वट सावित्री व्रत विधि और कथा(Vat Savitri fast method and story):-वट्देव हैं। वट् वृक्ष के मूल में भगवान् ब्रह्माजी, मध्य में जनार्दन विष्णु जी और अग्रभाग में देवाधिदेव महादेवजी स्थित रहते हैं। देवी सावित्री भी वट् वृक्ष में प्रतिष्ठित रहती हैं। प्रयागराज में गंगा के तट पर वैणी माधवजी के निकट अक्षय वट् प्रतिष्ठित हैं। वट सावित्री व्रत सौभाग्यवती औरतों का प्रमुख त्यौहार माना जाता हैं। यह वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ महीने के कृष्ण पक्ष की अमावस्या तिथि को किया जाता हैं। यह स्त्रियों का महत्वपूर्ण पर्व हैं। सौभाग्यवती स्त्रियां व अन्य सभी स्त्रियां (कुमारी, विवाहिता, विधवा, कुपुत्रा, सुपुत्रा आदि) इसे करती हैं।
इस व्रत को करने का विधान त्रयोदशी से पूर्णिमा तथा अमावस्या तक है। प्रायः आजकल अमावस्या को ही इस व्रत का नियोजन होता हैं। इस दिन सुहागिन स्त्रियां बड़ के पत्तों से आभूषण बनाकर पहनती हैं।
इस अमावस्या तिथि के दिन वट अर्थात बरगद के वृक्ष की पूजा की जाती है। इस दिन सत्यवान-सावित्री और यमराज की पूजा-अर्चना की जाती हैं। स्त्रीयां इस व्रत को अखण्ड सौभाग्यवती अर्थात अपने पति की लम्बी उम्र,स्वास्थ्य और तरक्की के लिए करती है। सावित्री ने इसी व्रत को करके यमराज से अपने पति के प्राणों की रक्षा की थी।यमराज को इस व्रत के प्रभाव से सत्यवान को पुनः प्राणजीवन देना पड़ा था।
वट सावित्री व्रत का विधि-विधान :-वट सावित्री व्रत के दिन औरतें प्रातःकाल जल्दी उठकर अपने बालों को भिगोते हुए पूर्ण रूप स्नान करना चाहिए।
◆उसके बाद एक बांस की टोकरी में शुद्ध जगह की रेत या मिट्टी को भरकर लाना चाहिए। फिर उस मिट्ठी या रेत पर श्रीब्रह्माजी की मूर्ति को स्थापित करना चाहिए।
◆ब्रह्माजी के वाम-पार्श्व में सावित्री की मूर्ति को भी स्थापित करना चाहिए।
◆इसी तरह दूसरी बांस की टोकरी में रेत या मिट्टी भरकर उसमें सत्यवान और सावित्री की मूर्ति को स्थापित करना होता है।
◆फिर दोनों टोकरियों को वट वृक्ष के नीचे स्थापित करना चाहिए।
◆उसके बाद सबसे पहले ब्रह्माजी और सावित्री की पूजा-अर्चना करना चाहिए।
◆फिर सत्यवान और सावित्री की पूजा-अर्चना करते है।
◆फिर वट के वृक्ष को पानी से सिंचन करना चाहिए।फिर वट वृक्ष की पानी, फूल, रोली, कंकु, अबीर-गुलाल, मौली, कच्चा सूत, भिगोया हुआ चना, गुड़, धूप और दीपक से पूजा करके अर्चना करनी चाहिए।
◆औरतों को अपने हाथ में पानी का भरा कलश लेकर वट वृक्ष को चढाना चाहिए और तीन परिक्रमा करनी चाहिए।
◆परिक्रमा करते समय अपने हाथ में कच्चा सूत लेकर जैसे-जैसे परिक्रमा करते जाए वैसे-वैसे उस कच्चे सूत को वट वृक्ष के चारो ओर लपेटना चाहिए।
◆वट सावित्री की कथा को सुनने के समय वट वृक्ष के पतों के गहने बनाकर पहनना चाहिए।
◆भीगे हुए चने के बयाना को निकालकर उस पर अपनी श्रद्धा के अनुसार रुपये को रखकर अपनी सासुजी देना चाहिए और सासुजी से आशीर्वाद को प्राप्त करना चाहिए।
◆यदि सासुजी अपने स्थान पर नहीं होने व दूसरी जगह होने पर चने के बायना बनाकर अपनी सासुजी जहाँ पर हो उस स्थान पर भेजना चाहिए।
