
मृत संजीवनी स्तोत्रम् अर्थ सहित और लाभ(Mrit Sanjeevani Stotram with meaning and benefits):-मृत सञ्जीवन स्तोत्र को महर्षि वशिष्ठ ने मनुष्य जीवन में होने वाली अकाल व तंत्र-मंत्र और नकारात्मक शक्तियों के प्रभाव के कारण होने वाली मृत्यु पर विजय पाने हेतु रचना की थी। महर्षि वशिष्ठ ने अपने तपोबल से भगवान शिवजी को प्रसन्न किया और उनसे आशीर्वाद स्वरूप मनुष्य के जीवन की समस्त तरह से रक्षा करने के लिए अरदास की जाती है। यह स्तोत्र कवच रूप में पाठ किया जाता है।
मृत संजीवनी स्तोत्रम् अर्थ सहित(Mrit Sanjeevani Stotram with meaning):-मृत संजीवनी स्तोत्रम् को वांचन करने से पहले इसमें वर्णित श्लोकों के शब्दों के बारे में जानकारी करनी चाहिए, फिर उन शब्दों के अर्थ को जानना चाहिए, जिससे मनुष्य स्तोत्रम् के लाभ को प्राप्त कर सके। इसलिए मृत संजीवनी स्तोत्रम् का अर्थ सहित वर्णन निम्नलिखित हैं-
एवमारध्य गौरीशं देवं मृत्युञ्जयमेश्वरं।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना प्रजपेत् सदा।।१।।
अर्थात्:-गौरी के स्वामी मृत्यु को जीतने वाले ईश्वर भगवान शिव की नियमानुसार पूजा-उपासना करनी चाहिए, फिर पूजा-उपासना के बाद जो भगवान शिव का अनुगामी या शिव की भक्ति में सच्ची आस्था एवं श्रद्धा रखने वाले भक्त को हमेशा मृत्यु पर विजय प्रदान करवाने वाले 'मृतसञ्जीवन कवच' का वांचन सही शब्दों के उच्चारण के साथ करना चाहिए।
सारात् सारतरं पुण्यं गुह्याद्गुह्यतरं शुभं।
महादेवस्य कवचं मृतसञ्जीवनामकं।।२।।
अर्थात्:-भगवान महादेव का तांत्रिक साधना आदि में आपत्तियों में स्वरक्षार्थ में पढ़ें जाने वाले मंत्र से युक्त कवच 'मृतसञ्जीवन' नाम से प्रसिद्ध है। जो कि सृष्टि के निर्माण के मूल कारण आदि से अंत तक का हैं, जो पुण्य कर्मों या सदाचरण की ओर ले जाने वाला हैं, जो रहस्यमयी और कल्याण करने वाला है।
समाहितमना भूत्वा शृणुष्व कवचं शुभं।
शृत्वैतद्दिव्य कवचं रहस्यं कुरु सर्वदा।।३।।
अर्थात्:-आचार्य शिष्य को धर्म व नीति सम्बन्धी बातों के बारे में ज्ञान देते हुए कहते हैं कि-हे प्रिय वत्स! तुम सब अपने मन को एक जगह पर केन्द्रित करते हुए ध्यानपूर्वक सुनो। मंगलमय 'मृतसञ्जीवन कवच' को एकत्र या संगृहीत करके अस्तित्व में लाया गया है, अलौकिक मंगलमय सभी तरह से रक्षा करने वाला कवच हैं और इसको हमेशा दूसरों के समक्ष प्रकट नहीं करते हुए उसको रहस्य में रखना।
वराभयकरो यज्वा सर्वदेवनिषेवितः।
मृत्युञ्जयो महादेवः प्राच्यां मां पातु सर्वदा।।४।।
अर्थात्:-मृतसञ्जीवन कवच डर को मिटाने वाला, जो लोकहित के विचार से हमेशा करने वाला और समस्त देवताओं के द्वारा भी पूजित हैं। हे मृत्यु पर विजित देवों के देव! आप से मैं अरदास करता हूँ कि पूर्व दिशा में मेरी हमेशा रक्षा करना।
