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Saturday, August 27, 2022

महामृत्युंजय मंत्र साधना विधि अर्थ सहित सम्पूर्ण विवेचन (Mahamrityunjay Mantra Sadhana Vidhi Complete Discussion with Meaning)


महामृत्युंजय मंत्र साधना विधि अर्थ सहित सम्पूर्ण विवेचन(Mahamrityunjay Mantra Sadhana Vidhi Complete Discussion with Meaning):-मन्त्र साधना का प्रभाव मानव जीवन पर पड़ता हैं, चाहे आप विश्वास करें या ना करें। मन्त्र साधना की सफलता में विश्वास एक सीमा तक उपयोगी होता है। कुछ आचार्यों के अनुसार वह साधना और प्रवाह बनाए रखने मात्र के लिए जरूरी हैं, हो तो ठीक और ना हो तो ठीक, पर मन्त्र अपना प्रभाव अवश्य दिखाते हैं। वे कौन से तत्त्व हैं, जो मन्त्र साधना को सिद्धि तक पहुंचाते है। 



Mahamrityunjay Mantra Sadhana Vidhi Complete Discussion with Meaning




मन्त्र साधना को सिद्धि पर पहुँचाने तत्त्व:-ये मुख्य तीन तत्त्व होते हैं- 



1.शब्द शक्ति:-सार्थक ध्वनियों की जानकारी प्रदान करने के सामर्थ्य को शब्द शक्ति कहा जाता हैं।



2.जप या मन्त्रों की अवर्तिता:-किसी पद या वाक्य का विश्वास और आस्था भाव से बार-बार उच्चारण करने को जप की अवर्तिता कहा जाता हैं।


मन्त्रों की अवर्तिता:-नियत समय के बाद गुनगान करते हुए भक्ति और श्रद्धापूर्वक ईश्वर, देवी-देवताओं आदि से बार-बार उच्चारण करते हुए निवेदन करने को मन्त्रों की अवर्तिता कहा जाता हैं।



3.साधक की चर्या:-योगी या तपस्वी के द्वारा मन को एक जगह पर कार्य सिद्धि में लगाने हेतु जो दैनिक आचरण या गतिविधियां की जाती हैं, उसे साधक की चर्या कहा जाता हैं।


सार्थक ध्वनियों एवं ध्वनियों की संगठित इकाईयों को पिरोकर ही मन्त्र को सोचने-समझने की स्थिति बनाता हैं। महामृत्युंजय मन्त्र के प्रति शिवजी का सर्वाधिक लगाव होता हैं। मृत्युभय को टालने के लिए तथा अकाल मृत्यु को समाप्त करने के लिए सभी को जानकारी वाला और आजमाया हुआ मन्त्र हैं, इससे बढ़कर न तो कोई मन्त्र है और न ही कोई अभीष्ट प्राप्ति के लिए मन में धारित कल्याणकारी आराधना हैं। इस मन्त्र के द्वारा रोग से छुटकारा प्रदान करने की अद्भुत सामर्थ्य होता है।




शास्त्र-पुराणों की ऐसी मान्यता है कि जिसने इस मन्त्र को अपनी साधना से पूर्ण कर लिया हैं, उसको अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। वह सौ वर्ष से भी अधिक आयु को भोगता है तथा अन्तिम क्षण तक उसका शरीर अच्छी तरह गठा हुआ और सुडौल, मन को भाने वाला एवं हृष्ट-पुष्ट बना रहता हैं उसके शरीर में किसी भी तरह की व्याधि का असर नहीं होता हैं, जिससे वह शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक रूप से तंदुरुस्त बना रहता है। जीवन में वह पुत्रों का सुख, पोते का सुख, शोभायुक्त, गौरवशाली तथा क्षयरहित शोहरत का मालिक होता हैं। 




जिस किसी के निवास स्थान में नियमित रूप निवास स्थान के सदस्य के द्वारा कम से कम एक माला अर्थात् एक सौ आठ मन्त्रों का वांचन किया जाता हैं, तो उस निवास स्थान में रहने वाले सदस्यों के बीच में किसी भी तरह के टकराव व मतभेद एवं  शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक परेशानी, बिना समय मृत्यु का डर आदि नहीं सताता हैं एवं सुख-शांति से जीवन का पूर्ण आनंद भोगते हैं। 



परिवार के सभी लोग मिलझुलकर एक साथ रहते हैं और उनकी हिफाजत भी होती हैं, दुर्घटना या बीमारी आदि में उम्र के पूर्ण होने से पूर्व की मौत और बोलते समय एक शब्द पर कभी अधिक बल तो कभी कम बल पड़ने से अस्पष्ट बोलने से सम्बंधित बलाघात जैसे अशुभ योगों के लिए यह मन्त्र सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।



प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों एवं तपस्वियों ने अपने ज्ञान के चक्षुओं के द्वारा इस मंत्र के यथार्थ स्वरूप का अहसास करके इसके महत्व को जाना हैं। जब विश्वास और पूर्ण समर्पण-आस्था भाव रखते हुए इस मंत्र का गुणगान किया जाता हैं, तो एकाग्र तप करने से हमेशा अभीष्ट सिद्धि का फल मिलता हैं, इसमें किसी तरह की दो राय नहीं हैं और इस मंत्र की शक्ति को जानने के लिए उस इंसान को मन्त्र के प्रति अपने आप समर्पित करके उसके यथार्थ स्वरूप का अहसास खुद कर सकता हैं।



धर्म शास्त्रों में व्याधियों से छुटकारा प्राप्त करने के विषय में बहुत सारी मन्त्र साधनाओं के बारे में वर्णन मिलता हैं, उन सभी मन्त्र शक्ति साधनाओं में से महामृत्युंजय मंत्र शक्ति साधना व्याधियों से छुटकारा दिलाने में सर्वोत्तम स्थान रखती है। इसलिए महामृत्युंजय मंत्र साधना को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।



महामृत्युंजय मंत्र का बहुत ही महत्व हैं, इंसान के साथ समस्त तीनों लोकों में विराजित देवी-देवताओं भी इस मंत्र का वांचन करते हैं, जिससे उन पर सृष्टि के संहारक भगवान् भोलेनाथ जी की अनुकृपा बनी रहे। 



कलौकलिमल ध्वंयस सर्वपाप हरं शिवम्।

येर्चयन्ति नरा नित्यं तेपिवन्द्या यथा शिवम्।

स्वयं यजनित चद्वेव मुत्तेमा स्द्गरात्मवजैः।

मध्यचमा ये भवेद मृत्यैतरधमा साधन क्रिया।।

देव पूजा विहीनो यः स नरा नरकं व्रजेत। 

यदा कथंचिद् देवार्चा विधेया श्रद्धायान्वित।।

जन्मचतारात्र्यौ रगोन्मृदत्युतच्चैरव विनाशयेत्।

अर्थात्:-हे शिवजी! जो कोई इंसान वर्तमान समय में हमेशा आपके मन्त्रों के द्वारा आपके गुणों का आदरपूर्वक बखान करता हैं, उस इंसान के द्वारा कलियुग में धर्म और नीति के विरुद्ध किये गए सभी बुरे आचरणों और गुनाह आदि का विनाश कर देते हों। अच्छे एवं श्रेष्ठ गुरु के मार्गदर्शन के माध्यम से दुष्ट एवं लोभी स्वभाव वाले इंसान के द्वारा खुद आपके लोकहित के विचार से पूजा करने पर उसको आप पवित्र बना देते हो। 


महामृत्युंजय मंत्र का बिना रुके वांचन मध्य समय करता हैं तो उसको आप पवित्र कर देते हो, जन्म-मरण के बंधन से पूर्णरूपेण मुक्ति प्रदान करने का जरिया हैं। इंसान के द्वारा किये गये बुरे कर्मों को तो क्षमा प्रदान कर देते हों।



जो इंसान देवता पर विनय, श्रद्धा और समर्पण भाव से रहित पूजा-अर्चना नहीं करते हैं, उस इंसान के द्वारा कुकर्मो के कारण मृत्यु के बाद उस आत्मा को जीवन काल में किए गये पापों को भोगने के लिए नरक में जगह मिलती हैं। जो इंसान विश्वास और आस्था भाव रखते हुए पूजा-अर्चना मन्त्रों के द्वारा करने पर देवता के द्वारा उस इंसान को अपने किसी भी रूप में दर्शन प्रदान कर देते हैं। वर्तमान युग में शिवजी  की पूजा करने पर उस इंसान को शीघ्र अभीष्ट फल देने वाली शिवपूजा ही सहारा हैं। इंसान के जन्म-मरण के बन्धना से छुटकारा देने वाला, चिंता से मुक्ति, मन में बुरा होने का डर और आत्मीय दुःख से उपजी संवेदना आदि से छुटकारा प्रदान करने वाला महामृत्युंजय मंत्र की विधि सबसे अच्छी विधि शास्त्रों में बताया गया है।



पद्मपुराण के महामृत्युंजय मंत्र एवं स्तोत्रं की रचना या उत्पत्ति कैसे हुई जाने एवं पढ़ें एक रोचक पौराणिक कथा:-का उल्लेख किया गया हैं।


पौराणिक कथा के अनुसार:-महामुनि मृकंडु के यहां कोई संतान न थी। सन्तान प्राप्ति के लिए महामुनि और उनकी पत्नी न कठोर तपस्या से भगवान शिवजी को प्रसन्न किया। भगवान शिवजी ने तब महामुनि को साक्षात दर्शन दिए और उन्हें सन्तान प्राप्ति का वरदान देते हुए कहा-"महामुनि! हम तुम्हारी तपश्चर्यसे अति प्रसन्न हैं और तुम्हें सन्तान प्राप्ति का वरदान देते हैं, किन्तु यदि तुम गुणवान, यशस्वी और धर्मपरायण पुत्र चाहते हो तो उसकी आयु केवल सोलह वर्ष की होगी। इसके विपरीत यदि तुम उत्तम गुणों से हीन, अयोग्य और आलसी पुत्र चाहते हैं तो उसकी आयु सौ वर्ष होगी।"



भगवान शिवजी की इस बात को सुनकर महामुनि विचारमग्न हो गए, फिर गम्भीर स्वर में दृढ़ता से बोले- "प्रभु! मैं दीर्घायु वाला गुणहीन पुत्र नहीं चाहता, बल्कि सर्वगुण सम्पन्न मात्र सोलह वर्ष की अल्पायु वाला पुत्र पाकर ही प्रसन्नता का अनुभव करूँगा।"