◆हर दिन स्त्री को सुहागिन स्त्री का पान, सिंदूर और कुमकुम से पूजा करने का शास्त्रों में बताया गया है।
◆यह सब प्रक्रिया सावित्री और वट वृक्ष की पूजा करने के बाद से ही शुरू करनी चाहिए।
◆पूरे विधि-विधान से पूजा होने के बाद ब्राह्मणों को अपने सामर्थ्य के अनुसार कपड़े, फल और दक्षिणा आदि को बांस के पत्ते में रखकर दान के रूप में देना चाहिए।
◆ब्राह्मणों से आशीर्वाद को प्राप्त करना चाहिए।
◆यदि नजदीक में वट वृक्ष नहीं होने पर अपने घर की दीवार पर वट वृक्ष की तस्वीर को चिपका कर उस तस्वीर की पूजा अपनी आस्था और श्रद्धापूर्वक करनी चाहिए।
◆सबसे अंत में वट सावित्री की कथा को अपने मन को एक जगह पर स्थिर करके विश्वास के साथ श्रद्धापूर्वक सुनना चाहिए।
वट सावित्री व्रत की पौराणिक कथा:-बहुत पुराने समय में मद नाम का एक देश था। उस मद देश पर अश्वपति नाम का राजा राज्य करता था। अश्वपति राजा बहुत ज्ञानी एवं प्रतापी था। अश्वपति राजा के बहुत समय तक सन्तान नहीं हुई थी जिससे राजा और रानी को सन्तान नहीं होने का बहुत ही दुःख सहन करना पड़ता था। इस तरह अपने ज्ञानी जानकर व्यक्तियों व राजपुरोहित से समस्या के लिए उपाय पूछा और उपाय स्वरूप राजा को जानकारी हुई कि ब्रह्माजी की पत्नी सावित्री जी की पूजा से सन्तान की अवश्य ही प्राप्ति हो सकती है। राजा अश्वपति और उसकी रानी ने सन्तान को पाने के लिए सावित्री जी को खुश करने के लिए व्रत-तप करने शुरू किए। विधिपूवर्क व्रत को लगातार बारह वर्षो तक करते रहे। बारह वर्ष की पूजा-तप के बाद सावित्री जी खुश हुई और राजा को कहा मैं तेरी पूजा-तप से खुश हूँ। मैंने वरदान देना चाहती हूं। जो मांगो तुम्हें प्राप्त होगा।
इस पर राजा अश्वपति ने कहा- की हे माते। मैं सन्तानहीन हूँ। इसलिए आप मुझे सन्तान होने का वरदान देवे।
तब सावित्री माता ने कहा- हे राजन! तुम्हारे भाग्य में सन्तान का योग नहीं है। लेकिन मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ, की तुम्हारे यहां एक पुत्री सन्तान का जन्म होगा। माता सावित्री जी के आशीर्वाद से अश्वपति राजा को एक लड़की हुई थी। राजा ने उसका नाम सावित्री रखा। सावित्री सभी गुण से युक्त थी। सावित्री सुंदर और बुद्धिमति थी। सावित्री दिनों-दिन बड़ी होती गयी। कोई भी राजकुमार उसके साथ विवाह करने के लायक नहीं था। इसलिए राजा को चिंता होने लगी। तब एक दिन राजा अपनी पुत्री सावित्री से कहा-तेरे साथ में प्रधानजी को भेज रहा हूँ। जो तुम्हें पसन्द आये वह राजकुमार तुम ढूंढ लेना।
फिर मैं तेरा उसके साथ विवाह कर दूंगा। राजकुमारी और प्रधानजी वर ढूंढने के लिए निकले। घूमते-घूमते एक जंगल में गए। वहां पर एक ऋषि का आश्रम था। वहां पर राजा धुमत्सेन अपनी पत्नी और पुत्र के साथ रहते थे। वह राजा अंधा होने से राज्य उसके हाथ से निकल गया। राजा यहीं पर कुटियां बनाकर अपनी पत्नी और बेटे के साथ रहकर भगवान का भजन करता था। उनके सत्यवान नाम का एक बेटा था। वह सुन्दर व गुणवान था। सावित्री को वर के रूप में सत्यवान ही पसन्द आया। इस तरह सावित्री अपने वर का चयन करके प्रधानजी के साथ अपने राजमहल लौट आई।
तब राजा अश्वपति ने पूछा-कि हे पुत्री क्या तुम्हें कोई योग्य वर की प्राप्ति हुई?
