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Monday, July 11, 2022

भीष्माष्टमी व्रत क्या हैं? जानें पूजा विधि, कथा और महत्व What is Bhishmashtami vrat? Know Puja vidhi, katha and Importance)

                  

भीष्माष्टमी व्रत क्या हैं? जानें पूजा विधि, कथा और महत्व(What is Bhishmashtami vrat? Know Puja vidhi, katha and Importance):-माघ मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को 'भीष्माष्टमी' के नाम से जाना जाता हैं। भीष्माष्टमी के रूप में प्रसिद्ध है। इस अष्टमी तिथि को बाल ब्रह्मचारी भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने प्राण छोड़े थे। उनकी पावन स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है।




What is Bhishmashtami vrat? Know Puja vidhi, katha and Importance







भीष्म अष्टमी व्रत पूजा-विधि(Bhishma Ashtami vrat puja vidhi):-निम्नलिखित रूप से करना चाहिए-



◆मनुष्य को सुबह जल्दी उठना चाहिए।



◆फिर अपनी दैनिकचर्या को पूर्ण करते हुए किसी भी पवित्र जल स्त्रोत में स्नान करते हुए उनको अपने पितरों के नाम से जल चढ़ाना चाहिए।




◆इस दिन प्रत्येक हिन्दू को भीष्म पितामह के निर्मित कुश, तिल, जल लेकर तर्पण करना चाहिए।




◆इस व्रत के करने से साल भर के पाप नष्ट हो जाते है।




◆व्रत करने वालों को सुंदर और गुणवान संतति प्राप्त होती है।




भीष्म अष्टमी व्रत की पौराणिक कथा(Legend of Bhishma Ashtami Vrat):-बहुत समय पूर्व की बात है, एक हस्तिनापुर नाम का राज्य था। हस्तिनापुर राज्य पर शान्तनु नाम के राजा राज करते थे। राजा शान्तनु के पुत्र थे। देव नदी भगीरथी श्री गंगाजी इनकी माता थी। बाल्यकाल में इनका नाम देवव्रत था। उन्होनें देवगुरु बृहस्पति से शास्त्र तथा परशुरामजी से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्राप्त की थी। उनके समकालीन शस्त्र-शास्त्र का इनके जैसा कोई ज्ञाता नहीं था। वीर होने के साथ-साथ वे सदाचारी और धार्मिक थे। सब प्रकार से योग्य देखकर महाराज शान्तनु ने उन्हें युवराज घोषित कर दिया।




एक बार महाराज शान्तनु की इच्छा शिकार करने की हुई तो उन्होंने अपने दरबारीओं से कहा कि मेरी आज इच्छा शिकार खेलने की हो रही है। इसलिए मैं आज अपने सैनिकों के साथ शिकार खेलने के लिए जा रहा हूँ। जब महाराज शान्तनु शिकार खेलने के लिए जंगल में जाते है तो शिकार खेलते-खेलते जंगल में अपने सैनिकों से बहुत दूर निकल जाते है। इस तरह जंगल भटकते-भटकते उनको प्यास लगती है। तब वे नदी को ढूंढते-ढूंढते हुए जब नदी दिखाई देती है तो उनको एक सुंदर स्वरुप वाली आकर्षक कन्या दिखाई देती है और उसके पास जाकर अपनी प्यास के लिए पानी मांगते है।




पानी पिलाने पर उस कन्या का परिचय महाराज शान्तनु पूछते है, तब वह कन्या अपना परिचय देते हुए बताती है, की मेरा नाम मत्स्य गंधा है और मैं एक विषाद कन्या हूँ। ऋषि पाराशर जी के वरदान से मैं अपूर्व लावण्यवती हो गई थी। मत्स्य गंधा के शरीर से कमल की सुंगध निः सृत हो रही थी। जो एक योजन तक जाती थी। महाराज शान्तनु उनके रूप लावण्य के आकर्षण पर मुग्ध हो गए। महाराज शान्तनु पहली नजर में उसे देखते ही उस रूप यौवन पर मोहित होकर उससे अपनी मन चाहत को मत्स्यगंधा को कहा-कि हे देवी मैं आपके सौंदर्य रूप से आकर्षित हो गया हूँ और मैं आपके प्रेम का सुख भोगने के इच्छुक हूँ। मैं हस्तिनापुर का महाराज शान्तनु हूँ। मैं आपसे लग्न करने का इच्छुक हूँ। इसलिए आप कृपा करके मेरे प्रेम को स्वीकार करे।





तब मत्स्यगंधा ने कहा-हे राजन आप तो एक राज्य के राजा हो और मैं ठहरी एक विषाद कन्या हूँ। मैं तो आपसे लग्न करने के लिए तैयार हूँ। लेकिन मेरी पिताश्री की अनुमति इस लग्न को करने के लिए चाहिए। इसलिए आप कृपा करके मेरे पिताश्री से अनुमति मांगे। जब उनकी स्वीकृति मिल जाएगी।तो मैं आपसे विवाह कर लुंगी। इस तरह महाराज शान्तनु मत्स्यगंधा के पिताश्री निषादराज से मिले और अपना परिचय दिया। परिचय देने के बाद निषादराज से उनकी पुत्री मत्स्यगंधा से विवाह करने की याचना की और कहा कि मैं आपकी पुत्री मत्स्यगंधा को पहली नजर में देखने के बाद उसके रूप यौवन से मोहित हो गया,इसलिए मैं आपकी पुत्री को आपनी पत्नी बनाने का इच्छुक हूँ। आप कृपा करके मुझे आपकी पुत्री मत्स्यगंधा से विवाह की अनुमति देवे।





