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Friday, October 29, 2021

केतु कवचं स्तोत्रं अर्थ सहित एवं लाभ(Ketu Kavacham Stotra with meaning and benefits)

                  




केतु कवचं स्तोत्रं अर्थ सहित एवं लाभ(Ketu Kavacham Stotra with meaning and benefits):-केतुदेव जेमिनी गोत्र के शुद्र जाति के कुशद्वीप में निवास करते हुए राज करने वाले होते हैं। धूम्र के वर्ण के शरीर वाले, जो पूर्ण भाग नहीं होकर अलग किये हुए हैं एवं धूम्र वर्ण के कपड़ों को पहनने वाले गिद्ध पर बैठकर घूमने वाले होते है। राहु देव की तरह अमृत पीने से राहु देव के धड़ के भाग को ही केतुदेव कहा जाता है, जो कि एक छाया के रूप में निवास करते हैं और अपनी छाया के द्वारा रविदेव एवं सोमदेव की चेतना को ढ़क देते है और अपनी परछाई में डुबाकर उन दोनों देवों को ग्रसित करते है। दोनों देवों की उजालापन एवं शीतलता का हरण कर लेते हैं। केतुदेव वन में विचरण करने वाले होते है, उनकी डरावनी आकृति को देखन पर बहुत ही थर-थर कांपने लगते हैं। केतु आकृति में एक रेखासद्वश, सर्प की पूंछ के आकार का, तीक्ष्ण, ठंडा, म्लेच्छ वर्ण, नपुंसक, वायुतत्व, तमोगुणी, दक्षिण-पश्चिम दिशा का स्वामी, काफी लम्बा, धुयें जैसे रंग वाला एक वृद्ध पापग्रह हैं।

मीन राहु की राशि हैं। मीन राशि को गुरु ग्रह की राशि भी माना जाता हैं।

मित्र एवं शत्रु ग्रह:-केतु ग्रह के सूर्य ग्रह, चन्द्रमा ग्रह एवं मंगल ग्रह शत्रु ग्रह होते हैं एवं बुध ग्रह, शुक्र ग्रह एवं शनि ग्रह मित्र ग्रह होते हैं। गुरु ग्रह के साथ समभाव रखता हैं।

राशि पर परीभ्रमण:-केतु ग्रह एक राशि से दूसरी राशि में डेढ़ वर्ष तक रहता है, उसके बाद में दूसरी राशि में प्रवेश करता हैं। इस तरह अठारह साल में बारह राशियों को पार करने में समय लगता हैं।

महादशा या अन्तर्दशा में फल:-केतु ग्रह मनुष्य को 48 वर्ष से लेकर 54 वर्ष की उम्र में अपनी महादशा या अन्तर्दशा में मनुष्य के जीवन में फायदा देने लगता है।


केतु देव के कुपित होने पर मिलने वाले बुरे नतीजे:-केतु देव को देवता के समान माना जाता है, क्योंकि राक्षस होते हुए अमृत को पीने से अमर हुवे थे। राक्षस की तरह इनका आचरण होता है, जब केतुदेव का प्रकोप मनुष्य की जन्मकुंडली के अच्छे घरों पर पड़ता है, तब उनसे निम्नलिखित असर होते हैं:

◆जब केतु ग्रह अशुभ भाव में या अशुभ राशि में बैठे होते हैं, तब मनुष्य के जीवन में सभी तरह के रास्तों को बन्द करवाकर उस मनुष्य के जीवन में निराशा उत्पन्न करके हताश कर देते हैं।

◆केतु भी राहु के समान ही एक छाया ग्रह हैं, इसे देख नहीं सकते हैं। केवल उसका अनुभव कर सकते हैं। केतु को 'कुजवत् केतु' कहा गया हैं। इसका अर्थ हैं कि केतु मंगल ग्रह के समान ही कार्य करते हुए फल को देता हैं। केतु का भी जिस ग्रह के साथ के साथ बैठता हैं, उसके अनुसार या फिर जिस राशि में बैठता हैं, उस राशि के स्वामी के अनुसार फल देता हैं। 

