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Tuesday, August 10, 2021

रक्षाबंधन कब से और क्यों मनाया जाता है(When and why is Raksha Bandhan Celebrated)



रक्षाबंधन कब से और क्यों मनाया जाता है(When and why is Raksha Bandhan Celebrated):-हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार रक्षाबंधन पर्व प्रत्येक वर्ष श्रावण महीने के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है, जो कि अंग्रेजी महीने के अनुसार अगस्त माह होता हैं। इस पर्व को भगवान श्री कृष्ण जी के जन्म के दिन अर्थात् जन्माष्टमी के दिन तक मनाया जा सकता है, जन्माष्टमी की तिथि भाद्रपद महीने कृष्ण पक्ष में अष्टमी तिथि को माना जाता हैं। इसलिए किसी वजह से यह पर्व रक्षाबंधन के दिन भाइयों की कलाई पर बहिन के द्वारा रखी नहीं बांध पाने पर भी बहिनों को आठ दिवस और भी मिल जाते हैं। राजस्थान में तो गोगानवमी तिथि तक भी मनाया जाता है।


"रक्षाबंधन का अर्थ":-रक्षाबंधन दो शब्दों से मिलकर बना है, इनका विच्छेद करने पर दो शब्द एक शब्द रक्षा और दूसरा शब्द बन्धन बनते है। 

"रक्षा" का अर्थ":-रक्षा का मतलब है कि किसी भी जीवन में उसकी सुरक्षा करना होता है, जो की किसी भी तरह की मुसीबत होता है, उसे बचाने को ही रक्षा करना कहते है। यह अनेक रूपों में हो सकता है जैसे भाई के द्वारा बहिन की, माता-पिता के द्वारा अपनी संतान की और कोई मुश्किल हो तो उसको बचाना आदि के रूप में होता हैं।

"बन्धन" का अर्थ":-बन्धन का मतलब है कि किसी के जीवन पर ऐसी विपति आना की वह सब तरफ से घिरा हुआ महसूस करे, उसे उस जाल से निकलने का कोई रास्ता नहीं देखे, उसे बन्धन कहते है। जैसे किसी तरह खाई होना और किसी तरफ कुआँ होना अर्थात् दोनों तरफ उस व्यक्ति के लिए बच पाना मुश्किल रहता है, उसी तरह बन्धन एक जाल की तरह होता है, जो फस जाता है, उसको निकलना मुश्किल हो जाता है।

"रक्षाबंधन का अर्थ':-किसी के द्वारा फंसे हुए एवं मुश्किल समय में से बचाने को उस फसे हुआ को निकाल कर उसकी सुरक्षा करना होता है, उसके लिए अपना सुरक्षा जाल लगाना जिससे उसको किसी भी के द्वारा हानि नहीं हो पावे उसको ही रक्षाबंधन कहते हैं।

रक्षाबंधन के पर्व का बहिनों को मुख्य रूप से इंतजार रहता हैं, क्योंकि इस दिवस वे अपने भाइयों की कलाई पर राखी अर्थात् रक्षासूत्र बांधती है और उनके उज्ज्वल भविष्य की ईश्वर से कामना करती हैं। भाइयों की लम्बी उम्र की कामना करती हैं। भाइयों एवं बहिनों के मधुर मिलन का पर्व होता है, जो कि एक-दूसरे के प्रति लगाव एवं स्नेह को प्रदर्शित करता हैं। भाई-बहिन का हार्दिक व पवित्र प्रेम और भावना ही इस पर्व का मुख्य आधार होता हैं।

श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाता है। इसमें पराह् णव्यापिणी तिथि को ली जाता हैं। यदि वह दो दिन हो या दोनों ही दिन न हो तो पूर्वा लेनी चाहिए। यदि उस दिन भद्रा हो तो उसका त्याग कर देना चाहिए। भद्रा में श्रावणी और फाल्गुनी दोनों ही वर्जित है, अन्यथा मनुष्य का का अनर्थ हो जाता हैं, श्रावणी से राजा और फाल्गुनी से प्रजा का अनिष्ट होता है-

भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा।

श्रावणी नृपतिं हन्ति ग्रामं दहति फाल्गुनी।।

अर्थात्:-देवताओं के लोक में रक्षाबंधन और उनके देखादेखी में पृथ्वी लोक के मनुष्यों के द्वारा रक्षाबंधन का प्रचलन हुआ था। उस प्रचलन में बहुत ही भिन्नता है। इस भिन्नता के रूप में रक्षा से अभिमंत्रित धागों को देवलोक में पत्नी द्वारा अपने पति की कलाई पर बांधा जाता रहा है, जबकि पृथ्वी लोक के मनुष्यों के द्वारा बहिन के द्वारा अपने भाई की कलाई पर बांधा जाने लगा हैं।


रक्षाबंधन पर्व की उत्पत्ति के कारण:-रक्षाबंधन पर्व को मनाने के पीछे अनेक प्राचीन धर्म ग्रन्थों और इतिहास के प्राचीन पन्नों में उल्लेख मिलता है, की इस पर्व को क्यों मनाया जाता है? इसका क्या कारण है? इसको मनाने से क्या फायदे होते है? रक्षाबंधन पर्व की उत्पत्ति के विषय के बारे निम्नलिखित जानकारी प्राप्त होती है, जो इस तरह है:

पुराने इतिहास के मतानुसार-:हमारे हिंदुस्तान के इतिहास के पुराने पन्नों में हमें इस बात प्रमाण मिलता है, की भाई अपनी बहिन थोड़ी सी भी मुसीबत के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार रहते थे। उनमें धर्म-जात-पात का कोई महत्व नहीं था। चाहे सगी बहिन हो या धर्म के रूप में बनाई हुई बहिन हो। इसका ज्वलन्त उदाहरण हमारे सामने है, जो कि इस तरह है:जब मुगलों का अधिपत्य हिंदुस्तान पर हो गया था तब चितोड़ की रानी कर्णावती के राज्य पर शत्रुओं ने घेरा डाल दिया था, तब रानी कर्णावती ने अपने धर्म के भाई दिल्ली के मुगल सम्राट हुमायूँ को अपने सन्देशवाहक के हाथ अपने राज्य की रक्षा करने के लिए राखी भेजी थी। क्योंकि रानी कर्णावती के पति का देहांत हो गया था, शत्रुओं ने राज्य पर आक्रमण कर दिया था। इस हालत में रानी कर्णावती बेसहारा एवं बहुत तकलीफ में थी। जब सम्राट हुमायूँ को रानी कर्णावती के सन्देशवाहक के द्वारा सन्देश के रूप में राखी मिली तो सम्राट हुमायूँ राखी को स्वीकार किया और अपने सेना को लेकर अपनी बहिन की रक्षा के लिए तत्काल निकल पड़े थे। अपनी धर्म की बहिन की रक्षा एवं मान-सम्मान के लिए गुजरात के मुस्लिम राजा से युद्ध किया और उसको पराजित किया था। इस तरह बहिन की रक्षा के लिए अपनी जिम्मेदारी को पूरा करने का प्रयत्न सम्राट हुमायूँ ने पूरा किया था। इस तरह एक मुस्लिम राजा भी रक्षाबंधन के पर्व के निमित राखी का मान रखा था। भाई-बहिन के प्रति स्नेह को कायम रखा था।


धर्म ग्रन्थों के अनुसार:-देवलोक में सबसे पहले इस रक्षाबन्धन के पर्व को मनाने का प्रचलन शुरू हुआ था। जिनमें सबसे प्रथम बार देवलोक के राजा इन्द्रदेव की भार्या द्वारा अपने पति की कलाई पर राखी के रूप में रक्षासूत्र का धागा बांधा था, जो कि अपने पति की दैत्यों पर विजय की कामना के लिए बांधा था।

एक बार दानवों एवं देवताओं के मध्य में बहुत ही भयंकर युद्ध की स्थिति हो गई थी, यह युद्ध की स्थिति ऐसी बनी की इन दोनों के बीच में लगातार बारह वर्षों तक युद्ध भयंकर रूप से चलता रहता था। ऋग्वेद में इस महासंग्राम का मुख्य रूप वर्णन मिलता है, इस महासंग्राम को ही वैदिक इतिहास में देवासुर संग्राम के नाम से जाना जाता है। इस तरह युद्ध के लगातार होते रहने से देवताओं के राजा इन्द्रदेव इस युद्ध में हार जाते है। सभी देवताओं की चमक कमजोर हो जाती है और वे सब निराश हो जाते है। इंद्रदेव इस हार से युद्धभूमि को छोड़कर भाग जाते है और अमरावती नाम के तीर्थ स्थल की शरण लेते हैं। इस हार का बदला लेने एवं अपनी इंद्रपुरी को पुनः प्राप्त करने के लिए राजा इन्द्रदेव देवताओं के गुरु श्रीबृहस्पति देवजी के पास जाते है, अपनी सभी तरह की दुःख गाथा उनको सुनाते है और उनसे पुनःअपनी इन्द्रपुरी को प्राप्त करने का उपाय पूछते है।

