आदित्य हृदय स्तोत्रं अर्थ सहित और लाभ(Aditya Hridaya Stotram with meaning and benefits):-भगवान रामजी के द्वारा चलते हुए युद्ध के हालात को देखकर मन में अनेक तरह के विचारों के उत्पन्न होने के समय उस युद्ध को देखने के लिए देवता के साथ अगस्त्य मुनिवर भी आये थे, जब भगवान रामचन्द्रजी को इस तरह विचारों में खोया हुआ देखा तब उन्होंने भगवान रामजी से कहा कि-हे राम! मैं तुम्हें इस युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए बताया हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो। ऋषिवर अगस्त्य मुनि के द्वारा भगवान रामचन्द्रजी को दशानन रावण पर युद्ध में जीत हासिल करने के लिए वाल्मीकि रामायण के अनुसार "आदित्य हृदय स्तोत्रं" के बारे में बताया गया था।
श्री आदित्य हृदय स्तोत्रं के वांचन के नियम:-मनुष्य को श्री आदित्य हृदय स्तोत्रं के वांचन से पूर्व वांचन के नियमों को भी जान लेना चाहिए, जिससे सही तरीके से वांचन करके उत्तम फल प्राप्त कर सके।
◆मनुष्य को जब भी किसी उद्देश्य से सम्बंधित आदित्य हृदय स्तोत्रं की शुरुआत करनी हो तो मन को पूरी तरह से एकाग्रचित करते हुए वांचन करना चाहिए।
◆आदित्य हृदय स्तोत्रं का वांचन वार विशेष रूप रविवार को करने पर सूर्यदेव की अनुकृपा मिलती हैं।
◆सबसे पहले मनुष्य को स्तोत्रं वांचन के दिन जल्दी उठकर अपनी दैनिकचर्या को पूर्ण करना चाहिए।
◆फिर स्वच्छ वस्त्रों को धारण करना चाहिए।
◆फिर सूर्यदेव को पवित्र जल से अर्घ्यं देना चाहिए।
◆फिर मन ही मन में सूर्यदेव को याद करते हुए उनके गुणगान को दोहराना चाहिए।
◆उसके बाद में सूर्यदेव के सामने बैठकर आदित्य हृदय स्तोत्रं का वांचन शुरू करना चाहिए।
◆जब सूर्यदेव का उदय हो जाता हैं, तब उनके स्तोत्रं का वांचन शुरू करना चाहिए।
◆फिर स्तोत्रं के वांचन के बाद उनको स्मरण करने के लिए आंखों को मूंदकर उनका ध्यान करना चाहिए।
◆पूर्णरूप से सात्विकता को अपनाते हुए इस स्तोत्रं का वांचन करना चाहिए।
◆मनुष्य को रविवार के दिन मांसाहार, मदिरा और तेल का उपयोग नहीं करना चाहिए।
◆जब सूर्यदेव अस्त होने के बाद नमक को उपयोग में नहीं लेना चाहिए।
श्री आदित्य हृदय स्तोत्रम् में वर्णित श्लोकों के मंत्रों का अर्थ सहित विवेचन:-श्री आदित्य हृदय स्तोत्रम् में वर्णित श्लोकों के मंत्रों को सही रूप से एवं शुद्धता का ध्यान रखते हुए नियमित रूप से वांचन करने से पूर्व अर्थ को भी जानना आवश्यक होता हैं, इसलिए अर्थ इस तरह हैं-
श्री आदित्य हृदय स्तोत्रम् का विनियोग:-अगस्त्य ऋषिवर ने मन्त्रों के वांचन से पूर्व देवी-देवताओं के निमित संकल्प के लिए विनियोग बताया हैं।
ऊँ अस्य आदित्यहृदय स्तोत्रस्य अगस्त्यऋषिः अनुष्टुप्छन्दः
आदित्यहृदयभूतो भगवान ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्नतया
ब्रह्माविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः।
अर्थात्:-श्री आदित्य हृदय स्तोत्रम् श्लोकों में मंत्रों की रचना अगस्त्य ऋषिवर ने की थी, जिसमें अनुष्टुप छंद हैं एवं आदित्यहृदयभूत भगवान हैं, ब्रह्मा देवता के रूप में हैं, जो कोई श्रीआदित्य हृदय स्तोत्रं के श्लोकों में वर्णित मंत्रों के द्वारा इनके देवता को याद करते हुए वांचन का संकल्प करता हैं, उसको सभी जगहों पर विजय, सभी तरह की सिद्धि, ज्ञान के क्षेत्र में सिद्धि और आने वाले विघ्नों से मुक्ति मिल जाती हैं।
ऋष्यादिन्यास का अर्थ एवं महत्त्व:-ऋष्यादिन्यास में अपने इष्टदेव को अपने शरीर के अंगों जैसे- मस्तक, मुख, हृदय, गुह्या स्थान, पैर, नाभि एव सर्वाङ्गे आदि में स्थापित होने का आग्रह करते हैं और उनको स्थापित होने का कहते हैं, जिससे देह में देवी या देवता का वास हो जाए इस तरह की प्रक्रिया को ऋष्यादिन्यास कहते हैं।
ऊँ अगस्त्यऋषये नमः, शिरसि।
अर्थात्:-हे ब्रह्मस्वरूप इष्टदेव! मैं अपने देह के भाग शिर या मस्तक में स्थापित होवे। इस तरह अरदास करते हुए अगस्त्य मुनिवर आपको नतमस्तक होकर अभिवादन करते हैं।
अनुष्टुपछन्दसे नमः, मुखे।
अर्थात्:-हे अनुष्टुपछन्दसे! मैं अपने देह के भाग मुख में स्थापित होने का आग्रह करता हूँ आप इस जगह पर स्थापित होवे। इस तरह अरदास करते हुए अगस्त्य मुनिवर आपको नतमस्तक होकर अभिवादन करते हैं।
