नवरात्रि पूजा विधि एवं सम्पूर्ण व्रत कथा-आरती (Navratri puja vidhi and complete vrat katha-Aarti):-शारदीय नवरात्रि:-आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तिथि तक नवरात्रि व्रत होता हैं। नवरात्रि मुख्य रूप से दो होते हैं। वासन्तिक और शारदीय। वासन्तिक में भगवान श्रीविष्णुजी की उपासना का प्राधान्य रहता हैं और शारदीय में शक्ति उपासना का। वस्तुतः दोनों नवरात्रि मुख्य और व्यापक हैं और दोनों में दोनों की उपासना उचित हैं। आस्तिक जनता दोनों की उपासना करती हैं। दुर्गा पूजा करने वाले प्रतिपदा से नवमी तक व्रत करते हैं। कुछ लोग अन्न त्याग देते है और नव दिन तक बिना अन्न के उपवास करते हैं। कुछ लोग फलाहार करते हैं तथा की लोग एकासणा करके व्रत पूरा करते हैं। गली-गली में महिला-पुरुष व बच्चे डांडिया नृत्य (गरबा) करते हैं व श्रद्धानुसार पुरस्कार भी दिये जाते हैं। सर्वप्रथम भगवान श्री रामचन्द्रजी ने इस शारदीय नवरात्रि पूजा का प्रारम्भ समुद्र तट पर किया था। अतएव यह राजस पूजा हैं। इससे प्रमाणित होता हैं के श्रीराम ने सर्वप्रथम शारदीय नवरात्रि पूजा की। देवी पार्वती भगवान शंकर से कहती हैं कि शरदकालीन नवरात्रि पूजा जो भक्ति पूर्वक करते हैं उनको मैं प्रसन्न होकर पत्नी, धन, आरोग्य तथा भक्ति प्रदान करती हूँ।
नवरात्र पर्व मनाने की कथा:-पर्व नवरात्र मनाने के पीछे बहुत-सी रोचक कथाएं प्रचलित हैं कि दैत्य गुरु शुक्राचार्य के कहने पर दैत्यों ने घोर तपस्या कर ब्रह्माजी को प्रसन्न कर वर मांगा की उन्हें कोई पुरुष, जानवर और उनके शस्त्र न मार सकें। वरदान मिलते ही असुर अत्याचार करने लगे, तब देवताओं की रक्षा के लिए ब्रह्माजी के भेद बताते हुए बताया कि असुरों का नाश अब स्त्री शक्ति ही कर सकती हैं। ब्रह्माजी के निर्देश पर देवों ने नौ दिनों तक प्रार्थना कर मां पार्वती को प्रसन्न किया और असुरों के संहार के लिए देवी ने रौद्र रूप धारण किया था, इसीलिए शारदीय नवरात्र 'शक्ति पर्व' के रूप में मनाया जाता है।
लगभग इसी तरह चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नौ दिन तक देवों के आह्वान पर असुरों के संहार के लिए माता पार्वती ने अपने अंश से नौ रूप उत्पन्न किए। सभी देवताओं ने उन्हें अपने शस्त्र देकर शक्ति सम्पन्न किया। इसके बाद देवी ने असुरों का अंत किया। यह सम्पूर्ण घटनाक्रम चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नौ दिनों तक घटित हुआ, इसलिए चैत्र नवरात्र मनाए जाते है।
नवरात्रि के नौ दिनों तक दुर्गा के व्रत-उपवास रखने वाले मनुष्य अपनी किसी तरह की मन की इच्छा की प्राप्ति के लिए अपने जूते--चप्पलों का त्याग करके हर स्थान पर नंगे पैर ही सब जगह घूमते है जिसे बाधा लेना कहते है।
काफी समय पूर्व तमिलनाडु में एक किसी विशेष सम्प्रदाय के लोगों ने नवरात्रि के समय सिहं पूजन की प्रथा प्रचलित थी। इसके लिए वे लोग जंगल में जाकर लकड़ी का एक शेर बनाकर उसकी पूजा करते थे तथा अंतिम दिन उस शेर को किसी नदी में बैठा दिया जाता था।
