आमलकी एकादशी व्रत(फाल्गुन शुक्ल एकादशी) विधि और कथा:-फाल्गुन महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को आमलकी एकादशी के नाम से जाना जाता है।जो मनुष्य इस व्रत को करता है उसके जीवन में धन-धान्य का भंडार भर जाता है।जो कि होली के दहन से चार दिन पहले आती हैं।
आमलकी एकादशी(फाल्गुन शुक्ल एकादशी) व्रत की विधि:-
◆इस दिन में भगवान का निवास आँवले के वृक्ष में विशेष कर रहता है।
◆इस दिन भगवान की पूजा आँवले के नीचे बैठकर अपने मन को केंद्रित करके करना चाहिए।
◆इस दिन आंवले को खाने से और आंवले को दान के रूप देना चाहिए,क्योंकि आंवले को मुख्य स्थान दिया गया हैं।
◆सबसे पहले सवेरे जल्दी उठकर अपनी दैनिकचर्या से स्नानादि से निवृत होना चाहिए।
◆उसके बाद आंवले के वृक्ष के पास जाकर अरदास करनी चाहिए।
◆उसके बाद आंवले के वृक्ष को जल अर्पण करना चाहिए।
◆फिर आंवले के वृक्ष को धूप,चन्दन,दीप,अबीरं-गुलालं,रोली,फूल,चावल आदि पूजा की सामग्री से पूजा-अर्चना करनी चाहिए।
◆पूजा-अर्चना के बाद में ब्राह्मण को अपने सामर्थ्य अनुसार भोजन करवाकर उनसे अपने लिए आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए।
◆उसके बाद स्वयं भोजन करना चाहिए।
त्रेता युग में एक दिन महाराज मांधाता ने ब्रह्मर्षि वशिष्ठजी से आग्रह किया कि-
हे ऋषिवर!आप मेरी सेवा और मेरे द्वारा किये गए अच्छे कामों से आप खुश हो तो आप से निवेदन करना चाहता हूं।
हे मुनिवर!मुझे ऐसा कोई व्रत या तरीका बताएं जिसके करने से मेरा सभी तरह से भला हो जावें।
महर्षि वशिष्ठ जी ने कहा कि-हे राजाओं में उत्तम महाराज मांधाता!ऐसे तो सभी तरह के व्रत सबसे अच्छे है,लेकिन एक ऐसा व्रत मैं तुम्हें बताता हूँ कि जो को सब व्रतों में सबसे अच्छा व्रत है।वह व्रत फाल्गुन मास में पड़ने वाली शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि का होता है,उस व्रत को आमलकी एकादशी के नाम से जाना जाता हैं।इस आमलकी एकादशी के व्रत को करने व्रती के सभी तरह के किये गए बुरे कर्म और बुरे पापों से मुक्ति मिल जाती है।इस व्रत को करने जो पुण्य एक हजार गायों को दान देने से मिलता है,वही फल इस व्रत से मिलता है।इस व्रत के बारे में मैं आपको एक कथा सुनाता हूँ,आप से अरदास है,की आप अपने मन को एक जगह पर स्थिर करके सनिए-
आमलकी एकादशी व्रत (फाल्गुन शुक्ल माह की एकादशी) कथा:- समय में एक राज्य हुआ करता था।उस राज्य का नाम वैदिक राज्य था।वैदिक राज्य में सभी तरह के लोग रहते थे।उन सभी वर्णों में ब्राह्मण,वैश्य,क्षत्रिय और शूद्र साथ में प्रेमपूर्वक खुशी से रहते थे और एक-दूसरे वर्णों के लोगों का ख्याल भी रखते थे।एक-दूसरे के सुख-दुःख में साथ देते थे।उस वैदिक राज्य की नगरी में हमेशा धर्म-कर्म के लिए वेदों के शब्दों का उच्चारण गुंजा करता था।उस वैदिक नगरी में कोई भी तरह के पाप,बुरे काम और बुरे आचरण वाले काम नहीं होते थे,केवल ईश्वर का गुणगान हुआ करता था।वैदिक नगरी में पर चैत्ररथ नाम का चन्द्रवंशी नृप शासन करते थे।
सभी नगरी के वासी भगवान लक्ष्मीपति नारायण जी बहुत ज्यादा विश्वास से भक्ति के भाव रखते हुए उनकी पूजा-अर्चना किया करते थे।सभी नगर के वासी विधि-विधान से समस्त एकादशियों का व्रत किया करते थे।हर साल की तरह फाल्गुन महीने की शुक्ल पक्ष की तिथि आयी, इस तिथि के व्रत को आमलकी एकादशी व्रत कहा जाता है।।उस दिन राजा,सभी प्रजा तथा बालक-बूढ़े सभी ने खुशी के साथ व्रत को किया।