आदित्यहृदयभूतब्रह्मदेवतायै नमः हृदि।
अर्थात्:-हे आदित्यहृदयभूतब्रह्मदेवतायै! मैं अपने देह के भाग हृदय में स्थापित होवे। इस तरह अरदास करते हुए अगस्त्य मुनिवर आपको नतमस्तक होकर अभिवादन करते हैं।
ऊँ बीजाय नमः, गुह्यो।
अर्थात्:-हे ऊँ बीजाय! मैं अपने देह के भाग गुप्तांगों की जगह पर स्थापित होने का आग्रह करता हूँ और आप इन गुप्त जगहों में स्थापित होवे। इस तरह अरदास करते हुए अगस्त्य मुनिवर आपको नतमस्तक होकर अभिवादन करते हैं।
रश्मिमते शक्तये नमः, पादयो।
अर्थात्:-हे रश्मिमते शक्तये! मैं अपने देह के भाग पैर की जगह में आपको स्थापित होने का आग्रह करता हूँ आप स्थापित होवे। इस तरह अरदास करते हुए अगस्त्य मुनिवर आपको नतमस्तक होकर अभिवादन करते हैं।
ऊँ तत्सवितुरित्यादिगायत्रीकीलकाय नमः नाभौ।
अर्थात्:-हे ब्रह्मस्वरूप तत्सवितुरित्यादिगायत्रीकीलकाय! मैं अपने देह के भाग नाभि एवं समस्त शरीर की जगहों में स्थापित होने का आग्रह करता हूँ आप इन समस्त जगहों पर स्थापित होवे। इस तरह अरदास करते हुए अगस्त्य मुनिवर आपको नतमस्तक होकर अभिवादन करते हैं।
अंगन्यास का अर्थ एवं महत्त्व:-जब किसी भी देवी-देवता की पूजा-अर्चना अथवा मंत्रोच्चारण करते हुए विभिन्न अंगों को पवित्र करने की धारणा से किया जाने वाला स्पर्श को अंगन्यासः कहते हैं। आदित्य हृदयं स्तोत्रम् के वांचन से पूर्व एवं पूजा-अर्चना से पूर्व भगवान सूर्यदेव के निमित अंगों को स्पर्श करते हुए अंगन्यास किया जता हैं। शरीर के विभिन्न अंगों की जगहों को अलग-अलग मन्त्रों से उच्चारित करते हुए उनको शुद्ध एवं पावन किया जाता हैं।
ऊँ रश्मिमते हृदयाय नमः।
ऊँ समुद्यते शिरसे स्वाहा।
ऊँ देवासुरनमस्कृताय शिखायै वषट्।
ऊँ विवस्वते कवचाय हुम्।
ऊँ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट्।
ऊँ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट्।
बैठने की आकृति:-जब कमल के फूल के समान आकार देते हुए अपने पैर को इस तरह मोड़कर जिसमें दूसरा पैर उस पैर के ऊपर आ जाता है, तब बायां हाथ को पैर के घुटने पर रखते है। जिससे मनुष्य के शारिरिक एवं आध्यात्मिक विचारों को उत्पन्न करने की विधि होती हैं।
ऊँ रश्मिमते हृदयाय नमः।
अर्थात्:-हे ब्रह्मस्वरूप रश्मिमते! अपने दाएं हाथ की पांचों अंगुलियों के द्वारा पवित्र हृदय को छूते समय ऊँ रश्मिमते हृदयाय नमः मन्त्र का उच्चारण करते हुए वंदना करता हूँ।
ऊँ समुद्यते शिरसे स्वाहा।
अर्थात्:-हे ब्रह्मस्वरूप समुद्यते! मैं जो भी मन्त्रों का पाठन करता हूँ, उन मन्त्रों के पाठन के शब्द आपके मस्तिष्क तक पहुँचे। ललाट को छूते समय ऊँ समुद्यते शिरसे स्वाहा मन्त्र को बोलते हैं।
ऊँ देवासुरनमस्कृताय शिखायै वषट्।
अर्थात्:-हे ब्रह्मस्वरूप देवासुरनमस्कृताय! मैं अपनी शिखा को बांधते हुए, आपको देवता की तरह पूजन करने के लिए अग्नि देव को प्रज्वलित करने के लिए मन्त्रों से आह्वान करता हूँ। शिखा को छूते समय ऊँ देवासुरनमस्कृताय शिखायै वषट् मन्त्र का उच्चारण करते हैं।
ऊँ विवस्वते कवचाय हुम्।
अर्थात्:-हे ब्रह्मस्वरूप विवस्वते! मैं आपको खुश करने के लिए आपके गुणों के बखान के निमित आपके कवचं को हमेशा पाठन करता हूँ। दोनों भुजाओं को दोनों हाथों के द्वारा छूते समय ऊँ विवस्वते कवचाय हुम् मन्त्र का उपयोग करते हैं।
ऊँ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट्।
अर्थात्:-हे ब्रह्मस्वरूप भास्कराय! आपको आहुति देने के समय प्रयुक्त होने वाले एक उदगार या सांकेतिक मन्त्र-विशेष शब्दो को नेत्रों के द्वारा ध्यान से उच्चारण करता हूँ। दाएं तरफ के चक्षु, बाएं तरफ के चक्षु एवं भाल के मध्य में स्थित तीसरे चक्षु को ऊँ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट् मन्त्र को बोलते हुए छूना चाहिए।
ऊँ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट्।