भगवान शिवजी ने महामुनि के कथन पर 'तथास्तु' कहा और फिर अंतर्धान हो गए।समय आने पर महामुनि की पत्नी ने एक नन्हें शिशु को जन्म दिया। इस शिशु का नाम मार्केंडेय रखा गया। मार्केंडेय बड़ा ही होनहार और बुद्धिमान बालक निकला। उसने बाल्यकाल में ही अनेक श्लोकों की रचना कर अपनी प्रतिमा का परिचय दे दिया था। मार्केंडेय रचित श्लोकों में महामृत्युंजय मंत्र भी सम्मिलित था।



जब मार्केंडेय सोलह वर्ष का हुआ तो पिता मुनि मृकंडु को बड़ी चिंता हुई कि अब उनका प्रतिभाशाली पुत्र सदा-सदा के लिए उनसे विदा हो जाएगा, किन्तु मार्केंडेय तो जैसे निश्चित था। वह निश्चित होता भी क्यों नहीं, उसके पास महामृत्युंजय मंत्र जैसी अमोघ शक्ति जो थी।



मृत्यु का समय निकट आया तो मार्केंडेय आसन लगाकर महामृत्युंजय मंत्र का जाप करने लगा। यमराज ने निर्धारित समय पर मार्केंडेय के प्राण-हरण की प्रक्रिया शुरू कर दी, किन्तु बालक ने यमराज से मंत्र-जप पूर्ण करने तक रुकने का आग्रह किया।



यमराज सृष्टि में किसी प्राणी का आग्रह कहां मानते हैं। उन्होंने नियत समय पर मार्केंडेय को ग्रसना शुरू कर दिया था, किन्तु महामृत्युंजय मंत्र की पुकार पर भगवान शिवजी तुरन्त शिवलिंग से प्रकट हुए। उन्होंने भक्त वत्सलता से मार्केंडेय की ओर निहारा और यमराज को क्रोधित दृष्टि से देखा।



यमराज तुरन्त भगवान शिवजी के आशय को समझ गए और उन्होंने अपने पाश से मार्केंडेयको मुक्त कर दिया। यही नहीं, बल्कि शिव-भक्त बालक मार्केंडेय को यमराज ने अमर होने का भी वरदान दे दिया। इसके साथ ही उन्होंने यह वर भी दिया कि भविष्य में जो भी प्राणी महामृत्युंजय मंत्र का जप करेगा, वह अकाल मृत्यु और मृत्यु तुल्य कष्टों से सहज ही छुटकारा पा लेगा।



इस प्रकार महामृत्युंजय मंत्र के प्रताप से भगवान शिवजी द्वारा निर्धारित की गई अटल मृत्यु भी सहज ही टल गई और मार्केंडेय को अमरत्व की प्राप्ति हुई। महामृत्युंजय मंत्र की एक विशेषता यह भी हैं कि यदि कोई व्यक्ति स्वयं इसका जाप न करके किसी अन्य व्यक्ति से जाप कराता हैं, तो भी उसे इसका पूरा लाभ मिलता हैं।



देवासुर संग्राम में जब बहुत से असुर मारे गए तो असुरों के गुरु शुक्राचार्य ने अपनी यज्ञशाला में महामृत्युंजय मंत्र का विधि-विधानपूर्वक अनुष्ठान किया। इस अनुष्ठान के पूर्ण होते ही देवताओं द्वारा मारे गए अनेक असुर जीवित हो गए। शुक्राचार्य ने तब इस मंत्र "मृतसंजीवनी" का नाम दिया।



मूल मंत्र का वैदिक स्वरूप:-हिन्दू धर्म का मूल आधार पर वेदों पर टिका हुआ, वेदों की संख्या सनातन धर्म में ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अर्थववेद आदि चार नाम के बताया गए हैं, इन वेदों में महामृत्युंजय के बारे में पूर्ण रूप से वर्णन एवं महत्व बताया गया हैं, इन वेदों में महामृत्युंजय मंत्र का मूल स्वरूप किस प्रकार हैं-इससे जानने के लिए निम्नलिखित वर्णन का वांचन करना चाहिए, जिससे इस मंत्र की महिमा के बारे में जानकारी प्राप्त हो सके।



ऋग्वेद में महामृत्युंजय मंत्र:-इस प्रकार दिया गया है-

ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।


शब्दार्थ:- समस्त तीन लोकों में तीन नेत्रों वाले ईश्वर की भक्ति भाव से उपासना करते हैं। त्रिदेवों में सृष्टि के संहार भगवान शंकर की विनय, श्रद्धा और समर्पण के भाव के साथ जल, फूल, अक्षत आदि के द्वारा पूजन करते हुए उनको संतुष्ट करता हैं, जिनके स्वरूप में तीन नेत्र को धारण किये हुए हैं, जो सृष्टि के प्रत्येक जीव-जंतुओं के प्राण को जीवित रखने वाली वायु के द्वारा प्रत्येक जगह पर अपने स्वरूप में विद्यमान होकर जीवन शक्ति के अंदर गमन करते हैं, जो सम्पूर्ण जगत के परवरिश करके अपनी शक्ति के द्वारा उसे पुष्ट कर रहे हैं। उनसे भक्ति और श्रद्धापूर्वक हमारा निवेदन है कि वे हमें जन्म-मरण के बन्धनों से छुटकारा कर दें, जिससे हमारा उद्धार हो जावे और जगत के बंधन से छुटकारा मिलकर ईश्वर के चरणों की सेवा करने का अवसर की प्राप्ति हो जावे जिस प्रकार एक ककड़ी बेल में पक जाने के बाद उस बेल रूपी संसार के बन्धन से छुटकारा को प्राप्त कर लेती हैं उसी प्रकार हम भी इस संसार रूपी बेल में पक जाने के जन्म-मृत्यु के बन्धनों से सदैव के लिए छुटकारा मिल ही जाएं और आपके चरणों में बहने वाले दुर्लभ सुधारस को पीते हुए अपनी नश्वर देह को छोड़कर आपकी भक्ति में सदा के लिए लग जावें।




यहां वैदिक परिभाषा में-तीन तरह की शक्तियों के स्वामी बताया गया हैं, जो निम्न प्रकार हैं-


1.गायत्री छन्द:-वेदों में प्रयोग में लिए गये वर्ण एवं मात्राओं का वह निश्चित मान जिसके आधार पर पद्य लिखा गया हैं, जो की चौबीस वर्णों के द्वारा बनता हैं, जिसके तीन पाद या चरण होते हैं। आठ अक्षर से एक चरण या पाद बनता हैं 


2.त्रिष्टप छन्द:-वेदों में प्रयोग में लाये जाने वाले पद्यात्मक रचना हैं होने वाला छंद होता हैं, जो की चवाँलीस वर्णों के द्वारा बनता हैं, जिसके चार पाद या चरण होते हैं। ग्यारह अक्षर से एक चरण या पाद बनता हैं।



3.जगती छन्द:-काव्यशास्त्र या वेदों की बातों का अनुसरण करने वाला वर्ण तथा यति के नियमों के अनुरूप वाक्य हैं, जो की अड़तालीस वर्णों के द्वारा बनता हैं, जिसके चार पाद या चरण होते हैं। बारह अक्षर से एक चरण या पाद बनता हैं। अर्थात तीन शक्तियों के स्वामी।



पौराणिक महत्त्व से:-समस्त सृष्टि में अपनी गर्मी से अंधेरे को मिटाकर उजाला प्रदान करने में अग्नि, चन्द्र और सूर्य की भूमिका होती हैं, इसलिए ये तीन नेत्र (प्रकाश) हैं, इसलिए वह त्र्यम्बक कहलाता हैं। 



ज्योतिषीय मत से:-सृष्टि के समय को तीन कालां में बांटा गया हैं, जो भूत काल (जो समय बीत चुका हैं), भविष्य काल (जो समय आने वाला हैं) और वर्तमान काल (जो समय हाल में चल रहा हैं) हैं। ये तीनों काल, महाकाल स्वरूप त्र्यम्बक के तीन नेत्र हैं। उस सर्व शक्तिमान ईश्वर की मैं सुगन्धि युक्त या प्रिय महक से युक्त और लालन-पालन के द्वारा बल रूपी सहारा प्रदान करने उर्वारुक अर्थात् जिस तरह  खीरा या खरबूजा किसी दूसरे के सहारे आगे की ओर बढ़ते हुए अपने जीवन को बढ़ाते हुए अंत में मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जाता हैं, उसी तरह में भी ईश्वर का गुणगान करते हुए सृष्टि में जन्म लेने और मृत्यु रूपी बन्धन से छुटकारा प्राप्त हो जाऊं तथा अमृतमय परमात्मा के चरणों में सदा के रूप में रहते हुए उनकी अनुकृपा कभी भी समाप्त नहीं होवें। 




महामृत्युंजय मंत्र पौराणिक महात्म्य एवं विधि:-महामृत्युंजय मंत्र के अनेक रूप धर्म शास्त्रों में अलग-अलग तरह के मंत्र के बारे वर्णन मिलता हैं। इंसान को अपनी सहजतापूर्वक जिस मंत्र का वांचन करना हैं उस मंत्र को अपने मन मन्दिर की जगह में स्थान देते हुए उसका चयन करना चाहिए। इंसान अपने समय के अनुसार हमेशा उस मंत्र का पाठ करते हुए वांचन करें या जब इंसान को जरूरत हो उस समय व्यवहार में ले सकते हैं। जो कोई भक्त महा मृत्युंजय मंत्र के प्रति विश्वास एवं अनुराग रखते हुए जो कामनापूर्ति से सम्बंधित संख्यापूर्वक का कई बार उस मन्त्र का उच्चारण करने पर अत्यधिक अच्छे परिणाम देने वाला हैं। महामृत्युंजय मंत्र का कई बार विश्वास एवं आस्था से पढ़ने एवं आराधना की रीति जरूरत के मुताबिक होता हैं। महामृत्युंजय मंत्र का उपयोग मन की इच्छापूर्ति को पूर्ण करने के लिए विश्वास एवं आस्था की भावना से कई बार पाठ करते हुए आराधना की जाती हैं। भक्तिभाव से किया जाने वाले बारंबार उच्चारण के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता हैं। महामृत्युंजय मंत्र को संस्कृत में जप करने की विधि, विभिन्न तरह के मंत्र-तंत्र-यंत्र, जप करते समय ध्यान रखने योग्य सावधानियाँ और स्तोत्र आदि के बारे में पूर्ण रूप से ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं। 