तब देवगुरु बृहस्पति जी उनको उपाय बताते है कि हे देवराज इंद्रदेव! आप मेरी शरण में आये हो। इसलिए आपको मैं जो भी उपाय बताया हूँ उस उपाय को आप करेंगे तो निश्चित ही आपको इन्द्रपुरी मिल जाएगी एवं दैत्यों की हार हो जाएगी। तब देवगुरु बृहस्पति जी इंद्रदेव को उपाय बताते है कि श्रावणी पूर्णिमा के दिन रक्षा विधान करना होगा। देवगुरु बृहस्पति के साथ राजा इंद्रदेव की पत्नी शचि भी साथ थी, उसको देवगुरु बृहस्पति जी ने कहा कि देवी इंद्राणी तुमको इस विधान की विधि और मन्त्र भी बताता हूँ वह तुमको करना होगा, तब शचि ने कहा कि मैं ही किसी तरह का उपाय करती हूं। अगले दिन श्रावणी पूर्णिमा का दिवस था, इस दिवस इंद्र भार्या शचि ने प्रातःकाल होते ही ब्राह्मणों से कहा कि आप सब स्वस्तिवाचन करके रक्षासूत्र बनाये। तब ब्राह्मणों ने स्वस्तिवाचन करके रक्षासूत्र बनाए और राजा इंद्रदेव की दाहिनीं भुजा पर बांध दिया। सभी राजाओं के हाथ पर रक्षासूत्र बांधा गया था।

इस रक्षासूत्र के प्रभाव से इंद्रदेव ने पुनः दैत्यों से युद्ध किया। युद्ध करके उनको पराजित किया था और उनको पुनः इंद्रप्रस्थ मिल गया था। इस तरह रक्षा के लिए रक्षा सूत्र बांधने की प्रथा चल पड़ी थी। यह रक्षा सूत्र अपने नजदीकी की रक्षा की इच्छा के लिए बंधा जाता है। इसलिए बहिन अपने भाइयों को, पत्नी अपने पति को और ब्राह्मण अपने सभी यजमानों को रक्षासूत्र को बांधते है।

भारतीय पुराणों के मतानुसार:-रक्षाबंधन के पर्व के दिन परिवार के पुरोहितों के द्वारा लाल रंग व केसरिया रंग के धागों से बने रक्षासूत्र को मन्त्रों के उच्चारण से पवित्र करके अपने सभी व्यक्तियों की कलाइयों पर बांधते है।

निवास स्थान के मुख्य द्वार:-पर भी रक्षासूत्र को बांधते है। इन सब रक्षासूत्र पर मन्त्रों के द्वारा सिद्ध होने से मन्त्रों का प्रभाव आ जाता है, जिससे किसी तरह के भी अनिष्ट से रक्षा होती हैं और दैवीय गुणों का प्रसार हो जाता है।

वास्तु शास्त्र के मतानुसार निवास स्थल:-के मुख्य द्वार पर यह पवित्र धागा बांधने से निवास स्थल में रहने वाले मनुष्य के जीवन में दुर्भाग्य चला जाता है और सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

रक्षाबन्धन पर्व में केवल यह ही बात ज्ञात होती है कि बुराई पर अच्छाई की जीत होती है।

