मित्र सप्तमी व्रत क्यों किया जाता हैं, जानें कथा, पूजा विधि और महत्व(Why is Mitra Saptami vrat, know the Katha, Puja Vidhi and importance):-सूर्यदेव को खुश करने के लिए उनके बहुत सारे व्रतों को हमारे ऋषि-मुनियों ने बताए हैं, उनमें से एक व्रत मित्र सप्तमी तिथि का भी बताया हैं, इस व्रत का बहुत महत्व भी बताया गया है। ऋषि-मुनियों के द्वारा मनुष्य को एक स्वस्थ रखने के लिए तरह-तरह के अनेक उपायों को बताया हैं, जिससे मनुष्य का शरीर स्वस्थ रह सके और उसका जीवन सुचारूरूप चल सके। सूर्यदेव को समस्त ग्रहों का राजा एवं आत्मा का कारक ज्योतिष शास्त्र में बताया हैं, जब समस्त ग्रहों के राजा को जब उनकी पूजा करके उनको खुश कर देते हैं, तो मनुष्य के दूसरे ग्रहों को भी बल मिल जाता है। मार्गशीर्ष महीने के शुक्लपक्ष की सप्तमी तिथि को जो पर्व मनाया जाता है, उसे मित्र सप्तमी पर्व कहा जाता है। मित्र सप्तमी तिथि के दिन भगवान भास्करदेव जी की पूजा-अर्चना करने का दिवस होता हैं, भगवान भास्करदेव के बहुत रूपों में जाना जाता है, उन रूपों में से एक रूप मित्र का होता हैं। भगवान भास्करदेव की पूजा-अर्चना करनी चाहिए, फिर पवित्र नदी के तट पर जाकर या किसी भी बहते हुए जल वाले पर जाकर सूर्यदेवजी को सूर्य अर्ध्य देना चाहिए।भगवान भास्करदेव दोस्त की तरह ही मन में उत्साह के भाव को उत्पन्न करने वाले होते हैं, जिससे मनुष्य के मन में किसी भी तरह के कार्य को करने में निश्चयी या स्वीकृति की भावना का जन्म होता हैं और मनुष्य अपने कैसे भी असम्भव कार्य को करते समय जिझक उत्पन्न नहीं हो पाती हैं। स्पष्ट रूप में दिखाई देने वाले भास्करदेव होते हैं।
मित्र सप्तमी व्रत की पौराणिक कथा:-महर्षि ऋषि कश्यप एवं अदिति की गोद से सूर्यदेव का जन्म शास्त्रों में बताया गया है। सूर्य देव की उत्पत्ति के बारे में धर्म ग्रन्थों में इस तरह बताया है। बहुत पहले की बात हरण जब राक्षसों का अत्याचार बहुत बढ़ गया था। चारों तरफ दैत्यों नें उत्पात मचा दिया और हाहाकार मच गया था। इस तरह से दैत्यों ने समस्त तीनों लोकों में परेशानी बढ़ा दी। इस तरह दैत्यो ने देवताओं पर आक्रमण करके स्वर्गलोक को भी छीन लिया था। इस तरह देवताओं की हालत बहुत खराब हो गई एवं वे दैत्यों से बचने के लिए इधर-उधर भागने लगे।
इस तरह देवताओं की दशा देखकर माता अदिति ने भगवान सूर्यदेव की आराधना करना शुरू किया। अदिति की कठोर तपस्या से खुश होकर सूर्यदेव प्रकट होकर कहा-कि मैं आपकी कोख से जन्म लूंगा और देवताओं की इस दशा से मुक्ति दिलवाऊंगा। इस तरह समय व्यतीत होने पर अदिति की कोख से सूर्यदेव का जन्म हुआ। वे देवताओं की रक्षा करने के लिए उनके अधिपति बनकर दैत्यों से युद्ध करते हैं, अंत में दैत्यों की हार हो जाती है और देवताओं को स्वर्गलोक वापस सूर्यदेव के द्वारा मिल जाता हैं। नारदजी ने बताया हैं, की जो मनुष्य सूर्यदेवजी को खुश करने के लिए मित्र सप्तमी व्रत करते हैं एवं धर्म व नीति के विरुद्ध किये गए बुरे आचरण की माफी मांगते हैं, तब सूर्यदेवजी उस मनुष्य पर खुश होकर अपनी अनुकृपा करते हैं और चक्षु दृष्टि में प्रबलता देते हैं। इस प्रकार मित्र सप्तमी पर्व समस्त तरह से आनन्द देने वाला व्रत होता हैं।
मित्र सप्तमी व्रत के दिन पूजन विधि:-मित्र सप्तमी के दिन मनुष्य को निम्नलिखित विधि से पूजन करना चाहिए-
◆मनुष्य को प्रातःकाल जल्दी उठकर अपने रोजाना की क्रियाएं जैसे स्नानादि को पूरा करना चाहिए।
◆स्वच्छ वस्त्रों को पहनना चाहिए।
◆फिर मन ही मन में सूर्यदेव को याद करना चाहिए।
◆उसके बाद व्रत को पूरा करने का संकल्प सूर्यदेव एवं इष्टदेव को साक्षी मानकर करना चाहिए।
