महाशिवरात्रि पर्व की कथा (फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी)(katha of Mahashivratri parv (Falgun Krishna Chaturdashi):-हिंदुओं का पावन पर्व माना जाता हैं। सभी देवों का पूजन दिन के समय में होता है और भगवान शिवजी को रात्रि अति प्रिय हुई है और वह भी फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि है। भगवान भोलेनाथ जी और सती का विवाह होकर उन दोनों का मिलन होना का पर्व माना गया है। भगवान शिवजी को संहार शक्ति और तमोगुण के अधिष्ठाता माना जाता हैं अतः तमोमयी रात्रि से उनका प्रेम स्वाभाविक ही है। रात्रि संहार की प्रतिनिधि है, उसका आगमन होते ही सबसे पहले रोशनी का संहार होता है जीवों की दैनिक कर्म-चेष्टाओं का संहार और आखिर में नींद के द्वारा चेतना का ही संहार होकर संपूर्ण संसार संहारिणी रात्रि की गोद में अचेतन होकर गिर जाता है। इस कारण भगवान शिवजी की रात्रि का समय अतिप्रिय होने से उनकी आराधना महाशिवरात्रि में रात्रि के समय में होकर हमेसा प्रदोष काल (रात्रि प्रारंभ होने पर) में की जाती है।
फाल्गुन मास में कृष्ण पक्ष में शिवरात्रि के आने का कारण:-शुक्लपक्ष में चन्द्रमा पूर्ण होता है और कृष्ण पक्ष में कमजोर होता हैं। उसकी बढ़ोतरी के साथ-साथ जगत् के सभी रसवान पदार्थों में बढ़ोतरी और क्षय के साथ-साथ उनमें क्षीणता स्वाभाविक और साक्षात है। इस तरह क्रमशः घटते-घटते वह चन्द्र अमावस्या को बिल्कुल क्षीण हो जाता है। चन्द्रमा के क्षीण हो जाने पर उसका असर जीवधारियों पर पड़ता है और जीवों के अन्तःकरण में तामसिक शक्तियां प्रबल होकर अनेक तरह के अनैतिक व आपराधिक गतिविधियों को जन्म देती है। इन्हीं शक्तियों का एक नाम भूत-प्रेतादि है और शिव को इनका विनाश करने वाला माना जाता हैं। दिन के समय संसार में आत्मा भास्कर के असर के कारण ये अपनी ताकतों को तेज नहीं कर पाते है,लेकिन रात में जब अंधेरा होता है, तब तेज हो जाती है, तब उनको खत्म करने के लिए उन पर काबू पाने के लिए शिवजी ने रात का समय उपयोग के लिए रखा।इसलिए शिवजी को रात का समय बहुत प्यारा होता है।
महाशिवरात्रि:-फाल्गुन मास में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि में आने वाली रात्रि को महाशिवरात्रि कहा जाता हैं।इसका कारण है, की क्षय पूर्ण तिथि (अमावस्या) के बुरे असर से बचने के लिए उससे एक दिन पूर्व की चतुर्दशी तिथि को यह उपासना की जाती है, उसी तरह क्षय होते हुए वर्ष के अंतिम मास से ठीक एक महीने पहले ही इसका विधान शास्त्रों में मिलता है, जो कि सर्वथा युक्ति संगत है।
भगवान शिवजी संहार के साथ कल्याणकारी ही भी होते है,क्योकिं जब कोई वस्तु समाप्त होती है ,तब दूसरी वस्तु का निर्माण होता है, इसलिए भगवान शंकरजी पहले संहार करते है, बाद में निर्माण करते है।
उत्तर भारतीय पंचांग के मतानुसार फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को महाशिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है।
दक्षिण भारत के पंचांग के मतानुसार में माघ मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को महाशिवरात्रि पर्व को मनाया जाता है। क्योंकि पन्द्रहा दिन के अंतर होने से मास अलग-अलग हो जाते है, लेकिन एक तिथि के दिन महाशिवरात्रि के पर्व को मनाया जाता है, वह तिथि मुख्यतया फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि है।