महाभारत के प्रसंग के अनुसार रक्षाबंधन मनाने का कारण:-एक बार श्री भगवान कृष्ण जी के हाथ में चोट लग जाती है तथा खून बहने लगता है। तो पास खड़ी द्रौपदी ने देखा तो तुरन्त अपनी साड़ी का छोर फाड़कर भाई श्रीकृष्ण के हाथ में बांध देती है। तब कृष्ण द्रौपदी के इस तरह हाथ पर राखी की तरह अपनी साड़ी का छोर बांध देने से वे द्रौपदी के ऋणी हो जाते है उसे वरदान या वचन देते है कि बहिन द्रौपदी जब भी तुम्हारे ऊपर किसी तरह का संकट आवे तो तुम मुझे याद कर लेना मैं जहां पर भी रहूंगा तो भी तुम्हारी रक्षा करूँगा। इस तरह समय बीत जाने पर जब युधिष्ठिर अपना सबकुछ चौपड़ के खेल में हार जाते है तब दुर्योधन के द्वार द्रोपदी को चौपड़ के खेल में दांव लगाने कहा जाता है तो विवशवश युधिष्ठिर द्रोपदी को दांव पर लगाते है और हार जाते है तब दुर्योधन के द्वारा द्रौपदी को भरे दरवार में अपने भाई दुःशासन को लेने के लिए भेजता है तब दुःशासन द्रौपदी को उसके बालो को पकड़कर भरे दरवार में लाता है तब दुर्योधन अपने भाई को आदेश देता है कि द्रौपदी को निर्वस्त्र करो तब दुःशासन द्रौपदी की साड़ी का पल्ला पकड़कर उसको निर्वस्त्र करने की कोशिश करता है तब द्रौपदी भगवान कृष्ण को आंखे बंधकर उनको पुकारती है उनका स्मरण करती है तो भगवान श्रीकृष्ण जी अपनी एक अंगुली से द्रौपदी की साड़ी के पल्लू को पकड़ देते है उसकी बहुत ही बढ़ाते रहते है आखिरकार दुःशासन हार जाता है। इस तरह भगवान श्रीकृष्ण जी ने अपनी कलाई बंधी राखी की लाज रखी थी और अपनी बहिन द्रौपदी की आन-बान एवं मर्यादा की रक्षा की थी।


रक्षाबंधन पर राखी बांधने की विधि:-रक्षाबन्धन के दिन निम्न तरह से विधिपूर्वक रक्षाबंधन पर्व पर राखी बांधनी चाहिए, जो कि इस तरह है:

रक्षाबंधन के दिन प्रातःकाल जल्दी उठकर स्नानादि क्रिया से निवृत होना चाहिए।

भगवान भास्कर जी अर्ध्य देना चाहिए।

परिवार के सभी जनों को स्नानादि करके स्वच्छ वस्त्र को धारण करना चाहिए

उसके बाद स्वच्छ वस्त्र को पहनना चाहिए।

उसके बाद शिवलिंग पर जल का अभिषेक करना चाहिए।

फिर लाल रंग एवं केसरिया रंग का धागा रक्षासूत्र के लिए लेना चाहिए 

उसके बाद लाल रंग एवं केसरिया रंग का धागा के रूप में रक्षासूत्र पर माता गायत्री जी गायत्री मंत्र का अपने सामर्थ्य के अनुसार जाप करना चाहिए।

फिर उस पवित्र धागे को अपने निवास स्थल के मुख्य द्वार पर ईश्वर को स्मरण करते हुए बांधना चाहिए, उनसे प्रार्थना भी करनी चाहिए कि आप तो सर्वोपरि है आपकी शरण में है, आप हमारी रक्षा करे।

यह पवित्र धागा निवास स्थल में रहने वाले व्यक्तियों की बुरी ताकतों से निवास स्थल के लोगों की रक्षा करता है।

निवास स्थल के वातावरण को शुद्ध एवं स्वच्छ बनाये रखता है, निवास स्थल में पंचभौतिक तत्व जैसे जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी और आकाश तत्व का उचित समन्वय को बनाये रखता है।

उसके बाद औरतें अपने निवास स्थान के मुख्य दरवाजे के दोनों ओर की दीवार पर गेरु रंग से श्रवण कुमार की प्रतिमा या चित्र बनाना चाहिए।

उस बनी हुई श्रवण कुमार की प्रतिमा का विधि-विधानपूर्वक सही तरीके से पूजन करना चाहिए और राखी वाली मैदे की सैवइयां बनाकर एवं दूध-सैवइयां से बनी खीर का भोग लगाना चाहिए। उनको राखी बांधनी चाहिए। रक्षाबन्धन के पर्व पर विशेषकर मैदे वाली सैवइयां ही बनाने का रीति-रिवाज पुराने समय से चला आ रहा है।

दोपहर के समय या अशुभ मुहूर्त में भद्रा रहित, पंचक रहित आदि को समय को टालते हुए शुभ मुहूर्त या शुभ चौघड़ियों के समय को ध्यान में रखना चाहिए।

सबसे पहले भगवान या अपने इष्ट देव की प्रतिमा का पूजन करके उनको राखी बांधनी चाहिए।

उसके बाद भाई को विधिविधान पूर्वक पूजन करके उनको राखी बांधनी चाहिए और किसी मिष्टान्न से उसका मुहं मीठा करना चाहिए।

