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Sunday, January 16, 2022

पत्नी को वामांगी क्यों कहा जाता हैं, जानें धर्म-साहित्य में महत्त्व को(Know why wife is called Vamangi, importance in Dharma-Sahitya)




पत्नी को वामांगी क्यों कहा जाता हैं, जानें धर्म-साहित्य में महत्त्व को(Know why wife is called Vamangi, importance in Dharma-Sahitya):-पौराणिक आख्यानों के अनुसार जब ब्रह्मदेव अपने समय को व्यतीत करते उनका मन ऊब जाता हैं, तब वे सोच-विचार करते हुए उनके मन में एक विचार उत्पन्न होता हैं, इस विचार को क्रियान्वित करने के लिए उन्होनें सृष्टि की रचना कर देते हैं, तब सृष्टि एकदम बेकार लगती हैं, तब वे भूलोक पर अपने दाएं भाग के कन्धे या स्कन्ध से आदमी और बाएं भाग या स्कन्ध से औरत की उत्पत्ति करते हैं। इस तरह से ब्रह्मदेव के शरीर के अलग-अलग भाग से दो आदमी एवं औरत का जन्म होने से औरत को बाएं भाग में स्थान मिल जाता हैं। इसी कारण से औरत को वामांगी कहा जाता हैं और विवाहोपरांत उसे पत्नी को पुरुष पति के वाम भाग की ओर बैठाए जाने की परम्परा हैं। सप्तपदी होने पर वधू को दाईं ओर बैठाए जाने का विधान हैं, क्योंकि तब तक वह पत्नी के रूप में पूरी तरह स्थापित नहीं हो चुकी होती। 

प्रतिज्ञाओं से बद्ध हो जाने के पश्चात जब स्त्री पत्नी के रूप में पूरी तरह स्थापित हो चुकी होती है तो उसका स्थान पति के दाईं ओर से वाम भाग की ओर कर दिया जाता हैं।


वामांगी का अर्थ:-शरीर के बाएं तरफ के भाग पर अधिकार हो, उसे वामांगी कहते है।


देवी भागवत के अनुसार:-देवी भागवत के अनुसार इस तरह बताया है-

स्वेच्छामयः स्वेच्छयायं द्विधारूपो बभूव ह।

स्त्री रूपो वामभागांशो दक्षिणांशः पुमान् स्मृतः।।


भावार्थ:-देवी भागवत में परम् सत्ता ब्रह्म को श्रेष्ठ और उत्तम बताया गया है, तब परमसत्ता ने अपनी इच्छा के वश अपने स्वरूप को दो भागों में बांट दिया। इस तरह परमसत्ता के वाम भाग से स्त्री और दक्षिण भाग दाएं भाग से पुरुष बने।


पुरुषों के मुख्य धार्मिक कार्य करते समय पत्नी को बाएं तरफ बैठने की परम्परा:-प्राचीन रूढ़ियों के अनुसार जब पुरुष प्रधान धार्मिक कार्य जैसे-हवन-यज्ञादि, बच्चे के जन्म होने पर नाम को देने सम्बन्धित, जातकरण, जन्म के बाद पहली बार अन्न को खिलाने के काम और जन्म के बाद पहली बार घर से बालक को ले जाने से सम्बंधित संस्कार, लग्न सम्बन्धित और कन्या का दान करते समय आदि सम्पन्न किए जाते हैं, इन सबको पुरुष के मुख्य धार्मिक कार्य कहे जाते हैं, इन कार्यों को करते समय औरत को आदमी के दक्षिण दाईं भाग की ओर बैठाया जाता है। 



संस्कार गणपति के अनुसार पत्नी को बाएं तरफ बैठने की परम्परा:-संस्कार गणपति के मतानुसार प्राचीन रूढ़ियों के अनुसार सांसारिक मायाजाल से सम्बंधित कर्मों को करते समय औरत को बाएं तरफ ही बैठती है, स्त्री प्रधान धार्मिक संस्कारों में पत्नी पति के वाम अंग की ओर बैठती हैं। दाम्पत्य जीवन में किये जाने वाले समस्त मांगलिक धार्मिक कार्य करते समय भार्या को हमेशा भरतार के बाएं तरफ बैठाने के बारे में बताया गया हैं। क्योंकि यह समस्त कार्यों को करते समय औरत के करने के मुख्य कार्य बताए गए है।


