पूजा से पहले तीन बार आचमन क्यों आवश्यक है, जानें विधि और महत्व (Why Aachman is necessary three times before puja, know the vidhi and importance):-प्राचीन काल में जब पूजा-अर्चना एवं साधना आदि धार्मिक कार्यों को करते समय ऋषि-मुनियों को अपने शरीर के आंतरिक अंगों को भी शुद्ध करने की जरूरत महसूस हुई, जिसके फलस्वरूप हमारे ऋषि-मुनियों ने शरीर के आंतरिक भागों को शुद्ध करने के लिए मन्त्रों की रचना की जिससे उन मन्त्रों के उच्चारण करके अपने आंतरिक भागों को शुद्ध एवं पवित्र करके धार्मिक कार्यों को पूर्ण कर सके। इसलिए आचमन की प्रथा का प्रादुर्भाव हुआ। जिससे मनुष्य पूरी तरह से शुद्ध होकर अपने मन में किसी भी तरह का मैल नहीं रख पावे और अपनी पूजा-अर्चना आदि धार्मिक कार्यों को विधिपूर्वक करके उचित फल प्राप्त कर सके। समस्त तरह के अच्छे कर्म एवं बिना कामना के किया जाने वाले कार्यों को करते समय आचमन करना खास भाग माना जाता हैं। आचमन को केवल धर्म के सम्बंधित कार्यों को करते समय नहीं करना चाहिए, बल्कि किसी भी तरह भूल के भी करना है, जिससे शरीर किसी भी तरह की व्याधि से मुक्त करके स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए भी बहुत जरूरी बताया गया है। एक दिलचस्प बात हैं, की जब मनुष्य के द्वारा किसी तरह की गलती होने पर भी आचमन करना चाहिए, जिससे उस गलती का सुधार हो सके और उस गलती से छुटकारा मिल जावें।
आचमन का अर्थ:-जब धार्मिक क्रियाओं को शुरू करने से पहले मनुष्य को अपने अंदर के बुरे विकारों को समाप्त कर उनकी शुद्धता के लिए ईश्वर के नामों के मन्त्रों का वांचन करते हुए दाहिने हाथ में थोड़ा-जल लेकर पीने को या ग्रहण करने की क्रिया को आचमन कहा जाता है।
बोधायन के मतानुसार आचमन का अर्थ:-जब मनुष्य के द्वारा अपने हाथ को अंगुलियों के द्वारा पानी पीते समय जो आकृति बनती हैं, उस तरह की आकृति को बनाकर तीन बार जल को पीना ही आचमन कहलाता हैं।
जब धेनु के श्रुतिपटल की तरह का हस्त का गढ़न करके तीन बार जल को पिया जाता है, तब उसे आचमन कहा जाता हैं।
त्रिपवेद आपो गोकर्णवरद् हस्तेन त्रिराचमेत्।
अर्थात्:-बाएं हाथ की हथेली एवं उंगली के द्वारा गोकर्ण की बनावट करके आचमन ग्रहण करने पर ही फायदा होता हैं। तर्जनी उंगली को जब मोड़ा जाता है और अंगूठे के द्वारा जब दबा दिया जाता हैं, फिर मध्यमा उंगली, अनामिका उंगली एवं कनिष्ठिका उंगुली को भी आपास में इस तरह मोड़ा जाता हैं जिससे हाथ की जो बनावट बने वह गोकर्ण की तरह हो, उसे गोकर्ण मुद्रा कहा जाता हैं।
आचमन के नाम:-आचमन को दूसरे नामों से भी जाना जाता हैं, जैसे-ब्रह्मातीर्थ या आत्मतीर्थ आदि से भी जाना जाता हैं।
हाथ के बीच का भाग जो कि हथेली होती है, हथेली पर कलाई के नजदीक का भाग जो ब्रह्मतीर्थ माना जाता हैं, इस तरह ब्रह्मातीर्थ की बनावट से तीन बार जल को पीते हैं और चौथी बार बाएं हाथ के ब्रह्मातीर्थ के ऊपर से जल को थाली में हस्त धोने के लिए छोड़ा जाता हैं, तब उस प्रक्रिया को आचमन कहा जाता हैं।