महामृत्युंजय मंत्र के जपनीय मंत्र के रूप:-महामृत्युंजय मंत्र में दिए अक्षरों की संख्या से इनमें विविधता होती हैं। महामृत्युंजय मंत्र के जपनीय मंत्र के रूप निम्नलिखित हैं।


एकाक्षरी मंत्र:-'हौं'।


त्र्यक्षरी मंत्र:-'ऊँ जूं सः।


चतुराक्षरी मंत्र:-'ऊँ वं जूं सः'।


नवाक्षरी मंत्र:-'ऊँ जूं सः पालय पालय'।


दशाक्षरी मंत्र:-'ऊँ जूं सः मां पालय पालय'।


अर्थात्:-जब भी कोई साधक अपने लिए खुद ही मंत्र का वांचन की चाहत रखते हुए स्वयं ही वांचन करता हैं तब मंत्र वांचन उपर्युक्त प्रकार से ही किया जाना चाहिए।


◆जब इंसान किसी दूसरे इंसान के लिए मंत्र का जप कर रहा हो, तब 'मां' शब्द की जगह पर उस इंसान का नाम लिया जाता है।



तांत्रिक बिजोक्त मंत्र:-

ऊँ भूः भुवःस्वः।


ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।


उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माSमृतात्।


स्वः भुवः भूः ऊँ ।।


संजीवनी मंत्र अर्थात् संजीवनी विद्या:-


ऊँ हौं जूं सः ऊँ भूभुवःस्वः ऊँ~यंबकं त्र्यम्बकं यजामहे


ऊँ तत्सर्वितुर्वरेण्यं ऊँ सुगन्धिंपुष्टिवर्धनम्।


ऊँ भर्गोदेवस्य धीमहि ऊँ उर्वारुकमिव बंधनान


ऊँ धियो योनः प्रचोदयात ऊँ मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।


ऊँ स्वः ऊँ भुवः ऊँ भूः ऊँ सः ऊँ जूं ऊँ हौं ऊँ ।।


महामृत्युंजय का प्रभावशाली मंत्र या अथ बृहन्मन्त्र:-नीचे जो मन्त्र वर्णित हैं, वह पूर्ण रूप से मन्त्र हैं, इसी मन्त्र का वांचन करके अपने जीवन के सभी कष्टों से मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।


ऊँ ह्रौं जूं सः ऊँ भूः र्भुवः स्वः।


त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम्।


उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।


स्वः भुवः भू ऊँ। सः जूं ह्रौं ऊँ।। 



महामृत्युंजय मंत्र को संपुटयुक्त:-बनाने के लिए इसका उच्चारण या जप इस प्रकार किया जाता हैं-


ऊँ हौं जूं सः ऊँ भूर्भुवः स्वः ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनम्।

उर्वारुकमि्व बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माSमृतात् ऊँ भूर्भुवः स्वः सः जूं हौं ऊँ।।



महामृत्युंजय मंत्र कितने होते हैं?(How many Mahamrityunjaya mantras are there?):-महामृत्युंजय मंत्र ऊँ त्र्यबकंम् मंत्र तैंतीस अक्षर से परिपूर्ण महर्षि वशिष्ठजी ने बताया हैं, उनके इन तैंतीस अक्षरों को तैंतीस देवताओं के रूप होते हैं। जिनसे समस्त जगत को प्रकाश की किरणों की तरह सूचनाओं को अभिव्यक्त करने के प्रतीक होते हैं।


ऊँ हौं जूं सः ऊँ भूर्भुवः स्वः। 


ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम्।


उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।


ऊँ स्वः भुवः भूः सः जूं हौं ऊँ।।


महामृत्युंजय मंत्र में मुख्य रूप से बत्तीस शब्दों का प्रयोग हुआ हैं, जिससे बत्तीस शब्दों के बत्तीस रूप की अभिव्यक्ति होती हैं, लेकिन जब इन बत्तीस शब्दों वाले इसी मंत्र में ऊँ' लगा देने से से तैतीस शब्द  हो जाते हैं। इसे 'त्रयस्त्रिशाक्षरी या तैंतीस अक्षरी मंत्र कहते हैं। ऋषिवर वशिष्ठजी ने इस मंत्र में तैंतीस शब्दों को तैंतीस देवताओं के रूप में अभिव्यक्त किया हैं, जो इस तरह हैं। आठ वसु, ग्यारहा रुद्र, बारह आदित्यठ, एक प्रजापति तथा एक वषट या षटकार अर्थात् शक्तियाँ निश्चित की हैं, इन तैंतीस देवताओं की सम्पूर्ण शक्तियाँ महामृत्युंजय मंत्र से निहित होती हैं। जो कि निम्नलिखित हैं।



मंत्र विचार:-महामृत्युंजय मंत्र जिन तैंतीस शब्दों के द्वारा बना होता हैं, उन शब्दों की असलियत या सच्चाई के अस्तित्व की तसल्ली को जानना भी बहुत जरूरी हैं, क्योंकि जो शब्द के मेल से मंत्र की अवस्था बनती हैं, इस शब्द के मेल से बने मंत्र की अवस्था में देवी-देवताओं के पाये जाने गुणों की शक्ति होती हैं। इस तरह महामृत्युंजय मंत्र में जो तैंतीस शब्द से बना हैं, इन तैंतीस शब्दों का अपना-अपना मतलब होता हैं और हरएक शब्द अपने शब्द का पूर्ण मतलब की जानकारी प्रदान करते हुए देव आदि का जगत में अहसास करवाता हैं।


शब्द बोधक एवं शब्द शक्ति, देवता और शरीर में स्थान:-


शब्द बोधक का अर्थ:-महामृत्युंजय मंत्र के जो तैंतीस सार्थक ध्वनियों के द्वारा जिन-जिन के सूचक होते हैं, उनके बारे में ज्ञान कराने वाले या बताने वाले को शब्द बोधक कहते हैं। जो तैंतीस शब्दों के तैंतीस शब्द बोधक निम्नलिखित हैं।



'त्र' शब्द बोधक:-ध्रुव वसु प्राण के देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के मुख्य भाग मस्तिष्क में आसीन होते हैं। 


'यम' शब्द बोधक:-अध्वरवसु प्राण के देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के मुख भाग में आसीन होते हैं। 


'ब:' शब्द बोधक:-सोम वसु शक्ति देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के दक्षिण कर्ण भाग में आसीन होते हैं। 


'कम' शब्द बोधक:-जल वसु या वरुण देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के वाम कर्ण भाग में आसीन होते हैं।  


'य:' शब्द बोधक:-वायु वसु या वायच देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के दक्षिण बाहु भाग में आसीन होते हैं।   


'जा:' शब्द बोधक-अग्नि वसु देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के वाम बाहु भाग में आसीन होते हैं।    


'म:' शब्द बोधक:-प्रत्युवष वसु शक्ति देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के दक्षिण बाहु मध्य भाग में आसीन होते हैं।     

 

'हे' शब्द बोधक:-प्रयास वसु या प्रभास देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के मणिबन्धत भाग में आसीन होते हैं।      


'सु:' शब्द बोधक:-वीरभद्र रुद्र प्राण देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के दक्षिण हस्त के अंगुलि के मूल भाग में आसीन होते हैं।   

    

'ग' शब्द बोधक:-शुम्भ् रुद्र देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के दक्षिणहस्त् अंगुलि के अग्र भाग में आसीन होते हैं।      


'न्धिम्' शब्द बोधक:-गिरीश रुद्र शक्ति देवता के मूल प्रतीक हैं, जो कि शरीर के बायें हाथ के मूल भाग में आसीन होते हैं।    

   

'पु' शब्द बोधक:-अजैक पात रुद्र शक्ति देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के बाम हस्तह के मध्य भाग में आसीन होते हैं।   

     

'ष्टि' शब्द बोधक:-अहर्बुध्य्त् रुद्र या अहिर्बुध्न्य देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के बाम हस्त के मणिबन्धा भाग में आसीन होते हैं।    


'व' शब्द बोधक:-पिनाकी रुद्र प्राण देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के बायें हाथ की अंगुली के मूल भाग में आसीन होते हैं।      

 

'र्ध' शब्द बोधक:-भवानीश्वपर या भवानी पति रुद्र देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के बाम हस्त की अंगुलि के अग्र भाग में आसीन होते हैं।      

  

'नम्' शब्द बोधक:-कापाली रुद्र देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के उरु मूल भाग में आसीन होते हैं।        


'उ' शब्द बोधक:-दिक्पति रुद्र देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के यक्ष जानु भाग में आसीन होते हैं।      

  

'र्वा' शब्द बोधक:-स्थाणु रुद्र के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के यक्ष गुल्फ् भाग में आसीन होते हैं। 


'रु' शब्द बोधक:-भर्ग रुद्र देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के चक्ष पादांगुलि मूल भाग में आसीन होते हैं।       


'क' शब्द बोधक:-धातख आदित्यद रुद्र देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के यक्ष पादांगुलियों के अग्र भाग में आसीन होते हैं।    


'मि' शब्द बोधक:-अर्यमा आदित्यद देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के वाम उरु मूल भाग में आसीन होते हैं।  

   

'व' शब्द बोधक:-मित्र आदित्यद देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के वाम जानु भाग में आसीन होते हैं।     


'ब' शब्द बोधक:-वरुणादित्या देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के वाम गुल्फा भाग में आसीन होते हैं।   

   

'न्धा' शब्द बोधक:-अंशु आदित्यद देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के वाम पादांगुलि के मूल भाग में आसीन होते हैं।      

 

'नात्' शब्द बोधक:-भगादित्यअ देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के वाम पैर की अंगुलियों के अग्रभाग में आसीन होते हैं।      


'मृ' शब्द बोधक:-विवस्व्न या विवस्वान (सूर्य) देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के दक्ष पार्श्वि भाग में आसीन होते हैं।     


'र्त्यो्' शब्द बोधक:-दन्दाददित्य् या इंद्रादित्य देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के वाम पार्श्वि भाग में आसीन होते हैं।      

 

'मु' शब्द बोधक:-पूषादित्यं या पूषादिव्यं देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के पृष्ठै भगा भाग में आसीन होते हैं।     

   