नवरात्रि के पहले दिन घट पर स्थापना की जाती थी। इसके लिए मन्दिरों या घरों में पूर्व-पश्चिम दिश की ओर एक चौकी पर मिट्टी का कलश पानी से भरकर मंत्रोच्चार सहित रखा जाता था।
मिट्टी के दो बड़े कटोरी में काली मिट्टी भरकर उसमें गेहूं के दाने बो कर 'जवारे' उगाए जाते हैं। इन्हें टोकनी से ढंककर और हल्दी के पानी से सींचकर पिला रंग देने की कोशिश की जाती थी। नौ दिनों तक घट के सामने 'शतचंडी' और 'दुर्गासप्तशती' का पाठ किया जाता हैं।
अंतिम दिन हवन करके कुमार पूजन व भोज का आयोजन होता है और दशमी के दिन प्रतिमा, घट व जवारों का विसर्जन कर दिया जाता हैं।
दोनों नवरात्रियों का समापन श्रीराम के साथ जुड़ा हुआ है।
चैत्र नवरात्रि के अंत में राम जन्म और शारदीय नवरात्रि का समापन रावण पर राम की विजय के रूप में होता हैं।
बंगाल में नवरात्रि के अवसर पर मुख पूजा का भी चलन मिलता हैं। माना जाता है कि देवी की संध्या आरती के समय उनके सामने किस को भी रहना नहीं चाहिए, क्योंकि इसी समय देवी ने युद्ध किया था, इसलिए वे क्रोध में रहती हैं, लेकिन पूर्व बंगाल के राजाशाही जिले में एक बच्ची नादानी में संध्या आरती के समय देवी प्रतिमा के सामने चली गई। आरती के बाद पुजारी ने पर्दा हटाया, तो मां के मुहं से उस बच्ची की साड़ी लटक रही थी। मां क्रोध में उसे निगल चुकी थी। तभी से मुखपुजा की परंपरा चल निकली।
पूजा की विधि और विधान:- वर्ष में दो बार चैत्र एवं आश्विन महीने के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से शुरू होकर नवमी तिथि को मनाये जाने वाले पर्व को नवरात्रि का पर्व कहा जाता हैं, नवरात्रि के पर्व में श्रीदुर्गा माता के नव स्वरूपों की पूजा की जाती हैं और नव दिनों तक पूजा होने से इसे नवरात्र कहा जाता है। चैत्र मास में आने वाले नवरात्र को "वार्षिक नवरात्र या चैत्रीय नवरात्र" और आश्विन मास में आने वाले नवरात्र को "शारदीय नवरात्र" कहा जाता हैं, इसलिए श्रीदुर्गा पूजा का बहुत महत्व दिया जाता हैं।
◆माता श्रीदुर्गाजी का भक्त या साधक सूर्योदय से पूर्व उठकर अपनी दैनिकचर्या स्नानादि से निवृत होकर स्वच्छ कपड़े को पहनकर पूजा की जगह की सफाई करके पूजा जगह को सजाना चाहिए।
◆सबसे पहले पवित्र स्थान पर मिट्टी से बेदी बनाकर उसमें जौ, गेहूँ बोये। प्रतिपदा के दिन सुबह विधि-विधान से घट स्थापना करके लगातार नौ दिन तक अखण्ड ज्योत करनी चाहिए।
◆नवरात्रि व्रत के आरम्भ में स्वास्तिवाचन-शांति पाठ करके संकल्प करें।
◆फिर सर्वप्रथम गणपतिजी पूजा करके, मातृका की पूजा, क्षेत्रपाल, नवग्रह एवं वरुणदेव का सविधि पूजन करना चाहिए।
◆फिर एक लकड़ी का बाजोट या मिट्टी से निर्मित एक चौकी को बनानी चाहिए।उस चौकी पर लाल व पिले वस्त्र को बिछाकर कर उस पर अक्षत की ढ़ेरी बनाकर उस पर देवी दुर्गाजी की मूर्ति को स्थापित करना चाहिए।
◆मूर्ति के दाहिनी तरफ जल से भरे तांबे के कलश को गेहूं या अक्षत की ढ़ेरी बनाकर स्थापित करना चाहिए उस कलश में सुपारी, पाँच धन्य, फूल, सिक्का, धनिया, अक्षत आदि डालना चाहिए।
◆फिर उस कलश पर पंच पल्लव या जो भी उपलब्ध पेड़ के पत्तो को ऊपर रख देना चाहिए।