दधानम् शक्तिमभयां त्रिमुखं षड्भुजः प्रभुः।
सदाशिवोSग्निरूपी मामाग्नेय्यां विभुः।।५।।
अर्थात्:-हे शिवजी! आप तीन मुखों वाले, छः भुजाओं वाले और डर को दूर करने वाली शक्ति को सँभालने वाले हो। हे अग्निरूपी सर्वव्यापक! आप से मैं अरदास करता हूँ कि आप सदा मेरी अग्निकोण से रक्षा करना।
अष्टदसभुजोपेतो दण्डाभयकरो विभुः।
यमरूपि महादेवो दक्षिणस्यां सदावतु।।६।।
अर्थात्:-हे शिवजी! आप अट्ठारह भुजाओं से युक्त हो, हाथ में दण्ड को लिये हुए और हाथ को उठाकर हथेली सामने की ओर किये हुई मुद्रा को धारण करने वाले हो। सभी जगहों में वास करने वाले संयम रूप में मृत्यु के देवता हो। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि हे महादेव! आप मेरी दक्षिण दिशा में हमेशा रक्षा कीजिए।
खड्गाभयकरो धीरो रक्षोगणनिषेवितः।
रक्षोरूपी महेशो मां नैरृत्यां सर्वदावतु।।७।।
अर्थात्:-हे शिवजी! आप अपने हाथ में तलवार की तरह प्राचीन शस्त्र खाँडा को लिए हुए डर को प्रदान करने वाले हो, जल्दी विचलित नहीं होने वाले और असुर गणों के द्वारा रक्षा के लिए आप पूजित हो। हे रक्षा करने वाले महेश! मैं नतमस्तक होकर आपकी वंदना करता हूँ कि आप मेरी हमेशा नैर्ऋत्यकोण में रक्षा कीजिए।
पाशाभयभुजः सर्वरत्नाकरनिषेवितः।
वरुणात्मा महादेवः पश्चिमे मां सदावतु।।८।।
अर्थात्:-हे शिवजी! आप बंधन से युक्त आयुध को अपनी भुजा में धारण करके भय करने वाले हो और समस्त रत्न समूह के रूप में आप पूजित हो और सेवन किया जाने वाले हो। हे वरुण देव के स्वरूप वाले महादेव! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरी पश्चिम दिशा में हमेशा रक्षा कीजिए।
गदाभयकरः प्राणनायकः सर्वदागतिः।
वायव्यां मारुतात्मा मां शङ्करः पातु सर्वदा।।९।।
अर्थात्:-हे शिवजी! आप अपने हाथों में गदा को धारण करके भय को करने वाले, जीवनशक्ति को अपने अनुसार चलाने वाले और सभी जगहों पर अपनी गति के द्वारा वास करने वाले हो। हे जगत के प्राण स्वरूप शंकर! आप मेरी वायव्य कोण में हमेशा रक्षा कीजिए।
शंङ्खाभयकरस्थो पातु मां नायकः परमेश्वरः।
सर्वात्मान्तरदिग्भागे पातु मां शङ्करः प्रभुः।।१०।।
अर्थात्:-हे शिवजी! आप अपने हाथों में शंख को धारण करने वाले हो, उस शंख की ध्वनि से भय को करने वाले और सभी जगत को चलाने वाले परमेश्वर हो। आप सभी जीवों के प्राण में वास करने वाले हो, सभी जगह पर आप वास करने हो। हे शंकर! आप सभी दिशाओं के बीच में भी मेरी रक्षा कीजिए।
शूलाभयकरः सर्वविधानमधिनायकः।
ईशानात्मा तथैशान्यां पातु मां परमेश्वरः।।११।।
