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Saturday, April 17, 2021

हरतालिका तीज व्रत पूजन विधि,कथा और महत्त्व (Haratalika Teej Vrat Poojan Method, Story and Importance)

            


हरतालिका तीज व्रत पूजन विधि,कथा और महत्त्व (Haratalika Teej Vrat Poojan Method, Story and Importance):-भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि के दिन हरतालिका तीज व्रत को किया जाता हैं, इस तृतीया तिथि के दिन हस्त नक्षत्र होता है। इस तृतीया तिथि के व्रत के दिन भगवान भोलेनाथ जी और माता पार्वतीजी की पूजा-अर्चना की जाती है। इस व्रत को कुमारी और सौभाग्यवती औरतों के द्वारा ही किया जाता है। इस व्रत को करने वाली स्त्रियाँ माता गौरी की तरह ही सुखपूर्वक पति रमण करके स्वर्गलोक को प्राप्त करती हैं।


भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हरितालिका तीज व्रत की पूजन विधि:-भाद्रपद शुक्ल तृतीया को सौभाग्यवती स्त्रियां अपने अखण्ड सौभाग्य की रक्षा करने के लिये बड़ी श्रद्धा विश्वास और लगन के साथ हरतालिका व्रत (तीज) का उत्सव मनाती है। जिस त्याग-तपस्या निष्ठा के साथ स्त्रियां हरतालिका व्रत रखती है।

◆इस व्रत में फलाहार सेवन की बात तो दूर रही। निष्ठा वाली स्त्रियां जल तक ग्रहण नहीं करती हैं।

◆इस दिन स्त्रियाँ को बिना कुछ खाये हुए व्रत को करना चाहिए। 

■व्रत को करने वाली व्रतीयों को शाम के समय स्नान करना चाहिए।

◆व्रतियों को स्वच्छ कपड़ों को पहनना चाहिए।

◆शुद्ध मिट्टी पवित्र जगह लेकर भगवान भोलेनाथ जी और गौरी माता की प्रतिमा को बनाना चाहिए। उस मिट्टी से बनी हुई प्रतिमा को पूजा के समय पूजन में उपयोग लेना चाहिए।

◆हरितालिका व्रत की तिथि के दिन में घर पर ही सुबह, दोपहर और शाम के समय में पूजा करनी चाहिए।

◆शाम को स्नान करके मुख्य पूजा करनी चाहिए। 

व्रत के दूसरे दिन प्रातःकाल स्नान के पश्चात व्रत परायण स्त्रियां सौभाग्य द्रव्य एवं बायणा छू कर ब्राह्मणों को देती हैं। 

◆इसके बाद ही जल आदि पीकर पारणा करती है।

इस व्रत में मुख्य रूप से शिव-पार्वती तथा गणेशजी का पूजन करना चाहिए।

◆इस व्रत को सर्वप्रथम गिरिजनन्दजी उमा ने किया था। जिसके फलस्वरूप उन्हें भगवान शिव प्रतिरूप में प्राप्त हुए थे।

◆उस मुख्य पूजा-आराधना के बाद ही व्रत को खोलना चाहिए।

◆माता भगवती जी को सुहाग की पिटारी में रखी हुई सुहाग की सभी सामग्री या वस्तुओं को अर्पण करना चाहिए और भगवान भोलेनाथ जी को धोती और अंगोछा अर्पण करना चाहिए।

◆पूजा करने के बाद सुहाग की सामग्री को किसी ब्राह्मणी को एवं धोती व अंगोछा ब्राह्मण को देना चाहिए।

◆तरह तरह के मीठे व्यंजन सजाकर रुपयों सहित अपनी सासुजी को देकर आशीर्वाद को प्राप्त करना चाहिए।

◆इस तरह पूरी विधि-विधान से पूजन करने के बाद में हरितालिका व्रत की कथा पूरे ध्यान से मन को एक जगह पर स्थिर करके सुनना चाहिए।

◆इस व्रत के दिन स्त्रियां कथा भी सुनती है। जो पार्वतीजी के जीवन में घटित हुई थी। 


हरतालिका तीज व्रत की कथा से शिक्षा:-हरतालिका तीज व्रत में पार्वतीजी के त्याग, संयम, धैर्य तथा एक निष्ठ पति व्रत धर्म पर प्रकाश डाला गया है। 

जिससे सुनने वाली स्त्रियों का मनोबल ऊँचा उठता है।

हरतालिका तीज व्रत की कथा:-एक दिन शंकर जी और पार्वतीजी कैलाश पर्वत पर बैठे थे। 

पार्वतीजी ने शंकरजी से पूछा - की सभी व्रतों में से अच्छा व्रत कौनसा है? वह बताऐं। 