◆उसके बाद उस पर एक पानी वाला श्रीफल को लाल कपड़े में इस तरह मौली से बांधना चाहिए कि उस श्रीफल का थोड़ा सा अग्र भाग ही दिखाई देवे उस श्रीफल को उस तांबे के कलश पर वरुणदेव के रूप में स्थापित करना चाहिए।
◆उसके बाद में मिट्टी का कटोरा पत्र लेकर उसमें मिट्ठी भरकर उसमें पानी डालकर जौ के दानों को बोना चाहिए इसे जवारा बोना कहते हैं, इस मिट्टी के कटोरे को उस चौकी पर रख देना चाहिए।
◆चौकी के पूर्व कोने पर एक शुद्ध घी का दीपक को भरकर माता दुर्गाजी के सामने रखना चाहिए। सबसे पहले विघ्नहर्ता श्रीगणपति जी की पूजा षोड़शोपचार विधि से करनी चाहिए, उसके बाद सभी देवी-देवताओं की पूजा करनी चाहिए।
◆सबसे अंत में माता दुर्गाजी पूजा करनी चाहिए।
नवरात्रि पूजन सामग्री:-चन्दन, रोली, अक्षत, जल, कलावा, पुष्प, पुष्पमाला, धूप, दिप, नैवेद्य, पाँच जात के फल,पान, सुपारी, लौंग, इलाचयी, आसन, चौकी, पूजन पात्र, आरती कलशादि।
देवी व्रत में कुमारी पूजन:- का परम आवश्यक माना गया है। सामर्थ्य होने पर नवरात्रि में प्रतिदिन या समाप्ति के दिन नौ कुमारियों के चरण धोकर उन्हें देवी रूप मानकर गन्ध, पुष्पादि से पूजा-अर्चना करके आदर के साथ यथा रुचि मिष्ठान भोजन करवाना चाहिए एवं श्रद्धानुसार वस्त्राभूषण से अलंकृत करके दक्षिणा देनी चाहिए।
शास्त्रों के अनुसार:-शास्त्रों के अनुसार नौ कन्याओं का पूजन करने का महत्व होता हैं, वह इस तरह हैं:
◆एक कन्या की पूजा करने से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।
◆दो कन्याओं की पूजा करने से मोक्ष और भोग की प्राप्ति होती है।
◆तीन कन्याओं की पूजा करने से धर्म, अर्थ, काम और त्रिवर्ग की प्राप्ति होती हैं।
◆चार कन्याओं की पूजा करने से राज्यपद की प्राप्ति होती हैं।
◆पांच कन्याओं की पूजा करने से विद्या की प्राप्ति होती है।
◆छः कन्याओं की पूजा करने से षट्कर्म सिद्धि की प्राप्ति होती हैं।
◆सात कन्याओं की पूजा करने से राज्य की प्राप्ति होती है।
◆आठ कन्याओं की पूजा करने से सम्पदा की प्राप्ति होती हैं।
◆नौ कन्याओं की पूजा करने से पृथ्वी के प्रभुत्व की प्राप्ति होती हैं।
◆कुमारी पूजन में दस वर्ष की कन्याओं की पूजा-अर्चना करनी चाहिए। दस वर्ष से ऊपर की आयु वाली कन्या कुमार पूजन में वर्णन किया गया है।
दो वर्ष की कल्याणी, पांच वर्ष की रोहिणी, छः वर्ष की काली, सात वर्ष की कन्या चण्डिका, आठ वर्ष की कन्या शाम्भवी, नौ वर्ष की कन्या दुर्गा और दस वर्ष की कन्या सुभद्रा स्वरूपा होती हैं। नौ दिन तक देवी का विधिवत पूजन करके विजय दशमी को विसर्जन तथा नवरात्रि का पारणा करना चाहिए।
कुमारी पूजन:-आठ या नौ दिन ऊपर बताई गई विधि से माता दुर्गाजी की पूजा करनी चाहिए। उसके महाष्टमी या रामनवमी की पूजा करनी चाहिए। उसके बाद कुमारी कन्याओं को माता दुर्गाजी के नव स्वरूपों के रूप में नव कन्याओं को अपने घर पर बुलाकर भोजन करवाना चाहिए। यदि नव कन्याऐं नहीं होने कम से कम दो तो अवश्य होनी चाहिए। इन कुमारियों की उम्र एक वर्ष से लेकर दश वर्ष तक कि होनी चाहिए।
माता दुर्गाजी के नवस्वरूपों के प्रतीकात्मक रूप:- इन सभी कुमारियों के नमस्कार मन्त्र क्रमशः निम्न है-
(1.) कुमाय्यै नमः।
(2.)त्रिमूत्यै नमः।