अर्थात्:-हे शिवजी! आप अपने हाथ में त्रिशूल को धारण करके भय उत्पन्न करने वाले हो और समस्त तरह की विद्याओं का ज्ञाता और स्वामी हो। हे परमेश्वर! आप ईशान स्वरूप में स्थित होकर ईशान कोण में मेरी हमेशा रक्षा कीजिए।
ऊर्ध्वभागे ब्रह्मरूपी विश्वात्माSधः सदावतु।
शिरो मे शङ्करः पातु ललाटं चन्द्रशेखरः।।१२।।
अर्थात्:-हे शिवजी! जगत के मूल तत्व रूप में मेरे ऊपर के हिस्से में और विश्वात्मा के स्वरूप के रूप में नीचे के हिस्से में शिव आप वास करते हुए रक्षा कीजिए। मेरे मस्तिष्क की शंकर और ललाट के हिस्से की रक्षा चन्द्रशेखर कीजिए।
भूमध्यं सर्वलोकेशस्त्रिणेत्रोलोचनेSवतु।
भ्रूयुग्मं गिरीशं पातु कर्णौ पातु महेश्वरः।।१३।।
अर्थात्:-हे शिवजी! मेरे भौंहों के बीच के हिस्से की रक्षा समस्त लोक के स्वामी और दोनों चक्षुओं की रक्षा की तीन चक्षुओं वाले शिव कीजिए, दोनों एक ही तरह के भौंहों की रक्षा पर्वतों के राजा और दोनों श्रवणेन्द्रियों की रक्षा महादेव कीजिए।
नासिकां मे महादेव ओष्ठौ पातु वृषध्वजः।
जिह्वां मे दक्षिणामूर्तिर्दन्तान्मे गिरिशोSवतु।।१४।।
अर्थात्:-हे महादेव! मेरे दोनों घ्राणेन्द्रियों की रक्षा कीजिए और मेरे दोनों ओष्ठौ या होठं की रक्षा वृषध्वज कीजिए। मेरी जिह्वा की दक्षिणामूर्ति और पर्वतों के राजा मेरे दाँतों की रक्षा कीजिए।
मृतुय्ञ्थयो मुखं पातु कण्ठं मे नागभूषणः।
पिनाकि मत्करौ पातु त्रिशूलि हृदयं मम।।१५।।
अर्थात्:-हे मृत्यु पर विजित स्वामी मेरे मुख की रक्षा करो और नाग को अपने गले में आभूषण की तरह धारित शिव मेरे कण्ठ की रक्षा कीजए। धनुष व बाजा को धारण करने वाले मेरे दोनों हाथों की और त्रिशूल को धारण करने वाले मेरे हृदय की रक्षा कीजिए।
पञ्चवक्त्रः स्तनौ पातु उदरं जगदीश्वरः।
नाभिं पातु विरुपाक्षः पार्श्वौ मे पार्वतीपतिः।।१६।।
अर्थात्:-हे महादेव! मेरे दोनों चंचु की रक्षा पांच मुहं वाले और मेरे उदर की रक्षा जगत के स्वामी करो। भगवान शिव के गण मेरे नाभि की और पार्वती के स्वामी पार्श्व हिस्से की रक्षा कीजिए।
कटद्वयं गिरीशौ मे पृष्ठं मे प्रमथाधिपः।
गृह्यं महेश्वरः पातु ममोरु पातु भैरवः।।१७।।
अर्थात्:-हे पर्वतों के राजा मेरे दोनों कटि हिस्से की और प्रथम गणों के स्वामी पीछे के भाग की रक्षा कीजिए। महादेव मेरे गुप्त हिस्सों की और दोनों ऊरुओं की रक्षा भैरव कीजिए।
जानुनी मे जगद्दर्ता मे जगदम्बिका।
पादौ मे सततं पातु लोकवन्द्यः सदाशिवः।।१८।।
अर्थात्:-हे महादेव! मेरे दोनों घुटनों की जग का कल्याण करने वाले, मेरे दोनों जंघाओं की रक्षा जगत की माता कीजिए और समस्त लोकों में पूजनीय हमेशा कल्याण करने वाले लगातार मेरे दोनों पैरों की रक्षा कीजिए।
