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Wednesday, May 11, 2022

संकटनाशन गणेश स्तोत्रं अर्थ सहित और महत्त्व (Sankatnashan Ganesh Stotram with meaning and importance)

Sankatnashan Ganesh Stotram with meaning and importance





संकटनाशन गणेश स्तोत्रं अर्थ सहित और महत्त्व (Sankatnashan Ganesh Stotram with meaning and importance):-भगवान शिवजी एवं माता गौरी के पुत्र श्रीगणेशजी जो कि बुद्धि एवं विघ्नों के निवारक होते हैं। सबसे पहले कोई भी मांगलिक कार्य करने से पूर्व इनको याद किया जाता हैं, उसके बाद में कोई दूसरा कार्य किया जाता हैं। इसलिए समस्त तरह की सिद्धि को पाने के लिए अथ श्री संकटनाशन गणेशद्वादशनाम स्तोत्रम् का पाठन करना चाहिए।



नारद उवाच:-नारददेव जी अपनी मधुर वाणी से भगवान गणपति जी का गुणगान करने से पूर्व कहते हैं, जो इस तरह हैं-


 प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम्।

भक्तावास स्मरेन्नित्यमायुः कामार्थसिद्धये।।


भावार्थ:-नारददेव जी सबसे पहले माता गौरी के पुत्र श्रीगणेशजी को नतमस्तक होकर अभिवादन करते है। नारददेव के अनुसार जो कोई भी मनुष्य या देव-दानव आदि गणेशजी के प्रति भक्तिभाव एवं श्रद्धाभाव रखते हुए पूरे विश्वास से मन में किसी भी तरह की शंका नहीं रखते हुए संकटनाश के लिए संकष्टनाश्न स्तोत्रम् के पाठ को रोजाना वांचन करते हैं। जो कोई भी भक्त उम्र में बढ़ोतरी के लिए, मन में सोची हुई इच्छाओं और धन-समृद्धि आदि प्रयोजनों को पूर्ण रूप से सफलता पाने चाहते हैं, वे रोजाना भक्त वासल गणेशजी को अपने मन्दिर में धारण करते हुए उनका गुणगान करते हुए उनको सच्चे मन से याद करना चाहिए।



नारद पुराण के अनुसार भगवान श्रीगणपतिजी के नाम बताए:-नारद पुराण में भगवान श्रीगणपतिजी के बारह नाम बताए गए हैं, जो इस तरह हैं-


प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम्।

तृतीयं कृष्णपीङ्गाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम्।।


अर्थात्:- भगवान गणेशजी के नामों के क्रम में पहले, दूसरे, तीसरे एव चोथे नाम का अर्थ इस तरह हैं-


पहला नाम 'वक्रतुण्ड':-भगवान गणेश के स्वरूप का एक नाम हैं, जिनमें पहला शब्द 'वक्र' जिसका अर्थ मुड़ा हुआ होना एवं दूसरा शब्द 'तुण्ड' जिसका अर्थ आगे की तरफ निकला हुआ मुंह होता हैं। अर्थात् जिनकी सूंड मुड़ी हों, उसे 'वक्रतुण्ड' कहा जाता हैं। इस तरह गणेशजी की सूंड आगे की तरफ मुड़ी होने से उनको 'वक्रतुण्ड' नाम मिला था। जो धर्म एवं नीति के विरुद्ध आचरण करते है, उनको सही राह पर लाना होता हैं।


दूसरा नाम 'एकदन्त':-भगवान गणेशजी के दो दांतों में से एक दांत टूटा हुआ हैं और दूसरा दांत सही हालत में होने से 'एकदंत' नाम मिला था। 'एक' शब्द का अर्थ माया या जिनमें दया की भावना होना एवं 'दंत शब्द का अर्थ जिनका समस्त जगहों पर एक का ही अधिकार से पूर्ण अस्तित्व हो।