वामे सिंदूरदाने च वामे चैव द्विरागमने।

वामे शयनैकश्यायां भवज्जाया प्रियार्थिनी।।

अर्थात:-जो इस तरह कहा गया हैं-

सिंदूरदान के समय:-भार्या के सिर पर सिंदूर भरतार के द्वारा लगाने के समय अर्थात् शादी के समय वर के द्वारा वधू की माँग में सिंदूर को डालते या लगाते समय बाएं तरफ वधू को बैठाना चाहिए।

द्विरागमन के समय:-जब विवाह होने के बाद जब वधू दूसरी बार ससुराल आने पर बाएं तरफ बैठाना चाहिए।

भोजन के समय:-भरतार के द्वारा पेट की पूर्ति के लिए खाया जाने वाले प्रदार्थ के समय अर्थात् खाना खाते समय भार्या को बांए तरफ भरतार के बैठना चाहिए।

शयन के समय:-जब भरतार के साथ सोते समय भार्या को भरतार के बाएं तरफ सोना चाहिए।

सेवा करते समय:-जब भरतार की परिचर्या करते समय भार्या को बाएं तरफ बैठकर परिचर्या करनी चाहिए।

उपरोक्त के अलावा:-निम्नलिखित दूसरी अवस्थाओं में भी बाईं तरफ बैठने का विधान बताया गया है-

अभिषेक के अवसर पर:-जब भरतार के द्वारा यज्ञ-अनुष्ठान करने के बाद में शांति के लिए स्नान करते समय और ईश्वर के ऊपर पवित्र जल को चढ़ाते समय बाएं तरफ बैठना चाहिए। 

आशीर्वाद के समय:-जब भरतार के साथ अपने वृद्ध जनों से शुभ उद्गार आदि के समय उनके पैर को छूते हुए उनकी आशीष पाने हेतु भरतार के बाएं तरफ होकर ही ग्रहण करना चाहिए।

ब्राह्मण के पैर पानी से धोते समय:-जब पूजा-पाठ आदि धार्मिक प्रसंग के समय जब ब्राह्मण घर आते हैं, तब उनके पाँव को धोते समय भरतार के बाएं तरफ होकर पैर को धोना चाहिए।


धर्म शास्त्रों के अनुसार:-धर्म शास्त्रों के अनुसार भार्या को वामांगी (बाएं अंग की) बताया गया हैं को  बताया गया हैं, वामांगी का अर्थ शरीर के बाएं भाग पर स्वामितत्व होता हैं, आदमी के शरीर के बाएं भाग की तरफ का भाग औरत को दिया गया हैं। 

भगवान शिवजी की देह में आधा भाग नर के रूप में एवं आधा भाग नारी के रूप में होने से उनको अर्धनारीश्वर  कहा जाता है, क्योंकि माता पार्वती एवं शिवजी दोनों का सयुंक्त रूप में होता हैं। शिवजी के बाएं भाग की तरफ माता पार्वती का भाग है और दाएं तरफ का भाग शिवजी का होता हैं।

शाश्वत या हमेशा बना रहने वाला ईश्वरीय श्रद्धा व पूजा पाठ करने की परम्परानुसार भार्या को अपने भरतार की अर्द्धांगिनी माना गया है, आदमी के देह का बाएं भाग की स्वामिनी बताया हैं, क्योंकि आदमी के शरीर के आधे हिस्से पर औरत का आधा भाग माना गया है, इस तरह एक दूसरे के आधे-आधे भाग मिलकर एक स्वरूप बनता हैं, औरत एवं आदमी एक दूसरे के पूरक होते हैं, इनसे ही संसार चलता हैं।


दाम्पत्य जीवन के लिए भार्या एवं भरतार का एक-दूसरे के लिए महत्त्व:-औरत का आदमी के जीवन में बहुत ही महत्व होता हैं, जब आदमी अकेला होता हैं, तब उसकी अहमिहत इस सामाजिक जीवन में कुछ भी नहीं होती है, जब वह प्रणय सूत्र के पवित्र बंधन में बंध जाता है, तब उसकी अहमिहत समझी जाने लगती हैं, औरत के साथ अपने दाम्पत्य जीवन की शुरुआत करता है, तब औरत के द्वारा उसके जीवन में नयी ऊर्जा को उत्पन्न कर देती है जिससे उसको समस्त तरह के आनन्द की प्राप्ति होने लगती है, औरत अपने भरतार को सभी तरह से खुश रखने का प्रयत्न करने में लगी रहती है और अपना सबकुछ भूल कर अपने भरतार को सबकुछ मानते हुए उसको समस्त तरह अपना तन-मन एवं धन को न्यौछावर कर देती हैं। इसलिए भार्या एवं भरतार का सम्बंध इस जगत में बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है।

