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Wednesday, April 27, 2022

महिषासुर मर्दिनी स्तोत्रं अर्थ सहित क्या है?(What is Mahishasur Mardini Stotram with meaning)

                     What is Mahishasur Mardini Stotram with meaning

             


महिषासुर मर्दिनी स्तोत्रं अर्थ सहित क्या है?(What is Mahishasur Mardini Stotram with meaning):-श्री महिषासूर मर्दिनी स्तोत्रं एक बहुत ही अद्भुत स्त्रोत है, जिसमें देवी माता महाकाली के विषय में उल्लेख किया गया है, इस स्त्रोत को कालिदास जी ने रचना की थी। इस स्तोत्रं में महाकाली के विषय में बहुत ही गहराई से बताया गया है।



महिषासुर मर्दिनी स्तोत्रं का पूर्ण अर्थ सहित भावार्थ्:-श्री महिषासुर मर्दिनि स्त्रोत को करने से पूर्व इस स्त्रोत में क्या बताया गया है, उसके बारे में जानकारी प्राप्त करके ही उसका उच्चारण करना चाहिए। अन्यथा सही तरह से उच्चारण नहीं करने से अनर्थ हो जाता है। इसलिए इस स्त्रोत के बारे में जो शब्दों के अर्थ है, वह इस तरह हैं।



अयि गिरी नन्दिनी नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते।

गिरिवर विन्ध्यशिरोधिनिवासिनी विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते।

भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।1।।


भावार्थ:-हे पर्वतराज की कन्या, संसार को खुशी का अनुभव प्रदान करने वाली, नंदी गणों के द्वारा सम्मान से पूजनीय, पर्वतवर विंध्याचल के सबसे ऊंचे शिखर पर रहने वाली, भगवान चक्रपाणि को को हर्ष व खुश रखने वाली, इंद्रपुरी के राजा इंद्रदेव के द्वारा सम्मानित व सम्मान पूर्वक आदर को पाने वाली, भगवन् शिवशंकर की अर्द्धांगिनी के रूप, संसार में सबसे बड़े परिवार वाली और संसार को सभी तरह से सम्पन्न करने वाली दैत्य महिसासुर को रौंदने वाली भगवती! अपने सुंदर कुंतल की जुल्फों से सभी को अपनी तरफ खींचने वाली पर्वतराज की तनुजा तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।



सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते।

त्रिभुवनपोषिणि शंकरतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते।।

दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणी सिन्धुसुते।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।2।।


भावार्थ:-समस्त देवताओं को वरदान प्रदान करने वाली, भयानक रूप के विकराल दैत्य दुर्धर और दुर्मुख का वध करके उनके आंतक से मुक्त करने वाली, हमेशा अपने सुंदर मुख से खुशी का भाव देने वाली, पृथ्वी लोक, पाताललोक एवं आकाशलोक को अपने ममताभाव से अपने सन्तान की तरह पालन-पोषण करके ध्यान रखने वाली, सभी तरह से भोलेनाथ को संतुष्ट रखने वाली, बुरे व दुराचारी के क्षमास्वरूप मांगने पर भी उनके पापों को हरने वाली, तीव्र आवाज से गर्जना करने वाली, दैत्यों पर कोप करने वाली, अहंकारियों के घमंड को नष्ट करके उनमें विनय भाव उत्पन्न करने वाली, महिसासुर को रौंदने वाली पारावार राज की पुत्री दैत्य ! अपने सुंदर कुंतल की लता से सभी को अपनी तरफ खींचने वाली पर्वतराज की तनुजा तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।



अयि जगदम्बमदम्बकदम्ब वनप्रियवासिनि हासरते।

शिखरिशिरोमणि तुङ्गहिमायल शृंगनिजालय मध्यगते।।

मधुमधुरे मधुकैटभगन्जिनि कैटभभंजिनि रासरते।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।3।।

भावार्थ:-हे संसार की जन्म देने वाली जननी, मेरी माँ, कदम्ब के अटवी में खुशी व प्रेम से निवास करने वाली, हंसी-मजाक की भावना रखते हुए सदैव खुश रहने वाले, नगपति के सबसे ऊंची जगह पर अपने भवन में रहने वाली, शहद की तरह मीठापन लिए मीठे भाव को रखने वाली, मधु-कैटभ के घमण्ड को दूर करने वाली, महिष को निहित करने वाली, हमेशा रण के लिए तैयार होकर रण करने वाली, हे महिसासुर को रौंदने वाली पारावार राज की पुत्री दैत्य ! अपने सुंदर कुंतल की लता से सभी को अपनी तरफ खींचने वाली पर्वतराज की तनुजा तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।