तब निषादराज बोले-हे राजन आप तो हस्तिनापुर के राजा है। मैं तो एक निषाद हूँ, और मैं अपनी पुत्री का विवाह आपके साथ करवाने की स्वीकृति देता हूँ। लेकिन मेरी एक शर्त है,की मेरी पुत्री से उत्पन्न सन्तान पुत्र ही आपके राज्य हस्तिनापुर का राजा आपके बाद बनने का अधिकारी होगा।यह आप वचन देवे तो मैं अपनी कन्या का विवाह आपसे करवाने के लिए तैयार हूँ। इस तरह की शर्त को सुनकर महाराज शान्तनु उदास और दुःखी हो गये। वे राजकुमार देवव्रत का अधिकार अपने स्वार्थ के लिए छीनना नहीं चाहते थे और उसके अधिकार को दूसरे को देना गलत समझते थे। इस तरह की बात के बाद महाराज शान्तनु अपने राज्य वापस आ गये। वे अपने राज्य में गुमसुम रहने लगे और मत्स्यगंधा को अपने दिल से नहीं निकाल पा रहे थे। इस तरह महाराज शान्तनु मत्स्यगंधा की याद में तड़पते हुए दिनोदिन सूखते जा रहे थे, जिसके परिणाम स्वरूप वें बीमार हो गये।





देवव्रत ने अपने पिता महाराज की इस तरह की हालत देखकर दुःखी होकर उनसे उनके दुःख का कारण पूछा। काफी विनती करने पर महाराज शान्तनु ने अपने दिल के हाल को अपने पुत्र देवव्रत को बताया। जब देवव्रत को अपने पिताश्री की उदासी और बीमारी का कारण पता चलने पर अपने पिता को वचन दिया कि मैं आपकी खुशी के लिए अपना अधिकार छोड़ने के लिए तैयार हूँ और मैं वचन देता हूँ कि मैं भविष्य में इस राज्य हस्तिनापुर पर अपना अधिकार नहीं करूंगा। आपकी इच्छा पूर्ति के लिए मैं अभी तुरन्त निषादराज के पास जाता हूँ।




देवव्रत इस तरह-अपने पिताश्री को सांत्वना देकर जंगल के लिए चल पड़े। जब वे निषादराज के पास पहुंचे तब उन्होंने अपना परिचय दिया कि मैं शान्तनु पुत्र देवव्रत हूँ। मैं आपसे निवेदन करता हु की आप अपनी कन्या मत्स्यगंधा जी का विवाह मेरे पिताश्री से करने की अनुमति देवे।





निषादराज ने कहा-कि मेरी शर्त यह कि तुम महाराज शान्तनु की बड़ी सन्तान हो और तुम्हारे बड़े होने राज्य पर तुम्हारा अधिकार होगा। मैं ठहरा निषाद और मेरी पुत्री को सम्मान नहीं मिलेगा। इसलिए मेरी शर्त है कि तुम अपना राज्य अधिकार को छोड़ दो और मुझे व मेरी पुत्री को वचन दो की जब मेरी पुत्री के पुत्र सन्तान होगी। तो वही पुत्र सन्तान राज्य का उत्तराधिकारी होगा। देवव्रत ने हाथ में जल लेकर कहा-कि मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूं कि मैं राज्य सिंहासन पर नहीं बैठूंगा।





तब निषादराज ने कहा-कि आप तो राज्य के सिंहासन पर नहीं बैठेंगे, लेकिन आपका पुत्र मेरे दोहीत्रों से राजसिंहासन छिन सकते है। इस तरह के निषादराज के वचन सुनकर राजकुमार देवव्रत ने सभी दिशाओं की ओर देवताओं को गवाह मानकर आजीवन ब्रह्मचारी रहने और विवाह न करने की भीषण प्रतिज्ञा की। इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उनका नाम "भीष्म" पड़ा। अपने पिता के सुख के लिये इतने बड़े व्रत को निभाने वाले आजीवन बाल ब्रह्मचारी भीष्म का चरित्र सबके लिए अनुकरणीय है। देवव्रत ने आजीवन अविवाहित रहते हुए बिना सन्तान के ही मृत्यु की अवस्था प्राप्त की थी। इसलिए राजकुमार देवव्रत के अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत के कारण सम्पूर्ण हिन्दू समाज माघ शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन पुत्रों की भांति तर्पण करते है और करना चाहिए।




भीष्म अष्टमी व्रत का महत्व(importance of Bhishma Ashtami Vrat):-भीष्म अष्टमी व्रत के द्वारा मनुष्य अपने पिता के प्रति कर्तव्य को पालन करने में मददकारी होता हैं। पिता के समान कोई नहीं होता हैं, उनकी आज्ञा को सर्वोपरि मानते हुए अपनी पितृभक्ति को जागृत करना चाहिए।



◆पितरों का तर्पण हो जाने से पितरों का आशीर्वाद प्राप्त होता हैं।




◆इस व्रत के प्रभाव से मनुष्य के द्वारा जीवन के बुरे कर्मों से मुक्ति मिल जाती हैं। 




◆मनुष्य के द्वारा यह व्रत करने पर गुणवान व आज्ञाकारी पुत्र सन्तान की प्राप्ति होती हैं।




◆मनुष्य की अकाल मृत्यु से भी यह व्रत रक्षा करता हैं।