(3.) कल्याण्यै नमः।
(4.) रोहिण्यै नमः।
(5.) कालिकायें नमः।
(6.) चाण्डिकायै नमः।
(7.) शाम्भव्यै नमः।
(8.) दुर्गायै नमः।
(9.) सभादायै नमः।
पूजन करने के लिए सभी कुमारियों को बाजोट पर बिठाकर उनके पैर को जल से धोना चाहिए उसके बाद पूजन होने के बाद सभी को भोजन करवाना चाहिए जब उन सभी कुमारी देवी का भोजन होने पर उनसे अपने सिर पर अक्षत छुड़वायें और उनको दक्षिणा देनी चाहिए। इस तरह से करने से महामाया भगवती बहुत ज्यादा प्रसन्न होकर सभी तरह की इच्छाओं को पूरा करती है।
दुर्गाष्टमी:-यह त्योंहार आश्विन शुक्ल पक्ष अष्टमी को आता हैं। इस दिन दुर्गा देवी की पूजा की जाती है। हिंदुओं के प्राचीन शास्त्र के अनुसार दुर्गा देवी नौ रूपों में प्रकट हुई है। महाकाली, महालक्ष्मी, माँ सरस्वती, योगमाया, रक्त दन्तिका, शांकम्भरी, श्री दुर्गा, भ्रामरी देवी, चण्डिका आदि हैं।
नवरात्रि व्रत कथा:- बहुत समय पूर्व में पुराने जमाने में चैत्र वंशी सूरत नामक का एक राजा था, वह अपनी प्रजा को अपने पुत्रवत मानकर अपने राज्य में राज करता था। एक समय की बात है कि एक बार उनके प्रतिद्वंद्वी शत्रुओं ने बिना किसी तरह का संदेश दिए उनके राज्य पर आक्रमण कर दिया था राजा चैत्र वंशी युद्ध करनी की स्थिति में नहीं था लेकिन युद्ध के लिए ललकारे जाने पर बिना युद्ध की तैयारी से युद्ध करने के लिए चल पड़े, युद्ध में उनके प्रतिद्वंद्वी शत्रुओं ने उनकी सेना को चारों ओर से घेर लिया अंत राजा युद्ध में हार जाता है। राजा के हार जाने को देखते हुए उनके दुष्ट मन्त्रियों ने राजा की सेना और उनके राज्य का जमा धनकोष व खजाना अपने अधिकार में कर लेते है। इस तरह की घटना से दुःखी होकर राजा सुरथ कोई आशा नहीं दिखाई देने पर वे जंगल की तरफ चल पड़ते है।
इस तरह जंगल में भटकते-भटकते हुए एक ऋषि का आश्रम दिखाई देता है। राजा पहुंचकर ऋषि को प्रणाम करता है और उन महर्षि का मेधा था । उन महर्षि को अपना पूरा वृतांत बताने पर ऋषि मेधा ने कहा कि राजन आप यही इस आश्रम में रहिए। इस तरह राजा ऋषि मेधा के आश्रम में रहने लगा। रहते-रहते एक दिन राजा की मुलाकात आश्रम के नजदीक में एक समाधि नामक एक वैश्य से हुई, जो कि अपनी पत्नी और अपने बेटों के बुरे व्यवहार से पीड़ित होकर यहां रहने लगा था। वैश्य समाधि ने राजा को बताया कि वह अपने दुष्ट स्त्री-पुत्रादिकों से अपमानित होने के बाद उनका मोह नहीं छोड़ पा रहा है। उसके मन को शांति नहीं मिल पा रही है। इधर राजा का मन भी उसके अधीन नहीं था। राज्य, धनादिक की चिंता अभी भी उसे बनी हुई थी, जिससे वह बहुत दुःखी था। उसके बाद दोनों महर्षि मेधा के पास गए।
महर्षि मेधा यथायोग्य सम्भाषण करके दोनों ने वार्ता शुरू की। उन्होंने बताया- यद्यपि हम दोनों अपने स्वजनों से अत्यंत अपमानित और तिरस्कृत होकर यहाँ आए हैं, फिर भी उनके प्रति हमारा मोह नहीं छुटता। इसका क्या कारण हैं? महर्षि मेधा ने कहा- " मन शखित के अधीन होता है। आदिशक्ति भगवती के दो रूप है- विद्या और अविद्या। विद्या ज्ञान का स्वरूप है तथा अविद्या अज्ञान का स्वरूप है। अविद्या मोह की जननी है, किन्तु जो मां भगवती को जगत का आदि कारण मानकर भक्ति करते है, मां भगवती उन्हें जीवन मुक्त कर देती है।