राजा अपनी समस्त प्रजा के लोगों के साथ मन्दिर में जाकर कुम्भ घट की स्थापना की और बाद में षोडशोपचार-कर्म- पाद्य,आचमन,धूप,दीप,नैवेद्य,पंचरत्न आदि से आंवले की पूजा-अर्चना की उसके बाद राजा तारीफ करते हुए कहने लगे-हे अमृतफल!आप का जन्म ब्रह्माजी के द्वारा हुआ है एवं आपको खुश करने से आप खुश होकर उसके सभी तरह के गलत कार्यों और सभी बुरे पापकर्मों को समाप्त कर देने वाले हो,इसलिए आपको मैं नमस्कार करता हूँ।आप मेरे द्वारा दिये जाने वाले अर्ध्य को ग्रहण करें।
आपको भगवान श्रीरामजी भी मान-सम्मान देते है।मेरी आपसे अरदास है,की आप मेरे द्वारा की जा रही पूजा को मंजूर करें और मेरे सभी तरह के पापों को समाप्त करें।
इस तरह राजा ने अरदास से अपनी पूजा पूर्ण की और समस्त प्रजाजनों के साथ राजा ने मंदिर में रात भर अमृतफल के गुणगान करते हुए रात भर जागरण किया।उसी रात में एक शिकार करने वाला बहेलिया मन्दिर के परिसर में आया।
जो बहुत ही बुरे आचरण वाला,गलत काम करने वाला और पाप कर्म करने वाला था। वह बहेलिया अपनी गृहस्थी जीवन में अपने परिवार के लोगों का पालन-पोषण करने के लिए हमेशा जीव-जानवरों को मारता था,उन मारे हुए जीव-जानवरों से अपने परिवार के जनों का पेट भरता था।इस तरह उस दिन कोई भी जीव-जानवर नहीं मिलने से वह दुःखी था और भटकते-फिरते वह उस मंदिर के परिसर के पास आ गया।स्वयं भूख-प्यास से बेहाल था और शिकार नहीं मिलने से उसे अपने परिवार के जनों के भूख की चिंता सता रही थी।
इस तरह खुद भूखा चिंतित था।इस तरह अपनी भूख-प्यास की याद को भुलाने से बचने के लिए वह मंदिर के परिसर के एक कोने की जगह पर जाकर बैठ गया।इस तरह मंदिर परिसर चल रही भगवान लक्ष्मीपतिविष्णुजी की और एकादशी महत्व की कथा को सुनने लगे।
इस तरह उसने राजा सहित समस्त प्रजाजनों की तरह उसने भी भगवान विष्णुजी और एकादशी व्रत की कथा को सुनते हुए और गुणगान को सुनते-सुनते उसने भी वही अपनी रात्रि को जागते हुए बिताई।जब सुबह सूर्य उगने पर वह अपने घर जाता है और भोजन को करता है।इस तरह समय बीतने पर उसकी कुछ काल के बाद उसकी मृत्यु हो गई।
आमलकी एकादशी के व्रत की महिमा को उसने रातभर सुनते हुए भगवान के गुणगान को सुनने से और अगले दिन उसने भोजन करने के कारण उसका व्रत हो गया।इस व्रत के प्रभाव से वह जब वह बहेलिया अपना अगला जन्म लेता है तो वह एक राजा के घर पर जन्म मिलता है,उस राजा का नाम विदुरथ था।
इस तरह राजा के यहां पुत्र के रूप में होने से उसका नाम वसुरथ रखा जाता है।जब अपने बाल्यकाल से युवावस्था में प्रवेश करता है,तो उस वसुरथ को चारों सेना जैसे- हस्ती,अश्व,रथ और पैदल सेना तथा दौलत-धान्य आदि से युक्त होकर वह दस हजार गांवों का पालन करने लगा।उसमें भास्कर की तरह तेजता,सोम की तरह चमक और धरती के समान सबको धारण करने के गुण थे।वह बहुत ही धर्म-कर्म के भाव को रखने वाला,हमेशा सच बोलने वाला,कर्मवीर और भगवान विष्णुजी में परम आस्था रखने वाला था।वह अपनी प्रजा के जनों को अपने पुत्र की तरह मानते हुए सबके प्रति समान भाव रखने वाला,हवन-यज्ञ करने वाला और अपने द्वार में आये हुए एवं सबको दान करना हमेशा अपना फर्ज समझता था।