गिरिशः पातु मे भार्यां भवः पातु सुतान्मम।
मृतुय्ञ्जयो ममायुष्यं चित्तं मे गणनायकः।।१९।।
अर्थात्:-हे महादेव! मेरी भार्या की रक्षा पर्वतों के स्वामी कीजिए और संसार में पुत्रों की रक्षा कीजिए। मृत्यु पर विजित मेरी उम्र की और मेरे मन की रक्षा गजानन कीजिए।
सर्वांङ्गं मे सदा पातु कालकालः सदाशिवः।
एतत्ते कवचं पुण्यं देवतानां च दुर्लभम्।।२०।।
अर्थात्:-हे महादेव! मेरे समस्त शरीर के अंगों की रक्षा मृत्यु के स्वामी यमराज से कल्याण करने वाले कीजिए। हे वत्स! देवताओं के द्वारा भी प्राप्त करना कठिन हैं, उस पाप व दोष से रहित स्वयं की रक्षा के सूत्र का गुण कथन मैंने तुमसे किया है।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना महादेवेन कीर्तितम्।
सह्स्त्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम्।।२१।।
अर्थात्:-महादेवजी ने मृतसञ्जीवन नाम से प्रसिद्ध स्वयं की मृत्यु से रक्षा करने वाले सूत्र के ख्याति के बारे में कहा है, मृत्यु पर स्वयं की रक्षा सूत्र की अनंत बार-बार दोहराव के द्वारा कार्य सिद्धि के लिए विधिपूर्वक किया जाने वाले प्रयोग को कहा गया हैं।
फलश्रुति:-मृतसंजीवनी कवच या स्तोत्रं के वांचन से मिलने वाले सत्कर्म विशेष का फल बताने वाले वाक्य या इस तरह के वाक्य का श्रवण के बारे में बताया गया हैं, जो इस तरह हैं-
यः पठेच्छृणुयान्नित्यं श्रावयेत्सु समाहितः।
सकालमृत्युं निर्जित्य सदायुष्यं समश्नुते।।२२।।
अर्थात्:-जो कोई भी अपने मन मन्दिर में भगवान शिव की छवि को धारण करते हुए पूर्ण विश्वास, भक्ति भाव और आस्था के साथ हमेशा वांचन करते हैं, किसी दूसरों के द्वारा उच्चारित को सुनते हैं या दूसरों को अपनी वाणी से बोलते हुए वांचन करते हैं, वह वांचन करने वाला असामयिक मृत्यु के डर से मुक्त होकर मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता हैं और अपने जीवन की पूर्ण उम्र को भोगता हैं।
हस्तेन वा यदा स्पृष्ट्वा मृतं सञ्जीवयत्यसौ।
आधयोव्याध्यस्तस्य न भवन्ति कदाचन।।२३।।
अर्थात्:-जो मनुष्य मृतसञ्जीवन कवच का वांचन करते हुए मृत्यु की शय्या पर पड़े मनुष्य की देह को अपने हाथ से छूते हैं, तब मृत्यु की शय्या पर पड़े मनुष्य की जीवन शक्ति में पुनः प्राण का संचरण होने लगता है। फिर उस मनुष्य को कभी मानसिक व शारीरिक रोग नहीं हो पाता हैं।
कालमृतुमपि प्राप्तमसौ जयति सर्वदा।
अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते मानवोत्तमः।।२४।।
अर्थात्:-यह मृतसञ्जीवन कवच मनुष्य को मृत्यु पर विजित दिलाने वाला हैं, जो मनुष्य मृत्यु का ग्रास बन चुके हैं, उन मनुष्य को फिर से जीवन शक्ति को दिलवाता है। यह कवच मानव में सबसे उत्तम अणिमा, महिमा आदि अष्ट सिद्धियों से प्राप्त अलौकिक शक्ति आदि गुणों से युक्त ईश्वरीय विभूति या वैभव को प्राप्त करता हैं।