तीसरा नाम कृष्णपिंडगाक्ष:-कृष्णपिंडगाक्ष तीन शब्दों के मेल से बना हैं, जिनमें पहला शब्द कृष्ण जिसका अर्थ जो गेहूंआ वर्ण के समान या जिनमें गोरे एवं काले रंग का मिश्रण होता हैं। दूसरा शब्द पिङ्ग का अर्थ भूरापन लिए लाल रंग या पीलापन लिए हुए भूरा होता हैं। तीसरा शब्द अक्ष का अर्थ धुरी या चक्षु होता हैं। जो आकाश एवं भूमिलोक के बीच में स्थित होते हैं, जो अपने चक्षुओं के द्वारा समस्त लोकों पर केंद्र दृष्टि रखते हैं। 



चौथा नाम 'गजवक्त्र':-'गजवक्त्र' दो शब्दों एक शब्द 'गज' एवं 'वक्त्र' से मिलकर बना हैं, जिनमें 'गज' का अर्थ हाथी एवं 'वक्त्र' का अर्थ मुहं होता हैं। गणेशजी का मुंह हाथी के मुहं का होने से 'गजवक्त्र' नाम पड़ा था। अर्थात् समस्त लोकों को अपने विशाल स्वरूप रूपी मुहं में धारण करने वाले होते हैं।  


लम्बोदरं पञ्चमं च षष्ठ विकटमेव च।

सप्तमं विघ्नराजं च धूम्रवर्णं तथाष्टकम्।।


अर्थात्:-भगवान गणेशजी के नामों के क्रम में पांचवे, छठे, सातवें एव आठवें नाम का अर्थ इस तरह हैं-


पांचवाँ नाम 'लम्बोदर':-'लम्बोदर का सन्धिविच्छेद करने पर दो शब्द 'लम्ब' एवं 'उदर' मिलता हैं, 'लम्ब' का अर्थ बहुत बड़ा एवं 'उदर' का अर्थ पेट होता हैं। भगवान गणेशजी लम्बे पेट वाले होने से एवं बहुत अधिक खाने वाले होने से 'लम्बोदर' नाम पड़ा था। अर्थात् जिनमें नकारात्मक ऊर्जा रूपी शत्रु पर विजय पाने की शक्ति होती हैं।



छठा नाम 'विकट':-'विकट' शब्द में 'वि' उपसर्ग, 'कृत' धातु एवं 'अकत' शब्द से मिलकर बना हैं, 'वि' उपसर्ग का अर्थ विशेष या मुख्य या भिन्न, 'कृत' धातु का अर्थ जो किया जाता हैं एवं 'अकत' शब्द का अर्थ समस्त या बिल्कुल तरह से गति होता हैं। मयूर वाहन भयंकर रूप को धारण कर श्री गणेशजी ने कामासुर दैत्य को हराया था। इस तरह काम पर विजय पाने एवं आध्यत्मिकता के भाव को उत्पन्न करने वाले होने से 'विकट' स्वरूप मिला। 



सातवाँ नाम 'विघ्नराजेंद्र':-'विघ्नराजेंद्र' का सन्धि विच्छेद करने पर 'विघ्न' व 'राजा' एवं 'इंद्र' शब्द मिलते हैं, 'विघ्न' का अर्थ समस्त बाधाओं, 'राजा' का अर्थ सर्वस्वा एवं 'इंद्र' का अर्थ स्वर्ग के स्वामी। इस तरह विघ्नराजेंद्र का अर्थ जो समस्त लोकों के स्वामी होते हुए समस्त रूकावटों को दूर करने वाले होता हैं। गणेशजी समस्त तरह की मुसीबतों का हरण करने वाले होने से उनका नाम 'विघ्नराजेंद्र' पड़ा था। 



