गोवत्स द्वादशी व्रत पूजा विधि, कथा एवं महत्व (Govats Dwadashi vrat puja vidhi, katha and importance):-कार्तिक कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को गोवत्स द्वादशी के नाम से जानी जाती है। गाय एवं बछड़े की अहमियत को बताने के लिए इनका पूजा किया जाता है। इसलिए इस दिन इनके पूजन मनुष्य के द्वारा करने से इस दिन को गोवत्स द्वादशी कहा जाता हैं। गोवत्स द्वादशी को दूसरे नामों से भी जाना जाता है, वे इस तरह है: बच्छ बारस (ओंक द्वादशी) गोवत्स द्वादशी, वत्स द्वादशी आदि हैं।
इस दिन महिला अपने पुत्र की रक्षा और उनके मंगल कामना के लिए बच्छ बारस का व्रत करती हैं।
यह बच्छ बारस त्यौहार गाय और बछड़े के पूजन का होता हैं।
गोवत्स द्वादशी व्रत पूजा विधान:-इस व्रत में प्रदोष व्यापिनी तिथि ग्रहण की जाती है। यदि वह दो दिन हो या न हो तो वत्स पूजा व्रत श्रैव कर्त्तव्यी प्रथम सहानि के अनुसार पहले दिन व्रत करना चाहिए।
◆इस दिन किसी भी पवित्र सरोवर या नदी में स्नान करना चाहिए।
◆स्नानं के बाद व्रतं का संकल्प करना चाहिए।
◆गोवत्स द्वादशी व्रत में दिन में एक समय ही भोजन को ग्रहण करना चाहिए।
◆भोजन में गाय के दूध या उससे बने पदार्थ या तेल में पके पदार्थ नहीं खाने चाहिए।
◆सायंकाल में गाय जब चर कर घर आए तो बछड़े सहित गाय का गन्ध, पुष्प, अक्षत, दीप, पुष्प तथा पुष्पमालाओं द्वारा पूजा करना चाहिए।
◆उड़द के बड़ो का भोग लगाना चाहिए।
◆इस दिन तवे पर पकाया हुआ भोजन नहीं खाना चाहिए।
◆पृथ्वी पर शयन करना चाहिए।
◆फिर गाय माता को प्रणाम करके निम्नलिखित मंत्र के द्वारा अरदास करनी चाहिए-
पूजन मंत्र:-
ऊँ सर्वदेवमये देवि सर्वदेवैरलंकृते लोकांना शुभनन्दिनि।
मातर्ममाभिषितं सफलं कुरू नन्दिनि।
ऊँ माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाममृतस्य नाभिः प्रनु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट नमो नमः स्वाहा।।
◆इस तरह व्रत करने से व्रती सभी सुख को भोगते हुए अंत में गौ के जीतने रौए हैं, उतने वर्ष तक गौ लोक में वास करता हैं।
◆आखिर में कथा को सुनना चाहिए।
गोवत्स द्वादशी व्रत-कथा:-बहुत समय पहले जब सतयुग का समय चलता था, उस समय की यह बात हैं। महर्षि भृगु के आश्रम मण्डल में भगवान शंकर के दर्शन की अभिलाषा से करोड़ो मुनिगण तपस्या कर रहे थे। एक दिन उन तपस्यारत मुनियों को दर्शन देने के लिए भगवान शंकर एक बूढ़े ब्राह्मण का वेश बनाकर हाथ में डंडा लिए हुए कांपते हुए उस आश्रम में आए। उनके साथ सवत्सा गौ के रूप में जगत माता पार्वतीजी भी थी। वृद्ध ब्राह्मण बने भगवान शंकर महर्षि भृगु के पास आकर बोले-हे मुनि! मैं यहां स्नान कर जम्मू क्षेत्र में जाऊंगा और दो दिन बाद लौटूंगा। तब तक आप इस गाय की रक्षा करें। मुनियों ने उस गौ की सभी प्रकार से रक्षा करने की प्रतिज्ञा करने पर भगवान शंकर अंतर्ध्यान हो गए और फिर थोड़ी देर बाद ही एक सिंह के रूप में प्रकट होकर बछड़े सहित गौ को डराने लगें। ऋषि गण भी सिंह के भय से डरते हुए यथा सम्भव उसे