'क्षी' शब्द बोधक:-पर्जन्य् आदित्यय या पर्जन्यादिव्य देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के नाभि स्थिल भाग में आसीन होते हैं।    

    

'य:' शब्द बोधक:-त्वणष्टान आदित्यध या त्वष्टा देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के गृह्य भाग भाग में आसीन होते हैं।     

   

'मां' शब्द बोधक:-विष्णुय आदित्यय या विष्णुSदिव्य देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के शक्ति स्व्रुप दोनों भुजाओं में आसीन होते हैं।    

  

'मृ' शब्द बोधक:-प्रजापति देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के कंठ भाग में आसीन होते हैं।      


'तात्' शब्द बोधक:-अमित वषट्कार देवता के प्रतीक हैं, जो कि शरीर के हृदय प्रदेश भाग में आसीन होते हैं।     

  

विशेष:-इसमें जो बोधक के बारे में संकेत दिए गए हैं, ये बोधक देवताओं के नाम हैं।



शब्द या पदों की शक्तियाँ:-महामृत्युंजय मंत्र के जो तैंतीस सार्थक ध्वनियों के द्वारा जिन-जिन तैंतीस देवताओं के सूचक होते हैं, उन देवी-देवताओं में पाए जाने वाले गुणों या दैवी शक्ति या क्षमता को शब्द या पद शक्ति कहते हैं। जो तैंतीस शब्दों या पदों की तैंतीस शब्द या पद शक्तियाँ निम्नलिखित हैं।



'त्र' त्र्यम्बकम् शब्द शक्ति:-पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल लोक की शक्ति के अस्तित्व का ज्ञान कराता है जो कि शरीर के मुख्य भाग मस्तिष्क में आसीन होते हैं। 


'य' यम तथा यज्ञ


'म' मंगल 


'ब' बालार्क तेज


'कं' काली का कल्याणकारी बीज 


'यजा' शब्द शक्ति:-सुगन्धात देवी शक्ति के प्रतीक हैं, जो शरीर के ललाट भाग में आसीन होते हैं।  


'य' यम तथा यज्ञ


'जा' जालंधरेश


'महे' शब्द शक्ति:-इंद्रजाल रूपी शक्ति का प्रतीक है, जो शरीर के कानों में आसीन होते हैं।  


'म्' महाशक्ति


'हे' हाकिनो' 


'सुगन्धिम्' शब्द शक्ति:-सुगन्धि शक्ति अर्थात् सुगंध से युक्त दैवी शक्ति का प्रतीक हैं, जो शरीर के कानों में आसीन होते हैं।  


'सु' सुगन्धि तथा सुर


'ग' गणपति का बीज


'ध' धूमावती का बीज


'म' महेश


'पुष्टि' शब्द शक्ति:-पुरन्दिरी शक्ति अर्थात् इन्द्र में पाए जाने वाले दिव्य गुणों से युक्त शक्ति का प्रतीक हैं, जो शरीर के मुख में आसीन होते हैं।  


'पु' पुण्डरीकाक्ष


'ष्टि' देह में स्थित षट्कोण


'वर्धनम' शब्द शक्ति:-वंशकरी शक्ति अर्थात् किसी भी समूह के द्वारा वंश का आरम्भ करने वाली शक्ति का प्रतीक हैं, जो शरीर के कंठ भाग में आसीन होते हैं।  


'व' वाकिनी


'र्ध' धर्म


'नं' नंदी


'उर्वा' शब्द शक्ति:-ऊर्ध्देक शक्ति का प्रतीक है, जो शरीर के हृदय भाग में आसीन होते हैं।  


'उ' उमा 


'र्वा' शिव की बाईं शक्ति


'रुक' शब्द शक्ति:-रक्तदवती शक्ति का प्रतीक है, जो शरीर के नाभि भाग में आसीन होते हैं।  


'रु' रूप तथा आँसू


'क' कल्याणी


'मिव' शब्द शक्ति:-रुक्मावती शक्ति का प्रतीक है, जो शरीर के कटि भाग में आसीन होते हैं।  


'व' वरुण


बन्धानात् शब्द शक्ति:-बर्बरी शक्ति का प्रतीक है, जो शरीर के गृह्य भाग में आसीन होते हैं।   


'ब' बंदी देवी


'ध' धंदा देवी


मृत्योः शब्द शक्ति:-


'मृ' शब्द शक्ति:-मृत्युंजय मन्त्र्वती शक्ति का प्रतीक है, जो शरीर के उरुव्दंय भाग में आसीन होते हैं।    


'त्यो' नित्येश


'मुक्षीय' शब्द शक्ति:-मुक्तिकृ शक्ति का प्रतीक है, जो शरीर के जानुव्दओय भाग में आसीन होते हैं।     


'मु' शब्द शक्ति:-


'क्षी' क्षेमंकरी


'य' यम तथा यज्ञ


'मा' शब्द शक्ति:-माँग तथा मन्त्रेश। माशकिक्तत सहित महाकालेश शक्ति का प्रतीक है,जो शरीर के दोनों जंघाओं में आसीन होते हैं।    


अमृतात शब्द शक्ति:-अमृतवतीशक्ति का प्रतीक है, जो शरीर के पैरों के तलुओं में आसीन होते हैं।    


'मृ' शब्द शक्ति:-मृत्युंजय। 


'तात' शब्द शक्ति:-चरणों में स्पर्श



'देवो भूत्वा देवं यजेत' के अनुसार:-पुरीमहामृत्युंजय मंत्र में तैंतीस शब्दों के बोधक के द्वारा देवता, वसु, आदित्य आदि जो कि अपनी सम्पूर्ण शक्तियों  के साथ शरीर के भाग में आसीन होने के स्थान और तैंतीस शब्द शक्तियों का विवरण पूरी तरह से काल्पनिक नहीं हैं या यथार्थ प्रमाण द्वारा सिद्ध हुआ है। शरीर के जिन-जिन अंगों के जो देवता होते हैं, वे उन अंगों की रक्षा करते हैं। इसलिए इंसान को अपने व विश्वास भाव, आस्था और श्रद्धा भाव से महामृत्युंजय मंत्र का वांचन करना चाहिए, जिससे शरीर के भागों की देवता रक्षा कर सके और जीवन पूर्ण रूप ईश्वर भक्ति में डूबा रह सकें।




महामृत्युंजय मंत्र जप विधि:-ध्यान के बाद महामृत्युंजय मन्त्र का जप करने का विधान हैं। 


जप के प्रकार:-तीन प्रकार से जप किया जाता हैं। 


(१.)वाचिक जप:-जब किसी भी मंत्र के पद या वाक्य का भक्तिभाव से तेज ध्वनि के द्वारा बार-बार उच्चारण करते हैं, तब उसे वाचिक जप कहा जाता हैं।


(२.)उपांशु जप:-जब किसी भी मंत्र के पद या वाक्य का भक्तिभाव से बहुत धीमी ध्वनि के द्वारा बार-बार बहुत धीरे-धीरे उच्चारण करते हैं, इस प्रक्रिया में केवल ओष्टमात्र हल्का-हल्का हिलता हैं, तब उसे उपांशु जप कहा जाता हैं।



(३.)मानस जप:-जब किसी भी मंत्र के पद या वाक्य का भक्तिभाव से बिना किसी भी तरह की ध्वनि किये हुए बार-बार उच्चारण करते हैं, जिसमें दाँत-होठ बिल्कुल भी नहीं हिलते हैं, श्वाँस-प्रश्वासक साथ जप किया जाता हैं। उसे मानस जप कहा जाता हैं।


वाचिक जप से लाभ:-वाचिक जप करने से दूसरों जप प्रकार की अपेक्षा पुण्य का फल कम मिलता हैं।


उपांशु जप से लाभ:-उपांशु जप करने से वाचिक जप प्रकार की अपेक्षा सौ गुना पुण्य का फल मिलता हैं। जब मन्त्रों का जाप संख्या अधिक हो और ज्यादा समय तक बैठकर जाप करना हो, तो उपांशु जप करना चाहिए।



मानस जप से लाभ:-मानस जप करने से उपांशु जप प्रकार की अपेक्षा सौ गुना पुण्य का फल मिलता हैं। इसलिए सबसे अच्छा जप प्रकार मानस जप हैं। मानस जप के महान गुणों का उसके द्वारा भी लाभ प्राप्त किया जा सकता हैं।



यदि 'तज्जपस्वपदर्थभावनम्' के अनुसार:-जब किसी भी मन्त्र के द्वारा किसी भी देवी-देवता के निमित मन्त्र का वांचन करते समय उसके शब्द की व्याख्या अथवा इष्टदेव की महानताओं शुभ गुणों का ध्यान दिया जाय।



मूल संस्कृत में महामृत्युंजय मंत्र जप विधि:-महा मृत्युंजय मंत्र का भक्तिभाव से बारंबार संख्यापूर्वक पाठ का उच्चारण करना अत्यधिक अच्छे परिणाम देने वाला हैं। महामृत्युंजय मंत्र का बारंबार भक्तिभाव से पाठ एवं आराधना की रीति जरूरत के मुताबिक होता हैं। महामृत्युंजय मंत्र का उपयोग मन की इच्छापूर्ति को पूर्ण करने के लिए भक्तिभाव से बारंबार पाठ करते हुए आराधना की जाती हैं। भक्ति भाव से किया जाने वाले बारंबार उच्चारण के लिए अलग-अलग मंत्रों का प्रयोग होता हैं। महामृत्युंजय मंत्र को संस्कृत में जप करने की विधि, विभिन्न तरह के मंत्र-तंत्र-यंत्र, जप करते समय ध्यान रखने योग्य सावधानियाँ और स्तोत्र आदि के बारे में पूर्ण रूप से ज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं। मूल संस्कृत में महामृत्युंजय मंत्र जप विधि निम्नलिखित हैं।



प्रात्यहिकसंकल्प:-मूल संस्कृत में महामृत्युंजय मंत्र के वांचन की विधि शुरू करने से पूर्व मन में एक प्रारम्भ में संकल्प लिया जाता हैं, उसे प्रात्यहिकसंकल्प कहते हैं।