युद्दारम्भे पठित्वेदमष्टाविशतिवारकं।
युद्दमध्ये स्थितः शत्रुः सद्यः सर्वैर्न दृश्यते।।२५।।
अर्थात्:-यदि युद्ध के शुरू होने से पहले जो कोई भी मृतसञ्जीवन कवच का विधिपूर्वक अठाइस बार वांचन करते हैं, फिर वांचन करके युद्धक्षेत्र के बीच में मौजूद होते हुए भी सभी शत्रुओं के बीच में दिखाई नहीं पड़ते हैं।
न ब्रह्मादिनि चास्त्राणि क्षयं कुर्वन्ति तस्य वै।
विजयं लभते देवयुद्दमध्येSपि सर्वदा।।२६।।
अर्थात्:-यदि देवताओं के भी साथ युद्ध की नाद बज उठती हैं, तो उस युद्ध में उसके अस्तित्व का लोप ब्रह्मास्त्र भी नहीं कर पाता है और इस कवच के वांचन से देवताओं के बीच होने वाले युद्ध में निश्चित विजय की प्राप्ति हो जाती है।
प्रातरुत्थाय सततं यः पठेत्कवचं शुभं।
अक्षय्य लभते सौख्यमिह लोके परत्र च।।२७।।
अर्थात्:-जो कोई भी सुबह जल्दी उठकर अपनी दैनिकचर्या को पूर्ण करने के बाद विधिवत रूप से मंगलकारी मृतसञ्जीवन कवच का हमेशा वांचन करते हैं, उन वांचन करने वाले को पृथ्वीलोक, पाताललोक व आकाशलोक आदि संसार के विभाग और देवता के रहने के विशिष्ट शिवलोक, विष्णुलोक व स्वर्गलोक आदि समस्त लोकों में अनंत कामना पूर्ति से प्राप्त आनन्द को प्राप्त हो जाता हैं।
सर्वव्याधिविनिर्मृक्तः सर्वरोगविवर्जितः।
अजरामरणो भूत्वा सदा षोडशवार्षिकः।।२८।।
अर्थात्:-इस कवच का वांचन करने वाले को सभी तरह की शारीरिक व मानसिक और बौद्धिक बीमारियों से छुटकारा मिल जाता है और कवच वांचन करने वालों के शरीर में सभी तरह की व्याधि उसके शरीर से दूर हो जाती है और उसके शरीर को पवित्र कर देता है। वह कवच वांचन कर्ता हमेशा ज्यों का त्यों बना रहता हैं और चिर स्थायी होकर हमेशा के लिए सोलह वर्ष की आयु को प्राप्त मनुष्य बन जाता हैं।
विचरव्यखिलान् लोकान् प्राप्य भोगांश्च दुर्लभान्।
तस्मादिदं महागोप्यं कवचम् समुदाहृतम्।।२९।।
अर्थात्:-पृथ्वीलोक, पाताललोक व आकाशलोक आदि संसार के विभाग में जिनको प्राप्त करना कठिन होता हैं, उनको प्राप्त करके सुख-दुःख के साथ अनुभव करते हुए आनन्द से समस्त लोकों में भ्रमण करता रहता हैं। इसलिए इस महा रहस्यमयी कवच को मृतसञ्जीवन कवच नाम दिया गया हैं।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना देवतैरपि दुर्लभम्।।३०।।
अर्थात्:-जो कि देवताओं के लिए भी प्राप्त करना कठिन होता हैं। यह कवच मृतसञ्जीवन कवच नाम से जाना जाता हैं।
।।इति वशिष्ठ कृत मृतसञ्जीवनी स्तोत्रम् सम्पूर्णम्।।