राजा सुरथ ने पूछा- "भगवन! वह देवी कौनसी है, जिसको आप महामाया कहते है? हे ब्राह्मण! वह कैसे उत्पन्न हुई और उसका क्या कार्य है? उसके चरित्र कौन-कौन से है? प्रभो! उसका प्रभाव, स्वरूप आदि सबके बारे में विस्तार में बताइए।" महर्षि मेधा बोले- राजन! वह देवी तो नित्यस्वरूप है, उनके द्वारा यह संसार रचा गया है। तब भी उसकी उत्पति अनेक तरह से होती है, जिसे मैं बताता हूँ। संसार को जलमय करके जब भगवान श्रीविष्णुजी योगनिंद्रा का आश्रय लेकर शेषशैय्या पर सो रहे थे, तब मधु-कैटभ नाम के दो दैत्य उनके कानों के मेल से उत्पन्न हुए और वह श्रीब्रह्माजी को मारने के लिए तैयार हो गए। उनके इस डरावने रूप को देखकर ब्रह्माजी ने अनुमान लगा लिया कि भगवान श्रीविष्णुजी के सिवाय मेरा कोई रक्षक नहीं हैं। किन्तु विडम्बना यह थी, की भगवान श्रीविष्णुजी सो रहे थे। तब उन्होंने श्रीविष्णुजी भगवान को जगाने के लिए उनके नेत्रों में निवास करने वाली योगनिद्रा की स्तुति की। परिणामतः तमोगुण अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा भगवान विष्णुजी के नेत्र, नासिक, मुख, बहु और हृदय से निकलकर ब्रह्माजी के सामने खड़ी हो गई। योगनिंद्रा के निकलते ही श्रीहरि तुरन्त जाग उठी। उन्हें देखकर दैत्य क्रोधित हो उठे और युद्ध के लिए उनकी तरफ दौड़े। भगवान विष्णु और उन दैत्यों में पांच हजार वर्षों तक युद्ध हुआ। अंत में दोनों ने भगवान की वीरता से प्रसन्न होकर उन्हें वर मांगने को कहा। तब भगवान ने कहा- यदु तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो मेरे हाथों से मर जाओ, बस इतना ही वर में तुम से मांगता हूँ।"
महर्षि मेधा बोले- इस तरह से जब वह धोखे में आ गए और अपने चारों ओर जल ही जल देखा तो भगवान से कहने लगे- जहाँ पर जल न हो, उस जगह हमारा वध कीजिए। "तथास्तु" कहकर भगवान श्रीहरि ने उन दोनों को अपनी जांघ पर लिटाकर सिर काट डाले। महर्षि मेधा बोले- 'इस तरह से यह देवी श्री ब्रह्माजी के स्तुति करने पर प्रकट हुई थी, अब तुम से उनके प्रभाव का वर्णन करता हूँ, सो ध्यानपूर्वक सुनो। प्राचीनकाल में देवताओं के स्वामी इंद्रदेव और दैत्यों के स्वामी महिषासुर के बीच पूरे सौ वर्ष तक घोर युद्ध हुआ था। इस युद्ध में देवताओं की सेना परास्त हो गई और इस तरह देवताओं को जीत महिषासुर इंद्र बन बैठा था। तब हारे हुए देवता श्री ब्रह्माजी के साथ लेकर भगवान श्रीशंकरजी और श्रीविष्णुजी के पास गए और अपनी हार का सारा वृत्तान्त उन्हें कह सुनाया।
उन्होंने महिषासुर के वध के उपाय की अरदास की। साथ ही अपना राज्य वापस पाने के लिए उनकी कृपा की स्तुति की। देवताओं की बातें सुनकर भगवान श्रीविष्णुजी और श्रीशंकरजी को दैत्यों पर बहुत ही गुस्सा आया। गुस्से से भरे हुए भगवान विष्णु के मुख से बड़ा भारी तेज निकला और उसी प्रकार का तेज भगवान शंकरजी, ब्रह्माजी और इंद्र आदि दूसरे देवताओं के मुख से प्रकट हुआ, जिससे दसों दिशाएं जलने लगी। अंत में यही तेज एक देवी के रूप में परिवर्तित हो गया।