परिवार में जब औरत एक भार्या बनकर आती है, तब उसका दायित्व अपने परिवार के समस्त सदस्यों के प्रति होता हैं और अपने परिवार के प्राचीन काल से चले आ रहे संस्कारों का मर्यादापूर्वक पालन करती हैं।

औरत का शादी के बाद बहुत सारे दायित्वों को निभाना होता हैं, जिनमें से सबसे पहले परिवार एवं परिवार के सदस्यों के बीच अपना सामंजस्य बनाना होता है, फिर अपना सामंजस्य को स्थापित करते हुए कुटुम्ब के सदस्यों को हर तरह से ख्याल रखना होता हैं। उसको अपने परिवार के खिलाफ किसी तरह का गलत कार्य नहीं करना चाहिए।

दाम्पत्य जीवन में भार्या अपने परिवार के सदस्यों से पूर्व प्रातःकाल जल्दी उठकर बासी कचरा निकलती हैं, उसके बाद में समस्त सदस्यों के दैनिक क्रियाएं करती हैं, दाम्पत्य जीवन में अपने भर्ता को खुश रखने के लिए स्नान करके आभूषणों सहित साज-सजा करती हैं, अपने भर्ता की भलाई का विचार करते हुए अपना भार्या धर्म को निभाती हैं, वह उत्तम भार्या होती है, उस भरतार को अपने आपको भाग्यशाली मानना चाहिए, जिस तरह देवराज इंद्रदेव स्वर्गलोक में सबकुछ सुख से युक्त होते हैं, उसी तरह उस भरतार को मानना चाहिए।


महाभारत के अनुसार:-धर्म गर्न्थो में से विख्यात ग्रन्थ महाभारत में भार्या एवं भर्ता के सम्बंध के विषय में भीष्म पितामह ने बताया था, की भरतार को अपनी भार्या का हर तरह से ख्याल रखना चाहिए उसकी खुशी का भी ध्यान रखना चाहिए, भार्या को किसी भी तरह का कष्ट नहीं होगा तो दाम्पत्य जीवन में अन्न-धन का भंडार रहेगा और सुख-शांति से जीवन व्यतीत होगा, जिससे समस्त तरह की परेशानियों से मुक्ति मिल जाती हैं। भार्या को गृहलक्ष्मी कहा जाता हैं, जब गृहलक्ष्मी खुश रहती हैं तब दाम्पत्य जीवन की गाड़ी सही तरह से चलती है और अपने कुल की बढ़ोतरी भी होती हैं। 


गरुड़ पुराण के अनुसार:-गरुड़ पुराण एक वैदिक पुराण है, जिसमें दाम्पत्य जीवन के बारे में विशेष रूप से वर्णन मिलता हैं, इसमें भार्या एवं भरतार के बारे बहुत सारी बातें बताई गई हैं, भार्या के गुणों को भी बताया गया हैं, इसलिए इस पुराण को दम्पतियों के लिए मंगलकारी पुराण कहा गया हैं।


सा भार्या या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रियंवदा।

सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता।।

अर्थात:-भार्या को अपने निवास स्थान के कार्य को करने योग्य होना, सभी की प्रति मधुर वाणी से बोलने वाली, जो अपने भर्ता के जीवन को ही अपना सबकुछ मानती हो और उनको जीवन में ही उसका जीवन समझती हो, अपने भरतार के प्रति अनन्य अनुराग एवं भक्ति रखने वाली होती है, उसे ही भार्या कहा जाता हैं।

1.गृह दक्षा का मतलब:-जो भार्या अपने दाम्पत्य जीवन के समस्त तरह कर कार्यों जैसे-अपने परिवार के सदस्यों का ध्यान रखना, अपने सन्तान का पालन-पोषण करना, परिवार के बड़ो एवं छोटो के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करना और उनको मान-सम्मान देते हुए अपने निवास स्थान के कार्य को करते हुए समस्त तरह से खुशहाली प्रदान करना होता हैं, उसे गृह दक्षा कहा जाता हैं।