उपवास एवं रात्रि-जागरण क्यो?:-जिस तरह नशे के रूप में भांग, दारू, अफीम आदि मादक प्रदाथों के सेवन से मादकता आती है,उसी तरह भोजन के रूप में अन्न को ग्रहण करने पर मादकता के रूप में आलस्य और निंद्रा का जन्म होता है, इसलिए अपने पेट की अग्नि को शांत करते हुए बिना अन्न को ग्रहण करके उपवास करते है, जिसका फल हमे हमारे पाचनतंत्र को अपनी क्रियाविधि को ठीक करना मौका मिल जाता है और ईश्वर की आराधना हो जाती है, इसलिए उपवास करना चाहिए।
रात्रि जागरण का महत्व:-भगवत गीता के अनुसार "या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी" का अर्थ है कि जब सभी प्राणी जगत् के प्राणी अचेतन होकर नींद की गोद में जा पड़ते है तो संयमी जिसने उपवासादि द्वारा इंद्रियों पर काबू प्राप्त कर लिया है, जागकर अपने काम को पूरा करता है। इसलिए जब संयमी पुरुष हमेशा रात में जागते हुए ही अपने लक्ष्य सिद्धि को पाने की कोशिश किया करता है तब शिवोपासना के लिए यह रात का समय ही अच्छा रहता है।
समय का निर्धारण:-जिस दिन अर्धरात्रि में चतुर्दशी तिथि हो उसी दिन महाशिवरात्रि का व्रत करना चाहिए।
◆जब कभी महाशिवरात्रि के दिन सोमवार या रविवार होता है, तब उस तिथि में पड़ने वाले दिन का बहुत ही शुभदायक शास्त्रों में बताया गया है।
विशेष:-महाशिवरात्रि के पर्व को जम्मू-कश्मीर में सबसे ज्यादा धूमधाम से मनाया जाता है। कश्मीरी ब्राह्मण महाशिवरात्रि के पर्व को लगातार सोलहा दिन तक मनाते हैं। जम्मू-कश्मीर में भगवान भोलेनाथ जी और माता गौरी विवाह का त्यौहार पूरे चार दिन तक मनाया जाता हैं।आरम्भ से सोलहा दिन तक जबर्दस्त त्यौहार का माहौल रहता है।
◆शिवरात्रि के दिन भक्तगण भांग का सेवन करते है, लेकिन इस दिन जो महत्व बेर खाने का है,उतना किसी और चीज का नहीं।
◆शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता हैं कि जो भगवान भोलेनाथ जी के भक्त बेर फल को नहीं खाता है, वह अगले जन्म में बकरी के रूप में जन्म लेता है।
महाशिवरात्रि के दिन की पूजा विधि:-निम्नलिखित हैं।
◆महाशिवरात्रि के दिन भक्त सुबह स्नान कर उपवास रखते है।
◆इसके बाद मंदिर जाकर बिल्व के पत्तो से, धतूरे, आक के फूलों, तुलसीदल और दूध से भगवान भोलेनाथ जी, माता गौरी, भगवान गणपति जी और भगवान शिवजी की सवारी नंदी की पूजा-आराधना करनी चाहिए।
◆पूरे दिन ऊँ नमः शिवाय, ऊँ नमः शिवाय मन्त्र का जाप मन में करना चाहिए।
◆इस दिन भगवान भोलेनाथ जी को खुश करने के लिए शिवमहिम्न स्त्रोत और रुद्राष्टाध्यायी का पाठ करना चाहिए।
◆उसके बाद भगवान भोलेनाथ जी का पंचामृत से अभिषेक करना करना चाहिए।
◆फिर हवन आदि करने के बाद पूजा पूर्ण होती है।
◆ब्राह्मणों को भोजन कराकर उनको अपने सामर्थ्य के अनुसार दान देना चाहिए।
◆इस दिन भगवान शिवजी के बारहों ज्योतिर्लिंगों पर फूल, भस्म, भभूति और भांग से मुख्य रूप से श्रृंगार भी किया जाता हैं।
◆महाशिवरात्रि के दिन पारे के शिवलिंग का विधि-विधान से अभिषेक करने पर करोड़ो गुना अधिक पुण्य प्राप्त होता है।