अयि शतखण्ड विखण्डितरुण्ड वितुण्डितशुण्ड गजाधिपते।

रिपु गजगण्ड विदारणचण्ड पराक्रम शुण्ड मृगाधिपते।।

निजभुजदण्ड निपतित खण्ड विपातित मुंड भटाधिपते।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।4।।


भावार्थ:-दुश्मनों के कुंजरो की सूंड काटने वाली और उनके सौ टुकड़े करने वाली, जिनका सिंह दुश्मनों के सर को विच्छेद-विच्छेद कर देना वाला होता है, जो चण्ड एवं मुण्ड नामक दैत्य को अपनी भुजाओं रूपी अस्त्रों से शीश को काटकर अलग करने वाली हे महिसासुर को रौंदने वाली पारावार राज की पुत्री दैत्य ! अपने सुंदर कुंतल की लता से सभी को अपनी तरफ खींचने वाली पर्वतराज की तनुजा तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो। 



अयि रणदुर्मद शत्रुवधोदित दुर्धरनिर्जर शक्तिभृते।

चतुर्विचारधुरीणमहाशिव दूतकृत प्रथमाधिपते।।

दुरितदुरीह दुराशयदुर्मति दानवदूत कृतान्तमते।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।5।।


भावार्थ:-युद्ध में मदोंमत दुश्मनों को मौत के घाट उतारने वाली, जो क्षय रहित बिना नाश होने वाली शक्तियां को धारण करने वाली भगवान शंकरजी की होशियारी को ज्ञात करके उनको अपने संदेश वाहक बनाने वाली, बुरी बुद्धि और बुरे विचार वाले राक्षस के दूत प्रकरण को समाप्त करने वाली, हे महिसासुर को रौंदने वाली अपने सुंदर कुंतल की लता से सभी को अपनी तरफ खींचने वाली पर्वतराज की तनुजा तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।



अयि शरणागत वैरिवधूवर वीरवराभय दायकरे।

त्रिभुवनमस्तक शुलविरोधि शिरोधिकृतामल शूलकरे।।

दुमिदुमितामर धुन्दुभिनादमहोमुखरीकृत दिनकरे।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।6।।


भावार्थ:-हे माता आपकी शरण में आये हुए दुश्मनों की भार्यों के प्रार्थना करने पर आप उनके जीवन को मुक्त कर देने वाली हैं, आप आकाशलोक, पाताललोक एवं पृथ्वीलोक पर निवास करने वाले सभी तरह के जीवों को असुरों के द्वारा परेशान एवं कष्ट पहुंचाने पर उन पर अपने त्रिशूल से घात करके उनका अंत करने वाली हो, गूंजती हुए आवाज जो कि देवताओं की आवाज जो कि एक बड़े नगाड़े की आवाज की तरह अपने मुख से निर्मित शब्दों की आवाज को बार-बार दोहराती हुई समस्त दिशाओं में फैलाने वाली हो, महिषासुर पर अनुकूल अवसर पर प्रहार करने वाली सुन्दर रूप वाली एवं मन को लुभाने वाले गुथे एवं लिपटे हुए बालों की लटों वाली सबको अपने तरफ खींचने वाली, हे धरणीधर की तनया तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।



अयि निजहुङ्कृति मात्रनिराकृत धूम्रविलोचन धूम्रशते।

समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणित बीजलते।।

शिवशिवशुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।7।।


भावार्थ:-हे देवी आप अपनी उग्र एवं जोर से आवाज करने पर दैत्य धूम्रलोचन को धुएँ के रंग की तरह की राख में बदलने वाली हैं, जब आपको संग्राम में क्रोध आने पर क्रोधित दैत्य रक्तबीज के शोणित से जन्में हुए बार-बार रक्तबीजों का लोहित का पान करने वाली हो, भगवान शिवजी और पिशाच-मृत आत्मा को शुम्भ एवं निशुम्भ असुरों को भोग के रूप में अर्पण करके उनको संतुष्ट करने वाली हो, महिषासुर पर अनुकूल अवसर पर प्रहार करने वाली सुन्दर रूप वाली एवं मन को लुभाने वाले गुथे एवं लिपटे हुए बालों की लटों वाली सबको अपने तरफ खींचने वाली, हे धरणीधर की तनया तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।