आचमनी का मतलब:-पूजा आदि धार्मिक कर्म करते समय आचमनी की जरूरत होती हैं। आचमनी का मतलब ताम्र धातु से बने हुए ताम्र लोटे को एवं ताम्र से बनी हुई चम्मच को जब दोनों का उपयोग एक साथ किया जाता है, तो उसे आचमनी कहा जाता हैं। जब ताम्र से बने हुए आचमनी में गंगा जल या किसी भी स्थान का पवित्र जल डाला जाता है, उसमें तुलसी के पल्लव को डाला जाता है, तब वह पवित्र जल आचमन जल कहा जाता हैं।
हिन्दुधर्म ग्रन्थों के मतानुसार:-हिन्दुधर्म में अनेक तरह के अलग-अलग धर्म गर्न्थो की रचना अनेक महर्षियों ने समय के अनुसार की हैं, उनमें आचमन के बारे में भी अपने मत को बताया हैं।
'मनुस्मृति' के अनुसार:-'मनुस्मृति' में मनु महाराज ने बताया हैं, की समस्त तरह के धार्मिक कार्यों को शुरू करने से पहले और मध्य-मध्य व सन्ध्या के पूजा में भी तीन बार आचमन करने का कहा हैं। मनुस्मृति में बताया गया है कि-जब मनुष्य अपनी निद्रा की आँचल से उठता है, आहार को ग्रहण करने के बाद, भूख होने पर, जब किसी भी तरह गलत वाणी से बोलने व झूठ बोलने पर, जल को ग्रहण करते समय और विद्या को ग्रहण करते समय भी आचमन को करना चाहिए। जिससे किसी तरह की अपने तरफ से गलती को सुधार एवं माफी मिल सके।
"त्रिराचमेदपः पूर्वम्"
अर्थात्:-जब किसी तरह के धार्मिक प्रसंग या कार्य होता हैं, तब सबसे पहले तीन बार आचमन करना चाहिए।
तीन बार आचमन के बारे में धर्मग्रन्थों में इस तरह बताया गया है:-हिन्दुधर्म ग्रन्थों में आचमन को तीन बार ग्रहण करने बारे में बताया है और आचमन को ग्रहण करने से किस तरह वेदों को खुश कर सकते हैं।
प्रथमं यत् पिबति तेन ऋग्वेदं प्रीणाती।
यद् द्वितीयं तेन यजुर्वेदं प्रीणाती।।
यद् तृतीयं तेन सामवेदं प्रीणाति।।
अर्थात्:-हिन्दुधर्म के चार वेद-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अर्थववेद होते हैं। जब धार्मिक कामों को करने से पहले तीन बार आचमन का जल पिया जाता हैं, तब चार वेद में पहला वेद ऋग्वेद, दूसरा यजुर्वेद एवं तीसरा सामवेद को आवश्यकता पूरी होने से मानसिक शांति की प्राप्ति हो जाती हैं और वे खुश हो जाते हैं, इस तरह वेदों को खुश करने के लिए भी तीन बार आचमन को ग्रहण किया जाता है, जिससे वेदों की अनुकृपा मिल सके और समस्त तरह के मन में सोचे हुए कार्यों में सफलता मिल सके। मन की समस्त इच्छाओं की पूर्ति हो सकें।
अथर्ववेद की संतृप्ति एवं अनुकूल मिलना:-जब मनुष्य के द्वारा आचमन करते हुए तोय से युक्त दाहिने अंगूठे से अपने मुंह को छूते हैं, तब अथर्ववेद की आवश्यकता पूरी होने से मानसिक शांति की प्राप्ति हो जाती हैं और वे खुश हो जाते हैं।
शिवजी की अनुकृपा:-आचमन के बाद जब मनुष्य अपने मस्तिष्क पर पवित्र एवं शुद्ध जल का छिड़काव करने से शिवजी संतृप्त हो जाते हैं, जिससे मनुष्य पर उनकी अनुकृपा प्राप्त हो जाती हैं।