अर्थात्:-हे ब्रह्मस्वरूप भुवनेश्वराय! आपका तांत्रिक मंत्र जिसे अस्त्र मन्त्र भी कहा जाता है, उस अस्त्र मन्त्र का उपयोग पात्रो को धोने, मैल को साफ करने, सामने की तरफ फेंकना, आकाश में बाधा या नाश करने वाले और दूसरे ऐसे वाहन पर सवार होकर घूमते हो। जब दायें हाथ के पंजे को बायें हाथ के पंजे के साथ जोड़कर ऊँ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट् मन्त्र को बोलते हुए 'फट्' की कम्पन की जाती है।
ध्यान एवं नमस्कार मंत्र:-आदित्य हृदय स्तोत्रम् के मंत्रों को पढ़ने से पूर्व सूर्यदेव को मन ही मन में अपने हृदय में धारण करते हुए उनको नतमस्तक होकर अभिवादन करते समय निम्नलिखित मंत्रों का वांचन करना चाहिए, जिससे सूर्यदेव की अनुकृपा हो पावे।
ध्यान एवं नमस्कार मन्त्र:-"ऊँ भूभुर्वः स्व तत्सवितुर्वरेण्यन भर्गो दैवस्य धीमही धियो योन प्रचोदयात्।"
पूर्व पीठिता:-आदित्य हृदय स्तोत्रम् के मन्त्रों को वांचन से पूर्व पढ़ने वाले मंत्रों को पूर्व पीठिता कहा जाता है। जो इस तरह हैं-
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्।।१।।
अर्थात्:-जब भगवान श्रीरामचन्द्रजी रण में थक जाते हैं, थकावट के कारण उनके मन में अनेक तरह के विचार आने लगे और उन विचारों के मनन में वे युद्धक्षेत्र में खड़े थे। तब लंकापति दशानन युद्ध के लिए उनके सम्मुख आ जाता हैं।
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपगम्याबरवीद् राममगस्त्यो भगवांस्तदा।।२।।
अर्थात्:-देवताओं के साथ युद्ध को देखने मुनिवर अगस्त्य जी आते हैं, जब वे देवताओं के सहित भगवान अगस्त्य मुनिवर इस तरह के दृश्य को देखते हैं। तब वे श्रीरामजी के नजदीक जाकर बोलते हैं।
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे।।३।।
अर्थात्:-हे महाबाहो राम! समस्त के चंचल मन जो कि कठिनता से वश में होने वाला हैं, उस मन में विहार करने वाले हो। आपसे अनुरोध हैं, की परंपरानिष्ठ गुप्त रखने योग्य स्तोत्रं को सुनिए! हे पुत्र! आप इस स्तोत्रं के श्लोकों में वर्णित मंत्रों का उच्चारण करने से आप निश्चित रूप से सभी अत्रियों पर विजय की पताका लहरा पाओगे।
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम्।।४।।
अर्थात्:-आपको मैं इस गुप्त रखने योग्य स्तोत्रं के बारे में बताता हूँ, इस स्तोत्रं को "आदित्यहृदय स्तोत्रं" के नाम से जाना जाता है। यह उत्कृष्ट धर्म विहित कर्म को करने में सहायक होते हुए समस्त तरह के अत्रियों के अस्तित्व को नष्ट करने वाला हैं। इसके बार-बार श्लोकों में वर्णित मंत्रों को दोहराने पर हमेशा जीत प्राप्त हो जाती हैं। यह स्तोत्रं हमेशा बिना किसी तरह से नष्ट नहीं होने वाला अविनाशी एवं उत्कृष्ट मंगल प्रदान करने का स्तोत्रं हैं।
सर्वमंगलमागल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशनमायुर्वर्धनमुत्तमम्।।५।।
अर्थात्:-समस्त तरह से शुभ करने वाला मंगलकारी हैं, जो कि समस्त तरह के धर्म एवं नीति के विरुद्ध किये जाने वाले आचरण भी नष्ट हो जाते हैं। इस स्तोत्रं के द्वारा मन में व्याप्त नकारात्मक विचारों एवं दुःख को समाप्त करके उम्र की बढ़ोतरी करने वाला उत्कृष्ट जरिया हैं।
मूल स्तोत्रं:-आदित्य हृदय स्तोत्रम् के श्लोकों के मंत्रों का पूर्णरूपेण मुख्य भाग इस तरह हैं-
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।
पुजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्।।६।।
अर्थात्:-भगवान भास्करदेव अपनी अंत नहीं होने वाली प्रकाश की तीव्रता से अत्यंत शोभायमान हैं। सूर्यदेव हमेशा प्रकट होकर अपनी किरणों से जगत को रोशन करने वाले देव हैं। देवताओं और दैत्यों भी नतमस्तक होकर सूर्यदेव का अभिवादन करते हैं। महर्षि कश्यप एवं अदिति के पुत्र के रूप में सूर्यदेव को विवस्वान नाम प्राप्त हुआ था। इस नाम से समस्त लोकों में ख्याति प्राप्त की हैं और अपने तीव्र अग्नि की तरह ज्वाला वाली दीप्ति की किरणों को फैलाने वाले जगत के स्वामी हैं। हे राम पुत्र! तुम सूर्यदेव का रश्मिमंते नमः, समुद्यन्ते नमः, देवासुरनमस्कृताये नमः, विवस्वते नमः, भास्करायः नमः, भुवनेश्वराये नमः मंत्रों का उच्चारण करते हुए सूर्यदेव की पूजा-अर्चना करो।
सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुरगणांल्लोकान् पाति गभस्तिभिः।।७।।
