अन्नकूट गोवर्धन पूजा कब हैं? जानें अन्नकूट पूजा विधि, कथा और महत्व (When is Annakut Govardhan Puja? Know Annakoot Puja vidhi, katha and Importance):-हिन्दू धर्म में कार्तिक मास में दिवाली पूजन के दूसरे दिन के पर्व को अन्नकूट पूजा या गोवर्धन पूजा और बाली प्रतिपदा का पर्व को कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि के दिन मनाया जाता हैं। कार्तिक शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को अन्नकूट का उत्सव भी मनाया जाता है।
अन्नकूट का अर्थ:-जिनमें तरह-तरह के अन्न को इकट्ठा करके तरह-तरह की सब्जियों के साथ में मिलाकर एक किया जाता हैं, उसे अन्नकूट कहते हैं। इस तरह अन्नकूट के शब्दों को अलग करने पर दो शब्द प्राप्त होते है, जिनमें एक होता है अन्न एवं दूसरा शब्द कूट होता हैं।
अन्न का अर्थ समस्त तरह के धान्य पर्दाथ होता हैं।
कूट का अर्थ सभी को इक्कठा करके एक समूह बना होता हैं।
इस दिन खरीफ फसलों से प्राप्त अनाज एवं नई सब्जियों को बनाकर भगवान विष्णु का भोग लगाया जाता हैं। ऐसा करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते है:
कार्तिकस्य सिते पक्षे अन्नकूटं समाचरेत्।
गोवर्धनोत्सवं चैव श्रीविष्णुः प्रिवनामिति।।
अन्नकूट पूजा विधि:-इस दिन की पूजा विधि इस तरह हैं।
◆प्रातःकाल घर के द्वार पर गौ के गोबर का गोवर्धन बनाये तथा उसे शिखर युक्त बनाकर वृक्ष शंखादि से संयुक्त और पुष्पों से सुशोभित करें।
◆इस दिन यथा सामर्थ्य छप्पन प्रकार के व्यंजन बनाकर गोवर्धन रूप श्री भगवान को भोग लगाया जाता है। इसको प्रसाद रूप में भक्तों में वितरीत किया जाता हैं।
◆रात में गौ से गोवर्धन का उपमर्दन करवाया जाता हैं।
◆मन्दिरों में विविध प्रकार के पकवान, मिठाईयां, नमकीन और अनेक प्रकार की सब्जियां, मेवे, फल आदि भगवान के समक्ष भोग के लिए सजाये जाते हैं तथा सभी अन्नकूट का दर्शन कर भोग लगाकर आरती करते हैं।
◆फिर भक्तों को प्रसाद रूप में अन्नकूट वितरण करते हैं। ब्रज में इसकी विशेष विशेषता हैं।
◆काशी, मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, बरसाना, नाथद्वारा आदि भारत के प्रमुख मन्दिरों में लड्डुओं तथा पकवानों के पहाड़ या कूट बनाये जाते हैं। जिनके दर्शन के लिए विभिन्न स्थानों से यात्री पधारते हैं।
◆एक-एक करके सभी मन्दिरों में अन्नकूट महोत्सव का आयोजन किया जाता है और दीपावली से कार्तिक पूर्णिमा तक सभी मन्दिरों में ये महोत्त्सव चलता रहता हैं।
अन्नकूट पूजा की पौराणिक कथा:-द्वापर में ब्रज में अन्नकूट के दिन इन्द्र की पूजा होती थी। एक दिन श्रीकृष्ण ने गोप-ग्वालों को समझाया कि गायें व गोवर्धन प्रत्यक्ष देवता हैं। अतः तुन्हें इनकी पूजा करनी चाहिए। क्योंकी इन्द्र तो कभी यहां दिखाई भी नहीं देते। अब तक उन्होंने कभी आप लोगों के बनाये हुए पकवान ग्रहण भी नहीं किये। फलस्वरूप उनकी प्रेरणा से सभी ब्रजवासियों ने इंद्र की पूजा न करके गोवर्धन की पूजा की। स्वयं भगवान श्री कृष्णजी ने गोवर्धन का रूप धारण करके सभी पकवानों या अन्नकूट को ग्रहण किया। जब इन्द्र को यह बात पता चली तो