महाशिवरात्रि शिवजी के लिंग के रूप में जन्म की पौराणिक कथा:-एक बार भगवान शिव देवी गौरी को लेकर अभिसार में लीन हो गए। इस दिन के ऊपर दिन बीतते गए और महाभिसार का समय बढ़ता जा रहा था।सभी देवतागण इस हालत से चिंतित हो गए, क्योंकि सृष्टि का क्रम गड़बड़ाने लगा था। इस तरह सभी देवताओं और गण परेशान होकर उनका धीरज साथ छोड़ रहा था,आखिरकार उन सबका धीरज टूट गया, तब वे सभी सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी के पास जाते है और उनसे निवेदन करते है, की भगवान भोलेनाथ को अभिसार कक्ष से बाहर लाने की अरदास करते है। इस तरह सभी देवताओं और गणों की प्रार्थना पर ब्रह्माजी उनके साथ चलते है,वहां पर पहुंचकर वे बिना सूचना दिए भगवान शिवजी के अभिसार कक्ष में चले जाते है। इस शिवजी को अभिसार में लीन देखकर ब्रह्माजी को बहुत ही गुस्सा आ जाता है और वे अपने गुस्से के वश शिवजी को लिंग के रूप में जन्म लेने का श्राप देते है। इस भगवान शिवजी के लिंग के रूप में जन्म होने के कारण इस पर्व को महाशिवरात्रि के रूप में मनाने का चलन हुआ, जो कि आज तक चल रहा है।
शिवरात्रि के संदर्भ में पौराणिक मान्यता प्राप्त कथा:-राजा दक्ष हिमालय के स्वामी थी,उनके एक पुत्री हुई उस पुत्री का नाम सती था। राजा दक्ष अपनी पुत्री सती के विवाह के लिए सुयोग्य वर की तलाश कर रहे थे, लेकिन सती भगवान शिवजी को अपना पति मन ही मन मान चुकी थी। इसलिए सती एक कठोर तपस्या भगवान भोलेनाथ को खुश कर अपने पति रूप में पाने के लिए की थी।तपस्या बहुत ही कठिन थी, इस कठोर तपस्या से खुश भगवान भोलेनाथ ने वर मांगने को कहा, तब सती ने कहा हे भोलेनाथ जी आप की कृपा मेरे पर हुई है, तो मैं आपको पति के रूप में ग्रहण करना चाहती हूं, इस तरह भगवान भोलेनाथ ने खुश होकर सती को वर दे दिया। इस तरह कुछ समय बाद सती अपने घर हिमालय खुश होकर गई।
उधर नारदजी के द्वारा राजा दक्ष को पता चला कि सती भगवान शिवजी से प्रेम करती है और उनसे विवाह करनी चाहती है, तब दक्ष को बहुत ही गुस्सा आया।वे भगवान शिवजी से ईर्ष्या करते थे। अपनी पुत्री सती को भगवान शिवजी को भूलने के लिए कहा, तब सती उदास हो गई। उसने सबकुछ त्याग दिया और दिनों-दिन कमजोर होने लगी। तब उसकी माता राजा दक्ष को सती का विवाह शिवजी से करवाने के लिए तैयार करती है। इस तरह भगवान भोलेनाथ और सती के विवाह के लिए मान जाते है और विवाह पूरा होता है। विवाह के दिन की तिथि फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि थी। इस दिन भगवान भोलेनाथ और माता सती का विवाह होने के कारण महाशिवरात्रि पर्व को मनाया जाता हैं।
फाल्गुन माह में महाशिवरात्रि की कहानी:-पुराने समय में एक वाराणसी था, उस नगर में एक बहेलिया अपने परिवार के साथ रहता था। वह शरीर से ताकत वाला और हिंसा करने वाला था। वह अपने परिवार के लोगों का भरण-पोषण जानवरों को मार कर करता था। वह बहेलिया हमेशा अपने परिवार के लोगों के लिए भोजन के रूप में जानवरों का शिकार करके लाता था, इस तरह वह हमेशा उसका काम बन गया। काभी समय बीत गया इस तरह उसका नियमित कर्म करता था। फाल्गुन माह में महाशिवरात्रि के दिन वह अपने परिवार के लोगों के लिए भोजन की खोज के लिए धनुष लेकर शिकार के वन की तरफ चल पड़ा। इस तरह उस दिन उसको कोई शिकार हाथ नहीं लगा। इस तरह वह परेशान होकर मन मे चिंता करने लगा,की किस जगह जाऊं, क्या करुं?