अर्थात्:-सूर्यदेव में समाश्रिता सभी देवता हैं। सूर्यदेव अपने अग्नि की तीवता से समस्त संसार में रश्मियों के द्वारा रोशनी को फैलाकर तेजी एवं सामर्थ्य की ऊर्जा का संचार करने वाले हैं। सूर्यदेव अपनी अग्नि की तीव्र किरणों को फैलाकर देवता एवं दैत्यों के साथ समस्त तीनों लोकों का भरण-पोषण करने वाले हैं।
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यापां पतिः।।८।।
अर्थात्:-हे आदित्यदेव! आप ही ब्रह्मा, विष्णु, शिवजी, षड़ानन, विधाता, शचीपति, यक्षराज, काल, जीवितेश, सोम और वरुण आदि हो आप में सभी समाश्रित हैं।
पितरो वसवः साध्याः अश्विनौ मरुतो मनुः।
वायुर्वहिनः प्रजा प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः।।९।।
अर्थात्:-हे आदित्यदेव! आप पितर, अमर्त्य, साध्य, अश्विनीकुमार, मरुदगण, मनु, समीर, हुताशन, जनता, जीवन, मधुमास को स्पष्ट करने वाले तथा जगमगाते हुए ढेर हैं।
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्।
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः।।१०।।
अर्थात्:-हे सूर्यदेव! आपको अनेक नामों से जाना जाता है, उन नामों में से निम्नलिखित हैं-
आदित्यः-माता अदिति की गर्भ से जन्म लेने के कारण आदित्य नाम पड़ा।
सविता:-समस्त संसार की पैदाइश करने के कारण सविता नाम पड़ा।
सूर्य:-समस्त जगहों में अपनी किरणों को फैलाने वाले होने से उनको सूर्य कहते हैं।
खग पूषा:-आकाश लोक में रहने के कारण खग पूषा नाम मिला।
गभस्तिमान:-समस्त लोकों में अपनी तीव्र किरणों को फैलाकर चारों तरफ रोशनी को फैलाने के कारण इनको गभस्तिमान नाम मिला।
सुवर्णसदृश्य:-स्वर्ण के समान सुनहले वर्ण की तरह सुंदर दिखाई देने के कारण उनको सुवर्णसदृश्य नाम से जाना जाता है।
भानु:-आप अपने प्रकाश किरणों को फैलाने से आपको भानु नाम मिला हैं।
हिरण्यरेता:-आप स्वर्ण के समान संपूर्ण तीनों लोक को उत्पन्न करने के बीज होने से आपको हिरण्यरेता कहा जाता है।
दिवाकर:-रात्रि के बाद आप उदय होकर दिन में अपनी तीव्र अग्नि की तरह किरणों से समस्त लोकों में तिमिर को नष्ट करके उजाले करने से इनको दिवाकर नाम से जाना जाता है।
हरिदश्च सहस्त्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।
तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंSशुमान्।।११।।
अर्थात्:-हे आदित्यदेव! आपको नामों में निम्न नाम से भी जाना जाता हैं।
हरिदश्व:-सम्पूर्ण जगत के प्रभु जो दूसरे दिन वापस प्रकट होने के कारण हरिदश्व कहा जाता हैं।
सहस्त्रार्चि:-आप हजारों या अनगणित अपने तेज की किरणों को धारण करने से शोभायमान होने से आपको सहस्त्रार्चि नाम मिला हैं।
सप्तसप्ति:-सात अश्व से सुज्जित रथ पर सवार होकर सवारी करने से सप्तसप्ति नाम प्राप्त किया हैं।
मरीचिमान:-असंख्य रश्मियों से युक्त शोभायमान होने से मरीचिमान नाम मिला हैं।
तिमिरोमंथन:-समस्त तीन लोकों में अपने प्रकाश की किरणों से तिमिर को नष्ट करके उजाला देने वाले होने तिमिरोमंथन कहा जाता है।
शम्भू:-आप स्वयं उत्पन्न होकर अपनी इच्छा के स्वामी होने से शम्भू नाम मिला हैं।
त्वष्टा:-समस्त लोकों में समस्त को उत्पन्न करने से त्वष्टा नाम मिला हैं
मार्तण्डक:-सौर जगत में स्थित सबसे ज्वलंत तारे के रूप में रहते हुए सभी ग्रहों को अपने तेज से रोशनी प्रदान करके समस्त लोकों के जीवन में संचार करने वाले होने से मार्तण्डक कहा जाता है।
अंशुमान:-जो तेज से युक्त चमकीली किरणों को धारण करने से अंशुमान नाम से जाना जाता है।
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोSहस्करो रविः।
अग्निगर्भोsदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः।।१२।।
अर्थात्:-हे आदित्यदेव! आपको नामों में निम्न नाम से भी जाना जाता हैं।
हिरण्यगर्भः-आप सूक्ष्म शरीर के स्वामी जो प्रत्येक के गर्भ में निवास करते हुए उनको उत्पन्न करने वाले होने हिरण्यगर्भ नाम से जाना जाता है।
शिशिर:-आप जाड़ा काल में शीतल किरणों को अपने तीव्र प्रकाश से नष्ट करके जाड़ा से बचाव करके समस्त लोकों में सुख देने वाले हो, इसलिए आपको शिशिर नाम मिला।
तपन:-आप अपने तेज से समस्त को तपा देने की शक्ति रखते हुए नष्ट करने वाले होने से तपन नाम मिला।
अहस्कर:-आप अपने तेज से उजाला करने वाले होने से आपको अहस्कर कहा जाता हैं।