◆मनुष्य को लवण एवं रोगन आदि को मित्र सप्तमी के दिन ग्रहण नहीं करना चाहिए एवं किसी भी तरह से उपयोग में नहीं लेना चाहिए।
◆भास्करदेव का मुख्य वार रविवार का दिन एवं सप्तमी तिथि होती है, इस दिन मनुष्य को कासनी या आसमानी रंग के कपड़ों को नहीं पहनना चाहिए।
◆मनुष्य को सुबह जब सूर्योदय हो जाता हैं, तब उनकी पड़ने वाली तीक्ष्ण किरणों को देखते हुए अर्ध्य देना चाहिए।
◆मनुष्य को सप्तमी तिथि के दिन व्रत को रखना चाहिए, यदि व्रत में भूख अधिक लगती है, तब मनुष्य को फलों का सेवन करना चाहिए।
◆षोडशोपचार कर्म से सूर्यदेव का पूजन करना चाहिए।
◆भगवान भास्करदेवजी की पूजा में दुग्ध, अनेक तरह के फल, केसर, कुमकुम, अबीर-गुलाल, बादाम आदि को पूजा सामग्री में लेकर उनसे पूजा करनी चाहिए।
◆फिर सूर्यदेव को अर्ध्य अर्पण करना चाहिए।
◆सूर्यदेव को अर्ध्य देने का तरीका:-किसी ताम्र धातु से बने एक लोटा लेकर उसमें शुद्ध जल भरना चाहिए, फिर उस शुद्ध जल में एक लाल मिर्च का बीज या इलायची का एक दाना डालना चाहिए। फिर भगवान सूर्यदेव के सम्मुख पूर्व दिशा की ओर मुंह करके उनको नतमस्तक होकर आदरपूर्वक हाथ जोड़कर उनका अभिवादन करते हुए उनसे अरदास करनी चाहिए, फिर उस ताम्र धातु के लोटे के जल को सूर्यदेव की किरणों को देखते हुए धीरे-धीरे जल को नीचे गिरना चाहिए। अंत में उनसे क्षमा याचना भी करनी चाहिए।
◆फिर अष्टमी तिथि के दिन किसी भी मिठाई से व्रत को छोड़ना चाहिए।
◆मनुष्य जब मित्र सप्तमी का व्रत करते हैं, इस व्रत के प्रभाव से दुश्मन मनुष्य के मन में मनुष्य के प्रति अच्छी भावना जागृत हो जाती है और वे भी मित्र बन जाते हैं।
◆मनुष्य के जीवन में मुश्किल कार्यों को भी सफलता दिलाने में यह व्रत सहायक होता हैं।
मित्र सप्तमी व्रत का महत्व:-मित्र सप्तमी व्रत के महत्व के बारे में धर्मग्रन्थों में बहुत सारी बाते बताई हैं, उन बातों से कुछ बाते निम्नलिखित हैं, जिनसे इस व्रत के महत्व को जाना जा सकता है-
◆मित्र सप्तमी का व्रत जो कोई भी मनुष्य करते हैं, उनको समस्त तरह से जीवनकाल में आराम से व्यतीत करते हैं।
◆जिन मनुष्यों की चक्षु से कम दिखाई देता हैं या जिनको देखने में परेशानी होती हैं, उन मनुष्यों को मित्र सप्तमी का व्रत करना चाहिए, जिससे चक्षुओं के सम्बन्धित व्याधि से मुक्ति मिल सके और दृष्टि शक्ति में बढ़ोतरी हो सके।
◆जो मनुष्य मित्र सप्तमी का व्रत करते हैं, उनको छाजन त्वचा से सम्बंधित व्याधियों से मुक्ति मिल जाती हैं। यह व्रत करने से मनुष्य की त्वचा सुखी, खुरदरी अत्यंत खुजलीदार त्वचा के धब्बे वाली व्याधि से मुक्ति मिल जाती हैं।
◆मनुष्य को इस व्रत करने पर समस्त तरह की व्याधियों से मुक्ति मिल जाती हैं।
◆मनुष्य की उम्र में बढ़ोतरी हैं, क्योंकि जब शरीर में व्याधि नहीं होगी, तब मनुष्य दीर्घकाल की उम्र को पाते हुए ज्यादा स्वस्थ रहेगा।
◆मनुष्य को यह व्रत करते रहने पर जब वह सूर्यदेव को अर्ध्य अर्पण करता है, तब सूर्यदेव की तेज प्रकाश से युक्त रश्मि का सम्पर्क उसकी त्वचा से होता है, जिससे उसके शरीर में उपस्थित हानिकारक जीवाणु नष्ट हो जाते है और मनुष्य का स्वास्थ्य उत्तम रहता हैं।
◆सूर्य सप्तमी के दिन भास्करदेव बहुत ही मजबूत होते हैं, जिन मनुष्य की जन्मकुंडली में सूर्य कमजोर होते हैं, तो उन मनुष्य को अवश्य ही इस व्रत को करना चाहिए, जिससे इस दिन सूर्यदेव की मजबूत स्थिति का फायदा मनुष्य को मिल सकता हैं।
◆जब व्रती के द्वारा मित्र सप्तमी का व्रत नियमित रूप से किया जाता हैं, तब व्रती को अपने निवास स्थान पर एवं अपने कुटुंब आदि में समस्त तरह के आराम को प्राप्त करके अत्यधिक सम्पन्नता से युक्त हो जाता हैं।
◆मनुष्य को समस्त तरह के ऐशो-आराम को एवं समस्त तरह से उनका निवास स्थान शस्य आदि के भंडार से परिपूर्ण रहता हैं।