देवी ने सभी देवताओं से आयुध, शक्ति तथा आभूषण प्राप्त कर उच्च- स्वर से गगनभेदी गर्जना की, जिससे समस्त विश्व में हलचल मच गई पृथ्वी, पर्वत आदि डोल गए। क्रोधित महिषासुर दैत्य सेना लेकर इस सिंहनाद की ओर डोडा। उसने देखा कि देवी की प्रभा से तीनों लोक प्रकाशित हो रहे है। महिषासुर ने अपना समस्त बल और छल लगा दिया परन्तु देवी के सामने उसकी एक न चली। अंत में वह देवी के हाथों मारा गया। आगे चलकर यही देवी शम्भु-निशम्भु नामक असुरों का वध करने के लिए गौरी देवी के शरीर से उत्पन्न हुई। उस समय देवी हिमालय पर विचर रही थी। जब शुभ-निशुम्भ के सेवकों ने उस परम मनोहर रूप वाली अम्बिका देवी को देखा और तुरन्त अपने स्वामी के पास जाकर कहा-"महाराज! दनिया के सारे रत्न आपके अधिकार में है। यह सुनकर दैत्यराज शुम्भ ने सुग्रीव को अपना दूत बनाकर देवू के पास अपना विवाह का प्रस्ताव भेजा।
देवी ने प्रस्ताव को ना मानकर कहा- "जो मुझसे युद्ध में जीतेगा। मैं उससे विवाह करूँगी।" यह सुनकर असुरेन्द्र के क्रोध का पारावार न रहा और उसने अपने सेनापति धूम्रलोचन को देवी को केशो से पकड़कर लाने का आदेश दिया। इस पर धूम्रलोचन साठ हजार राक्षसों की सेना लेकर देवी से युद्ध के लिए वहाँ पहुँचा और देवी को ललकारने लगा। देवी ने सिर्फ अपनी हुंकार से ही उसे भस्म कर दिया और देवी के वाहन सिंह ने बाकी असुर सेना का संहार कर डाला।
इसके बाद चण्ड-मुण्ड नामक दैत्यों को एक बड़ी सेना के साथ युद्ध के लिए भेजा गया। जब असुर देवी को पकड़ने के लिए तलवार लेकर उनकी ओर बड़े तब देवी ने काली का विकराल रूप धारण करके उन पर टूट पड़ी। कुछ ही देर में सम्पूर्ण दैत्य सेना को नष्ट कर दिया। फिर देवी ने "हूँ" शब्द कहकर चण्ड का सिर काटकर अलग कर दिया और मुण्ड को यमलोक पहुंचा दिया। तब से देवी काली की संसार में चामुण्डा के नाम से ख्याति होने लगा।
महर्षि मेधा ने आगे बताया- चण्ड-मुण्ड और सारी सेना के मारे जाने की खबर सुनकर असुरों के राजा शुम्भ ने अपनी सम्पूर्ण सेना युद्ध के लिए तैयार होने की आज्ञा दी।
शुम्भ की सेना को अपनी ओर आता देखकर देवी ने अपने धनुष की टंकोर से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गूँजा दिया। ऐसे भयंकर शब्द को सुनकर राक्षसी सेना ने देवी और सिंह को चारों ओर से घेर लिया। उस समय दैत्यों के नाश के लिए और देवताओं के हिट के लिए समस्त देवताओं की शक्तियां उनके शरीर से निकलकर उन्हीं के रूप में आयुधों से सजकर दैत्यों से युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हो गई। इन देव शक्तियों से घिरे हुए।
भगवान शंकर ने देवी से कहा-मेरी प्रसन्नता के लिए तुम शीघ्र ही इन असरों को मारो। इसके पश्चात देवी के शरीर से अत्यंत उग्र रूप वाली और सैकड़ों गीदड़ियों के समान आवाज करने वाली चण्डिका- शक्ति प्रकट हुई। उस अपराजिता देवी ने भगवान शंकर को अपना दूत बनाकर शुम्भ-निशुम्भ के पास इस सन्देश के साथ भेज- जो तुम्हें अपने जीवित रहने की इच्छा हो तो त्रिलोकी का राज्य इंद्र को दे दो, देवताओं को उनका यज्ञ भाग मिलना आरम्भ हो जावे और तुम पाताल को लौट जाओ, किन्तु