हटाने का प्रयास कर रहे थे। उधर गाय भी रम्भा रही थी। निदान उन शांतुचित मुनियों ने क्रूद होकर ब्रह्मा से प्राप्त और भयंकर शब्द करने वाले घंटे को बजाना प्रारम्भ कर दिया। उस शब्द से सिंह तो भाग गया और उनके स्थान पर शंकर भगवान प्रकट हो गये और पार्वती भी गौ रूप त्याग कर वत्स रूपी कार्तिकेय तथा अन्य गणों के साथ भगवान भोलेनाथ के बायीं अंग में विराजमान हो गई। ब्रह्मा वादी ऋषियों ने उनका पूजन किया। उस दिन कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की द्वादशी थी।
गोवत्स द्वादशी की अन्य व्रत-कथा:-बहुत समय पहले जब सतयुग का समय चलता था, उस समय की यह बात हैं। महर्षि भृगु के आश्रम मण्डल में भगवान शंकर के दर्शन की अभिलाषा से करोड़ो मुनिगण तपस्या कर रहे थे। एक दिन उन तपस्यारत मुनियों को दर्शन देने के लिए भगवान शंकर एक बूढ़े ब्राह्मण का वेश बनाकर हाथ में डंडा लिए हुए कांपते हुए उस आश्रम में आए। उनके साथ सवत्सा गौ के रूप में जगत माता पार्वतीजी भी थी। वृद्ध ब्राह्मण बने भगवान शंकर महर्षि भृगु के पास आकर बोले-हे मुनि! मैं यहां स्नान कर जम्मू क्षेत्र में जाऊंगा और दो दिन बाद लौटूंगा।
तब तक आप इस गाय की रक्षा करें। मुनियों ने उस गौ की सभी प्रकार से रक्षा करने की प्रतिज्ञा करने पर भगवान शंकर अंतर्ध्यान हो गए और फिर थोड़ी देर बाद ही एक सिंह के रूप में प्रकट होकर बछड़े सहित गौ को डराने लगें। ऋषि गण भी सिंह के भय से डरते हुए यथा सम्भव उसे हटाने का प्रयास कर रहे थे। उधर गाय भी रम्भा रही थी। निदान उन शांतुचित मुनियों ने क्रूद होकर ब्रह्मा से प्राप्त और भयंकर शब्द करने वाले घंटे को बजाना प्रारम्भ कर दिया। उस शब्द से सिंह तो भाग गया और उनके स्थान पर शंकर भगवान प्रकट हो गये और पार्वती भी गौ रूप त्याग कर वत्स रूपी कार्तिकेय तथा अन्य गणों के साथ भगवान भोलेनाथ के बायीं अंग में विराजमान हो गई। ब्रह्मा वादी ऋषियों ने उनका पूजन किया। उस दिन कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की द्वादशी थी।
गोवत्स द्वादशी की अन्य व्रत-कथा:-एक अन्य कथा के अनुसार राजा उत्तानपाद ने पृथ्वी पर इस व्रत को प्रचारित किया। उनकी रानी सुनीति इस व्रत को किया करती थी। जिसके प्रभाव से उनको ध्रुव जैसा पुत्र प्राप्त हुआ। आज भी माताएं पुत्र रक्षा एवं सन्तान सुख के लिए इस व्रत को करती हैं।
गोवत्स द्वादशी व्रत का महत्व:-गोवत्स द्वादशी व्रत में गाय माता एवं बछड़े की पूजा की जाती है। इस तरह गाय माता की पूजा करने पर समस्त छतीस करोड देवी-देवताओं की पूजा हो जाती है, इस तरह इस व्रत को करने पर निम्नलिखित तरह के महत्व है:
◆इस दिन महिला अपने पुत्र की रक्षा और उनके मंगल कामना के लिए बच्छ बारस का व्रत करती हैं।
◆बछ बारस गोवत्स द्वादशी का व्रत औरतों के द्वारा किया जा हैं।
◆विशेष कर शादी-शुदा औरतें जो कि अपने पुत्र की लंबी उम्र को प्राप्त करने और जिनके पुत्र सन्तान नही होती है, वे औरतें इस व्रत को करने से निश्चित ही पुत्र सन्तान की प्राप्ति होती हैं।