कृतनित्यक्रियो जपकर्ता स्वासने पांगमुख 


उदयमुखों वा उपविश्य धृतरुद्राक्षभस्मत्रिपुण्ड्रः।


आचम्य। प्रणानायाम्य। देशकालौ संकीर्त्य मम


वा यज्ञमानस्य अमुक कामनासिद्धयर्थ


श्रीमहामृत्युंजय मंत्रस्य अमुक संख्या-


परिमितंजपमहंकरिष्ये वा कारयिष्ये। 


अर्थात्:-जो इंसान जप करने की इच्छा रखते हैं उनको हमेशा मन्त्र की क्रिया को करते समय अपने आसन पर सूर्य के उगने की दिशा में आसक्ति भाव रखते हुए राख से तीन रेखाओं  के तिलक का व्यवहार करते हुए कुछ समय तक श्वास को नियंत्रित करते हुए बैठना चाहिए।


देश काल में हवन पूजन युक्त वैदिक कृत्य जैसे श्रीमहामृत्युंजय मंत्र की अपनी इच्छा की पूर्ति के निमित्त जो-जो संख्या वर्णित हैं, उन संख्यायों के अनुसार मैं मन्त्रों का जाप करूंगा।



                 ।।इति प्रात्यहिकसंकल्पः।।



भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां:-देवी-देवताओं को अपने मंत्र जाप के पूर्व अपने जाप की जगह पर स्थापित करने के लिए आह्वान करके पूजन आदि से पहले मन्त्रों द्वारा की जाने वाली शरीर की शुद्धि के द्वारा स्थापित किया जाता हैं, उसे भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां कहा जाता है। 


ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय।


ऊँ गुरवे नमः।


ऊँ गणपतये नमः।


ऊँ इष्टदेवतायै नमः।


इति नत्वा यथोक्तविधिना भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च कुर्यात्। 



भूतशुद्धिः विनियोगः:-जो अस्तित्व युक्त हैं, उनकी शुद्धि के लिए संकल्प करना भूतशुद्धि विनियोग कहलाता हैं।


ऊँ तत्सदद्येत्यादि मम अमुक प्रयोगसिद्धर्थ भूतशुद्धिं प्राण प्रतिष्ठां च करिष्ये।


ऊँ आधारशक्ति कमलासनायनमः।


इत्यासनं सम्पूज्य। पृथ्वीति मंत्रस्य। 


मेरुपुष्ठ ऋषि;.सुतलं छंदः कूर्मो देवता, आसने विनियोगः।


अर्थात्:-हे सर्वशक्तिमान देव! मैं आपकी पूजा-मन्त्र आदि अमुक प्रयोग की सफलता से अपने शरीर की शुद्धि अर्थात् बुरे विचारों को को त्याग कर आपको स्थापित करूंगा।


हे परब्रह्म! आप समस्त तीनों लोकों को अपनी शक्ति के द्वारा धारण किये हुए हैं। हे कमल आसन पर विराजित देव आपको मैं नमस्कार करता हूँ और इसी आसन को पूजन करता हूँ। पृथ्वी को इसी मन्त्र पूजन करता हूँ। मेरु पृष्ठ ऋषिवर हैं। सुतल छंद हैं, कूर्मो देवता और आपको आसन प्रदान करने का संकल्प लेता हूँ।



आसन:-देवी-देवताओं को आह्वान करके उनके आसन की शुद्धि करके उनको विराजित होने के हेतु आसन अर्पण करना होता हैं।


ऊँ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता।


त्वं च धारय माँ देवि पवित्रं कुरू चासनम्।


गन्धपुष्पादिना पृथ्वीं सम्पूज्य कमलासने भूतशुद्धिं कुर्यात्।


अन्यत्र कामनाभेदेन। अन्यासनेSपि कुर्यात्।


पादादिजानुपर्यंतं पृथ्वीस्थानं तच्चतुरस्त्रं

पीतवर्ण ब्रह्मदैवतं वमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्।


जान्वादिना भिपर्यन्तमसत्स्थानं तच्चार्द्धचंद्राकारं

शुक्लवर्ण पद्मलांछितं विषँणुदैवतं लमिति बीजयुक्त ध्यायेत्।


नाभ्यादिकंठपर्यन्तमग्निस्थानं त्रिकोणाकारं रक्तवर्ण

स्वस्तिकलान्छितं रुद्रदैवतं रमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्।


कण्टादि भूपर्यन्तं वायुस्थानं षट्कोणाकार

षड्बिंदुलान्छितं कृष्णावर्णमीश्वर दैवतं यमिति

बीजयुक्तं ध्यायेत्।


भूमध्यादिब्रह्मरन्ध्रपर्यन्त माकाशस्थानं वृत्ताकारं

ध्वजलांछितं सदाशिवदैवतं हमिति बीजयुक्तं ध्यायेत्। 


एवं स्वशरीरे पंचमहाभूतानि ध्यातवा प्रविलापनं कुर्यात्।


 यद्यथा-पृथ्वीमप्सु। अपोSग्नौअग्निवायौ वायुमाकाशे।

आकाशं तन्मात्राSहंकारमहदात्मिकायाँ मातृकासंज्ञक शब्द

ब्रह्मस्वरूपायो हृल्लेखार्द्धभूतायाँ प्रकृति

मायायाँ प्रविलापयामि

तथा त्रिवियाँ मायाँ च नित्यशुद्ध

बुद्धमुक्तस्वभावे स्वात्मप्रकाशरूप

सत्यज्ञानाँनन्तानन्दलक्षणे परकारणे

परमार्थभूते परब्रह्मणि प्रविलापयामि।

तच्च नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं सच्चिदानन्दस्वरूपं

परिपूर्ण ब्रह्मैवाहमस्मीति भावयेत्। 


एंव ध्यात्वा यथोक्तस्वरूपात् ऊँ कारात्मककात् परब्रह्मणः सकाशात् हृल्लेखार्द्धभूता सर्वमंत्रमयी मातृकासंज्ञिका

शब्द ब्रह्मात्मिका महद्हंकारादिप-न्चन्मात्रादि

समस्त प्रपंचकारणभूता प्रकृतिरूपा माया

रज्जुसर्पवत् विवर्त्तरूपेण प्रादुर्भूता इति ध्यात्वा।


तस्या मायायाः सकाशात् आकाशमुत्पन्नम्, आकाशाद्वासु; वायोरग्निः, अग्नेरापः, अदभ्यः पृथ्वी समजायत इति ध्यात्वा।


तेभ्यः पंचमहाभूतेभ्यः सकाशात् स्वशरीरं तेजः

पुंजात्मकं पुरुषार्थसाधनदेवयोग्यमुत्पन्नमिति ध्यात्वा।


तस्मिन् देहे सर्वात्मकं सर्वज्ञं सर्वशक्तिसंयुक्त समस्तदेवतामयं

 सच्चिदानंदस्वरूपं ब्रह्मात्मरूपेणानुप्रविष्टमिति भावयेत्।।


                         ।।इति भूतशुद्धिः।।


अथ प्राण-प्रतिष्ठा:-देवी-देवता आदि को स्थापित करके उनकी पूजा-अर्चना आरम्भ करने से पूर्व मंत्रोच्चार आदि करके प्रतिष्ठित करना ही प्राणप्रतिष्ठा कहलाता हैं।



श्री महामृत्युञ्जय मन्त्रस्य का प्राण-प्रतिष्ठा के लिए विनियोग:-मन्त्रों के वांचन से पूर्व देवी-देवताओं के निमित हाथ में जल लेकर इस प्रकार पाठ करें-



ऊँ अस्य श्रीप्राणप्रतिष्ठामंत्रस्य ब्रह्माविष्णुरूद्रा

ऋषयः ऋग्यजुः सामानि छन्दांसि, परा प्राणशक्तिर्देवता,

ऊँ बीजम्, ह्रीं शक्तिः, क्रौं कीलकं प्राण-प्रतिष्ठापने विनियोगः।



अर्थात्:-श्रीप्राणप्रतिष्ठा मंत्रस्य श्लोकों में मंत्रों की रचना ब्रह्माविष्णुरूद्रा ऋषिवर ने की थी, जिसमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद अनुष्टुप छंद हैं एवं परा प्राणशक्ति देवता के रूप में हैं, ऊँ बीजं स्वरूप एवं ह्रीं दुर्गा स्वरूप में हैं और क्रौं कीलकं रूप में हैं जो कोई श्रीप्राणप्रतिष्ठा के श्लोकों में वर्णित मंत्रों के द्वारा इनके देवता को याद करते हुए वांचन का संकल्प करता हैं।



डं कं खं गं घं नमो वाय्वग्निजलभूम्यात्मने हृदयाय नमः।


ञं चं छं जं झं शब्द स्पर्श रूपरसगन्धात्मने शिरसे स्वाहा।


णं टं ठं डं ढं श्रीत्रत्वड़ नयनजिह्वाघ्राणात्मने शिखायै वषट्।


नं तं थं धं दं वाक्पाणिपादपायूपस्थात्मने कवचाय हुम्।


मं पं फं भं बं वक्तव्यादानमनविसर्गानन्दात्मने नेत्रत्रयाय वौषट्।


शं यं रं लं हं षं क्षं सं बुद्धिमानाSहंकार-चित्तात्मने अस्त्राय फट्।


एंव करन्यासं कृत्वा ततो नाभितः पादपर्यन्तम् आँ नमः।


हृदयतो नाभिपर्यन्तं ह्रीं नमः।


मूर्द्धा द्विहृदयपर्यन्तं क्रौं नमः।


ततो हृदयकमले न्यसेत।


यं त्वगात्मने नमः वायुकोणे।


रं रक्तात्मने नमः अग्निकोणे।


लं मांसात्मने नमः पूर्वे।


वं मेदसात्मने नमः पश्चिमे।


शं अस्थ्यात्मने नमः नैऋत्ये।


ओंषं शुक्रात्मने नमः उत्तरे।


सं प्राणात्मने नमः दक्षिणे।


हे जीवात्मने नमः मध्ये एंव हृदयेकमले।


अथ ध्यानम् रक्ताम्भास्थिपोतोल्लसदरुसरोजाङ

घ्रिरूढा कराब्जैः


पाशं कोदण्डमिक्षुदभवमथगुणमप्यड़ कुशं पंचबाणान्।


विभ्राणसृक्कपालं त्रिनयनलसिता पीनवक्षोरूहाढया देवी


बालार्कवणां भवतुशु भकरो प्राणशक्तिः परा नः।।


                     ।।इति प्राण-प्रतिष्ठा।।



मन्त्र जप विधि करने से पूर्ण कार्य को करना:-जब मंत्र जप करने से पूर्व निम्नलिखित प्रक्रिया को अपनाना चाहिए।