भास्कर देव की अनुकृपा:-जब दोनों अक्षि को छूआ जाता है, तब भास्कर देव खुश हो जाते हैं।
वायुदेव की अनुकृपा:-जब घ्राणेन्द्रिय को छुआ जाता हैं, तब वायुदेव भी संतृप्त होकर अपनी अनुकृपा कर देते हैं।
ग्रन्थियों की संतृप्ति:- जब श्रुतिपटल को छुआ जाता हैं, तब समस्त ग्रन्थियों की आवश्यकता की पूर्ति होने से वे भी अपनी अनुकृपा कर देते हैं।
इस तरह से हिंदु शास्त्रों में बताया गया हैं कि जब आचमन किया जाता हैं, तब पूजा का फल दोगुना मनुष्य को प्राप्त होता हैं।
'मनुस्मृति' में आचमन के बारे में बताया:-मनुस्मृति में आचमन के बारे में मनु महाराज ने बताया हैं, की ब्रह्मतीर्थ, प्रजापत्य तीर्थ, देवतीर्थ, पितृतीर्थ और सौम्य तीर्थ होते हैं।
ब्रह्मतीर्थ का अर्थ:-मनुष्य के हाथ के अंगूठे के नीचे की जगह को ब्रह्मतीर्थ कहा जाता हैं, इस ब्रह्मतीर्थ से आचमन करना चाहिए।
प्राजापत्य तीर्थ का अर्थ:-मनुष्य के हाथ की कनिष्ठा उंगली के नीचे की जगह को कहा जाता है, प्राजापत्य तीर्थ से आचमन करना चाहिए।
देवतीर्थ का अर्थ:-मनुष्य के हाथ की उंगली के आगे की जगह को देवतीर्थ कहा जाता हैं, इस देवतीर्थ से आचमन करना चाहिए।
पितृतीर्थ का अर्थ:-मनुष्य को पितृ को खुश करने के लिए जब तर्पण कार्य किया जाता हैं, तब उस मनुष्य को अपने हाथ की तर्जनी उंगली एवं अंगूठे के बीच के जगह से ही पितरों का तर्पण करना चाहिए।लेकिन जब धार्मिक कार्य को करते समय तर्जनी उंगली एवं अंगूठे के बीच की जगह से कभी भी आचमन नहीं करना चाहिए।
सौम्य तीर्थ का अर्थ:-मनुष्य के हाथ के बीच की जगह को सौम्य तीर्थ कहा जाता है। इसलिए सौम्य तीर्थ से आचमन ग्रहण करना चाहिए। जो कि देव के कार्य को करते समय उत्तम बताए गए हैं।लेकिन ब्रह्मतीर्थ के द्वारा ही आचमन को लेना चाहिए।
सबसे पहले उंगलियों को एकत्रित करके मन में किसी भी तरह की सोच-विचार को नहीं लाते हुए मन को एक जगह पर केंद्रित करते हुए उंगीलियों को एक साथ में करते हुए जब पवित्र एवं शुद्ध तोय से बिना हलचल की ध्वनि से तीन बार आचमन करते हैं, तब बहुत ही उत्तम नतीजों की प्राप्ति होती हैं, इसलिए नियमित रूप से धार्मिक कार्यों को करने से पहले तीन बार आचमन का पवित्र जल को पीना चाहिए।
आचमन करते समय मन्त्र एवं विधि:-आचमन का जल पीते समय मन्त्रों को दोहराना होता है, वे मन्त्र निम्नलिखित हैं-
प्रथम बार आचमन जल पीते समय:-"ऊँ केशवाय नमः का मन्त्र वांचन करते हुए जल को पीना चाहिए।
दूसरी बार आचमन जल पीते समय:-"ऊँ नाराणायः नमः का मन्त्र वांचन करते हुए जल को पीना चाहिए।
तीसरी बार आचमन जल पीते समय:-"ऊँ माधवाय नमः का मन्त्र वांचन करते हुए जल को पीना चाहिए।