आठवाँ नाम 'धूम्रवर्ण':-'धूम्रवर्णं' में 'धूम्र' एवं 'वर्ण' दो शब्द है, जिसका अर्थ धुऐं के समान एव  रंग होता हैं। धुऐं के रंग से पताका से युक्त होकर गणेशजी ने अहंकारी एवं अत्याचारी दैत्य का वध किया था, जो सूर्यदेव की छींक के द्वारा उत्पन्न हुआ था, इस कारण उनका नाम' धूम्रवर्णं' पड़ा था। 


नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम्।

एकादशं गणपतिं द्वादश तु गजाननम्।।


अर्थात्:-जो बारह नाम हैं, उनमें से निम्न नाम का अर्थ इस तरह हैं:-


नवाँ नाम 'भालचन्द्र':-'भालचन्द्र' में दो शब्द हैं, जिनमें पहला भाल शब्द का भौहों के ऊपर की तरफ नोंक या धार से युक्त का भाग जो भाग्य स्थान भी समझा जाता हैं, एवं चन्द्र का अर्थ अर्द्ध चन्द्राकार चिह्न होता हैं। भगवान गणेशजी अपने मस्तक पर चन्द्रमा को धारण करने से उनका नाम भालचन्द्र पड़ा था। जिसका अर्थ हैं, कभी भी घमण्ड अपनी सुंदरता पर नहीं करना चाहिए।



दसवाँ नाम 'विनायक':-'विनायक' में वि उपसर्ग एवं नायक शब्द के मेल से 'विनायक' शब्द बना हैं, जिसमें नायक का सन्धिविच्छेद करने पर  'नै' व 'अक' शब्द प्राप्त होते हैं। 'वि' उपसर्ग का अर्थ भिन्न या विशेष होता है, 'नै' का अर्थ नली की तरह और 'अक' का अर्थ कष्ट होता हैं, इस तरह विशेष रूप से गणेशजी के द्वारा वशिष्ट नायकोचित्त गुणसंपन्न होने से उनका नाम 'विनायक' पड़ा था। अर्थात् जो समस्त तरह की मुसीबतों का सामना करने के लिए सबको मार्गदर्शन प्रदान करने वाले होते हैं।



ग्यारहवाँ नाम 'गणपति':-'गणपति' के शब्द को दो भागों में विभक्त करने पर एक शब्द 'गण' का अर्थ समूह एवं दूसरा 'पति' का अर्थ जिसका पूर्ण अधिकार हो। भगवान गणेशजी को समस्त दिशाओं के स्वामी होने से 'गणपति' नाम प्राप्त हुआ था। अर्थात् जो समस्त दिशाओं पर अपना स्वामित्व रखते हुए पालन करते हैं।



बारहवां नाम 'गजानन':-'गजानन' का सन्धिविच्छेद करने पर म दो शब्द हैं, जिनमें पहला शब्द 'गज' जिसका अर्थ हाथी एवं दूसरा शब्द 'आनन' जिसका अर्थ मुहं होता हैं भगवान गणेशजी के द्वारा हाथी के मुख को धारण करते हुए हाथी मुख की आकृति से युक्त होने से 'गजानन' नाम से भी जाना जाता हैं। अर्थात् जिनमें नकारात्मक ऊर्जा को समाप्त करने की शक्ति होती हैं और आध्यात्मिक ऊर्जा का संचरण भी करते हैं।

 

द्वादशैतानि नामानि त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः।

न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं प्रभो।।


अर्थात्:-जो मनुष्य प्रातःकाल, मध्याह्न के समय और सायंकाल के समय की तीनों संध्याओं के समय रोजाना भगवान श्रीगणेशजी के इन बारह नामों का मन में उच्चारण करते हुए उनका गुणगान करते हैं। उन मनुष्य को किसी भी तरह की रूकावटों से सम्बंधित मन में व्याप्त डर नष्ट हो जाता हैं व समस्त तरह से मनुष्य निर्भय हो जाता हैं। प्रभु गणेशजी के बारह नाम को याद करना ही उस मनुष्य के लिए पर्याप्त होता हैं। यह बारह नाम ही उस मनुष्य को समस्त तरह यह नाम स्मरण उसके लिए सभी सिद्धियों का उत्तम साधक है।