◆किसी स्वराशि ग्रह के साथ बैठा होता हैं तो उसके बल को चौगुना करता हैं। 

◆मंगल के साथ होने पर मंगल का बल एवं फल दोगुना होता हैं। 

◆शनि के साथ बैठने पर विच्छेदात्मक भूमिका निभाता हैं और विघटन लाता हैं। जिससे मनुष्य को दुःखी कर देता हैं।

◆केतु ग्रह का असर मनुष्य के जीवन पर पड़ने पर मनुष्य के मस्तिष्क को कष्ट पहुंचाने लगता हैं और जिससे मनुष्य के मन में बिना मतलब के दुःख देने वाले नकारात्मक विचारों का जन्म हो जाता है और मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन होने लगते है, उसकी बातों मूर्ख की तरह होती है। जिससे दूसरे मनुष्य उसको पागल कहना शुरू कर देते हैं और उसको अपने पराये के बारे में ज्ञान नहीं रहता हैं। इस तरह के हालात होने से मुलबातो को जानने के लिए इधर-उधर भटकने लगता हैं। अध्यात्मिकता की ओर मनुष्य को ले जाने का कार्य केतु ग्रह से ही होता हैं। जिससे मनुष्य सही-निर्णय नहीं ले पाने के कारण उसे लगता कि वह ईश्वर की आराधना करके अपनी आत्मा को किस तरह मोक्ष की ओर ले जावूं। 

◆जिससे वह अपनी समस्याओं के मूल की खोज करते हुए उस समस्याओं से मुक्ति का उपाय खोजने लगता है और विचार करता है कि सामाजिक जीवन को किस तरह अपना नाम को प्रसिद्धि दिलवा सकता है और जिससे अपने जीवन को सुख प्रदान करके सुख को प्राप्त कर सकूं।

◆इन सभी तरह के बुरे प्रभाव से मुक्ति के लिए मनुष्य को नियमित रूप से केतु कवचं स्तोत्रं का वांचन करना चाहिए।


अथ श्री केतु कवचं स्त्रोतं अर्थ सहित:-अथ श्री केतु कवचं स्त्रोतं का जो भी मनुष्य अपने अंतःकरण से एवं अच्छी भावना से पाठन करते हैं, उनको केतु देव के बुरे प्रभाव से मुक्ति मिलती हैं।


केतु देव के लिए करन्यासः-जब केतु कवचं स्तोत्रं के मन्त्रों को पढ़ने से पहले अपने हाथों की इस तरह की मुद्रा बनानी होती है, जिसमें ऐसा प्रतीत होता है, उस मुद्रा के द्वारा केतु देव से अपने जीवनकाल के अच्छे फलों को मांगना के भाव छिपा होता है, तब उनसे प्रार्थना करते है। उस मुद्रा में समस्त हाथ की सभी अंगुलियों एवं हथेली के द्वारा एक तरह की अंजली बनाई जाती है।

केंः अङ्गुष्ठाभ्यां नमः।

अर्थात्:-हे केतुदेव! मैं आपके अंगूठे को छूते नतमस्तक होकर नमन करता हूँ।

कींः तर्जनीभ्यां नमः। 

अर्थात्:-हे केतुदेव! मैं आपके तर्जनी अंगुली को छूते तमस्तक होकर नमन करता हूँ।

कुंःमध्यमाभ्यां नमः।

अर्थात्:-हे केतुदेव! मैं आपके मध्यमा अंगुली को छूते तमस्तक होकर नमन करता हूँ।

कैंः अनामिकाभ्यां नमः।

अर्थात्:-हे केतुदेव! मैं आपके अनामिका अंगुली को छूते नतमस्तक होकर नमन करता हूँ।

कौंः कनिष्ठिकाभ्यां नमः।

अर्थात्:-हे केतुदेव! मैं आपके कनिष्ठिका अंगुली को छूते नतमस्तक होकर नमन करता हूँ।

कंःकरतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।।

अर्थात्:-हे केतुदेव! मैं आपके हथेली के बीच के भाग को छूते हुए ध्यान करके नतमस्तक होकर नमन करता हूँ।


अंगन्यासः-जब केतु कवचं स्तोत्रं के मन्त्रों के उच्चारण करने से पहले केतुदेव के समस्त शरीर के अंगों को नतमस्तक होकर नमन करते हुए, मन्त्रों के द्वारा अंगों को स्पर्श करते हुए उन अंगों में जागृति उत्पन्न करने को केतु देव के अंगन्यास करना कहते हैं।