तब सावित्री ने कहा-हे पिताश्री! मुझे योग्य वर को चुन लिया। तब सावित्री ने पूरी बात को अपने पिता को बताया। तब उसके पिता आश्वस्त हो गए।
इस तरह कुछ समय बीतने पर एक दिन नारदजी राजा अश्वपति के यहाँ पर आए। तब सावित्री ने आदरपूर्वक नारदजी को देखा तो उनको प्रणाम किया।
तब नारदजी ने पूछा- की बेटी तुमने कौनसे राजकुमार को पसन्द किया है। तब सावित्री ने नम्रता से कहा-हे नारदजी! मैंने राजा धुमत्सेन, जिनका राज्य दूसरे राजा ने छीन लिया गया है, जो अंधे होकर अपनी पत्नी के साथ वनों में भटक रहे है, उन्हीं के एकमात्र आज्ञा को मानने वाले पुत्र सत्यवान को पसन्द किया हैं और मैंने अपने मन मूर्त में उनको अपना पति मान लिया है।"
तब नारदजी यह बात सुनकर विचार में पड़ गए और नारदजी ने सत्यवान एवं सावित्री के ग्रहों की गणना करके उसके भूत, वर्तमान और भविष्य को देखकर विचार करने लगे। नारदजी को चिन्ता में देककर राजा ने पूछा-कि इस वर में कोई कमी हैं क्या?
तब नारदजी ने कहा-हे राजन! तुम्हारी लड़की ने बिल्कुल ही बिना किसी शंका के योग्य व गुणवान वर का चयन किया है, राजकुमार सत्यवान तो बड़ा ही सुन्दर व सुशील है। सत्यवान सावित्री के लिए सभी तरह ही योग्य है, लेकिन एक बहुत बड़ा उसके भाग्य में दोष है कि उसकी उम्र बहुत ही कम है और वह एक वर्ष के बाद अर्थात जब सावित्री बारह वर्ष की हो जायेगी तो उसकी मृत्यु हो जाएगी। नारदजी की इस तरह की भविष्यवाणी को सुनकर राजा अश्वपति ने अपनी पुत्री सावित्री की बहुत समझाया की वह कोई दूसरा वर खोज कर पसन्द कर लेवे।
सावित्री बोली-"पिताजी! आर्य कन्या अपने पति का एज बार ही वरण करती हैं, बार-बार नहीं।मैंने सत्यवान को अपने मन में पति की जगह दे दी है, अब चाहे वह कम उम्र हो या पूर्ण उम्र के, मैं किसी दूसरे को अपने हृदय में जगह नहीं दे सकती हूँ। अब जैसा ही होगा मुझे यह मंजूर है। अब मेरा पति तो सत्यवान ही होगा।"
सावित्री ने आगे कहा- "पिताजी, आर्य कन्याएँ अपना पति जीवन में एक बार ही चुनती है। राजा एक बार ही आज्ञा देते है, पण्डित एक बार ही प्रतिज्ञा करते है तथा कन्यादान भी एक बार ही किया जाता है। अब चाहे जो हो सत्यवान ही मेरा पति होगा।
राजा और नारदजी ने बहुत समझाया, लेकिन सावित्री अपने वचन पर अडींग रही। राजा-रानी लाव लश्कर सहित उस अरण्य वन में गये और खूब धूमधाम से सावित्री का विवाह राजकुमार सत्यवान के साथ कर दिया। राजा-रानी ने अपनी बेटी सावित्री को खूब दहेज दिया तो सावित्री ने सभी वस्तुओं को वापिस करते हुए नम्रता से अपने माता-पिता से कहा-मुझे तो इस जंगल में रहना है। यह कहकर सभी दहेज की वस्तुओं को लौटा दिया।