जब शंकरजी भगवान बोले - की नक्षत्र में चन्द्र श्रेष्ठ हैं। ग्रह में सूर्य श्रेष्ठ, नदियां में गंगा श्रेष्ठ, इसलिये हरतालिका का व्रत सभी व्रतों में श्रेष्ठ है। शंकर भगवान पार्वतीजी को कहा -कि यह व्रत आप अगले जन्म मरण हिमालय व्रत पर किया और उन पुण्य से मैं आपको मिला। यह व्रत भाद्रपद की पहली तीज को करना। यह व्रत आपने भाद्रपद की पहली तीज को किया, जो आपको मैं अब कह रहा हूँ। बचपन में मुझे प्राप्त करने के लिये अपने बड़ी तपस्या की है। चौसठ झाड़ के सिर्फ पान खाकर किया। सर्दी, गर्मी, वर्षा का दुःख देखा था, उसके बाद ही मैं आपको प्राप्त हुआ था।

भगवान शंकरजी ने कहा कि - हे पार्वती!आपको आपके पूर्वजन्म के बारे में बताता हूँ, आप ध्यान पूर्वक सुनिए।कहते हैं कि दक्ष कन्या सती जब पिता के यज्ञ में अपने पति शिवजी का अपमान सहन न कर सकी तो योगाग्नि में दग्ध हो गयी। तब से ही मैना और हिमवान की तपस्या के फलस्वरूप उनकी पुत्री के रूप में पार्वती के नाम से पुनः प्रकट हुई। इस नूतन जन्म में उनके पूर्व की स्मृति पूर्ण बनी रही और वे नित्य निरन्तर भगवान शिव के ही चरणाविन्दों के चिन्तन में सलंग्न रहने लगी। जब वे कुछ वयस्क हो गयी तब मनोकूल वर की प्राप्ति के लिये पिता की आज्ञा से तपस्या करने लगी। उन्होंने वर्षों तक निराहार रह कर बड़ी कठोर साधना की। जब उनकी तपस्या फ्लोन्मुख हुई।

हरतालिका तीज व्रत की कथा:- हरितालिका तीज व्रत के माहात्म्य की कथा भगवान भोलेनाथ जी ने देवी पार्वतीजी को उनके पूर्वजन्म का स्मरण करवाने के उद्देश्य से इस तरह से कही थी, जो इस तरह हैं।

भगवान भोलेनाथ जी ने कहा- कि हे गौरी! पर्वतराज हिमालय पर गंगा के किनारे पर तुमने अपनी बाल्यकाल में अधोमुखी होकर घोर कठिन तपस्या की थी। इस तपस्या के समय में तुमने कुछ भी अन्न नहीं खाया था और वायु का ही सेवन किया था। इतने समय में तुमने सूखे पत्ते चबाकर काटी थी। माघ की शीतलता में तुमने लगातार जल में प्रवेश करके तपस्या को किया था। वैशाख की जला देने वाली गर्मी में पंचाग्नि से शरीर को तपाया था।

श्रावण मास की मूसलाधार वर्षा में खुले आसमान के नीचे अन्न जल करते हुए समय को व्यतीत किया था। तुम्हारी इस कष्टदायक तपस्या को देखकर तुम्हारे पिता बहुत ही दुःखी और नाराज होते थे। तब एक दिन तुम्हारी तपस्या और पिता की नाराजगी को देखकर नारदजी तुम्हारे घर पधारे थे।

तुम्हारे पिता द्वारा आने कारण पूछने पर ब्रह्माजी के पुत्र नारदजी बोले - 'हे हिमराज! मैं भगवान विष्णुजी के भेजने पर यहाँ पर आया हूँ। आपकी कन्या की घोर तपस्या से खुश होकर वह उससे विवाह करना चाहते है। इस बारे में मैं आपकी राह जानना चाहता हूं।

नारदजी की बात सुनकर हिमवान बहुत ही खुशी के साथ बोले - 'श्रीमान! यदि स्वयं विष्णुजी मेरी कन्या का वरण करना चाहते है तो मुझे क्या आपत्ति हो सकती है। वे तो साक्षार्थ ब्रह्म हैं। यह तो हर पिता की चाह होती है कि उसकी पुत्री सुख-सम्पदा से युक्त पति के घर की लक्ष्मी बने।

'देवर्षि नारद पार्वती के जाकर बोले-उमें! छोड़ों ये कठोर तपस्या, तुम्हें अपनी साधना का फल मिल गया है। तुम्हारे पिता ने भगवान विष्णुजी के साथ तुम्हारा विवाह पक्का कर दिया हैं। इतना कहकर नारदजी चले गये।नारदजी तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर विष्णुजी के पास गए और उन्हें विवाह तय होने का समाचार सुनाया।उनकी बात पर विचार करके पार्वतीजी के मन्मर्ण बड़ा कष्ट हुआ। वे मूर्छित होकर गिर पड़ी। सखियों के उपचार से होश में आने पर उन्होंने उनसे अपना शिव विषयक अनुराग सूचित किया। परन्तु जब तुम्हे इस विवाह के बारे में पता चला तो तुम्हारे दुःख का ठिकाना ना रहा।