रवि:-आप अग्नि की तरह जलाने की शक्ति रखते हो आपको रवि नाम प्राप्त हुआ हैं।
अग्निगर्भो:-आप अपने गर्भ में अग्नि को ग्रहण करने वाले होने से आपको अग्निगर्भो नाम मिला हैं।
sदितेःपुत्रः-तपस्विनी अदिति के गर्भ से उत्पन्न होने से अदितिपुत्र के नाम से जाना जाता हैं।
शंखः-आप अपने तेज की किरणों से समस्त जगत में उजाला फैलाते हो, जिस तरह से शंख को बजाने से ध्वनि उत्पन्न होकर समस्त जगत में फैलती हैं, इसलिए आपको शंख नाम से भी जाना जाता है।
शिशिरनाशनः-आप जाड़ा में पड़ने वाली तीव्र शीत को अपनी गर्मी के प्रभाव से नष्ट करने से शिशिरनाशन नाम मिला हैं।
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुः सामपारगः।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः।।१३।।
अर्थात्:-हे आदित्यदेव! आपको नामों में निम्न नाम से भी जाना जाता हैं।
व्योमनाथ:-आप आकाशलोक में वास करते हुए आकाश लोक पर अपना स्वामित्व रखने वाले होने से व्योमनाथ कहा जाता हैं।
तमोभेदी:-आप अंधेरे की कालिमा को हटाकर अपने प्रकाश से रोशनी फैलाने से तमोभेदी नाम मिला हैं।
ऋग्वेद पारगामी:-ऋग्वेद सबसे पुरान्स एवं पद्यमय वेद को एक अवस्था से दूसरी स्थित में ले जाने वाले हो एवं पूर्ण रूप से जानकर हो, इसलिए आपको ऋग्वेद पारगामी मिला हैं।
यजुर्वेद पारगामी:-यजुर्वेद में गद्य मंत्रों से युक्त होता हैं, उसको एक अवस्था से दूसरी अवस्था में ले जाने वाले हो एवं पूर्ण रूप से जानकर हो, इसलिए आपको यजुर्वेद पारगामी नाम मिला हैं।
सामवेद पारगामी:-सामवेद में यज्ञ आदि के समय गाए जाने वाले स्तोत्रम् को एक अवस्था से दूसरी स्थित में ले जाने वाले हो एवं पूर्ण रूप से जानकर हो, इसलिए आपको सामवेद पारगामी नाम मिला हैं।
धनवृष्टि:-आप धन की बारिश करने वाले होने से आपका नाम धनवृष्टि हैं।
अपाम मित्र:-आप नदियों, झीलों दूसरे स्वच्छ जल को उत्पन्न करने वाले स्वामी होने से अपाम मित्र नाम से जाना जाता है।
विन्ध्यवीथीप्लवंगम:-शून्य स्थान में अपने ज्ञान के द्वारा तेज गति से मार्ग पथ पर परिभ्रमण करने वाले होने से आपका नाम विन्ध्यवीथी- प्लवंगमः हैं।
आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः।
कविर्विश्वो महातेजाः रक्तः सर्वभवोद् भवः।।१४।।
अर्थात्:-हे आदित्यदेव! आपके निम्नलिखित नाम हैं-
आतपी:-गर्मी प्रदान करने से आपका नाम आतपी हैं।
मण्डली:-किसी विषय विशेष पर चर्चा करने के लिए आप सभा को आयोजित करने वाले होने से आपका नाम मण्डली पड़ा हैं।
मृत्यु:-आप अंतिम अवस्था के स्वामी होने से मृत्यु भी आपका नाम हैं।
पिंगल:-आपका स्वरूप भूरापन लिए हुए पीले रंग का होने पिंगल भी आपका नाम हैं।
सर्वतापन:-अपनी किरणों से सभी को गर्मी प्रदान करने वाले होने सर्वतापन नाम पड़ा है।
कवि:-आप काव्य की रचना करने वाले होने से आपका नाम कवि हैं।
विश्व:-समस्त जगत में आपका स्थान मुख्य होने से आपका नाम विश्व भी हैं।
महातेजस्वी:-आप बहुत तेज से युक्त होने से या प्रतापी होने से महातेजस्वी नाम से जाने जाते हैं।
रक्त:-आप लाल रंग के स्वामी होने से आपको रक्त नाम प्राप्त हुआ।
सर्वभवोद्भव:-आप समस्त लोकों में उत्पन्न करने वाले होने से सर्वभवोद्भव नाम से जाने जाते है।
नक्षत्रग्रहताराणामाधिपो विश्वभावनः।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोस्तुते ते।।१५।।
अर्थात्:-हे विश्वभावन! आप तारों, आकाशस्थ पिंड एव आकाश में चमकने वाले सितारों के स्वामी होने नक्षत्रग्रहताराणामाधिपो नाम मिला हैं।
विश्वभावन:-आपको समस्त संसार पर समान दृष्टि भाव रखते हुए संसार की सुरक्षा करने वाले होने से आपको विश्वभावन नाम पड़ा हैं।
तेजसामपि:-आप तेज से युक्त तेज वालों से भी अधिक तेजवान या प्रतापी होने तेजस्वी नाम से भी जाने जाते हो।
द्वादशात्मा:-आप बारह शाश्वत तत्त्व से युक्त होकर कभी भी नष्ट नहीं होने वाले होने से आपको द्वादशात्मा के नाम से भी जाना जाता है। इस तरह से आपके अनेक नाम से समस्त जगत में आपको जाना जाता है। हे सूर्यदेव! आपको नतमस्तक होकर नमन करता हूँ।
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः।।१६।।