चौथी बार हस्त को धोने के लिए:-"ऊँ ह्रषीकेशाय नमः का मंत्र को बोलते हुए हाथ के अंगूठे के नीचे की जगह या ब्रह्मतीर्थ की जगह से दो बार अपने होठं की आद्रता को साफ करने के लिए के बाद शुद्ध जल से हस्त को धोना चाहिए। यदि इस तरह की विधि को मनुष्य जब नहीं कर पाते हैं, तब उनको केवल अपने दाहिने कर्ण को छूने से ही आचमन की विधि पूरी हो जाती हैं, ऐसा धर्मग्रन्थों में बताया गया हैं।
आचमन करने से मिलने वाले लाभ एवं महत्व:-हिन्दुधर्म के अंतर्गत कोई भी धार्मिक क्रियाओं को शुरू करते हैं, उससे पहले तीन बार तीन देवों के नाम मंत्रों का उच्चारण करते हुए तीन बार आचमन का जल पिया जाता हैं।
बुरे विचारों को निकालने में मदद करना:-मनुष्य को अपने चित्त एवं वक्षस्थल में बुरे एवं गलत विचारों को निकालने में आचमन मदद करता है, जिससे सात्विक एवं अच्छे विचारों का उदय होता हैं। देह में बुरे विकारों का अंत हो जाता हैं, जिससे देह एकदम शुद्ध एवं पवित्र बन जाता हैं।
कफ दोष से राहत मिलना:-आयुर्वेद के मतानुसार तीन तरह के दोषों से व्याधि होती हैं, उनमें से कफ दोष भी होता हैं, जब मनुष्य के द्वारा आचमन का जल ग्रहण करते हैं, तब उनके शिरोधरा के बार-बार सूखने से राहत मिलती हैं और कफ दोष से राहत मिलती हैं।
श्वसन तंत्र का उचित तरह से कार्य में मदद मिलना:-आचमन के जल ग्रहण करने से मनुष्य के श्वसन तंत्र में उचित तरह से वायु का आना-जाना होता है, जिससे श्वसन तंत्र की क्रियाएं उचित तरह से सम्पन्न हो पाती हैं।
मन्त्र उच्चारण का ठीक तरह से होना:-जब आचमन का जल पिया जाता हैं, तब आचमन के जल के प्रभाव से मनुष्य अपने मंत्रों के उच्चारण को एकदम सही तरीके से उच्चारित कर पाता हैं।
किये गए बुरे कर्मों या धर्म एवं नीति विरुद्ध किये जाने वाले कर्मों से मुक्ति मिलना:-मनुष्य के द्वारा अपने जीवनकाल में शारिरिक रूप से, मानसिक रूप से एवं वाचिक रूप से अनेक तरह के बुरे कर्मों या धर्म एवं नीति के विरुद्ध किये जाने वाले कर्मों को कर बैठता हैं, जब मनुष्य आचमन करता है, तब वह उन बुरे कर्मों से मुक्ति पा लेता हैं।
सर्वोत्तम अज्ञात नतीजे का मिलना:-जब मनुष्य के द्वारा आचमन किया जाता हैं, तब मनुष्य को बिना जानकारी के जिसकी तुलना नहीं कि जा सके ऐसे फल की प्राप्ति हो जाती हैं।
चित्त की प्रबलता होने में:-किसी भी तरह के कार्य को शुरू करने से पहले आचमन करने से चित्त को प्रबलता मिलती हैं, जिससे चित्त एक जगह पर केंद्रित हो पाता हैं।
आचमन के बारे में जो मनुस्मृति में मनु महाराज के द्वारा बताई गई जो जानकारी से प्रमाणित होता हैं, की आचमन में मनुष्य के द्वारा जो पवित्र जल पिया जाता हैं, उस जल के पीने से मुंह में लार का रसा निकलता है, जो देह के लिए जरूरी होता हैं। इसलिए कोई धार्मिक कार्यों को शुरू करने से पूर्व तीन बार आचमन किया जाता हैं। जब आचमन करने के बाद किसी भी तरह के नियमपूर्वक कार्य को आरम्भ करते समय छींक, डकार और उभासी आदि शारीरिक क्रियाएं नहीं हो पाती हैं, ऐसा रूढ़ियों के अनुसार बताया जाता हैं।