धनुरनुषङ्ग रणक्षणसङ्ग परिस्फुरदङ्ग नटत्कटके।

कनकपिशङ्ग पृषत्कनिषङ्ग रसद्भटशृङ्ग हताबटुके।।

कृतचतुरङ्ग बलक्षितिरङ्ग घटद्वहुरङ्ग रटद्बटुके।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।8।।


भावार्थ:-देवी के करों के कंकण चाप के साथ तेज से भरे हुए या मंडित या चमकीले रंग या चमक के रूप में रण क्षेत्र में दृश्यमान हो रही हैं, उनके स्वर्ण बने शर दुश्मनों को निहित करके लोहित रंग के हो जाते हैं और दुश्मनों के मुहं से तेज स्वर में चित्कारिया चारों तरफ सुनाई देती हैं, चत्वारि कटक जैसे हस्त, अश्व, पैदल और रथ आदि का विनाश करते हुए तरह-तरह की आवाज को करने वाले बटुकों को उत्पन्न करने वाली हैं, महिषासुर पर अनुकूल अवसर पर प्रहार करने वाली सुन्दर रूप वाली एवं मन को लुभाने वाले गुथे एवं लिपटे हुए बालों की लटों वाली सबको अपने तरफ खींचने वाली, हे धरणीधर की तनया तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।



सुरललना ततथेयि तथेयि कृताभिनयोदर नृत्यरते।

कृत कुकुथः कुकुथो गडदादिकताल कुतूहल गानरते।।

धुधुकुट धुक्कुट धिंधिमित ध्वनि धीर मृदंग निनादरते।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।9।।


भावार्थ:-हमेशा अनेक तरह के भावों से परिपूर्ण शब्दों जैसे तत-था थेयि-थेयि आदि जो कि देवांगनाओं के द्वारा गायन व नृत्य लय में करते है उनके भावों की अभिव्यक्ति में डूबी रहने वाली, अनेक तरह की कु-कुथ अड्डी आदि मात्राओं वाले लय वाले दिवंगत स्वर, पद और ताल से युक्त गानों की नाद में डूबी रहने वाली, ढ़ोल की तरह का प्राचीन आनद्ध वाद्य की धू-धुकुट धिमि-धिमि आदि जो ऊँची एवं भारी नाद सुनने में मग्न रहने वाली, महिषासुर पर अनुकूल अवसर पर प्रहार करने वाली सुन्दर रूप वाली एवं मन को लुभाने वाले गुथे एवं लिपटे हुए बालों की लटों वाली सबको अपने तरफ खींचने वाली, हे धरणीधर की तनया तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।


जय जय जप्य जयेजयशब्द परस्तुति तत्परविश्वनुते।

झणझणझिझिमि झिङ्कृत नूपुरशिञ्जितमोहित भूतपते।।

नटित नटार्ध नटी नट नायक नाटितनाटय सुगानरते।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।10।।


भावार्थ:-समस्त तीनों लोकों अर्थात् पृथ्वीलोक, आकाश लोक और पाताललोक में जिनका जय-जयकार के रूप में गुणगान एवं बखान और चाटुकारिता की प्रशंसा होती है उनको समस्त अभिवादन करते है, जिनमें इतना आकर्षण है जो कि अपने पैरों में पहने हुए पैंजनी के झण-झण और झिमझिम शब्दों से भगवान भोलेनाथ जी को भी अपने आकर्षण से अपनी तरफ खींचने का सामर्थ्य रखती है, जो कि नटी-नटों के अधिपति चन्द्रशेखर जी नृत्य से अत्यन्त शोभायमान नाट्य में मग्न रहने वाली हैं, महिषासुर पर अनुकूल अवसर पर प्रहार करने वाली सुन्दर रूप वाली एवं मन को लुभाने वाले गुथे एवं लिपटे हुए बालों की लटों वाली सबको अपने तरफ खींचने वाली, हे धरणीधर की तनया तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।


अयि सुमनः सुमनः सुमनः सुमनोहरकान्तियुते।

श्रितरजनी रजनीरजनी रजनीरजनी करवक्त्रवृते।।

सुनयनविभ्रमर भ्रमरभ्रमर भ्रमरभ्रमराधिपते।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।11।।