राखी बांधने से पूर्व भाई को किसी उच्च स्थान पर बिठाना चाहिए, उच्च स्थान पर बैठाते समय भाई का मुहं पूर्व या उत्तर दिशा की ओर करके ही बिठाना चाहिए।

भाई को उच्च स्थान पर बैठाकर सबसे पहले उसको श्रीफल अर्थात् पानी वाला नारियल देना चाहिए।

उसके बाद भाई के कुंकुम से तिलक करना चाहिए उस तिलक पर अक्षत लगाना चाहिए।

फिर भाई के राखी बांधनी चाहिए। उसके बाद किसी भी मिष्टान्न से भाई का मुंह मीठा करना चाहिए। 

यदि छोटी है तो उनसे आशीर्वाद लेना चाहिए या बड़ी होने पर भाई को आशीर्वाद देना चाहिए और उससे अपनी रक्षा अर्थात् जीवन में किसी भी तरह की कोई भी परेशानी हो तो उस परेशानी से उसे मुक्त कराने का वचन लेना चाहिए। इसके बाद में भाई अपने सामर्थ्य के अनुसार अपनी बहिन को कोई भी उपहार देना चाहिए।

बहिन-भाई परस्पर मिलकर बहनें, भाई-भतीजों व भाभियां के राखी बांधती है।

उसके बाद दोनों भाई-बहिन को सबके राखी बांधने के बाद भोजन को एक दूसरे के पास बैठकर ग्रहण करना चाहिए।


अपने गृहस्वामी के लिए रक्षासूत्र का उपयोग:-हर स्त्रियों की चाहत होती हैं कि उनके पति की लंबी आयु होवे और वे सदा सुहागिन रहे। उन स्त्रियों को अपने पति की दीर्घ आयु के लिए उनके मन्त्रों से सिद्ध रक्षासूत्र को उनकी दाहिनीं कलाई पर बांधना चाहिए।

सबसे पहले गृहणी को प्रातःकाल जल्दी उठकर अपनी दैनिकचर्या से निवृत होकर अपने इष्टदेव को याद करना चाहिए 

उसके बाद अपने निवास स्थल में बने पूजाघर में किसी भी तरह के पात्र में सर्षप, सुवर्ण, केसर, चन्दन, चावल और दूर्वा घास को रखना चाहिए 

फिर इन सबके साथ ही ऊनी, सूती अथवा रेशमी पीत वर्ण के कपड़े को भी काटकर रखना चाहिए।

उसके बाद उन सभी ऊनी, सूती या रेशमी पीत वर्ण के वस्त्रों का टूकड़े करने चाहिए उन सभी वस्त्रों के टुकड़े करते समय उनका आकर चपटा अर्थात् आयताकार रखना चाहिए।

उन सभी कटे हुए आयताकार कपड़ों पर सर्षप के दाने, कंचन के टुकड़े, केसर, चन्दन, चावल और दूर्वा घास की कुछ मात्रा में रखकर उनपर गांठ बांध देवे या उनकी सिलाई कर देनी चाहिए फिर उस गांठ बंधी पोटली की अपने पूजाघर में स्थापित करना चाहिए।

इस तरह की क्रियाविधि के बाद में एक ताम्र का कलश लेकर उसमें स्वच्छ जल भरकर रखना चाहिए।

फिर इस सब के बादमें उस ताम्र कलश पर एक ताम्र या किसी भी धातु की बनी छोटी कटोरी लेकर उस ताम्र कलश पर स्थापित करना चाहिए।

उसके बाद में कुंकुम, चावल, फूल आदि से पूजन करना चाहिए उनको धूपबत्ती और दीपक को दिखाना चाहिए।

उसके फलस्वरूप जब भी आदमी लोग की बहिन राखी बांधे या फिर किसी भी ब्राह्मण के द्वारा रक्षासूत्र बंधवाते समय निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।

तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।

यदि इस रक्षासूत्र को हमेशा के लिए बांधकर रखना चाहते हो तो भी आदमी हमेशा बांधकर रख सकता है यदि नहीं रख सकता है तो अपने पर्स में रख सकता है।

आने वाली अगली रक्षाबंधन को भी यह प्रक्रिया को दोहराना चाहिए।

उस पुराने रक्षासूत्र को किसी बहते हुए जल नदी, तालाब या पवित्र जल में प्रवाहित कर देना चाहिए ।