◆जो भक्त मनुष्य भगवान् शिवजी में विश्वास एवं श्रद्धा भाव रखते हैं, उनको मंत्र के वांचन करने से अपने शुभ मुहूर्त वाले दिन को प्रातःकाल जल्दी उठना चाहिए।



◆उसके बाद में अपनी रोजाने की क्रियाओं जैसे-दातुन, शौच, स्नानादि आदि को पूर्ण करना चाहिए।



◆फिर जिस स्थान का चयन महामृत्युंजय मंत्र का वांचन करने के लिए किया हैं, उस स्थान की साफ-सफाई करनी चाहिए।



◆वह स्थान एकदम बिना शोरगुल वाला और पवित्र होना चाहिए।



◆मनुष्य अपने मन को एक जगह पर केंद्रित करते हुए मन में किसी भी तरह का राग या चिंता के भाव नहीं रखने चाहिए।



मंत्र वांचन के पूर्व करने की विधि:-निम्नलिखित हैं।



शरीर शुद्धि:-उसके बाद में सबसे पहले मनुष्य को मंत्र वांचन के लिए अपने शरीर को शुद्ध करने का संस्कार करना चाहिए।



आचमन:-मनुष्य को मंत्र वांचन से पूर्व शुद्धि के लिए मंत्र को पढ़ते हुए जल को पीना चाहिए।


प्राणायाम:-मंत्र वांचन के लिए संयमित तरीके से श्वास लेने की क्रिया करना चाहिए।  भगवान् गणेशजी को अपने मन ही मन में याद करते हुए उनसे मंत्र को पूर्ण करने की अरदास करनी चाहिए।


गणेश स्मरण:-भगवान् गणेशजी को अपने मन ही मन में याद करते हुए उनसे मंत्र को पूर्ण करने की अरदास करनी चाहिए।


गुरु वन्दन:-अपने गुरुदेव को अपने मन ही मन में याद करते हुए उनको नतमस्तक होकर नमन करना चाहिए। 


शुभ मुहूर्त को ध्यान रखते हुए:-शुभ मुहूर्त में तिथि, वार, नक्षत्र आदि का उच्चारण करना चाहिए।  


संकल्प विधि:-भगवान् से अपने धार्मिक कृत्य को पूर्ण रूप से करने के लिए दृढ़ इच्छा या प्रतिज्ञा को भगवान् को साक्षी मानकर करना चाहिए।


ऊँ मम आत्मनः श्रुति-स्मृतिपुराणोक्त फल प्राप्त्यर्थं अमुक नाम या यजमानस्य वा शरीरेSमुक पीड़ा निराश द्वारा सद्यः आरोग्य प्राप्त्यर्थं श्रीमहामृत्युञ्जय देवताप्रीतये अमुक संख्याकान् 

परिमितं श्रीमहामृत्युञ्जय मन्त्र जपमहं करिष्ये।'


तत्र संध्योपासनादिनित्यकर्मानन्तरं भूतशुद्धि प्राण प्रतिष्ठा च् कृत्वा प्रतिज्ञासंकल्प कुर्यात ऊँ तत्सदद् सर्वमुच्चार्य मासोत्तमे

मासे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे

अमुकगोत्रो अमुकशर्मा/वर्मा/गुप्ता/क्षत्रिय मम शरीरे

ज्वरादि-रोगनिवृत्तिपूर्वकमायुरारोग्यलाभार्थं वा

धनपुत्रयश सौख्यादिकिकामनासिद्धयर्थ

श्रीमहामृत्युंजयदेव प्रीमिकामनया

यथासंख्यापरिमितं श्रीमहामृत्युंजयजपमहं करिष्ये।



इसके बाद विनियोग सहित ऋष्यादिन्यास, करन्यास तथा हृदयादि न्यास करें।


श्री महामृत्युञ्जय मन्त्रस्य का विनियोग:-भगवान् से अपने फल प्राप्ति के उद्देश्य से मंत्र के उपयोग के लिए हाथ में जल लेकर इस प्रकार पाठ करने की स्वीकृति लेने के लिए निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करना चाहिए। वामदेव कहोल वसिष्ठा ऋषिवर ने मन्त्रों के वांचन से पूर्व देवी-देवताओं के निमित हाथ में जल लेकर इस प्रकार पाठ करें-


ऊँ अस्य श्री महामृत्युञ्जय मन्त्रस्य वामदेव

कहोल वसिष्ठा ऋषयः, पंक्ति गायत्र्यनुष्टुभश्छन्दासि,

सदाशिव महामृत्युञ्जय रुद्रा देवताः,

श्रीं बीजम्, ह्रीं शक्तिः,

श्रीमहामृत्युञ्जय प्रीतये जपे विनियोगः।


अर्थात्:-श्री महामृत्युञ्जय मन्त्रस्य श्लोकों में मंत्रों की रचना वामदेव कहोल वसिष्ठा ऋषिवर ने की थी, जिसमें पंक्ति गायत्री अनुष्टुप छंद हैं एवं सदाशिव महामृत्युञ्जय भगवान हैं, रुद्रा देवता के रूप में हैं, लक्ष्मी बीजं स्वरूप एवं ह्रीं दुर्गा स्वरूप में हैं, जो कोई श्रीमहामृत्युञ्जय श्लोकों में वर्णित मंत्रों के द्वारा इनके देवता को याद करते हुए वांचन का संकल्प करता हैं।


अस्य श्री महामृत्युंजयमंत्रस्य वशिष्ठ ऋषिः,

अनुष्टुप्छन्दः श्री त्र्यम्बकरुद्रो देवता,

श्रीं बीजम्, ह्रीं शक्तिः,

मम अनिष्ठसहूयिर्थे जपे विनियोगः।


अर्थात्:-श्री महामृत्युञ्जय मन्त्रस्य श्लोकों में मंत्रों की रचना वसिष्ठा ऋषिवर ने की थी, जिसमें अनुष्टुप छंद हैं एवं त्र्यबकं भगवान हैं, रुद्रा देवता के रूप में हैं, लक्ष्मी बीजं स्वरूप एवं ह्रीं दुर्गा स्वरूप में हैं, जो कोई श्रीमहामृत्युञ्जय श्लोकों में वर्णित मंत्रों के द्वारा इनके देवता को याद करते हुए वांचन का अपने अनिष्ट निवारण के लिए संकल्प करता हूँ।



अथ ऋष्यादिन्यास:-ऋष्यादि न्यास करते समय मन ही मन यह चिंतन करना चाहिए कि मेरे शिर, मुख, हृदय, गुह्यांग, पाद इत्यादि अङ्ग-प्रत्यंगों में ऋषियों की अलौकिक शक्ति से परिपूर्ण शक्ति का प्रवाह चलने लगे। ऋष्यादि न्यास के फलस्वरूप हम मन्त्र से सत्य के दर्शन करना वाले ऋषियों के उच्चस्तरीय भाव से परिभावित होकर ऋषियों के साहचर्य में चालित होकर, अपने उच्चारित वाक्यों को ऋषि वाक्यों के रूप में अनुभव करने का सुअवसर पाते हैं। अतएव ऋष्यादिन्यास करते समय भगवान् शिव के सिद्धी-भक्तों की मंगलदायक-मनोभाव का ध्यान करते हुए तत्-तत् अङ्गों का हलका स्पर्श करना चाहिए।



(१).ऊँ दक्षिणमूर्तये नमः शिरसि या ऊँ वसिष्ठऋषये नमः शिरसि।:-उक्त भावना के साथ अङ्ग-अङ्ग में बहने वाला या गतिमान दोषरहित पवित्र शक्ति से परिपूर्ण प्रवाह का ध्यान करते हुए इस मंत्र को पढ़कर दाहिने हाथ की अँगुलियों से सिर का स्पर्श करना चाहिए।



(२.)ऊँ गायत्री छन्दसे नमः मुखे या अनुष्ठुछन्दसे नमो मुखे।:-उक्त भावना से इसे पढ़कर दाहिने हाथ की अँगुलियों से मुख को छूना चाहिए। 



(३.)ऊँ अर्धनारीश्वरदेवतायै नमः हृदि या श्री त्र्यम्बकरुद्र देवतायै नमो हृदि।:-उसी शक्ति से परिपूर्ण प्रवाह का मन ही मन ध्यान करते हुए इस मंत्र को पढ़कर दाहिने हाथ की अँगुलियों से हृदय को स्पर्श करें। 



(४.)ऊँ हल बीजाय नमः गुह्ये या श्री बीजाय नमोगुह्ये।:-इस मंत्र को पढ़कर गुह्याङ्ग या गुप्त अंग को स्पर्श करें और मन ही मन यह भावना करें कि ऋषिजन प्रवाहिनी पवित्र अत्यन्त चमकीली धारा विषय-सुख को प्रदान करने वाले अंगों में निर्मलता को मेल-मिलान कर रही हैं।



(५.)ऊँ स्वर शक्तये नमः पादयोः या ह्रीं शक्तये नामोंः पादयोः।:-इस मन्त्र को पढ़कर दाहिने हाथ की अंगुलियों से दोनों पैरों का स्पर्श करें। साथ ही मन ही मन यह भावना करें कि मेरे अँगुलियों के पोरों से पापों से छुड़ाने वाली शक्ति से परिपूर्ण धारा निकल कर दोनों पैरों को पवित्र कर रही हैं। 



(६.)ऊँ विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे:-इस मन्त्र पढ़कर पहले कहे गये विचार मन में निश्चित करते हुए दोनों हाथों में सिर से लेकर पैर तक सारे अंगों का स्पर्श करना चाहिए।


                     ।।इति ऋष्यादिन्यास।।


अथ करन्यास:-विनियोग के बाद तीन, सात, चौदह या इक्कीस बार संयमित तरीके से श्वास लेने की क्रिया को करना चाहिए। तदुपरान्त मन्त्रों का उच्चारण करते हुए दोनों हाथों के द्वारा विशेष प्रकार की विशिष्ट शारीरिक स्थिति एवं भावभंगिमा को बनानी चाहिए। करन्यास करते समय अभिमान की विचार को दूर रखने के लिए किया जाता हैं। करन्यास के द्वारा योगी या तपस्वी अहसान करता हैं कि  वह जो भी कार्य को कर रहा हैं उसको वह करने वाले नहीं है, सभी कार्य सृष्टि करने वाले मूल नियामक तथा संचालन शक्ति के द्वारा ही सम्पन्न हो रहे हैं।