भावार्थ:-हे देवी आप अपनी आभा से सबको मोहित करने वाली बहुत शोभन से युक्त चित्त वाली है और निशा को शरण देने वाले सोमदेव की चमक को भी अपने आनन के सुंदर होने के भाव के शोभन से धूमिल करने वाली हो, आपके सुंदर चक्षुओं की आभा कृष्ण अलि के तरह की है, महिषासुर पर अनुकूल अवसर पर प्रहार करने वाली सुन्दर रूप वाली एवं मन को लुभाने वाले गुथे एवं लिपटे हुए बालों की लटों वाली सबको अपने तरफ खींचने वाली, हे धरणीधर की तनया तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।।  

 


सहितमहाहव मल्लम-तल्लिक मल्लि-तरल्लक मल्लरते।

विरचितवल्लिक पल्लिकमल्लिक झिल्लिकभिल्लिक वर्गवृते।।

शिवकृतफुल्ल समुल्लसितारुण तल्लजपल्लव सल्ललिते।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।12।।


भावार्थ:-हे देवी! आप सदैव अपने अनेक रूपों में सदा महायोद्धाओं से युद्ध में जैसमीन के फूलों की तरह नाजुक स्त्रियों के साथ रहने वाली हो तथा जैसमीन की लताओं की तरह नाजुक भील स्त्रियों से जो की झींगुरों के समूह की तरह (बरसाती छोटे कीड़े जो बहुत ही तेज झींझी शब्द करते है) चारों ओर घिरी रहती है, चेहरे पर खुशी के भाव उत्पन्न हुए, प्रातःकाल के रवि और खिले हुए रक्त पुष्प की तरह मन को हरणे वाली मधुर मुस्कान वाली हो, हे महिषासुर पर अनुकूल अवसर पर प्रहार करने वाली सुन्दर रूप वाली एवं मन को लुभाने वाले गुथे एवं लिपटे हुए बालों की लटों वाली सबको अपने तरफ खींचने वाली, हे धरणीधर की तनया तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।


अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमतङ्गजराजपते।

त्रिभुवनभुषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते।।

अयि सुदतीजन लालसमानस मोहन मन्मथराजसुते।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।13।।


भावार्थ:-हे भगवती! जिनके श्रवणों में हमेशा एक घना मिला या सटा हुआ नियमित रुप से मद प्रवाहित होता रहता हैं, जो हस्ती की तरह मद के नशे में चूरचूर रहने वाली हो। हे गजेश्वरी! आप पृथ्वीलोक, आकाशलोक और पाताललोक के समस्त हीरे-जवाहरात से बने हुए आभूषणों को धारण करके आपके देह की सुंदरता, शक्तियों को धारण किये हुए और समस्त षोड़श कलाओं से आप शोभमान हो। हे राजेश्वरी राजा की तनया! आपकी आकर्षण देने वाली मुस्कराहट उसी तरह से जिस तरह रतिपति की पुत्री की तरह सबको अपनी तरफ खीचने अपने आकर्षण से खींचने का सामर्थ्य होता है, उसी तरह ही आपमें वही सामर्थ्य है, हे महिषासुर! पर अनुकूल अवसर पर प्रहार करने वाली सुन्दर रूप वाली एवं मन को लुभाने वाले गुथे एवं लिपटे हुए बालों की लटों वाली सबको अपने तरफ खींचने वाली, हे धरणीधर की तनया तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।


कमलदलामल कोमलकान्ति कलाकलितामल भाललते।

सकलविलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले।।

अलिकुलसकुल कुवलयमण्डल मौलीमिलद्वकुलालिकुले।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।14।।


भावार्थ:-हे देवी!आपका ललाट या भाल सरसिज दल की तरह बहुत ही नाजुक, एकदम साफ-उज्ज्वल और आभा से युत हैं, आपके चलने की गति व चाल कलकंठ की तरह लहराती हुई है, उस लहराती हुए गति से समस्त षोड़श कलाओं की उत्पत्ति हुई हैं। आपके चिकुर की लताओं में मिलिंद से घिरे कुमुदनी के पुष्प और बकुल सुमुन जो कि टेढा होता है आपकी आभा को चार चांद लगा रहा है,हे महिषासुर! पर अनुकूल अवसर पर प्रहार करने वाली सुन्दर रूप वाली एवं मन को लुभाने वाले गुथे एवं लिपटे हुए बालों की लटों वाली सबको अपने तरफ खींचने वाली, हे धरणीधर की तनया तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।


करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकोकिल मञ्जुमते।

मिलितपुलिन्द मनोहरगुञ्जित रञ्जितशैल निकुञ्जगते।।

निजगणभूत महाशबरीगण सद्गुणसम्भृत केलितले।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।15।।

भावार्थ:-हे भगवती! आपके करों की बाँसुरी के स्वरों की आवाज से कोकिला भी अपने आपको शर्मिदा महसूस करने लगती है, इतनी मधुर आवाज आपके करों में बाँसुरी की आवाज निकलती हैं। आप खिले हुए पुष्पों से रंगीन धरणीधरों से घूमते हुयी, आप अपनी मधुर वाणी के संगीत को पुलिंद जनजाति की स्त्रियों के साथ गायन करती हैं, आप सदाचार से युक्त गुणों वाली स्त्रियों के साथ क्रीड़ाऐं करती हो, हे महिषासुर पर अनुकूल अवसर पर प्रहार करने वाली सुन्दर रूप वाली एवं मन को लुभाने वाले गुथे एवं लिपटे हुए बालों की लटों वाली सबको अपने तरफ खींचने वाली, हे धरणीधर की तनया तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।


कटितटपीत दुकूलविचित्र मयूखतिरस्कृत चन्द्ररुचे।

प्रणतसुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुलसन्नख चन्द्ररुचे।

जितकनकाचल मौलिमदोर्जित निर्भरकुञ्जर कुम्भकुचे।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।16।।


भावार्थ:-हे भगवती! आपकी छवि ऐसी है कि सोम की जगमगाहट भी धूमिल हो जाती है, आपकी कटि पर सुंदर एवं उज्ज्वल रेशम के चीरों से आपकी कटि की शोभा ओर भी बढ़ जाती हैं, आपके पैरों के नाखून सोम की तरह जगमगाते है, जब देवताओं और दैत्यों के सिर आपके सम्मुख झुकते है, जिस तरह कोई हस्ति मद के नशे में चूर होकर एवं स्वर्ण से बने धरणीधरों पर अपनी जीत करके मद से उन्मत हो जाता है, उसी तरह देवी आपके वक्षःस्थल किसी घट की तरह दिखाई पड़ते है, ऐसी देवी है, जो हे महिषासुर पर अनुकूल अवसर पर प्रहार करने वाली सुन्दर रूप वाली एवं मन को लुभाने वाले गुथे एवं लिपटे हुए बालों की लटों वाली सबको अपने तरफ खींचने वाली, हे धरणीधर की तनया तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।



विजितसहसकरेक सहस्रकरैक  सहस्रकरैकनुते।

कृतसुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनुसुते।।

सुरथसमाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।17।।


भावार्थ:-हे देवी! सहस्त्रों अर्थात् असुरों के सहस्त्रों हाथों से सहस्त्रों युद्ध में सभी तरह से सब तरह से अपनी जीत को सुनिश्चित करके जीतने वाली हो, हजारों हाथों से आपकी पूजा की जाती है, सुरतारक (देवताओं की सभी तरह से रक्षा करने वाली हो) को उत्पन्न करने वाली हो, उसका आप तारकासुर नामक रक्ष के साथ युद्ध को करवाने वाली हो, राजा सुरथ और समाथी नामक वैश्य की सच्ची भक्तिभाव और उनके विश्वास से आप सभी से आश्वस्त होने वाली हो, हे महिषासुर पर अनुकूल अवसर पर प्रहार करने वाली सुन्दर रूप वाली एवं मन को लुभाने वाले गुथे एवं लिपटे हुए बालों की लटों वाली सबको अपने तरफ खींचने वाली, हे धरणीधर की तनया तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।



पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति यो नुदिनं सुशिवे।

अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत्।।

तव पदमेव परम्पदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।18।।


भावार्थ:-हे देवी!जो भी आपके चरण कमलों की अरदास करता है, जो भी आपके प्रति श्रद्धाभाव एवं विश्वास भाव रखकर आपके दयाभाव से पूर्ण चरण कमलों का पूजन करता है, हे हिरण्यमयी! तो वह मनुष्य कैसे नहीं धन-सम्पत्ति वाला बन सकता है अर्थात् उस पर हिरण्यमयी की अनुकृपा कैसे नहीं होगी? हे रुद्राणी! आपके तो चरणकमल ही सबसे उत्तम एवं उच्चपदवी वाले है, जो मनुष्य आपका गुणगान एवं आप के प्रति श्रद्धाभाव रखेगा तो वह कैसे नहीं उच्चपद को प्राप्त कर पायेगा? महिषासुर पर अनुकूल अवसर पर प्रहार करने वाली सुन्दर रूप वाली एवं मन को लुभाने वाले गुथे एवं लिपटे हुए बालों की लटों वाली सबको अपने तरफ खींचने वाली, हे धरणीधर की तनया तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।