 

विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम्।

पुत्रार्थी लभते पुत्रान् मोक्षार्थी लभते गतिम्।।


अर्थात्:-जब गणेशजी के बारह नामों को उच्चारित किया जाता हैं, तो निम्नलिखित तरह से फल की प्राप्ति होती हैं-


छात्रवृत्तिधारी के द्वारा उच्चविधा की चाहत रखने वालों:-छात्रवृत्तिधारी को उच्चविद्या की प्राप्ति को पूरा करने के लिए गणेशजी के बारह नामों के इस स्तोत्रं का वांचन करना चाहिए।


रुपयों-पैसों की चाहत रखने वाले:-जो मनुष्य अपने जीवनकाल में बहुत सारे रुपयों-पैसों की चाहत रखते हैं, जब वे इन बारह श्रीगणेशजी के नामों को उच्चारित करते हैं, तब गणेशजी की अनुकृपा को पाकर रुपयों-पैसों को प्राप्त करके धनवान बनते हैं।


पुत्र सन्तान की चाहत को पूरा करने हेतु:-जब दम्पति को पुत्र की चाहत होती हैं, वह चाहत पूरी नहीं होने पर उन दम्पति को पुत्र चाहत को पूर्ण करने के लिए भगवान गणपतिजी के इन बारह नामों को रोजाना उच्चारित करना शुरू करने पर गणेशजी का आशीर्वाद मिल जाता हैं और पुत्र सन्तान प्राप्त हो जाती हैं।


अपना उद्धार चाहने वाले को:-जो कोई भी मनुष्य जन्म-मरण की गति से मुक्ति चाहते हो, उन मनुष्य को नियमित रूप से इन बारह नामों वाले संकटनाश के लिए संकष्टनाश्न स्तोत्रम् को बार-बार उच्चारित करना शुरू करना चाहिए, जिससे उन मनुष्य पर भगवान श्रीगणेशजी की अनुकृपा मिल जावे उनका उद्धार होकर मोक्ष गति को प्राप्त हो जावे।


जपेद गणपतिस्तोत्रं षड्भिर्भासैः फलं लभेत्।

संवत्सरेण च संसिद्धिं लभते नात्र संशयः।।


अर्थात्:-मनुष्य को संकटनाश के लिए संकष्टनाश्न स्तोत्रम् के पाठ को रोजाना वांचन करते रहना चाहिए। जो मनुष्य नियमित रूप से वांचन करते हैं, उन मनुष्य को छः मास में अभीष्ट फल की प्राप्ति हो जाती हैं। जो मनुष्य नियमित रूप से गणेशजी का गुणगान संकटनाश के लिए संकष्टनाश्न स्तोत्रम् के द्वारा एक वर्ष तक करते हैं, वे मनुष्य अपनी चाहत के अनुसार ही सिद्धि को प्राप्त कर लेता हैं। इस तरह से इस स्तोत्रं के वांचन से मिलने वाले फल में किसी भी तरह की शंका का कोई स्थान नहीं हैं।


अष्टभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत्।

तस्य विद्या भवेत् सर्वा गणेशस्य प्रसादतः।।


अर्थात्:-जो मनुष्य इस स्तोत्रं को लिखकर आठ ब्राह्मणों को समर्पित करते हैं, गणेशजी उन मनुष्य को समस्त विद्या या ज्ञान रूपी प्रसाद के रूप में दे देते हैं।


।।इति श्रीनारदपुराणे संकटनाशननाम गणेशद्वादशनाम स्तोत्रं संपूर्ण।।


       ।।जय बोलो गौरीपुत्र गणेशजी की जय हो।।


           ।।जय बोलो गणपति जी की जय हो।।