यदि बल के गर्व से तुम्हारी लड़ने की इच्छा हो तो फिर आ जाओ, तुम्हारे मांस से मेरी योनियाँ तृप्त होंगी, चूंकि उस देवी ने भगवान शंकर को दूत का कार्य में नियुक्त किया था, इसलिए वह संसार में शिवदूती के नाम से विख्यात हुई। मगर दैत्य भला कहां मानने वाले थे। वे तो अपनी शक्ति के मद में चूर थे। उन्होंने देवी की बात अनसुनी कर दी और युद्ध को तत्पर हो उठे। देखते ही देखते पुनः युद्ध छिड़ गया। किन्तु देवी के समक्ष असुर कब तक ठहर सकते थे। कुछ ही वक्त में देवी ने उनके अस्त्र-शस्त्रों को काट डाला। जब बहुत से दैत्य काल के मुख में समा गए तो महादैत्य रक्तबीज युद्ध के लिए आगे बढ़ा। उसके शरीर से रक्त की बूंदे पृथ्वी पर जैसे ही गिरती थीं, तुरन्त वैसे ही शरीर वाला तथा बलवान दैत्य पृथ्वी पर उत्पन्न हो जाता था। यह देखकर देवताओं को भय हुआ, देवताओं को भयभीत देखकर चण्डिका ने काली से कहा-चामण्डे! तुम अपने मुख को फैलाओ और मेरे शस्त्राघात से उत्पन्न हुए रक्त बिन्दुओ तथा रक्त बिंदुओं से उत्पन्न हुए महा असुरों को तुम अपने इस मुख से भक्षण करती हुई तुम रणभूमि में विचरो। इस तरह उस दैत्य का रक्त क्षीण हो जाएगा और वह स्वयं नष्ट हो जाएगा। इस प्रकार अन्य दैत्य उत्पन्न नहीं होंगे।
काली से इस प्रकार कहकर चण्डिका देवी रक्तबीज पर अपने त्रिशूल से प्रहार किया और काली देवी ने अपने मुख में उसका रक्त ले लिया। काली के मुख में उस रक्त से जो असुर उत्पन्न हुए, उनको उसने भक्षण कर लिया। चण्डिका ने उस दैत्य को बज्र, बाण, खड्ग इत्यादि से मार डाला। महादैत्य रक्तबीज के मरते ही देवता अत्यंत प्रसन्न हुए और माताएं उन असुरों का रक्त पीने के पश्चात उद्धत होकर नृत्य करने लगी।
रक्तबीज के मारे जाने पर शुम्भ व निशुम्भ को बड़ा क्रोध आया और अपनी बहुत बड़ी सेना लेकर महाशक्ति से युद्ध करने चल दिए। महापराक्रमी शुम्भ भी अपनी सेना सहित मंत्रीगणों से युद्ध करने के लिए आ पहुंचा। किन्तु शीघ्र ही सभी दैत्य मारे गए और देवी ने शुम्भ-निशुम्भ का संहार कर दिया। सारे संसार में शांति हो गई और देवतागण हर्षित होकर देवी की वंदना करने लगे। इन सब उपाख्यानों को सुनकर मेधा ऋषि ने राजा सुरथ तथा वणिक समाधि से देवी स्तवन की विधिवत व्याख्या की, जिसके प्रभाव से दोनों नदी तट पर जाकर तपस्या में लीन हो गए। तीन वर्ष बाद दुर्गा माता ने प्रकट होकर दोनों को आशीर्वाद दिया। इस प्रकार वणिक तो सांसारिक मोह से मुक्त होकर आत्मचिंतन में लग गया और राजा ने शत्रुओं को पराजित कर अपना खोया हुआ राज वैभव पुनः प्राप्त कर लिया।
।।अथ आरती श्री दुर्गा माताजी की।।
जय अम्बे गौरी, मैया जय मंगल मूर्ति, मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशदिन सेवत ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवजी।।
मांग सिन्दूर विराजते, टीको मृगमद को।
उज्जवल से दोउ नयना, चन्द्र बदन नीको।।
जय अम्बे गौरी, मैया जय मंगल मूर्ति, मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशदिन सेवत ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवजी।।
कनक समान कलेवर रक्ताम्बर राजै।