अर्थात्:-हे आदित्यदेव! आप उदयाचल कल्पित पर्वत के पीछे से पूर्व दिशा में उदय होते हो और अस्ताचल कल्पित पर्वत के पीछे पश्चिम दिशा में अस्त हो जाते हो। आपको अभिवादन हैं। आपको ज्योतिष शास्त्र में ग्रहों एवं तारों के स्वामी और दिन में अपनी तेज किरणों से प्रकाश फैलाने वाले स्वामी हो। आपको नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ।
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः।
नमो नमः सहस्त्रांशो आदित्याय नमो नमः।।१७।।
अर्थात्:-हे ज्योतिषां! आप जयस्वरूप को धारण करते हुए समस्त तरह से जीत को दिलाकर सुख प्रदान करने वाले दानशील हो। हरित वर्ण के अश्व से सुसज्जित शतांग पर जुते रहते है और आप उस सुसज्जित शतांग पर सवार होकर सवारी करने वाले हो। आपको पुनः-पुनः या अनेक बार नतमस्तक होकर अभिवादन हैं। भगवान भास्करदेव! आप एक हजार या हजारों की संख्या में या अगिनत मयूखियों से युक्त होकर अत्यंत ही शोभायमान होते हो। आपको पुनः-पुनः या अनेक बार नतमस्तक होकर अभिवादन हैं। अदिति के गर्भ से उत्पन्न होने से आपको आदित्य नाम मिला है और इस नाम से ही आप विख्यात हो। आपको नतमस्तक अभिवादन हैं।
नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः।
नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोस्तु ते।।१८।।
अर्थात्:-हे सूर्यदेव! आप विष्णु भगवान के धनुष की तरह तीव्र, चातक पक्षी आदि की तरह रंगीन मन को सुहावने लगने वाले और बिजली की पकड़ की तरह योद्धा हो। आपको नतमस्तक होकर अभिवादन हैं। आप अपनी अतितीव्र अपने तेज के द्वारा पुण्डरीकों को भी खिला देने वाले हो। हे तेज से युक्त मार्तण्ड! आपको मेरा नमस्कार हैं।
ब्राह्मेशानाच्युतेशाय सुरायादित्यवर्चसे।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः।।१९।।
अर्थात्:-हे ज्योतिषां! आप चतुरानन, भोलेनाथ और चक्रपाणि के भी अधिपति हो। आप ही ज्ञानी व्यक्ति की चेतना शक्ति हो। आप गोलाकार आकृति में अपने अग्नि की तरह किरणों की चमक से चारों तरफ फैले हुए हो, आप अपनी किरणों से पूरी तरह सम्पन्न हो, सभी को नष्ट करने की शक्ति आपकी तेज किरणों में होती हैं और सभी का भक्षण भी कर सकते हो। आप क्रोध से युक्त होने पर अपने स्वरूप को भीषण रूप में धारण करने वाले हो। आपके स्वरूप को नतमस्तक होकर नमन करता हूँ।
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः।।२०।।
अर्थात्:-हे ज्योतिषां! दूसरों को कष्ट देकर अहित करने में आतुर से सम्बंधित मिथ्या ज्ञान को नष्ट करके सही ज्ञान को देने वाले, अपने प्रकाश की तेज किरणों से मिथ्या ज्ञान को नष्ट करके ज्ञान प्रदान करने वाले हो, अचेतन की अवस्था एवं जाड़े के मौसम से अपनी किरणों से दूर करने वाले, रिपुओं का अंत करने वाले और अपने मित्रों में प्रेम के द्वारा मिठास उत्पन्न करने वाले हो। आपके स्वरूप को किसी भी तरह से मापा नहीं जा सकता हैं। जो किए हुए उपकार को नहीं मानने वाले होते हैं उनका अंत करने वाले हो। ज्योतिष शास्त्र के सभी ज्ञाताओं के देवता रूप में मालिक हो। आपको नतमस्तक होकर नमन करता हूँ।
तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे।
नमस्तमोsभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे।।२१।।
अर्थात्:-हे विश्वकर्मणे! आपकी तेज अग्नि के समान गर्मी की किरणें से उसी तरह से सुंदर वर्ण की हो जाती हैं, जिस तरह स्वर्ण को अग्नि की तेज किरणों में तपाने पर सुंदर वर्ण का हो जाता है, आप ही विष्णु हो और आप ही विश्वकर्मा हो। आप समस्त अंधेरे को अपनी किरणों के उजाले से नष्ट करने वाले हो, आप ही समस्त लोकों में उजाला करने वाले स्वामी हो। समस्त संसार के गवाह के रूप में आप साक्षात हो। आपको मैं नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ।
नाशयत्येष वै भूतं तमेष सृजति प्रभुः।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः।।२२।।
अर्थात्:-हे प्रभु! समस्त लोकों में रचना करना, उन लोकों का पालन-पोषण करना और उन लोकों में सही तरह के संचार के द्वारा व्यवस्था बनाए रखने के लिए बीते हुए समय को ध्वंस करने वाले सूर्यदेव प्रभु ही हैं। अपनी तीव्र किरणों के द्वारा ऊष्मा का संचार करते हुए जल के लिए बदलो को वर्षा करने के लिए प्रेरित करके वर्षा को करवाते हैं।