मृत संजीवनी स्तोत्रम् से मिलने वाले लाभ(Benefits of Mrit Sanjeevani Stotram):-जो मनुष्य नियमित रूप से मृत संजीवनी स्तोत्रं का वांचन करता हैं, उसको निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं-
कार्यसिद्धि पाने हेतु:-मनुष्य के जीवन में साधना करते समय नकारात्मक शक्तियों से बचने के लिए एक रक्षा कवच की तरह रक्षा करते हुए कार्यसिद्धि की प्राप्ति होती हैं।
असामयिक मृत्यु पर विजय पाने हेतु:-जो मनुष्य नियमित रूप से इस स्तोत्र का वांचन करते हैं, तो उन मनुष्य को असामयिक मृत्यु के भय से छूटकारा मिल जाता हैं।
पुनः प्राण संचार पाने हेतु:-जिन मनुष्य के प्राण पंखेरू उड़ जाते हैं, तब विधिवत वांचन करने पर उस प्राण पंखेरू उड़े मनुष्य के जीवन में प्राण का संचार करने वाला यह स्तोत्रं होता हैं।
व्याधियों से मुक्ति पाने हेतु:-जो मनुष्य नियमित रूप से इस कवच को धारण करते हुए वांचन करते हैं, उन मनुष्य को कभी मानसिक व शारीरिक रोग से पीड़ित नहीं होना पड़ता है।
अलौकिक शक्ति पाने हेतु:-इस स्तोत्रं के वांचन से मनुष्य को अलौकिक शक्ति से युक्त दैवीय सुख को प्रदान करता हैं।
शत्रुओं के बीच में अदृश्य रूप में रहने हेतु:-जो मनुष्य नियमित रूप से मृतसंजीवनी स्तोत्रं का पाठ करते हुए रणभूमि में जाने पर रणभूमि में शत्रुओं के बीच में दिखाई नहीं देने में मदद करता हैं।
विजय प्राप्त करने हेतु:-मनुष्य को अपने जीवन में सभी क्षेत्रों में विजय प्राप्त करने हेतु स्तोत्रं का वांचन करना चाहिए।
जीवन का उद्धार हेतु:-मनुष्य को अपने जीवन का उद्धार करना चाहते हैं, उन मनुष्य को रोजाना मृतसंजीवनी स्तोत्रं का वांचन करने से सभी लोकों में सुख को प्राप्त करते हुए ईश्वर के चरणों में सेवा करने का मौका मिलता हैं और उद्धार हो जाता हैं।
चिर स्थायी एवं ज्यों का त्यों बना रहने हेतु:-जो मनुष्य रोजाना मृतसंजीवनी स्तोत्रं का वांचन करते हैं, वे मनुष्य चिर स्थायी जीवन को जीते हुए हमेशा ज्यों का त्यों बने रहते हैं।
समस्त तरह के सुख को पाने हेतु:-जो मनुष्य हमेशा इस स्तोत्र का पाठन करते हैं उनको सभी तरह के सुख की प्राप्ति होती हैं।
।।अथ मृत संजीवनी स्तोत्रम्।।
एवमारध्य गौरीशं देवं मृत्युञ्जयमेश्वरं।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना प्रजपेत् सदा।।१।।
सारात् सारतरं पुण्यं गुह्याद्गुह्यतरं शुभं।
महादेवस्य कवचं मृतसञ्जीवनामकं।।२।।
समाहितमना भूत्वा शृणुष्व कवचं शुभं।
शृत्वैतद्दिव्य कवचं रहस्यं कुरु सर्वदा।।३।।
वराभयकरो यज्वा सर्वदेवनिषेवितः।
मृत्युञ्जयो महादेवः प्राच्यां मां पातु सर्वदा।।४।।
दधानम् शक्तिमभयां त्रिमुखं षड्भुजः प्रभुः।
सदाशिवोSग्निरूपी मामाग्नेय्यां विभुः।।५।।