बैठने की आकृति:-जब कमल के फूल के समान आकार देते हुए अपने पैर को इस तरह मोड़कर जिसमें दूसरा पैर उस पैर के ऊपर आ जाता है, तब बायां हाथ को पैर के घुटने पर रखते है। जिससे मनुष्य के शारिरिक एवं आध्यात्मिक विचारों को उत्पन्न करने की विधि होती हैं।


केंःहृदयाय नमः।

अर्थात्:-हे केतुदेव! अपने दाएं हाथ की पांचों अंगुलियों के द्वारा पवित्र हृदय को छूते समय  केंःहृदयाय नमः मन्त्र का उच्चारण करते हुए वंदना करता हूँ।


कीं:शिरसे स्वाहा।

अर्थात्:-हे केतुदेव! मैं जो भी मन्त्रों का पाठन करता हूँ, उन मन्त्रों के पाठन के शब्द आपके मस्तिष्क तक पहुँचे। ललाट को छूते समय कीं:शिरसे स्वाहा मन्त्र को बोलते हैं।


कुं शिखायै वषट्।

अर्थात्:-हे केतुदेव! मैं अपनी शिखा को बांधते हुए, आपको देवता की तरह पूजन करने के लिए अग्नि देव को प्रज्वलित करने के लिए मन्त्रों से आह्वान करता हूँ। शिखा को छूते समय कुं शिखायै वषट् मन्त्र का उच्चारण करते हैं।


कैंः कवचाय हुम्।

अर्थात्:-हे केतुदेव! मैं आपको खुश करने के लिए आपके गुणों के बखान के निमित आपके कवचं को हमेशा पाठन करता हूँ। दोनों भुजाओं को दोनों हाथों के द्वारा छूते समय कैंः कवचाय हुम् मन्त्र का उपयोग करते हैं।


कौंः नेत्रत्रयाय वौषट्।

अर्थात्:-हे केतुदेव!आपको आहुति देने के समय प्रयुक्त होने वाले एक उदगार या सांकेतिक मन्त्र-विशेष शब्दो को नेत्रों के द्वारा ध्यान से उच्चारण करता हूँ। दाएं तरफ के चक्षु, बाएं तरफ के चक्षु एवं भाल के मध्य में स्थित तीसरे चक्षु को कौंः नेत्रत्रयाय वौषट् मन्त्र को बोलते हुए छूना चाहिए।


कं:अस्त्राय फट्।

अर्थात्:-हे केतुदेव! आपका तांत्रिक मंत्र जिसे अस्त्र मन्त्र भी कहा जाता है, उस अस्त्र मन्त्र का उपयोग पात्रो को धोने, मैल को साफ करने, सामने की तरफ फेंकना, आकाश में बाधा या नाश करने वाले और दूसरे ऐसे वाहन पर सवार होकर घूमते हो। जब दायें हाथ के पंजे को बायें हाथ के पंजे के साथ जोड़कर कं:अस्त्राय फट् मन्त्र को बोलते हुए 'फट्' की कम्पन की जाती है।

भूभुर्वस्सुवरोमिति दिग्बंधः।।

अर्थात्:-हे केतुदेव! आपका दिग्बन्धन करते हैं।


अथ श्री केतु कवचं स्त्रोतं अर्थ सहित:-अथ श्री केतु कवचं स्तोत्रं के मन्त्रों का उच्चारण एवं अर्थ इस तरह हैं:

अस्य श्रीकेतुकवचस्तोत्रमंत्रस्य त्र्यंबक ऋषिः।
अनुष्टुप् छन्दः! केतुर्देवता! कं बीजं! नमः शक्तिः!
केतुरिति कीलकम्! केतुप्रीत्यर्थं जपे विनियोगः।।

त्र्यंबक ऋषि उवाच अर्थात्:-श्री केतु कवच स्तोत्रं मन्त्र की रचना श्री त्र्यंबक ऋषि वर ने की थी और केतु देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, कं बीजं हैं, नमः शक्ति स्वरूप हैं और केतुरिति कीलक हैं तथा श्री केतु जी के द्वारा मिलने वाले कष्टों से मुक्ति पाने लिए केतु कवच स्त्रोतं के जप में विनियोग किया जाता हैं।

अर्थ ध्यानम्-

        ऊँ कयिनश्चित्रः अर्धकायं.