करन्यास का अर्थ है:- कर्तृत्व अपने सभी नैतिक और धार्मिक रूप से आवश्यक सभी सामर्थ्य या क्षमता को श्रीभोलेनाथजी के चरणों में निवेदन करते हुए अर्पित करना। अपने आपको सबकुछ समझने की प्रवृत्ति को छोड़कर, सहजता, शिष्ट आचरण, उदारता और गहनता के भाव को अपनाना हैं। अतः करन्यास के मन्त्रों का वाचन करते समय अपने मन में इन्हीं भावों को दोहराना आवश्यक है तभी करन्यास सिद्ध होता हैं।



(१.)ऊँ ह्रीं ऊँ जूं सः भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ऊँ नमो भगवते रुद्राय शूलपाणयै स्वाहा अंगुष्ठाभ्यां नमः। उक्त भावना के साथ दोनों हाथ की तर्जनी अंगुलियों से दोनों अंगूठों को स्पर्श करना चाहिए। 



(२.)ऊँ ह्रीं ऊँ जूं सः भूर्भुवःयजामहे ऊँ नमो भगवते-(रुद्राय के बाद) अमृतमूर्तये मां जीवाय बृद्ध तर्जनीभ्यां नमः। इस मंत्र को पढ़कर दोनों हाथ की तर्जनी अंगुलियों का अंगूठों से स्पर्श करें और मन ही मन में सहजता, शिष्ट आचरण, उदारता और गहनता के विचार को उत्पन्न करना चाहिए। 



(३.)ऊँ ह्रौं ऊँ जूं सः भूर्भुवः स्वः सुगन्धिपुष्टिवर्धनम् ऊँ नमो भगवते रुद्राय चन्द्रशिरसे जटिने स्वाहा। मध्यमाभ्यां नमः वषट्।:-दोनों अंगुष्ठों से दोनों मध्यमा अंगुलियों का स्पर्श करते हुए मन ही मन यह विचार करना चाहिए कि मैं अपने नैतिक और धार्मिक रूप से जो जरूरी कार्य हैं, उनके प्रति किसी भी प्रकार से गर्व को नहीं अपनाते हुए अपने आप को सबकुछ समझने के भाव को श्रीभोलेनाथजी के चरणों में आदरपूर्वक सौंप दे रहा हैं। मैं श्री भोलेनाथजी के समान ही विनम्र और सरल बन रहा हूँ।



(४.)ऊँ ह्रौं ऊँ जूं सः भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बंन्धनात् ऊँ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरांतकाय ह्रां ह्रीं अनामिकाभ्यां नमः हुम्।।:-इस मन्त्र को पढ़कर दोनों अँगूठों से दोनों अनामिका अंगुलियों का उक्त भावना के साथ स्पर्श करें। मन ही मन यह भावना करें कि मेरे अन्दर श्रीभोलेनाथजी की सरलता, नम्रता, उदारता प्रवेश करती जा रही हैं।



(५.)ऊँ ह्रौं ऊँ जूं सः भूर्भुवः स्वः मृत्योर्मुक्षीय ऊँ नमो भगवते रुद्राय त्रिलोचनाय ऋग्यजुस्माममन्त्राय कनिष्ठकाभ्यां नमः वौषट्।। दोनों अंगूठों के द्वारा दोनों कनिष्ठिका का भावपूर्ण हृदय से स्पर्श करना चाहिए। ऐसा मन ही मन में सोचना चाहिए कि श्री भोलेनाथजी की शक्ति से परिपूर्ण ज्योतिर्मय और बिना अभिमान की पारदर्शक दोष से रहित निर्मलता मुझ में आ रही हैं।



(६.)ऊँ ह्रौं ऊँ जूं सः भूर्भुवः स्वः मामृतात् ऊँ नमो भगवते रुद्राय अग्नित्रयाय या अग्निवयाय ज्वल-ज्वल मां रक्ष-रक्ष अघोरास्त्राय करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः फट्।। इसको पढ़कर दोनों हाथों की हथेलियों एवं उनके पृष्ठ भागों का एक-दूसरे से स्पर्श करना चाहिए। साथ ही अपने मन ही मन श्रीभोलेनाथजी की महानता का आह्वान करना चाहिए। अपने में छल-कपटहीन प्रवृत्ति, सीधापन और शालीनता का समावेश करना चाहिए। 



                          ।।इति करन्यास।।


अथ हृदयादिन्यास या अथांगन्यास:-करन्यास बाद इसी प्रकार हृदयादिन्यास करना चाहिए।



हृदयादिन्यास का अर्थ है:-शरीर के हृदयादि अंगों का समस्त आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा आदि पाँच इंद्रियाँ जिनसे भौतिक विषयों का ज्ञान का ज्ञान होता हैं, जब आराधक इन ज्ञानेन्द्रियों को अपने इष्टदेव के प्रति इस विचार से आदरपूर्वक सौंप देना कि यह अंग मेरे नहीं हैं। हे इष्टदेव! यह सभी ज्ञानेंद्रिया तेरे हैं, मैं एक मात्र तेरे लिए हैं। मैं मन से, वचन से एवं कर्म से तेरा हूँ। मैं मन और वाणी से ही नहीं, कर्मों से भी तेरी पूजा करूँगा। मन को पाप एवं दोष रहित, वाणी को निष्कपट एवं दुर्भावरहित और कर्मों को ऊँचे स्तर का बनाऊँगा। जो नैतिक और धार्मिक रूप से जरूरी कार्यों को एवं जो शास्त्रीय विधान से युक्त धार्मिक कार्यों को करते समय अपने पथ से नहीं भटकूँगा। 



अतः हृदयादिन्यास करते समय मन्त्रों का वांचन करते समय अंग-अंग का स्पर्श करते समय मन ही मन में ईश्वर की भक्ति में अपने को समर्पित करने वाले प्रतिमान स्वरूप कथनों को बार-बार उच्चारण करना चाहिए। तभी हृदयादिन्यास भाव पूर्ण होगा। हृदयादि न्यास के द्वारा अलौकिक शक्तियां प्राप्त होने पर आराधक का शरीर में किसी भी तरह की कोई बीमारी नहीं रहेगी और शरीर ताकतवर, मन एक जगह केन्द्रित रहेगा और एक स्मान, सोचने-समझने और निश्चय करने कि मानसिक शक्ति ठीक तरह से रहेगी और सत्य पर निष्ठा रखने वाली हो जाती हैं। हृदयादि न्यास के मन्त्र इस प्रकार हैं:--




(१.)ऊँ ह्रौं ऊँ जूं सः भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं ऊँ नमो भगवते रुद्राय शूलपाणये स्वाहा हृदयाय नमः।। इस मन्त्र को पढ़ते हुए हृदय-समर्पण के भाव में में भर कर दाहिने हाथ की पांचों अंगुलियों से हृदय को स्पर्श करना चाहिए।




(२.)ऊँ ह्रौं ऊँ जूं सः भूर्भुवः स्वः यजामहे ऊँ नमो भगवते रुद्राय अमृतमूर्तये मां जीवाय शिरसे स्वाहा। इस मंत्र की पढ़ते हुए दाहिने हाथ की अंगुलियों से सिर का स्पर्श करना चाहिए। साथ ही मन ही मन में यह विचार भी करना चाहिए कि मैं अपने सोचने-समझने और निश्चय करने की मानसिक शक्ति को श्रीभोलेनाथजी के चरणों में निवेदन करते हुए अर्पित करता हूँ।



(३.)ऊँ ह्रौं ऊँ जूं सः भूर्भुवः स्वः सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ऊँ नमो भगवते रुद्राय चन्द्रशिर से जटिने स्वाहा शिखायै वषट्।। इस मन्त्र को पढ़कर दाहिने हाथ की अंगुलियों से शिखा का स्पर्श करना चाहिए साथ ही मन ही मन में यह विचार भी करना चाहिए कि मैं अपने मन में सोचने-समझने और निश्चय करने की मानसिक शक्ति और आंतरिक चेतना को श्रीभोलेनाथजी के चरणों में निवेदन करते हुए अर्पित करता हूँ। मेरे मन में सोचने-समझने और निश्चय करने की मानसिक शक्ति और आंतरिक चेतना अलौकिक उमंगों से परिपूर्ण हो रही हैं। इस भावपूर्ण आत्म समर्पण से भाव भरे हृदय से श्रीभोलेनाथजी के चरण स्पर्श करने से वे सर्वथा पवित्र बन गये हैं।




(४.)ऊँ ह्रौं ऊँ जूं सः भूर्भुवः स्वः उर्वारुकमिव बनधनात् ऊँ नमो भगवते रुद्राय त्रिपुरान्तकाय ह्रां ह्रां ह्रीं ह्रीं कवचाय हुम्।। दाहिने हाथ की अंगुलियों से बायें कन्धे का और बायें हाथ की अंगुलियों से दाहिने कन्धे का स्पर्श करते हुए साथ ही मन ही मन में यह विचार भी करना चाहिए कि श्रीभोलेनाथजी की महिमा उदारतापूर्वक दया भाव से  मैं अपने नैतिक और धार्मिक रूप से जरूरी ख्ये जाने वाले कार्य  को भली प्रकार से समझ गया हूँ। श्रीभोलेनाथजी ने मेरे कन्धों पर जो-जो जिम्मेदारियाँ सौंपी हैं, उन्हें मैं बहुत मेहतन करते हुए और यथार्थ रूप के साथ जागरूक सोच रखते हुए उनकी अनुकृपा के साथ पूर्ण करूँगा। 




(५.)ऊँ ह्रौं ऊँ जूं सः भूर्भुवः स्वः मृत्योर्मुक्षीय ऊँ नमो भगवते रुद्रा त्रिलोचनाय ऋग्यजुस्साममन्त्राय नेत्रत्रयाय वौषट्।। दाहिने हाथ की अंगुलियों के अन्त भाग से दोनों नेत्रों एवं ललाट के मध्य भाग का स्पर्श करते हुए अपने मन में ईश्वर के प्रति भक्ति रखते हुए उनको सौंप देने की सोच के साथ ही मन ही मन में यह विचार भी करना चाहिए कि श्रीभोलेनाथजी की कृपा से अच्छे-बुरे की परख के दवा वस्तुओं या विषयों की जानकारी जो मन के द्वारा होती हैं, उसके द्वारा ज्ञान रूपी नेत्र खुल गये हैं। मुझे वास्तविकता-मिथ्यात्व, नैतिक और धार्मिक रूप से जरूरी किये जाने वाले कर्मों एवं अनुचित कर्मों की जानकारी हो गई हैं। अज्ञान, विचाररहित विश्वास और रूढ़िवादी विचारधारा की प्रवृत्ति का सर्वथा नाश हो गया हैं।