अष्टदसभुजोपेतो दण्डाभयकरो विभुः।
यमरूपि महादेवो दक्षिणस्यां सदावतु।।६।।
खड्गाभयकरो धीरो रक्षोगणनिषेवितः।
रक्षोरूपी महेशो मां नैरृत्यां सर्वदावतु।।७।।
पाशाभयभुजः सर्वरत्नाकरनिषेवितः।
वरुणात्मा महादेवः पश्चिमे मां सदावतु।।८।।
गदाभयकरः प्राणनायकः सर्वदागतिः।
वायव्यां मारुतात्मा मां शङ्करः पातु सर्वदा।।९।।
शंङ्खाभयकरस्थो पातु मां नायकः परमेश्वरः।
सर्वात्मान्तरदिग्भागे पातु मां शङ्करः प्रभुः।।१०।।
शूलाभयकरः सर्वविधानमधिनायकः।
ईशानात्मा तथैशान्यां पातु मां परमेश्वरः।।११।।
ऊर्ध्वभागे ब्रःमरूपी विश्वात्माSधः सदावतु।
शिरो मे शङ्करः पातु ललाटं चन्द्रशेखरः।।१२।।
भूमध्यं सर्वलोकेशस्त्रिणेत्रो लोचनेSवतु।
भ्रूयुग्मं गिरीशं पातु कर्णौ पातु महेश्वरः।।१३।।
नासिकां मे महादेव ओष्ठौ पातु वृषध्वजः।
जिह्वां मे दक्षिणामूर्तिर्दन्तान्मे गिरिशोSवतु।।१४।।
मृतुय्ञ्थयो मुखं पातु कण्ठं मे नागभूषणः।
पिनाकि मत्करौ पातु त्रिशूलि हृदयं मम।।१५।।
पञ्चवक्त्रः स्तनौ पातु उदरं जगदीश्वरः।
नाभिं पातु विरुपाक्षः पार्श्वौ मे पार्वतीपतिः।।१६।।
कटद्वयं गिरीशौ मे पृष्ठं मे प्रमथाधिपः।
गृह्यं महेश्वरः पातु ममोरु पातु भैरवः।।१७।।
जानुनी मे जगद्दर्ता मे जगदम्बिका।
पादौ मे सततं पातु लोकवन्द्यः सदाशिवः।।१८।।
गिरिशः पातु मे भार्यां भवः पातु सुतान्मम।
मृतुय्ञ्जयो ममायुष्यं चित्तं मे गणनायकः।।१९।।
सर्वांङ्गं मे सदा पातु कालकालः सदाशिवः।
एतत्ते कवचं पुण्यं देवतानां च दुर्लभम्।।२०।।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना महादेवेन कीर्तितम्।
सह्स्त्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम्।।२१।।
यः पठेच्छृणुयान्नित्यं श्रावयेत्सु समाहितः।
सकालमृत्युं निर्जित्य सदायुष्यं समश्नुते।।२२।।
हस्तेन वा यदा स्पृष्ट्वा मृतं सञ्जीवयत्यसौ।
आधयोव्याध्यस्तस्य न भवन्ति कदाचन।।२३।।
कालमृतुमपि प्राप्तमसौ जयति सर्वदा।
अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते मानवोत्तमः।।२४।।
युद्दारम्भे पठित्वेदमष्टाविशतिवारकं।
युद्दमध्ये स्थितः शत्रुः सद्यः सर्वैर्न दृश्यते।।२५।।
न ब्रह्मादिनि चास्त्राणि क्षयं कुर्वन्ति तस्य वै।
विजयं लभते देवयुद्दमध्येSपि सर्वदा।।२६।।
प्रातरुत्थाय सततं यः पठेत्कवचं शुभं।
अक्षय्य लभते सौख्यमिह लोके परत्र च।।२७।।
सर्वव्याधिविनिर्मृक्तः सर्वरोगविवर्जितः।
अजरामरणो भूत्वा सदा षोडशवार्षिकः।।२८।।
विचरव्यखिलान् लोकान् प्राप्य भोगांश्च दुर्लभान्।
तस्मादिदं महागोप्यं कवचम् समुदाहृतम्।।२९।।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना देवतैरपि दुर्लभम्।।३०।।
।।इति वसिष्ठ कृत मृतसञ्जीवनी स्तोत्रम् सम्पूर्णम्।।