2.प्रियवंदा का मतलब:-जो भार्या अपने वाणी से मधुर शब्दों का प्रयोग करते हुए अपनी मधुरता से समस्त तरह के कार्यों का सम्पादन करती हैं, उसे प्रियवंदा कहा जाता हैं। जो भार्या अपने भर्ता के साथ अच्छे एवं सम्मानीय शब्दों से संबोधित करती हैं, किसी भी तरह की बात पर मीठी वाणी से जबाव देती हैं, ओछे शब्दो का प्रयोग नहीं करती हैं एवं वाणी में कर्कशता नहीं रखती हैं, अपने कुटुम्ब जनों के साथ एवं सामाजिक जीवन में बहुत मीठेपन से अपने शब्दों को तोल को बोलती है, वह बहुत ही प्यार से धीमी वाणी से बोलती हैं, वह भार्या गुणवान होती हैं। उस भार्या के निवास स्थान दिन-दूनी रात चौगुनी उन्नति करता हैं और चारों तरफ खुशहाली बनी रहती हैं।

3.पतिप्राणा का अर्थ:-जो भार्या अपने भरतार के जीवन को अपना सबकुछ समझती हैं, उसके जीवन के लिए सबकुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार रहती हैं उसे पतिप्राणा कहा जाता हैं।

4.पतिव्रता का मतलब:-जो भार्या अपने भरतार धर्म को व्रत समझती हो, भरतार के प्रति अनन्य अनुराग एवं भक्ति रखने वाले भाव को पतिव्रता कहा जाता हैं। जो भार्या अपने भरतार की हर बात को मानने वाली होती हैं, उसकी हर बात को लोह की लकीर मानती हैं, अपने भरतार को देवता की तरह पूजन करती हैं, भरतार के चरणों में अपनी जगह मानती है और कभी भी बुरे विकारो को मन में आने नही देती है, वह भार्या गुणवती होती हैं।


मौली या कलावे को बांधते समय:-धार्मिक कार्यों में मौली या कलावे को बांधते समय पुरुष एवं स्त्री के अलग-अलग हाथ की कलाई पर बांधने के बारे में बताया गया है-

◆सृष्टि को ब्रह्मदेव के द्वारा अपने पूर्ण सोच-समझ से बनाते है, तब उन्होंने पृथ्वीलोक पर अपने दाहिने कंधे से पुरुष को एवं बाएं कंधे से औरत को उत्पन्न किया किया था। 

◆ब्रह्माजी बाएं कंधे से उत्पन्न होने से औरत को बाएं तरफ का स्थान मिलने से बाएं हाथ की कलाई पर मौली या कलावे को बांधने का विधान शुरू हुआ।

◆ब्रह्माजी दाएं कंधे से उत्पन्न होने से आदमी को दाएं तरफ का स्थान मिलने से दाएं हाथ की कलाई पर मौली या कलावे को बांधने का विधान शुरू हुआ।


हस्तरेखा शास्त्र में हस्त दिखने का विधान:-हस्तरेखा शास्त्र में भी पुरुष एवं स्त्री के अलग-अलग हाथ को देखने का विधान बताया गया है- 

◆जब औरत का हाथ हस्तरेखाविद के द्वारा देखा जाता हैं, तब औरत के बाएं हाथ को देखकर जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का फलादेश बताया जाता हैं।

◆जब आदमी का हाथ एवं कुंवारी कन्याऐं का हाथ हस्तरेखाविद के द्वारा देखा जाता हैं, तब आदमी के एवं कुंवारी कन्याऐं का हाथ दाएं हाथ को देखकर जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का फलादेश बताया जाता हैं।


आयुर्वेद में व्याधि को जानने में पुरुष एवं स्त्री के हाथ के अलग-अलग कलाई:-आयुर्वेद के वेद्यचार्यो द्वारा जब व्याधि के बारे में जानना होता है, तब वे आदमी के दाएं हाथ नाड़ी को देखते है और औरत के बाएं हाथ की नाड़ी को देखते है, इसके बाद ही अपने परीक्षण के आधार पर रोग को जानकर रोग के बारे जानकारी देकर उस रोग का निवारण करते हैं। इसलिए औरत को वामांगी कहा जाता हैं अतः पूजा-पाठ, हवन-यज्ञ आदि मांगलिक कार्य को करते समय औरत को आदमी के बायें अंग की तरफ ही बैठाया जाता हैं, जो धर्म को नहीं स्वयं सृष्टि रचियता ब्रह्मा के द्वारा बनाई गई रीति हैं।

इन समस्त तरह के विचारों, ईश्वरीय तथ्यों, आयुवैदिक, हस्तरेखा शास्त्र, धर्मग्रन्थों और धार्मिक प्रसंग में मौली को बांधने के तथ्य से सिद्ध होता हैं, की स्त्री को बाएं या वामांगी और पुरुष को दाएं अंग का स्वामी हैं।










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