         ।।इति ध्यानम्।।

ध्यानम्:-श्री केतु कवचं स्त्रोतं के मन्त्रों को जब उच्चारण करना होता है, तब केतु देव के ऊपर पूर्ण विश्वास एवं आस्था रखते हुए अपने अंतर्मन से उनके प्रति शुद्ध एवं पवित्र भावों को रखते हुए उनसे प्रार्थना करनी चाहिए। इसलिए उनका ध्यान करना होता हैं।


केतु करालवदनं चित्रवर्णं किरिटीनम्।
प्रणमामि सदा केतुं ध्वजाकारं ग्रहेश्वरम्।।1।।
अर्थात्:-हे केतुदेव जी!आप स्वरूप में बड़े-बड़े दाँतों के समान डरावने शरीर वाले एवं धुंए के रंग वाले मुकुट को धारण करने वाले होते हो। आपकी आकृति ध्वज के समान होती हैं। हे ग्रह के ईश्वर! मैं आपको सदा प्रणाम करता हूँ।


चित्रवर्णंः शिरः पातु भालं धूम्रसमद्युतिः।
पातु नेत्रे पिंगलाक्षः श्रुती मे रक्तलोचनः।।2।।

घ्राणं पातु सुवर्णाभश्चिबुकं सिंहिकासुतः।
पातु कंठं च मे केतुः स्कंधों पातु ग्रहाधिपः।।3।।

हस्तौ पातु श्रेष्ठः कुक्षिं पातु महाग्रहः।
सिंहासन कटिं पातु मध्यं पातु महासुरः।।4।।

ऊरुं पातु महाशीर्षो जानुनी मेSतिकोपनः।
पातु पादौ च मे क्रूरः सर्वाङ्गं नरपिंगलः।।5।।

य इदं कवचं दिव्यं सर्वरोगविनाशनम्।
सर्वशत्रुविनाशं च धारणाद्विजयि भवेत्।।6।।
अर्थात्:-हे केतुदेवजी! आपके दिव्य या अलौकिक कवच को जो मनुष्य वांचन करता है, उस मनुष्य की समस्त तरह के रोगों का नाश कर देते हो और उस मनुष्य को एकदम आरोग्यता प्रदान करने वाले होते हो। उस मनुष्य के समस्त दुश्मनों पर विजय दिलाकर दुश्मनों को जड़ से समाप्त कर देते हो, इस तरह से जो भी आपके प्रति अच्छी धारणा रखते है, उनको आप निश्चित रूप से फायदा करते हो।


।।इति श्रीब्रह्माण्डपुराणे केतुकवचं संपूर्णं।।

केतु देव के केतु कवचं स्त्रोतं के मन्त्रों के उच्चारण को शुरू करने की विधि:-केतु कवचं स्तोत्रं के मन्त्रों को सही विधि एवं सही मुहूर्त में शुरू करने पर ही फायदा मिलता है। इसलिए केतु देव के केतु कवचं स्तोत्रं को शुरू करनी की विधि इस प्रकार है:

◆केतु कवचं स्तोत्रं को मंगलवार या शनिवार के दिन से शुरू करना चाहिए।

◆केतु कवचं स्तोत्रं को शुरू करने के दिन सुबह उठकर अपने मन में कैसे तरह बुरे विचारों नहीं पनपने देना चाहिए।

◆फिर स्नानादि करके स्वच्छ कपड़ो को जिनमें नीला रंग या काले रंग के होने चाहिए। उनको पहनकर ही विधि को शुरू करना चाहिए।

◆पूजा घर में साफ-सफाई करते हुए एक चौकी के रूप में बाजोठ को लगाकर उस पर स्वच्छ हरा या लाल या नीला रंग के कपड़ों को बिछाना चाहिए।

◆उस बाजोठ पर केतु देव की फोटू या मूर्ति को रखना चाहिए।

षोडशोपचारैंः पूजा कर्म:-इस तरह भगवान केतुदेव जी का षोडशोपचारैंः पूजा कर्म करना चाहिए

