हनुमत्प्रोक्त मन्त्रराजात्मक रामस्तव स्तोत्रं अर्थ सहित और लाभ(Hanumatprokta Mantrarajatmak Ramstav Stotram with meaning and benefits):-हनुमत्प्रोक्त मन्त्रराजात्मक रामस्तव स्तोत्रं की रचना श्रीपवनपुत्र हनुमानजी ने की थी। इस स्तोत्रं में भगवान श्रीरामजी के द्वारा सुग्रीवजी की वानर सेना की सहायता से रावण का वध करने, विभीषण को अपने शरण में लेकर राज्य आदि प्रदान करने, समस्त ऋषि-मुनियों सहित देवताओं के द्वारा पूजित, अपने तेज से समस्त लोक में दीप्ति फैलाने वाले, अपने क्रियाकलापों के द्वारा समस्त जगहों में वासित, अज्ञानता को दूर करने वाले, नाम मात्र से पाप का नाश करने वाले, भक्तों की भक्ति को समान महत्व देकर इच्छापूर्ति करके, उद्धार करने वाले, समस्त भक्तों पर दया भाव रखने वाले आदि गुणों के बारे में हनुमानजी ने गुणगान किया हैं। हनुमानजी भगवान रामजी की सेवा में हमेशा तैयार रहने वाले होते हैं। भगवान रामजी का जहां पर भी गुणगान होता हैं वहां पर हनुमानजी अपने भक्तों की रक्षा करने के लिए दौड़े-दौड़े चले जाते हैं।
श्रीहनुमत्प्रोक्त मन्त्रराजात्मक रामस्तव स्तोत्रं अर्थ सहित:-श्री हनुमत्प्रोक्त मन्त्रराजात्मक रामस्तव स्तोत्रं के वांचन करने से पूर्व स्तोत्रं में वर्णित श्लोकों के शब्दों के उच्चारण का अर्थ जानना चाहिए, जिससे जानकर मनुष्य स्तोत्रं में बताए गए बातों के महत्व जान पावे।
तिरश्चामपि चारातिसमवायं समेयुषाम्।
यतः सुग्रीवमुख्यानां यस्तमुग्रं नमाम्यहम्।।१।।
अर्थात:-हे रामजी! आपने मर्कट के राजा सुग्रीवादि वक्रता वाली जाति में जन्म लेने वाले मर्कट-भालुओं की वाहिनी को एकजुट किया और सैन्य परीक्षण की शिक्षा देकर उनको अच्छी तरह से यथार्थ ज्ञान को देकर जागृति उत्पन्न की और जिससे अपने मुख्य दुश्मन लंकापति रावण का समूल नाश कर सके। स्वर्ण नगरी लंका पर विजय की पताका को लहराई, उन ज्यादा प्रचंड या रौद्र रस से युक्त भगवान रामजी को मैं नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ।
सकृदेव प्रपन्नाय विशिष्टामैरयच्छ्रियम्।
विभीषणायाब्धितटे यस्तं वीरं नमाम्यहम्।।२।।
अर्थात:-हे रामजी! जब रावण के द्वारा अपने भाई विभीषण को देश निकाला देने पर असहाय विभीषण ने प्रभु राम जी की शरण लेने के लिए समुद्र के किनारे पर भगवान श्रीरामजी से शरण के गए। तब विभीषण के द्वारा भगवान रामजी से कहा-हे देव! मैं आपकी शरण में हूँ, इस तरह से शरण की अरदास करने पर भगवान श्रीरामजी ने एक बार में अपनी शरण में ले लिया और लंका के विजय बाद उन्होंने विभीषण को लंका का स्वामी बनाकर बहुत संपदा-ऐश्वर्य को दिया, उन वीरों का वीर श्रीरामजी को मैं हाथ जोड़कर अभिवादन करता हूँ।
यो महान् पूजितो व्यापी महान् वै करुणामृतम्।
श्रुतं येन जटायोश्च महाविष्णुः नमाम्यहम्।।३।।
अर्थात:-हे रामजी! आप समस्त विशाल श्रेष्ठता से युक्त होकर तीनों लोक में कण-कण में विराजमान होने से आपकी ऋषि-मुनियों एवं देवता भी पूजा करते हैं। आप साकार व सगुण से युकर होकर विशाल अमृत रूपी दया के सागर स्वरूप हैं और अमृत रूपी दया के सागर से जटायु तक का आपने आसक्ति से मुक्त कर दिया,उन महाविष्णु स्वरूप भगवान श्रीरामजी को मैं हाथ जोड़कर अभिवादन करता हूँ।