एक बार राजा वसुरथ का मन शिकार करने का हुआ, इसलिए वह अपने कुछ अंगरक्षक के साथ शिकार करने के लिए जंगल में जाता है।इस तरह शिकार का पीछा करते-करते हुए अपने अंगरक्षकों से बहुत दूर निकल गया और अपने अंगरक्षकों के जाने का रास्ता भटक जाता है।इस तरह भटकते-भटकते हुए वह थक कर एक वृक्ष के नीचे बैठ जाता है।
लेकिन अपनी थकावट से उसे उस वृक्ष के नीचे नींद आ जाती है।उस जंगल में निवास करने वाली पहाड़ी म्लेच्छ जाती के लोग वहां से गुजरते है तो उनको राजा अकेला दिखाई देता है,तो वे सभी म्लेच्छ जाती के लोग जोर-जोर से चिलाने लगते है,की 'मारो-मारो'की तेज आवाज से चिलाते हुए वे राजा की तरफ दौड़ते है।वे म्लेच्छ जाति के लोग कहते है कि इसी बुरे राजा ने हमारे माता-पिता,पुत्र-पुत्री आदि अपने कुल के लोगों एवं अनेक रिश्तेदारों को मारा है तथा अपने राज्य से निकाल दिया था।इसलिए इस राजा निश्चित ही मारना चाहिए।
इस तरह बोलने के बाद सभी म्लेच्छ जाति के लॉगिन अपने अस्त्रों-शस्त्रों से चोट करने लगे।इस तरह बहुत ही सारे अस्त्र-शस्त्र राजा के शरीर पर गिरने लगे और गिरते ही समाप्त हो जाते थे और उन अस्त्र-शस्त्र का वर फूलों की तरह महसूस होता था।अब जो म्लेच्छ अस्त्र-शस्त्र राजा पर चोट फेंकते वे अस्त्र-शस्त्र वापिस लौटकर उन म्लेच्छों पर चोट करने लगे,जिससे सभी म्लेच्छ गेल होने लगे।
इस तरह वार से राजा बेहोश हो गए।उस समय राजा की देह से एक दिव्य औरत उत्पन्न हुई।वह औरत अच्छे कपड़ो और तरह-तरह के आभूषणों को पहने हुए थी।लेकिन उस सुंदर औरत की भृकुटि तिरछी और उसके नेत्रों से रक्त के रंग की ज्वाला निकल रही थी।
वह औरत म्लेच्छों को मारने की दौड़ी और कुछ ही समय में उसने सभी म्लेच्छों को मौत के घाट उतार दिया। जब राजा की बेहोशी दूर हुई तो अपनी बेहोशी की नींद से जागते ही देखा कि चारों तरफ बहुत ही सारे म्लेच्छों के लोग मरे हुए पड़े।इस तरह उन मरे हुए म्लेच्छों के लोगों को देखकर मन में विचारने लगे,की इन दुश्मन रूपी म्लेच्छों को किसने मारा होगा?
इस तरह वह सोच ही रहा था कि तभी आकाशवाणी हुई-हे राजन! इस जगत् में भगवान विष्णुजी के अतिरिक्त कौन तुम्हारी मदद कर सकता है।इस तरह आकाशवाणी के शब्दों को सुनकर राजा बहुत ही खुश हुआ और अपने राज्य की ओर चल पड़ा एवं अपना जीवन सुखपूर्वक बिताया।
समय-समय पर राजा सहित पूरी प्रजा इस व्रत करती रही जिससे उस राज्य में सुख-शांति और धन-संपदा हमेशा के लिए बनी रही थी।इस तरह व्रत के प्रभाव से राजा को जीवन-मरण के बंधन से मुक्ति मिल जाती है और भगवान विष्णुजी के विष्णुधाम में भगवान चरणों की सेवा का मौका मिलता है।
महर्षि वरिष्ठ जी आगे कहते-हे राजन!यह आमलकी एकादशी के व्रत का प्रभाव था।जो मानव इस फाल्गुन शुक्ल पक्ष की आमलकी एकादशी का व्रत करता है,उस मानव के सब तरह के काम में सफलता मिलती हैं।उस व्रत करने वालों को विष्णुधाम में निवास करने का मौका मिलता है और जीवन-मरण के चक्कर से मुक्ति मिलती है।
गोस्वामी तुलसीदास भी सत्संगति के महत्व को अपने कथन में बताया है कि-
"एक घड़ी आधी घडू,आधी की पुनि आध।
तुलसी संगति साधु की,कटै कोटि अपराध।।
अर्थात्:-जब मनुष्य साधु-संतो की संगति करते है,तो उनके सभी अपराध ईश्वर माफ कर देते हैं।