तुम्हे इस तरह से दुःखी देखकर एक सहेली ने तुम्हारे दुःख का कारण पूछने पर तुमने बताया - 'मैंने सच्चे मन से भगवान शिव का वर्ण किया है, किन्तु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी के साथ तय कर दिया है। मैं विचित्र धर्मसंकट में हूं। अब मेरे पास प्राण देने के अलावा कोई और दूसरा उपाय नहीं बचा है। लेकिन तुम्हारी सखी बहुत ही समझदार थी। उसने कहा - 'प्राण छोड़ने का यह कारण क्या हुआ? संकट के समय धैर्य से काम लेना चाहिए। भारतीय नारी के जीवन की सरथ इसी में है कि जिसे मन से पति रूप में एक बार वर्ण कर लिया, जीवनपर्यत उसी से निर्वाह करे। सच्ची आस्था और एकनिष्ठा के समक्ष तो भगवान भी असहाय हैं। मैं तुम्हे घनघोर वन में ले चलती हुं जो साधना थल भी है और जहां तुम्हारे पिता तुम्हे खोज भी नहीं पाएंगे। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे। तुमने ऐसा ही किया। तुम्हारे पिता तुम्हे घर न पाकर बड़े चिंतित और दुःखी हुए वह सोचने लगे कि मैनें तो विष्णुजी से अपनी पुत्री का विवाह तय कर दिया है। यदि भगवान विष्णुजी बारात लेकर आ गए और कन्या घर पर नहीं मिली तो बहुत अपमान होगा, ऐसा विचार कर पर्वतराज तुम्हारी खोज शुरू करवा दी इधर तुम्हारी खोज होती रही उधर तुम अपनी सहेली के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी आराधना में लीन रहने लगी। भाद्रपद तृतीय शुक्ल को हस्त नक्षत्र था। उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण किया। रात भर मेरी स्तुति में गीत गाकर जागरण किया तुम्हारी इस कठोर तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन हिल उठा और मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास पहुँचा और तुमसे वर मांगने को कहा तब अपनी तपस्या के फलीभूत मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा- 'मैं आपको सच्चे मन से पति रूप में वरण कर चुकी हूँ। यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर यहाँ पधारे है तो मुझे अपनी अर्ध्दागिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिए। 'तब 'तथास्तु' कहकर में कैलाश पर्वत पर लौट गया प्रातः होते ही तुमने पूजा की समस्त सामग्री नदी में प्रवाहित करके अपनी सखी सहित व्रत का वरण किया। उसी समय हिमवान अपने बन्धु-बांधवों के साथ तुम्हे खोजते हुए वहाँ पहुंचे। तुम्हारी दशा देखकर अत्यंत दुःखी हुए और तुम्हारी इस कठोर तपस्या का कारण पूछा। 

तब तुमने कहा- "पिताजी मैनें अपने जीवन का अधिंकाश वक्त कठोर तपस्या में बिताया है। मेरी इस तपस्या के केवल उद्देश्य महादेवजी को पति रूप में प्राप्त करना था।आज मैं अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूं। चूंकि आप मेरा विवाह विष्णुजी से करने का निश्चय कर चुके थे, इसीलिए मैं अपने आराध्य की तलाश में घर से चली गई। अब मैं आप के साथ घर इसी शर्त पर चलूंगी की आप मेरा विवाह महादेवजी के साथ ही करेंगे।

हिमवान ने तुम्हारी इच्छा स्वीकार कर ली और तुम्हे घर वापस ले आए। कुछ समय बाद उन्होंने पूरे विधि-विधान के साथ हमारा विवाह किया। सभी बातें जानकर उन्होनें पार्वती का विवाह भगवान शंकर जी के साथ कर दिया। 

अन्ततः "बरऊँ संभु न त रहऊँ कुआरी" पार्वती के इस अविचल अनुराग की विजय हुई। 

हरतालिका तीज व्रत महत्व भगवान शिवजी ने बताया -  भगवान शिवजी ने आगे कहा - 'हे पार्वती!भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करकर जो व्रत किया था, उसी के परिणाम स्वरूप हम दोनों का विवाह संभव हो सका। देवी पार्वती ने भाद्रपद शुक्ल तृतीया हस्त नक्षत्र में आराधना की थी। इसलिये इस तिथि को यह व्रत स्त्रियां अपने पति की दीर्घायु के लिये तथा कुंआरी कन्याऐं अपने मनोवांछित वर की प्राप्ति के लिये करती आ रही है।

 इस व्रत का महत्त्व यह है कि मैं इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाली प्रत्येक स्त्री को मनवांछित फल देता हूँ। इस व्रत को 'हरतालिका इसलिए कहा जाता है कि क्योंकि पार्वती की सखी उन्हें पिता और प्रदेश से हर कर जंगल में ले गई थी। 'हरत'अर्थात हरण करना और 'आलिका' अर्थात सखी। 

◆भगवान शिव ने पार्वती जी से कहा कि इस व्रत को जो भी स्त्री पूर्ण श्रद्धा से करेगी उसे तुम्हारी तरह अचल सुहाग प्राप्त होगा।

◆इस तरह विधि-विधान से किये हुए व्रत से स्त्रियों को सौभाग्य की प्राप्ति होती हैं।