तेजसाप्यायिता यस्य ज्वलन्ति ज्वलनादयः।
प्रकाशते स्वतन्त्रो यस्तं ज्वलन्तं नमाम्यहम्।।४।।
अर्थात:-हे रामजी! आपकी दीप्ति से अग्नि, सोम और भास्कर आदि कांतियुक्त ग्रह या तारा आकाशमण्डल में स्पष्ट रूप से चमकते हैं एवं जो अपनी दीप्ति की चमक से चमकते हैं, उन चमकते हुए ज्योतिमान परिपूर्ण भगवान श्रीरामजी को मैं नतमस्तक होकर अभिवादन करता हूँ।
सर्वतोमुखता येन लीलया दर्शिता रणे।
रक्षसां खरमुख्यानां तं वन्दे सर्वतोमुखम्।।५।।
अर्थात:-हे रामजी! जब आपने पूर्ण व्यापक रूप में समस्त दिशाओं में प्रवृत्त होकर चारों ओर मुखकरके अपनी क्रियाकलापों से संग्राम क्षेत्र में खर-दूषण एवं त्रिशिरा आदि दैत्यों को युद्ध करते समय दिखलाकर समस्त दैत्यों का अंत कर दिया, उन चारों तरफ मुख वाले भगवान श्रीरामजी की मैं हाथ जोड़कर अभिवादन करता हूँ।
नृभावं यः प्रपन्नानां हिनस्ति च तथा नृषु।
सिंहः सत्त्वेष्विवोत्कृष्टस्तं नृसिंहं नमाम्यहम्।।६।।
अर्थात:-हे रामजी! आपकी पनाह में मनुष्यों के आते ही तुच्छ अज्ञानता रूपी मनुष्य में उत्पन्न विचारों को नष्ट कर देते हो, उन मनुष्यों में अलौकिक और विलक्षण दीप्तियुक्त दैवीय गुणों को उत्पन्न करके उनको पूर्ण कर देते हो और समस्त लोकों में सिंह की तरह बलवान हो, उन नृसिंह भगवान श्रीराम को मैं झुकते हुए नमस्कार करता हूँ।
यस्माद्विभ्यति वातार्कज्वलनेन्द्राः समृत्यवः।
भियं तनोति पापानां भीषणं तं नमाम्यहम्।।७।।
अर्थात:-हे रामजी! आपके भयानक या डरावने स्वरूप से वायु, अग्नि, सूर्य, इंद्र एवं यम देवता आदि समस्त तीनों लोक में विचरण करने वाले आपके डरे हुए रहते है और धर्म व नीति के विरुद्ध आचरण तो आपके नाम मात्र से भी हमेशा दूर भागते हैं, उन भयनक्त श्रीरामजी को मैं आदरपूर्वक हाथ जोड़कर अभिवादन करता हूँ।
परस्य योग्यतापेक्षारहितो नित्यमङ्गलम्।
ददात्येव निजौदार्याद्यस्तं भद्रं नमाम्यहम्।।८।।
अर्थात:-हे रामजी! आप विशाल हृदय रूपी सागर के दया भाव को अपने समस्त रखने वाले अपने भक्तों की भक्ति को समान महत्व देते हुए उनके गुणों के अनुसार उनकी इच्छा को भी महत्व देते हुए हमेशा सबकुछ देते रहते हो, आप हमेशा आनन्द रूपी इच्छापूर्ति के स्वरूप हैं, उन श्रेष्ठ विनम्र स्वरूप करुणा रूपी मूर्ति भगवान श्रीरामजी को मैं नतमस्तक होकर नमन करता हूँ।
यो मृत्युं निजदासानां नाशयत्यखिलेष्टदः।
तत्रोदाहृतये व्याधो मृत्युमृत्युं नमाम्यहम्।।९।।
अर्थात:-हे रामजी! आप अपने भक्तों के शरीर से प्राण निकलने का मूल सहित नाश करते हुए उनकी उद्धार की कामना को पूरी कर देते हो, कभी महर्षि वाल्मीकि भी पहले आखेट से जीविका चलाने वाली जाति में उत्पन्न होकर श्रीराम के नाम के उच्चारण करते रहने पर उनका उद्धार कर दिया था, जो मुख्य साक्ष्य इस सम्बंध में हैं। उन मरण के मरण से मुक्ति को प्रदान करने वाले भक्तों से स्नेह रखने वाले श्रीरामजी को मैं नतमस्तक होकर नमन करता हूँ।
यत्पादपद्मप्रणतो भवत्यत्तमपुरुषः।
तमजं सर्वदेवानां नमनीयं नमाम्यहम्।।१०।।