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः।
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्।।२३।।
अर्थात्:-सभी भूतों में रहकर मन की बात को जानते हुए सभी भूतों के शयन की अवस्था में भी जागरण करने वाले सूर्यदेव हैं। अग्निहोत्र और अग्निहोत्री पुरुषों को एक जगह पर मिलाप करवाने का फल देने वाले सूर्यदेव हैं।
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतुनां फलमेव च।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमं प्रभुः।।२४।।
अर्थात्:-हे परम् प्रभु! हवन पूजन युक्त वैदिक एवं धार्मिक कृत्य, यज्ञ और देवता के फल में भी सूर्यदेव समावेश होता हैं। जितने तरह की क्रियाएँ तीनों लोक में होती हैं, वे समस्त क्रियाओं को करने वाले और उन क्रियाओं के फल को देने वाले भी सूर्यदेव हैं।
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव।।२५।।
अर्थात्:-हे राघव! जो कोई भी किसी तरह के संकट के समय मे होने वाली पीड़ा, जिस स्थान पर पहुँचने में कठिनाई होती हैं, उस रास्ते को पार करने के समय होने वाले डर पर विजय पाने के लिए जो कोई भी मनुष्य सूर्यदेव का गुणगान सच्चे मन से एवं विश्वास भाव रखते हुए करता है, तब सूर्यदेव समस्त तरह की पीड़ाओं से मुक्ति दिला देते हैं और किसी भी तरह के संकट को नहीं आने देते हैं।
पूज्यस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगप्ततिम्।
एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि।।२६।।
अर्थात्:-हे राम! तुम मन को एक जगह पर केंद्रित करते हुए समस्त देवताओं के देवता जगत के स्वामी सूर्यदेव की पूजा करो। तीन बार आदित्य हृदय स्तोत्रं के श्लोकों के मंत्रों का उच्चारण करने पर तुम निश्चित रूप से युद्ध में जीत को प्राप्त कर लोगे।
अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि।
एवमुक्ता ततोSग्सत्यो जगाम स यथागतम्।।२७।।
अर्थात्:-हे महाबाहो! तुम रावण का युद्ध में इसी समय पर अपनी वीरता से वध कर सकोगे। इस तरह भगवान राम को समस्त तरह से आदित्य हृदय स्तोत्रं के बारे में जानकारी देकर जिस तरह से युद्ध देखने के लिए आये थे वैसे ही वापस चले गए।
एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोSभवत् तदा।
धारयामास सुप्रीतो राघव प्रयताप्तवान्।।२८।।
अर्थात्:-अगस्त्य मुनिवर के द्वारा आदित्य हृदय स्तोत्रं के बारे में जानकारी सीख को सुनकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी के मन में युद्ध के विचारों के उथल-पुथल से सम्बंधित समस्त तरह दुःख का निवारण हो जाता हैं। उसके बाद श्रीरामचन्द्रजी ने अगस्त्य ऋषिवर के द्वारा बताए हुए आदित्य हृदय स्तोत्रं को अपने पवित्र भाव रखते हुए अपने मन में खुश होते हुए धारण किया और आचमन के रूप में पवित्र जल को तीन बार ग्रहण किया।
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्।
त्रिराचम्य शूचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्।।२९।।
अर्थात्:-उसके बाद अपने मन में पवित्रता भाव रखते हुए भगवान सूर्यदेव के सामने देखते हुए आदित्य हृदय स्तोत्रं का तीन बार वांचन किया। इस तरह तीन बार वांचन करने पर बहुत ही खुश हुए।
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थं समुपागतम्।
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेSभवत्।।३०।।
अर्थात्:-फिर शूरवीर पुरुषार्थी भगवान राम ने अपनी पिनाक को अपने हाथ में उठाकर रावण की तरफ देखा और पूरे जोश में भरकर जीत को हासिल करने के लिए युद्ध क्षेत्र में रावण की तरफ चल पड़े। फिर उसके बाद युद्ध क्षेत्र में रावण के साथ घमासान युद्ध को पूरे जोश के साथ करने के लिए पूरी कोशिश करके रावण के वध करके जीत की पताका को लहराने का निश्चय किया।
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमनां परमं प्रहृष्यमाणः।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति।।३१।।