वे अत्यन्त क्रोधित होकर प्रलयकाल के सदृश मूसलाधार वर्षा करने लगे। यह देखकर श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी चिटुडी अंगुली पर धारण किया। उसके नीचे सब ब्रजवासी ग्वाल-बाल, गायें-बछड़े आदि आ गये। लगातार सात दिन की वर्षा से जब ब्रजवासी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो इन्द्र को बड़ी ग्लानि हुई। ब्रह्माजी ने इन्द्र को श्री कृष्ण के परमब्रह्म परमात्मा होने की बात बतायी तो लज्जित होकर इन्द्र ने ब्रज में आकर श्रीकृष्ण से क्षमा मांगी। इस अवसर पर ऐरावत ने आकाश गंगा के जल से और कामधेनु ने अपने दुग्ध से भगवान श्री कृष्ण का अभिषेक किया। जिससे वे गोविन्द कहे जाने लगे। इस प्रकार गोवर्धन पूजन स्वयं श्री भगवान का पूजन हैं। "गोविन्द मेरो हैं, गोपाल मेरो हैं, श्री बांके बिहारी नन्दलाल मेरो हैं।"
अन्नकूट पूजा की पौराणिक कथा:-भगवान की प्रेरणा से शाल्गलीद्वीप में द्रोणाचल की पत्नी से गोवर्धन का जन्म हुआ। भगवान के जाग रूप से वृन्दावन और उनके बावन स्कन्ध से यमुना प्रकट हुई। गोवर्धन को भगवद् रूप जानकर ही सुमेरु हिमालय आदि पर्वतों ने उसकी पूजा की और उसे गिरिराज बनाकर उसका स्तवन भी किया। एक समय तीर्थ यात्रा के प्रसंग में पुलस्त्यजी वहां आये। वे गिरिराज गोवर्धन को देख कर मुग्ध हो उठे और द्रोण के पास जाकर उन्होंने कहा कि मैं काशी निवासी हूँ। एक याचना लेकर आपके पास आया हूँ। आप अपने इस पुत्र को मुझे दे दो। मैं इसे काशी में स्थापित कर वहीं तप करूंगा। इस पर द्रोण पुत्र के स्नेह से कातर तो हो उठे, पर वे ऋषि मांग को ठुकरा न सके। तब गोवर्धन ने मुनि से कहा। "मैं दो योजन ऊँचा और पाँच योजन चौड़ा हूँ। आप मुझे कैसे ले चलेंगे।" मुनि ने कहा-मैं तुम्हें हाथ पर उठाये ले चलूंगा। गोवर्धन ने कहा-महाराज एक शर्त हैं। यदि आप मार्ग में मुझे कहीं रख देंगे तो मैं उठ नहीं सकूंगा। मुनि ने यह शर्त स्वीकार कर ली। ततपश्चात पुलस्त्यजी मुनि ने हाथ पर गोवर्धन उठा कर काशी के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में ब्रजभूमि मिली। जिस पर गोवर्धन की पूर्व स्मृतियां जाग उठी। वह सोचने लगा कि भगवान श्री कृष्ण राधा के साथ यही अवतीर्ण होकर बाल्य और किशोर आदि की बहुत सी मधुर लीलाऐं करेंगे। उस अनुपम रस के बिना मैं न रह सकूंगा। ऐसे विचार उत्पन्न होते ही वह भारी होने लगा। जिससे मुनि थक गये। इधर लघुशंका की भी प्रवृत्ति हुई। स्नान आदि से निवृत्त होकर जब वे गोवर्धन को पुनः उठाने लगे। तब वह न उठा। गोवर्धन ने मुनि को अपनी शर्त की याद दिलवाई और कहा-अब मैं यहां से नहीं हटूंगा। इस पर मुनि को क्रोध आया और वे शाप दे बैठे। तुमने मेरे मनोरथ पूर्ण नहीं किया। इसलिए तुम प्रतिदिन तिल-तिल घटते जाओगे। उसी शाप से गिरिराज गोवर्धन आज भी तिल-तिल घटता जा रहा हैं।
अन्नकूट पूजा का महत्त्व:-अन्नकूट पूजा करने से भगवान श्री कृष्णजी की अनुकृपा प्राप्त होती हैं।
1.अन्नकूट व्रत करने से मनुष्य के जीवनकाल के समस्त संकटों का निवारण हो जाता हैं।
2.मनुष्य के पारिवारिक जीवन में अन्न भण्डार भरा रहता हैं।
