना चाहिए।
◆इस व्रत में केवल फलों का ही भोग लगाया जाता हैं।
◆ब्रह्मा, विष्णु, महेश, त्रिदेवों को सयुंक्त अंश माना जाता है।
◆यह उत्पत्ति एकादशी मोक्ष देने वाली व्रत हैं।
◆इस व्रत के प्रभाव से सभी मनोकामनायें पूर्ण हो जाती हैं।
◆मनुष्य को सुबह जल्दी उठना चाहिए।
◆फिर पवित्र स्थान जैसे-नदी या सरोवर आदि के जल में स्नान करना चाहिए।
◆उसके बाद मन ही मन में श्रीदत्तात्रेय जी को याद करते हुए व्रत को नियमपूर्वक आरम्भ करना चाहिए।
◆उसके बाद में अपने निवास स्थान में जिस जगह पर पूजा आदि को करना होता हैं, उस स्थान की साफ-सफाई करनी चाहिए।
◆फिर उस साफ-सफाई से युक्त जगह पर भगवान श्रीदत्तात्रेय जी की मूर्ति या प्रतिमा को किसी लकड़ी के बाजोट या अपने पूजाघर में रखना चाहिए।
◆पूजा की सामग्री में विशेषकर पीले रंग के पुष्प, पीली मिठाई, फलों, धूपबत्ती और अगरबत्ती आदि को लेकर उनसे पूजा करनी चाहिए।
◆पूजा करते समय भगवान श्रीदत्तात्रेय जी की प्रतिमा को हरिद्रा, सिंदूर और चन्दन आदि से तिलक करना चाहिए।
◆फिर दीपक को प्रज्वलित करना चाहिए।
◆जो व्रती या जो श्रीदत्तात्रेय जी में विश्वास भाव रखते हैं, उनको मन्त्रों का एवं ईश्वर के बखान से सम्बंधित धर्म के भजन या गीत को गाना चाहिए।
◆भगवदगीता जो कि जीवन से मुक्ति देने वाली होती हैं, उनके श्लोकों का वांचन करना चाहिए।
◆मनुष्य को पूरे दिन में चित्त में किसी तरह के बुरे विचारों का आगमन को रोकना चाहिए।
◆अच्छे विचारों के लिए 'ऊँ श्री गुरुदेव दत्त' और 'श्री गुरु दत्तात्रेय नमः आदि मन्त्रों को मन ही मन में दोहराना चाहिए।
◆फिर मनुष्य को अपने मन के अंदर की इच्छाओं को श्रीदत्तात्रेय जी के आगे रखना चाहिए और उन्हें पूर्ण करने का निवेदन करना चाहिए।
◆फिर पूजा में किसी भी तरह की गलती के लिए भगवान श्रीदत्तात्रेय जी से क्षमायाचना करनी चाहिए।
श्रीदत्तात्रेय जी के जन्म की पौराणिक कथा:-एक बार की बात हैं। श्रीमहालक्ष्मीजी, श्रीसतीजी और श्री सरस्वती देवी को अपने पतित्त्व पर अत्यन्त गर्व हो गया। भगवान को अपने भक्त का अभिमान सहन नहीं होता जब उनका क्या होगा? तब उन्होंने एक अद्भुत लीला के बारे में सोचा। भक्त वत्सल भगवान ने देवर्षि नारद के मन में प्रेरणा उत्पन्न की। नारदजी घूमते-घूमते देवलोक पहुंचे और तीनों देवियों के पास बारी-बारी जाकर कहा-अत्रि पत्नी अनसूया के समक्ष आपका सतीत्त्व नगण्य है। तीनों देवियों अपने स्वामियों विष्णुजी, महेशजी और ब्रह्माजी से देवर्षि नारदजी की यह बात बताई और उनसे अनुसूया के पतित्त्व की परीक्षा करने को कहा। देवताओं ने बहुत समझाया, परन्तु उन देवियों के हठ के सामने उनकी एक न चली। अन्ततः साधुवेश बनाकर वे तीनों देव अत्रिमुनि के आश्रम में पहुँचे। महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे। अतिथि को आया देखकर देवी अनुसूया ने उन्हें प्रणाम किया।