अर्थात:-हे रामजी! जब धर्म व नीति के विरुद्ध आचरण करने वाले निकृष्ट मनुष्य जब आपके चरण कमलों में नतमस्तक होकर अभिवादन करते हैं, तब वे भी सबसे अच्छे मनुष्य बन जाते हैं, काम, क्रोध, लोभ, मोह और अंहकार आदि मानसिक पंच विकार एवं जीव के गर्भ में आने से ही वह पैदा होना, अस्तित्व से युक्त होना, उसकी बढ़ोतरी होना, उसमें बदलाव होना, क्षीण होना और अंत में नाश हो जाना आदि जन्मादि षडविकारों से आजाद हो जाता हैं एवं उद्धार हो जाता हैं, आप समस्त देवताओं के द्वारा पूजनीय हो एवं समस्त देवताओं के द्वारा स्तुतिय भगवान श्रीरामजी को मैं हाथ जोड़कर वंदना करता हूँ।
अहंभावं समुत्सृज्य दास्येनैव रघुत्तमम्।
भजेSहं प्रत्यहं रामं ससीतं सहलक्ष्मणम्।।११।।
अर्थात:-हे रामजी! मैं हनुमान जगत के मूल तत्व में अपनी आत्मा से गर्व या घमंड को त्याग करते हुए दास्यभाव या जिनकी सेवा करने वाला सेवक की मनोभाव से दिन-रात हरपल लगातार लक्ष्मणजी सहित श्रीसीतारामजी की पूजा-सेवा करता हूँ।
नित्यं श्रीरामभक्तस्य किंकरा यमकिंकराः।
शिवमय्यो दिशस्तस्य सिद्धयस्तस्य दासिकाः।।१२।।
अर्थात:-हे रामजी! आपकी हमेशा भक्ति करने वाले भक्तों के यमदूत भी हमेशा सेवक दास बन जाते हैं, उस भक्त के लिए उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, वायव्य, आग्नेय, नैऋत्यां, ईशान, आकाश एवं पाताल सहित दशों दिशाएँ भी सब तरह से कल्याणकारी हो जाती हैं और समस्त अलौकिक दिव्य शक्तियां भी आपके चरणों में लौटती हैं।
इमं हनूमता प्रोक्तं मन्त्रराजात्मकं स्तवम्।
पठत्यनुदिनं यस्तु स रामे भक्तिमान् भवेत्।।१३।।
अर्थात:-हे रामजी! जो कोई भी भक्त हनुमानजी के द्वारा हनूमता प्रोक्त मन्त्रराजात्मक स्तोत्रं का हमेशा वांचन करते है, वह भक्त श्रीरामजी का भक्त हो जाता हैं और भगवान के चरणों स्थान को पाता है।
श्रीहनुमत्प्रोक्त मन्त्रराजात्मक रामस्तव स्तोत्रं के वांचन से लाभ:-श्रीहनुमत्प्रोक्त मन्त्रराजात्मक रामस्तव स्तोत्रं के वांचन करने से निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं-
◆भगवान के चरणों में जगह मिलना:-जो मनुष्य भक्त नियमित रूप से श्रीहनुमत्प्रोक्त मन्त्रराजात्मक रामस्तव स्तोत्रं का वांचन करते हैं, उनको भगवान श्रीरामजी के चरण कमलों की सेवा का मौका मिलता हैं।
◆बुरी शक्तियों एवं बुरे विचार से मुक्ति मिलना:-जो भक्त नियमित रूप से स्तोत्रं को सच्चे मन से वांचन करते हैं, उन पर भगवान रामजी एवं हनुमानजी की अनुकृपा मिल जाती हैं। बुरी शक्तियों एवं बुरे विचार से मुक्ति मिल जाती हैं।
◆मोक्षगति को प्राप्त करने हेतु:-जन्म-मरण के बन्धन से छुटकारा मिल जाता हैं, मनुष्य को मोक्षगति मिल जाती हैं।
◆शारीरिक कष्टों से मुक्ति:-शरीर में उत्पन्न कष्टों से मुक्ति दिलवाने में सहायक होता हैं।
◆अकाल मृत्यु पर विजय पाने हेतु:-मनुष्य के द्वारा भगवान रामजी का गुणगान करने वाले मनुष्य पर यमराज की एक भी नहीं चलती हैं और अकाल मृत्यु से रक्षा हनुमानजी करते हैं।
◆समस्त मनोकामना पूर्ति हेतु:-मनुष्य के द्वारा स्तोत्रं के वांचन करने पर समस्त दिल की चाहत पूर्ण हनुमानजी एवं भगवान रामजी कर देते हैं।
◆व्याधियों से मुक्ति:-शरीर में होने वाले रोगों से राहत देकर मनुष्य के शरीर में उत्साह की उत्पत्ति करके स्वास्थ्य को ठीक रखते हैं।