अर्थात्:-भगवान सूर्यदेव ने खुश होकर श्रीरामचन्द्रजी की तरफ देखा। सूर्यदेव आकाशलोक में देवताओं के बीच में खड़े होकर युद्ध क्षेत्र के हालात को देख रहे थे। फिर सूर्यदेव ने प्रसन्नता पूर्वक कहा-हे रघुनन्दन! आप अब युद्ध को पूर्ण उत्साह पूर्वक करते हुए दैत्यराज दशानन को युद्ध में पराजित कीजिए। अब दशानन रावण के विनाश का समय आ चुका है। अब आप जल्दी से युद्ध कीजिए रावण को युद्ध में हराकर उसका वध करके अपनी विजय पताका को लहरा दीजिए। वाल्मीकि ऋषिवर के द्वारा रचित रामायण के युद्ध काण्ड में सूर्यदेव के गुणगान के बारे में बताया गया "आदित्य हृदय स्तोत्रं मंत्र" इस तरह पूर्ण होता हैं।
।।इति आदित्य हृदयं स्तोत्रं सम्पूर्ण।।
आदित्य हृदयं स्तोत्रं के वांचन का महत्त्व और लाभ:-आदित्यदेव के गुणगान करने के लिए आदित्य हृदय स्तोत्रम् के श्लोकों में वर्णित मंत्रो का वांचन करने से बहुत लाभ हैं, जो निम्नलिखित हैं-
◆मुशीबतों से छुटकारा पाने हेतु:-हमेशा आदित्य हृदय स्तोत्रं के इकतीस श्लोकों को वांचन करते रहने पर समस्त तरह की मुशीबतों से छुटकारा मिल जाता हैं।
◆सकारात्मक भावना उत्पन्न करने हेतु:-हमेशा इस स्तोत्रं के श्लोकों का वांचन करने से मन में उत्पन्न नकारात्मक भावनाओं की जगह पर सकारात्मक भावना उत्पन्न होती हैं।
◆हृदय से सम्बंधित व्याधि हो:-जिनको हृदय से सम्बंधित व्याधि हो उनको आदित्य हृदय मंगल स्तोत्रं का वांचन करना चाहिए, जिससे हृदय व्याधि से मुक्ति मिल जावे।
◆दुश्मनों के द्वारा परेशानी से मुक्ति हेतु:-जिनको अपने दुश्मनों से सम्बंधित परेशानी होती हैं, उनको दुश्मनों के द्वारा मिलने वाली परेशानी से मुक्ति पाने हेतु आदित्य हृदय मंगल स्तोत्रं का वांचन करना चाहिए।
◆बनते हुए कार्यों में नाकामयाबियों से मुक्ति हेतु:-जिनको अपने बनते हुए कार्यों में एवं किसी भी तरह से नाकामयाबी मिलती हैं, तो उनको इस स्तोत्रं का वांचन शुरू करना चाहिए, जिससे सूर्यदेव की अनुकृपा मिल जावे और कार्यों में कामयाबी मिलने लगे।
◆नीति एवं धर्म विरुद्ध किये हुए कामों से मुक्ति हेतु:-जिन्होंने अपने जीवनकाल में अनेक तरह नीति एवं धर्म विरुद्ध कार्य किए हैं, उन कार्यों से मुक्ति पाने हेतु आदित्य हृदय मंगल स्तोत्रं का वांचन करना चाहिए।
◆समस्त तरह के मंगल हेतु:-जो अपना समस्त तरह से मंगल चाहते हैं, उनको इस स्तोत्रं का वांचन करना चाहिए।
◆उम्र में बढ़ोतरी हेतु:-जिनको अपने जीवनकाल का सुख अधिक उम्र तक पाना होता हैं, उनको इस स्तोत्रं का वांचन नियमित रूप से करते रहना चाहिए।
◆मान-सम्मान की प्राप्ति हेतु:-जिनको चाहत होती हैं, की उनका मान-सम्मान प्रत्येक जगह एवं प्रत्येक क्षेत्र में होवे उनको अपने मान-सम्मान की बढ़ोतरी हेतु इस स्तोत्रं का वांचन करते रहना चाहिए।
◆दुश्मनों पर जीत पाने हेतु:-दुश्मनों के द्वारा जिनको बार-बार औंधे मुहं की हार झेलनी पड़ती हैं, उनको इस स्तोत्रं का वांचन करने पर निश्चित रूप से दुश्मनों पर जीत हासिल हो जाती हैं।
◆उत्साह एवं शक्ति पाने हेतु:-जिनमें उत्साह की कमी एवं शक्ति की कमी होती हैं, उनको इस स्तोत्रं का पाठन नियमित रूप से करना चाहिए।
◆पिता के साथ पारस्परिक घनिष्ठता एवं मतभेद होने पर:-जिन मनुष्य को अपने पिता के साथ घनिष्ठता से कम लगाव एवं परस्पर मतभेद होता हैं, उस मतभेद को समाप्त करने एवं पारस्परिक घनिष्ठता से लगाव के इस स्तोत्रं का पाठन करना चाहिए।
◆नेत्रों से सम्बंधित व्याधि या कम दिखाई देने पर:-जिन मनुष्य को नेत्रों से कम दिखाई देता हैं और नेत्र सम्बन्धित व्याधि हो उनको इस स्तोत्रं का वांचन करना चाहिए।
◆राजकीय उच्च पद को प्राप्त करने में नाकामयाबी मिलने पर:-जो मनुष्य बहुत सारी मेहनत करते हैं, तब भी वे जिस राजकीय उच्च पद् से सम्बंधित प्रतियोगिता परीक्षा में सफलता नहीं पा पाते हैं, उनको इस स्तोत्रं का वांचन करना चाहिए।
◆कोर्ट-कचहरी से सम्बंधित परेशानी से मुक्ति पाने हेतु:-जिन मनुष्य के ऊपर कोर्ट-कचहरी से सम्बंधित मामला चल रहा होता हैं उनको इस स्तोत्रं का वांचन करने पर निश्चित रूप से सफलता मिलकर मामला राहत मिल जाने की संभावना बनती हैं।
◆हड्डियों से सम्बंधित व्याधि से राहत हेतु:-जिन मनुष्य के हड्डियों में दुखावा एवं दूसरे तरह की कोई व्याधि हो तो इस स्तोत्रं का वांचन करना चाहिए।