रक्त पुष्प की गल माला, कण्ठन पर साजै।।
जय अम्बे गौरी, मैया जय मंगल मूर्ति, मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशदिन सेवत ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवजी।।
केहरि वाहन राजत, खड्ग खप्पर धारी।
सुर-नर-मुनिजन सेवत, तिनके दुःख हारी।।
जय अम्बे गौरी, मैया जय मंगल मूर्ति, मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशदिन सेवत ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवजी।।
कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती।
कोटिक चन्द्र दिवाकर, राजत सम ज्योति।।
जय अम्बे गौरी, मैया जय मंगल मूर्ति, मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशदिन सेवत ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवजी।।
शुम्भ निशम्भु विदारे, महिषासुर घाती।
धूम्र विलोचन नयना, निशदिन मदमाती।।
जय अम्बे गौरी, मैया जय मंगल मूर्ति, मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशदिन सेवत ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवजी।।
चण्ड-मुण्ड संहारे, शोणित बीज हरे।
मधु-कैटभ दोऊ मारे, सुर-भयहीन करे।।
जय अम्बे गौरी, मैया जय मंगल मूर्ति, मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशदिन सेवत ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवजी।।
ब्राह्मणी रुद्राणी, तुम कमला रानी।
आगम-निगम बखानी, तुम शिव पटरानी।।
जय अम्बे गौरी, मैया जय मंगल मूर्ति, मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशदिन सेवत ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवजी।।
चौंसठ योगिनी मंगल गावत, नृत्य करत भैरों।
बाजत ताल मृदंग, और बाजत डमरू।।
जय अम्बे गौरी, मैया जय मंगल मूर्ति, मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशदिन सेवत ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवजी।।
तुम ही जगत की माता, तुम ही हो भर्ता।
भक्तन की दुःख हर्ता, सुख सम्पत्ति कर्ता।।
जय अम्बे गौरी, मैया जय मंगल मूर्ति, मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशदिन सेवत ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवजी।।
भुजा चार अति शोभित, वर-मुद्रा धारी।
मनवांछित फल पावत, सेवत नर-नारी।।
जय अम्बे गौरी, मैया जय मंगल मूर्ति, मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशदिन सेवत ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवजी।।
कंचन थाल विराजित, अगर कपूर बाती।
श्रीमालकेतु में राजत, कोटि रत्न ज्योति।।
जय अम्बे गौरी, मैया जय मंगल मूर्ति, मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशदिन सेवत ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवजी।।
अम्बे जी की आरती, जो कोई नर गावे।
कहत सुनील जोशी, सुख सम्पत्ति पावे।।
जय अम्बे गौरी, मैया जय मंगल मूर्ति, मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशदिन सेवत ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवजी।।
।।इति आरती श्री दुर्गा माता की।।
।।जय बोलो अम्बे माता की जय।।
।।जय बोलो नवदुर्गा जी की जय हो।।