सावित्री ने नारदजी से अपने पति की मृत्यु का समय जान लिया था। सावित्री अपने पति और सास-ससुर की सेवा करती हुई अपने पति के साथ ससुराल में आनन्द से उस जंगल में रह रही थी।इस तरह समय बीतता गया और से सावित्री बारह वर्ष की हो गयी। लेकिन वह नारदजी की भविष्यवाणी को भूली नहीं थी। नारदजी के वचन उसको दिन-प्रतिदिन परेशान करते रहे। आखिर में जब नारदजी के कथनानुसार उसके पति के जीवन के तीन दिन बचें थे।
तब वह अपने सास-ससुर से बोली- कि घर की सुख-शान्ति के लिए मुझे कुछ दिन एकान्त में रहना पड़ेगा। वह उपवास करने लगी। नारदजी द्वारा कथित निश्चित तिथि पर पितरों का पूजन किया। सावित्री ने दो दिन एकान्त में बिताये। तीसरे दिन सत्यवान जब जंगल में लकड़ी लेने जाने लगा। तब सावित्री ने अपने पति देव से प्रार्थना की पति देव आज तक मैंने आपकी आज्ञा का पालन किया है। आज मेरे मन में आपके साथ वन में जाने की इच्छा हुई हैं।
जो मैं अपने सास-ससुर की आज्ञा लेकर आपके साथ वन में चलूंगी। सास ने कहा-बेटी तुम दो-तीन दिन की भूखी-प्यासी हो और कभी चले जाना। लेकिन सावित्री को नारदजी की भविष्यवाणी याद थी। वह तो जिद्द करके सास-ससुर से आज्ञा लेकर वन में चली गयी। सत्यवान पूरा दिन लकड़ी काटकर लाया और वन में फल तोड़कर दोनों ने खाना खाया।
शाम हुई तब सत्यवान ने सावित्री से कहा- कि मेरा सिरदर्द हो रहा है। तेरी गोद में सोने दे। सावित्री को शंका हुई कि अब समय नजदीक आ गया है। सत्यवान को अपनी गोद में सुलाया और सत्यवान को नींद आने लगी तो सावित्री को एक आश्चर्य हुआ। क्योंकि उसके पास में एक कालाकट आदमी आ रहा था। उसके हाथ में एक डोरी का फंदा था और वह सावित्री को बड़ा ही तेजस्वी लग रहा था। उसने देखा कि वह फंदा सत्यवान के गले में डालकर रस्सी से उसे खींच लिया और सत्यवान के प्राण ले लिये।
जब सावित्री ने भी अपने बल से पूछा- महाराज!आप कौन हैं और यह क्या कर रहे हो? तब वह बोला- मैं यमराज हूँ और तेरे पति के प्राण ले जाने के लिये आया हूँ। मेरे दूत बार-बार आते हैं और तेरे पति का पुण्य उसे ले जाने नहीं दे रहे हैं। इसलिये मैं खुद आया हूँ। अब तुम अपने पति का दाह संस्कार कर और अपने सास-ससुर के साथ अपने घर चली जा। सास-ससुर की सेवा करना। इतना कहकर यमराज जाने लगे तो सावित्री भी उसके साथ पीछे-पीछे जाने लगी। यमराज ने देखा कि यह तो मेरे पीछे-पीछे आ रही है।
तब यमराज ने कहा- तुम मेरे पीछे-पीछे क्यों आ रही हो? सावित्री ने कहा- मैं पति के बिना कहां रहूंगी? आपके साथ चलूंगी तो शायद मुझे ज्यादा पूण्य होगा। सावित्री के इस मीठे उत्तर से यमराज बहुत प्रसन्न हुए और कहा- तुम एक वरदान मांग लो।