पादयो र्पाद्य समर्पयामि, हस्तयोः अर्ध्य समर्पयामि,

आचमनीयं समर्पयामि,पञ्चामृतं स्नानं समर्पयामि

शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि, वस्त्रं समर्पयामि,

यज्ञोपवीतं समर्पयामि, गन्धं समर्पयामि,

अक्षातन् समर्पयामि, अबीरं गुलालं च समर्पयामि,

पुष्पाणि समर्पयामि, दूर्वाड़्कुरान् समर्पयामि,

धूपं आघ्रापयामि, दीपं दर्शयामि, नैवेद्यं निवेदयामि, ऋतुफलं समर्पयामि, आचमनं समर्पयामि,

ताम्बूलं पूगीफलं दक्षिणांं च समर्पयामि।।

◆जिनमें आह्वान करना, पंचामृत से स्नान करवाना, कपड़ो को अर्पण करना, गन्ध, अक्षत, अबीर-गुलाल, फूल, धूप, दिपके तथा नैवेद्य आदि को अर्पण करना चाहिए।
◆गाय के घृत से दीपक को भरकर केतुदेव के सामने जलाना चाहिए।
◆फिर मन में नकारात्मक भावों नहीं रखते हुए मन को जगह पर केंद्रित करते हुए केतु कवचं स्तोत्रं का पाठन करना चाहिए।

◆जब केतु कवचं स्तोत्रं पूरा करके आरती करते है, आरती को सभी परिवार के लोगों को देकर समस्त घर की जगहों पर घुमाना चाहिए।

◆फिर नतमस्तक होकर केतुदेवजी से निवेदन करना चाहिए कि आपकी अनुकृपा हम पर बनी रहे और आपके द्वारा प्राप्त 
होने वाले बुरे असर नष्ट हो जावे।

◆फिर यह विधि अपने मन में तय जितने महीनों तक करना होता हैं, उतने दिन तक करते रहना चाहिए।


राहु कवचं स्तोत्रं के वांचन करने से मिलने वाले फायदे:-ज्योतिष शास्त्र में मनुष्य के जीवन को प्रभावित करने वाले बुरे ग्रहों एवं बुरी दशाओं से मुक्ति के कई तरह साधन बताये हैं, जिस तरह की बाधाओं हो उसी तरह के साधन शास्त्रों में वर्णित हैं। 

◆केतु देव के बुरे असर को कम करके मनुष्य के मन में सकारात्मक भावों को उत्पन्न करता हैं।

◆मनुष्य के जीवन में आने वाली बाधाओं को दूर होती हैं।

◆केतु कवचं स्तोत्रं के वांचन से विच्छेदात्मक असर को कम करते हैं।

◆केतु कवचं स्तोत्रं को जो मनुष्य नियमित रूप पड़ता है, तब मनुष्य को प्रसिद्धि दिलवाते हैं।

◆मनुष्य को सन्तान के द्वारा मिलने वाली परेशानी से मुक्ति दिलवाते हैं।

◆मनुष्य के जीवन को सुखमय एवं पारिवारिक जीवन में क्लेश दूर होता हैं।

◆केतुदेवजी राक्षस स्वभाव के होते हुए भी मनुष्य के जीवन में सही रास्ते को दिखाने में एक मार्गदर्शक होते हैं।

◆शुभ फल के भाव:-जन्मकुंडली के तीसरे भाव, षष्ठम भाव, दशम भाव एवं ग्याहरवें भाव में केतु ग्रह जब बैठे होते है, तब अपना शुभ या अच्छा फल ही देते हैं।

◆मनुष्य को अपने कर्मों के आधार पर उच्च पद को दिलवाने में सहायता करते हैं।

◆पुलिस या फौजी अफसर, अच्छा खिलाड़ी, इंजीनियर, बुखार, चोट, घाव, बहरापन, तोतलापन आदि व्याधियों को भी उत्पन्न करते हैं।

◆केतु कवचं स्तोत्रं के वांचन से मनुष्य को धर्म-कर्म के प्रति जागृति भाव को जगाकर सामाजिक जीवन में सेवा करवाने में मन लगवाता हैं।