कनकलसत्कलसिंधुजलेरनु षिञचति तेगुणरङ्गभुवम्।

भजति स किं न शचीकुचकुम्भतटीपरिरम्भसुखानुभवम्।

तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवम्।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।19।।


भावार्थ:-हे भगवती! सरिता का निर्मल जल जो कनक की तरह उज्ज्वल होता है, उस जल से आपके रँगनिवास अर्थात् आपके मुख्य निवास स्थान पर उस जल का जो सिंचन करेगा, वह माधवानी के उरुस्थल से गले लगाया हुए सुरपति की तरह सुख का अनुभव क्यों नही महसूस करेगा? हे वीणावादिनी! मैं आपसे अरदास करता हूँ कि मुझे आपके चरण कमलों में जगह दे दीजिए, मैं आपके द्वार आया हूँ आप सभी तरह के मंगलकारी कार्यों में निवास होता हैं, इसलिए आपसे अनुरोध करता हूँ कि आप अपने चरण कमलों में मुझे जगह देवे जिससे मुझे आपकी सेवा का सौभाग्य प्राप्त होवे। हे महिषासुर पर अनुकूल अवसर पर प्रहार करने वाली सुन्दर रूप वाली एवं मन को लुभाने वाले गुथे एवं लिपटे हुए बालों की लटों वाली सबको अपने तरफ खींचने वाली, हे धरणीधर की तनया तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।



तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननुकूलयते।

किमु पुरुहूतपुरीन्दु मुखीसु मुखीभिरसौ विमुखीक्रियते।

ममतु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुतक्रियते।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।20।।


भावार्थ:-हे माता!आपका स्वच्छ एवं पवित्र आनन सोम की तरह है उसमें सोम वास करने वाले होते हैं, जो कि सभी तरह की अशुद्धियों को दूर करने वाले होते है, वरना आप तो सब जानते है कि मेरे चित्त में इंद्रपुरी में वास करने वाली आकर्षण एवं मन को हरण करने अतुलनीय स्त्रियों से दूर हो कैसे हो गया? मेरे विचार के अनुसार आपकी अनुकृपा भगवान भोलेनाथ जी के गुणगान के बिना कैसे मिल सकती है, जो कि सबसे अमूल्य निधि है। हे महिषासुर पर अनुकूल अवसर पर प्रहार करने वाली सुन्दर रूप वाली एवं मन को लुभाने वाले गुथे एवं लिपटे हुए बालों की लटों वाली सबको अपने तरफ खींचने वाली, हे धरणीधर की तनया तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।



अयि मयि दीन दयालु-तया कृपयेव त्वया भवितव्यमुमे।

अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथानुमितासिरते।।

यदुचितमत्र भवत्पुररीकुरूतादुरुतापमपाकुरुते।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते।।21।।


भावार्थ:-हे माता आप निर्बल एवं दयनीय दशा वाले दरिद्र पर अपनी करुणा की छाया करने हो। आपकी करुणा की छाया मेरी ऊपर भी कर दीजिए। हे संसार का पालन-पोषण करने वाली एवं संसार को उत्पन्न करने वाली! आप जिस तरह अपनी करुणा की बारिश सबके ऊपर करती ही वैसे ही अपने शत्रुओं पर शिलीमुख की बारिश भी करने वाली हो, इसलिए आपको जिस तरह अच्छा लगता हैं वैसा ही कीजिये। आप मेरे ऊपर कृपा कीजिए और मेरे द्वारा किये गलत, अनुचित कार्यों और बुरे धर्म एव नीति के विरुद्ध किये गए आचरण को आप इनको दूर कीजिए जिससे मुझे शीतलता की अनुभूति होवे। हे महिषासुर पर अनुकूल अवसर पर प्रहार करने वाली सुन्दर रूप वाली एवं मन को लुभाने वाले गुथे एवं लिपटे हुए बालों की लटों वाली सबको अपने तरफ खींचने वाली, हे धरणीधर की तनया तुम्हारी जय हो, जय हो, जय हो।


        ।।इति श्रीमहिषासुर मर्दिनी स्तोत्रं संपूर्ण।।