घरवाले तो भूख से व्याकुल होंगे। बच्चों की क्या दशा होगी? मुझे कुछ-कुछ तो लेकर जाना ही होगा। इस तरह सोचते हुए वह सरोवर के पास में जाकर बैठ जाता है, वह मन ही मन में सोचने लगा कि इस सरोवर का पानी पीने के लिए रात के समय कोई न कोई जानवर अवश्य आयेगा, तब मैं उस जानवर को मार दूंगा और मारे हुए जानवर को घर ले जाकर बच्चों और अपनी पत्नी की दूंगा, जिससे वे पकाकर अपनी पेट की भूख को शांत कर लेंगे। इस तरह वह सरोवर के नजदीक एक बिल्ब के वृक्ष पर चढ़ गया और उस वृक्ष पर बैठ गया। पानी पीने के लिये कमर में बंधी तूम्बी में पानी भर कर बैठ गया। भूख-प्यास से दुःखी होकर जानवर के आने की बाट जोने लगा। इस तरह रात्रि का पहला प्रहर में एक हिरणी आई।
उस आयी हुई हिरणी को देखकर बहेलिया बहुत खुश हुआ।उसने तत्काल अपने धनुष पर बाण को चढ़ाया तो उसके हाथ से कुछ बिल्ब वृक्ष के बिल्व पत्ते टूटकर व उसकी तूम्बी से पानी नीचे गिर गया।उस बिल्ब वृक्ष के नीचे एक शिवलिंग विराजमान था।इस तरह उस बहेलिया के अनजाने में बिल्व वृक्ष से उसके हाथ से बिल्ब के पत्ते और तूम्बी में से जल गिरने से उस रात्रि के पहले प्रहर पूजा पूरी हो गयी थी। सरसराहट की आवाज से हिरणी ने डर से ऊपर की ओर देखा। बहेलिया को देखते ही अपनी मृत्यु के डर से व्याकुल होकर वह बोली कि व्याघ तुम मुझ से कहा चाहते हो?तब व्याघ बोला-कि हे हिरणी मेरे परिवार के सभी लोग आज के दिन भूख से तड़प रहे है, जिससे उनको भूख को शांत करने के लिए आया रात्रि में शिकार की प्रतीक्षा में बैठा था, तब तुम आ गई हो तो तुम्हें मैं मारकर अपने साथ घर ले जाकर अपने परिवार के लोगों की भूख को शांत करूँगा। हिरनी बोली-भील! मेरे मांस से तुम्हारे परिवार के लोगों की भूख मिटेगी, इस अर्नथकारी शरीर के लिए इससे अच्छा पुण्य का कार्य भला क्या हो सकता है? लेकिन इस समय मेरे बच्चे मेरी राह देख रहे हैं।
मैं उन्हें अपनी बहिन व स्वामी को सौप कर लौट आऊंगी। हिरणी ने कहा कि मैं शपथ खाती हूँ अपने बच्चों की मैं तुम्हारे पास वापस जल्दी आऊंगी। इस तरह से निवेदन करने पर बहेलिया भील को दया आ गयी और उसने उस हिरनी के शपथ के अनुसार उसे अपने बच्चों को अपने स्वामी के पास सौंपने के लिए जाने दिया। इस तरह उस हिरनी के जाने के बाद दूसरा प्रहर व तीसरे प्रहर के बीतने पर हिरणी की बहिन और उसका स्वामी उसे ढूंढते हुए उसी जगह पर आ गये और पहले की तरह ही उससे भूलवश बिल्व-पत्ते और तूम्बी के जल शिवलिंग पर चढ़ गया और दूसरे व तीसरे प्रहर की पूजा भील बहेलिया से अपने आप ही पूरी हो गयी। इस तरह बहिन और उस हिरनी के स्वामी के वापस आने की शपथ ली। तब उनकी विनती पर उस भील बहेलिया ने बहिन व स्वामी को भी ने सुबह आने की प्रतिज्ञा पर छोड़ दिया। इस तरह वापिस अपने बच्चों को संभाल लिया और अपनी बहिन एवं अपने स्वामी की प्रतीक्षा करने लगी। इस तरह उसकी बहिन और स्वामी भी वापस अपने स्थान पर आये और तीनों की भेंट होती है।