तब सावित्री ने कहा- मेरे अंधे सास-ससुर को आंखे व राजपाट वापिस दिला दो। तथास्तु कहकर यमराज जाने लगे। फिर भी सावित्री ने उनका पीछा किया। यमराज ने देखा यह तो फिर भी मेरे पीछे-पीछे आ रही हैं। उन्होंने फिर सावित्री को घर जाने के लिये कहा। सावित्री ने फिर पहले वाला ही जबाव दिया कि पति के बिना मैं कहां रहूंगी।
यमराज ने फिर सावित्री की बात से संतुष्ट हुए व दूसरा वरदान मांगने के लिये कहा- सावित्री ने दूसरे वरदान में अपने पिता का वंश बढ़ाने वाला भाई मांगा, जो सुंदर व वीर हो। यमराज ने फिर तथास्तु कहा और आगे चल दिये। सावित्री ने फिर भी यमराज का पीछा नहीं छोड़ा। यमराज ने पीछे मुड़कर कहां की तुम अब वापिस घर लौट जाओ बहुत अंधेरा व देर हो गयी है। सावित्री फिर भी नहीं मानी।
यमराज ने कहा- मैं तुम्हारे ऊपर बहुत ही प्रसन्न हूँ। तुम तीसरा वरदान मांग लो तुम्हें क्या चाहिये? सावित्री बोली- मैं अर्जुन जैसे सौ पुत्र की माता बनु। यमराज ने तथास्तु कहा और आगे जाने लगे।
लेकिन सावित्री ने उनको रोका और कहा- मेरे पति को आप अब भी कहां ले जा रहे हो? मेरे पति को प्राण दिये बिना मेरे सौ कैसे होंगे? ऐसे तो आपका वचन झूठा हो जायेगा।
यमराज भी सोच में पड़ गये और कहा- तुमने तो अपनी मीठी वाणी से मुझे पूरा ही ठग लिया। तुम्हारे पति के प्राण मेरे को वापिस देने ही पड़ेंगे। यमराज तो सत्यवान को वापिस प्राण देकर स्वर्ग में पधार गये। सावित्री वापिस उसी वृक्ष के नीचे आई। पति सत्यवान गहरी नींद से उठ गये। सत्यवान ने अपनी पत्नी से कहा- आज तो मुझे बहुत गहरी नींद आयी हैं।
तब सावित्री ने उनके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- ऐसी नींद तो बैरी दुश्मन को भी नहीं आनी चाहिये। पति-पत्नी दोनों घर के लिए रवाना हुए। इधर मां-बाप की आंखे वापिस आ गयी। इधर राज्य के प्रधानजी दौड़े आये की आप महल पधारो और अपने राज्य को संभालों। मैं हाथी-घोड़े पर आपको को लेने के लिये आया हूँ। इधर सत्यवान और सवित्री भी घर पहुंच गये। अपने सास-ससुर को पूरी बात बतायी। मां-बाप और सास-ससुर ने सावित्री को बहुत-बहुत आशीर्वाद दिया।
फिर सत्यवान और सावित्री ने राजपाट सहित वर्षों तक राज्य किया और अपने पिता के भी पुत्र हुआ और सावित्री का भाई। सावित्री भी यमराज के आशीर्वाद से सौ पुत्रों की मां बनी। यमराज जिस तरह से सावित्री पर प्रसन्न हुए, वैसे ही सभी कहानी कहने वाले को, सुनने वाले को और व्रत करने वाले पर यमराज भी प्रसन्न होना।