फिर उनको अर्ध्य, फल-मूलादी अर्पित किए। किन्तु वे बोले-हम लोग तब तक आतिथ्य स्वीकार नहीं करेंगे जब तक आप निवस्त्र हमारे समक्ष नहीं आयेगी। यह बात सुनकर प्रथम तो देवी अनसूया अवाक रह गयी। किन्तु आतिथ्य धर्म की महिमा लोप न हो जाय इस दृष्टि से उन्होंने नारायण का ध्यान किया। अपने पतिदेव का स्मरण किया और इसे भगवान की लीला समझकर वे बोली-यदि मेरा पतिव्रत्य धर्म सत्य हैं तो यह तीनों साधु छः-छः माह के शिशु हो जाये। इतना कहना ही था कि तीनों देव छः मास के शिशु होकर रुदन करने लगे। तब माता ने उन्हें गोद में लेकर स्तनपान करवाया, फिर पालने में झुलाने लगी। ऐसे ही कुछ समय व्यतीत हो गये। उधर देवलोक में जब तीनों ही देव वापिस नहीं आए तो तीनों देवियां अत्यन्त व्याकुल हो गयी। फलतः नारदजी आये और उन्होंने सम्पूर्ण हाल कह सुनाया। तीनों देवियां अनुसूया के पास आई और उन्होंने उनसे क्षमा मांगीं।
देवी अनुसूया अपने पतिव्रत्य से तीनों देवों को पूर्ण रूप में कर दिया। इस प्रकार प्रसन्न होकर तीनों देवों ने अनुसूया से वर मंगनर को कहा तो देवी बोली-आप तीनों देव मुझे पुत्र रूप में प्राप्त हो। "तथास्तु" कहकर तीनों देव और देवियां अपने-अपने लोक को चले गए। कालान्तर में यह ही तीनों देव अनुसूया के गर्भ से प्रकट हुए। ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा तथा विष्णु के अंश से दत्तात्रेयजी श्रीविष्णुजी भगवान के ही अवतार हैं और इन्हीं के आविर्भाव की तिथि श्री दत्तात्रेय जयन्ती कहलाती हैं। भगवान दत्तात्रेय कृपा की मूर्ति कहे जाते हैं।
परम् भक्तवत्सल दत्तात्रेयजी भक्त के स्मरण करते ही उसके पास पहुँच जाते हैं। इसलिए इन्हें स्मृतिगामी तथा स्मृतिमात्रानुगन्ता कहा गया है। ये श्रीविद्या के परम आचार्य हैं। श्रीमद्भागवत आदि में आया हैं कि इन्होनें दत्तसम्प्रदाय दक्षिण भारत में विशेष प्रसिद्ध हैं। गिरनार क्षेत्र श्रीदत्तात्रेयजी का सिद्धपीठ है। इनकी गुरुचरण पादुकाएँ वाराणसी तथा आबूपर्वत आदि कई जगहों पर हैं। दक्षिण भारत में इनके अनेक मन्दिर है। वहाँ दत्त जयन्ती के दिन इनकी विशेष आराधना-पूजा के साथ महोत्सव सम्पन्न होता है। इस दिन भगवान दत्तात्रेय के उद्देश्य से व्रत करने एवं उनके मन्दिर में जाकर दर्शन-पूजन करने का विशेष महत्त्व है।
श्रीदत्तात्रेय जी की जयन्ती के दिन व्रत करने महत्त्व:-दत्तात्रेय उपनिषद में बताया गया हैं, की जो मनुष्य श्रीदत्तात्रेय जी की जयंती पर उनका व्रत रखते हुए उनकी पूजा करते हैं, तब दत्तात्रेय जी की अनुकृपा मनुष्य को प्राप्त होती हैं। दत्तात्रेय जी की पूजा करने का महत्त्व निम्नलिखित हैं-
◆इस दिन व्रत करने से व्रती के समस्त तरह के किये हुए बुरे कार्यों से मुक्ति मिल जाती हैं।
◆मनुष्य को समस्त तरह के जीवन के सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती हैं।
◆मनुष्य के दाम्पत्य जीवन में खुशहाली भर जाती हैं।
◆मनुष्य के रुके हुए कार्यों में प्रगति होने लगती है और जिससे मनुष्य को धन-संपत्ति की प्राप्ति होती हैं।
◆मनुष्य को शारिरिक एवं मानसिक परेशानियों से मुक्ति मिल जाती हैं।
◆मनुष्य को बिना मतलब का डर रहता है, उस डर से मुक्ति मिल जाती हैं।
◆मनुष्य के मन में अच्छी भावना एवं विचारों की जागृति होने लग जाती हैं।
◆मनुष्य का मन मोह-माया से हटकर अपना उद्धार करना हैं, उसकी तरफ आकर्षित होने लगता हैं।