इस तरह तीनों ही अपनी प्रतिज्ञाबद्ध थे।तीनों ने अपनी-अपनी बातें बताई और तीनों ही बहेलिया भील के पास जाने की जिद करने लगे।अतः उन्होंने बच्चों को अपने पड़ोसियों के पास सौंप दिया और उस बहेलिया भील के पास जाने के लिये चल पड़े।उन्हें जाते हुए देखकर बच्चे भी भाग कर पीछे-पीछे चल दिए। उन सब को एक साथ आते हुए देखकर व्याघ को बहुत ही खुशी हुई। उसने तरकश से बाण खींचा, जिससे पुनः जल एवं बिल्व-पत्र शिवलिंग पर गिर पड़े। इस तरह चौथे प्रहर की पूजा भी पुरी हो गई। रात्रि भर व्याघ्र शिकार की चिंता में भूखा-प्यासा जागता रहा। चारों प्रहर की पूजा अपने आप ही हो गयी। उस दिन शिवरात्रि थी। जिसके प्रभाव से व्याघ्र के जीवन के सभी तरह के पाप उसी समय नष्ट हो गये। इतने में हिरणी का पूरा परिवार बोल उठा, व्याघ्र शिरोमणे! हम सब अपना वादा निभाते हुए आप तक वापिश आ गये हैं। कृपया हमारा जीवन सार्थक करो और अपने परिवार को तृप्त करो उनकी भूख को हमारे मांस से शांत करो।भील बहेलिया को बहुत ही विस्मय हुआ।
ये मृग ज्ञानहीन पशु होने पर भी धन्य है। परोपकारी और प्रतिज्ञा का पालन करने वाले है। मैं मनुष्य होकर भी हिंसा, हत्या और पाप कर अपने परिवार के लोगों का पालन-पोषण करता रहा। मैंने जीवों को मारकर पेट की भूख को मिटाया है। इसलिए मेरे जीवन को धिक्कार है। धिक्कार हैं। भील बहेलिया ने बाण को रोक लिया और श्रेष्ठ मृगों तुम सब जाओ, मैं तुम्हें तुम्हारी शपथ से मुक्त करता हूँ। तुम्हारा जीवन धन्य है। भील बहेलिया के ऐसा कहते ही भगवान भोलेनाथ जी साक्षात शिवलिंग से प्रकट हुये और उसके शरीर को स्पर्श कर प्रेम से कहा कि वत्स वर मांगो। भील बहेलिया ने कहा-देव! मैंने सब कुछ पा लिया।इस तरह कहते हुए भगवान भोलेनाथ जी की चरणों में गिर पड़ा। भगवान भोलेनाथ जी ने खुश होकर उसका"गुह"नाम रख दिया और वरदान दिया कि भगवान श्री रामजी एक दिन अवश्य ही तुम्हारें घर आयेंगे और तुम्हारे साथ मित्रता करेंगे। तुम मोक्ष को प्राप्त करोगे।वहीं व्याघ्र बहेलिया श्रृंगवेरपुर में निषादराज गुह बना दिया। जिसने भगवान श्री रामजी का आतिथ्य किया।वे सब मृग भगवान भोलेनाथ जीका दर्शन कर मृगयोनि से मुक्त हो गये। शाप मुक्त होकर विमान से दिव्य धाम को चले गये।
महाशिवरात्रि की दुसरी पौराणिक कथा:-पुराने समय में एक गांव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था। ब्राह्मण के एक पुत्र था,उसका नाम चन्द्रसेन था, वह स्वभाव से बुरे आचरण वाला था। जब अपने बाल्यकाल से युवावस्था में पहुंचा तो भी उसके नीच व्यवहार में कोई तरह का बदलाव नहीं आया। उसके नीच व्यवहार में दिनों-दिनों बढ़ोतरी होती गई। वह बुरी संगत में पड़कर चोरी-चकोरी तथा जुएं आदि में उलझ गया। चन्द्रसेन की मां बेटे की हरकतों से परिचित होते हुए भी अपने पति को कुछ नहीं बताती थी। वह उसके हर दोष को छिपा लिया करती थी।इसका प्रभाव यह पड़ा कि चन्द्रसेन कुसंगति के गर्त में डूबता चला गया। एक दिन ब्राह्मण अपने यजमान के यहां पूजा करवाकर लौट रहा था तो उसने मार्ग में दो लड़कों को सोने की अंगूठी के लिये लड़ते देखा। एक कह रहा था कि यह अंगूठी चन्द्रसेन से मैंने जीती हैं। दूसरे का तर्क था कि अंगूठी मैंने जीती हैं। यह सब देख-सुनकर ब्राह्मण बहुत ही दुःखी हुआ। उसने दोनों लड़कों को समझाकर अंगूठी ले ली।घर आकर ब्राह्मण ने अपनी पत्नी से चन्द्रसेन के बारे में पूछा। उत्तर में उसकी पत्नी ने कहा-यही तो खेल रहा था अभी।
जबकि हकीकत यह थी कि चन्द्रसेन पिछले पांच दिनों से घर नहीं आया था। ब्राह्मण ऐसे घर में क्षणभर भी नहीं रहना चाहता था। जहां जुंआरी,चोर बेटा रह रहा हो तथा उसकी माँ उसके अवगुणों पर हमेशा पर्दा डालती रही हो। अपने घर से कुछ चुराने के लिये चन्द्रसेन ढूंढ ही रहा था कि दोस्तों ने उसके पिता की नाराजगी उस पर जाहिर कर दी। वह उल्टे पांव भाग निकला।रास्ते में एक मंदिर के पास कीर्त्तन हो रहा था। भूखा चन्द्रसेन कीर्तन मंडली में बैठ गया। उस दिन शिवरात्रि थी। भक्तों ने शंकर पर तरह-तरह का भोग चढ़ा रखा था। चन्द्रसेन इसी भोग सामग्री को उड़ाने की ताक में लग गया। कीर्त्तन करते-करते भक्तगण धीरे-धीरे सो गए।तब चन्द्रसेन ने मौका का लाभ उठाकर भोग चोरी की और भाग निकला। मंदिर से बाहर निकलते ही किसी भक्त की आंख खुल गई। उसने चन्द्रसेन को भागते हुए देखकर चोर-चोर कहकर शोर मचा दिया। लोगों ने उसका पीछा किया।
भूख से चन्द्रसेन भाग न सका और डंडे के प्रहार से चोट खाकर गिरते ही मृत्यु हो गयी। अब चन्द्रसेन को लेने शिवजी गण तथा यमदूत एक साथ वहां आ पहुँचे। यमदूतों के अनुसार चन्द्रसेन नरक का अधिकारी था।क्योंकि उसने पाप ही पाप किए थे। लेकिन शिव के गणों के अनुसार चन्द्रसेन स्वर्ग का अधिकारी था। क्योंकि वह शिवभक्त था।चन्द्रसेन ने पिछले पांच दिनों तक भूखे रहकर व्रत तथा शिवरात्रि का जागरण किया था। चन्द्रसेन ने शिव पर चढ़ा हुआ नैवेद्य नहीं खाया था। वह तो नैवेद्य खाने से पहले ही प्राण त्याग चुका था। इसलिये भी शिव के गणों के अनुसार वह स्वर्ग का अधिकारी था। ऐसा भगवान शंकरजी के अनुग्रह से ही हुआ था। अतः यमदूतों को खाली हाथ लौटना पड़ा।इस तरह चन्द्रसेन को भगवान शिवजी के सत्संग मात्र से ही मोक्ष मिल गया।