(६.)ऊँ ह्रौं ऊँ जूं सः भूर्भुवः स्वः मामृतात् ऊँ नमो भगवते रुद्राय अग्नित्रयाय ज्वल ज्वल मां रक्ष रक्ष अधोरास्त्राय फट।। उक्त भावना के साथ इस मन्त्र को पढ़कर दाहिने हाथ को सिर के ऊपर से बायीं ओर से पीछे की ओर ले जाकर दाहिनी ओर से आगे की ओर ले आये और तर्जनी तथा मध्यमा अंगुलियों से बाँये हाथ की हथेली पर ताली बजा देनी चाहिए। ताली बजाते समय मन ही मन में यह विचार भी करना चाहिए कि मैं समस्त दुरत, किसी दूसरों के प्रति तुच्छ विचार और दैत्य शक्ति के प्रति अपने आप को जोड़ने के भाव को अपने मन से भगा रहा हूँ। 



।।इति हृदयादिन्यास या अथांगन्यास: या इत्यंगन्यासः।



अथाक्षरन्यास:-हृदयादि न्यास के बाद मन्त्र अक्षर या वर्ण न्यास किया जाता हैं।


मन्त्र-वर्ण न्यास का अर्थ है:-'अपने मन में यह विचार को मजबूती प्रदान करना कि जिस मन्त्र का मैं वांचन करने जा रहा हूँ, उसका प्रत्येक वर्ण या अक्षर जीवन युक्त हैं, चेतना सम्पन्न हैं। जब मैं इष्ट मन्त्र का उच्चारण करता हूँ तो अक्षर से जलाशय में कंकड़ी डालने के समान एक दिखाई नहीं देने वाली चिद्-लहर उठती हैं, जो मेरे अंग-प्रत्यंग में निश्छलता एवं निर्मलता और प्रभावशाली कांति का गमन करती हैं। इस न्यास के द्वारा प्राणी में जीवित रहने की शक्ति का श्रेष्ठ और उत्तम ईश्वर में आश्रित होकर एक विशाल लोकहित के विचार से की हुई पूजा पूर्ण होती हैं। 



पहले कहे गये या ऊपर कहे गये तैंतीस अक्षर महामृत्युंजय मन्त्र का मन्त्र वर्णन्यास प्रस्तुत कर रहे हैं। जो साधक किसी अन्य मन्त्र का जप करना चाहते हैं, उन्हें इसी प्रकार उस मन्त्र विशेष के एक-एक वर्ण पर्व में 'ऊँ' और बाद को 'नमः' लगाकर अपने शरीर के विभिन्न अंगों का स्पर्श करते हुए मन ही मन उक्त न्यास-भावना को दोहराना चाहिए। तभी न्यास की क्रिया भावमयी बनेगी और कार्य फल की प्राप्ति जल्दी होगी। तैंतीस अक्षर महामृत्युंजय मन्त्र का मन्त्र वर्ण या अक्षर न्यास इस प्रकार हैं-



त्र्यं नमः दक्षिणचरणाग्रे।:-इस मंत्र को पढ़कर उक्त भावना के साथ दाहिने हाथ की अंगुलियों से दाहिने पैर के आगे के भाग को स्पर्श करना चाहिए।


बं नमः


कं नमः


यं नमः


जां नमः दक्षिणचरणसन्धिचतुष्केषु।:-इस मंत्र को पढ़कर उक्त भावना के साथ दाहिने पैर के सन्धि चतुष्केषु भाग को स्पर्श करना चाहिए।


मं नमः वामचरणाग्रे।:-इस मंत्र को पढ़कर उक्त भावना के साथ दाहिने हाथ की अंगुलियों से बायें पैर के आगे के भाग को स्पर्श करना चाहिए।


हें नमः


सुं नमः


गं नमः


धिं नमः, वामचरणसन्धिचतुष्केषु।:-इस मंत्र को पढ़कर उक्त भावना के साथ बायें पैर के सन्धि चतुष्केषु भाग को स्पर्श करना चाहिए।


पुं नमः गुह्ये।:-इस मंत्र को पढ़कर उक्त भावना के साथ गुह्ये भाग को स्पर्श करना चाहिए।


ष्टिं नमः आधारे।:-इस मंत्र को पढ़कर उक्त भावना के साथ आधारे भाग को स्पर्श करना चाहिए।


वं नमः, जठरे।:-इस मंत्र को पढ़कर उक्त भावना के साथ जठरे भाग को स्पर्श करना चाहिए।


र्द्धं नमः, हृदये।:-मन में भव्य भावना करते हुए इस मन्त्र का वांचन करके हृदय का स्पर्श करना चाहिए।


नं नमः, कण्ठे।:-मन में भव्य भावना करते हुए इस मन्त्र का वांचन करके हृदय का स्पर्श करना चाहिए।


उं नमः, दक्षिणकराग्रे।:-इस मंत्र को पढ़कर उक्त भावना के साथ दाहिने हाथ के आगे के भाग को स्पर्श करना चाहिए।


वां नमः,


रुं नमः,


कं नमः,


मिं नमः, दक्षिणकरसन्धिचतुष्केषु।:-इस मंत्र को पढ़कर उक्त भावना के साथ दाहिने हाथ के सन्धि चतुष्केषु भाग को स्पर्श करना चाहिए।


वं नमः, बामकराग्रे।:-इस मंत्र को पढ़कर उक्त भावना के साथ बायें हाथ के आगे के भाग को स्पर्श करना चाहिए।


बं नमः,


धं नमः,


नां नमः, 


मृं नमः वामकरसन्धिचतुष्केषु।:-इस मंत्र को पढ़कर उक्त भावना के साथ बायें हाथ के सन्धि चतुष्केषु भाग को स्पर्श करना चाहिए।


त्यों नमः, वदने।:-इस मंत्र को पढ़कर उक्त भावना के साथ वदने भाग को स्पर्श करना चाहिए।


मुं नमः, ओष्ठयोः।:-इस मंत्र को पढ़कर उक्त भावना के साथ ओष्ठयोः भाग को स्पर्श करना चाहिए।

 

क्षीं नमः, घ्राणयोः। नासापुटों।:-उक्त भावना के साथ इस मन्त्र का वांचन करके दोनों नथुनों को दाहिने हाथ की अँगुलियों से स्पर्श करना चाहिए।


यं नमः दृशोः। नेत्रयोः।:-उक्त भावना के साथ मन्त्र से दोनों नेत्रों को स्पर्श करना चाहिए।


माँ नमः श्रवणयोः।:-उक्त भावना के साथ इस मन्त्र का वांचन करके श्रवणयोः से स्पर्श करना चाहिए।


मृं नमः भ्रवोः।:-उक्त भावना के साथ इस मन्त्र का वांचन करके भ्रवोः से स्पर्श करना चाहिए।


तां नमः शिरसि।:-उक्त भावना के साथ इस मन्त्र का वांचन करके शिरसि से स्पर्श करना चाहिए।


                         ।।इत्यक्षरन्यास।।


अथ पदन्यास:-विशिष्ट प्रकार की मुद्रा की जो चलने में से डग भरते समय बनती हैं। 


ब्रह्मरन्ध्रे।:-इस मन्त्र को पढ़कर उक्त भावना के साथ दाहिने हाथ की अँगुलियों से कपाल स्पर्श करना चाहिए। भरना


त्र्यम्बकं शरसि। ललाटे।:-इस मन्त्र को भावपूर्ण मन से पढ़कर मस्तक का स्पर्श करना चाहिए।


यजामहे भ्रुवोः। भ्रुवोर्मध्ये।:-इस मन्त्र के द्वारा मन में उक्त भावना भरते हुए दोनों-भौहों के बीच का स्पर्श करना चाहिए


सुगन्धिं दृशोः। नेत्रयोः।:-उक्त भावना के साथ मन्त्र से दोनों नेत्रों को स्पर्श करना चाहिए।


नासापुटों।:-उक्त भावना के साथ इस मन्त्र का वांचन करके दोनों नथुनों को दाहिने हाथ की अँगुलियों से स्पर्श करना चाहिए।


पुष्टिवर्धनं मुखे।:-इस मन्त्र द्वारा उक्त भावना से मुख का स्पर्श करना चाहिए। मन ही मन में विचार करना चाहिए कि मेरी ताजगी के साथ मिठास और कोमलता का गम हो रहा हैं।


उर्वारूकं कण्ठे। ग्रीवायाम्।:-इस मन्त्र को पढ़कर कण्ठ प्रदेश का स्पर्श करना चाहिए। मन ही मन में विचार करना चाहिए कि कंठस्थ थायरायड् ग्रन्थियों का दोषरहित अन्तस्त्राव (हारमोन) मुझ में सद् सद् भावों को मजबूत कर रहा हैं।


मिव हृदये।:-मन में भव्य भावना करते हुए इस मन्त्र का वांचन करके हृदय का स्पर्श करना चाहिए।


बाहवोः।:-सुखदायक मनोवेग, जोश और फुरती विचारों के साथ इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए, दोनों बाहुओं का स्पर्श करना चाहिए और आकाश में हमेशा सहिद्वत् प्रवाहमान अलौकिक संचलन प्रेरक शक्ति का मन में धारण करना चाहिए।


बन्धनात् उदरे। नाभौ।:-उक्त भावना के साथ इस मन्त्र का वांचन करके परावाणी (स्थान-प्रयत्न जैसे-जिह्वा, तालु, दंत, वर्त्स आदि से परे ध्वनि) के केन्द्र स्थल नाभि का दाहिने हाथ की अँगुलियों से स्पर्श करना चाहिए।


मृत्योः गुह्ये।:-इसे पढ़कर मूलाधार चक्र के अधिष्ठान रूप लिंग प्रदेश का स्पर्श मन में उदात्त भाव भरते हुए करना चाहिए। ऐसा करने से ब्रह्मचर्य-धारण की शक्ति बढ़ती हैं।


मुक्षय उर्वों।:-भव्य भावना के साथ इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए उर्वों का स्पर्श करना चाहिए।


माँ जान्वोः।:-भव्य भावना के साथ इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए दोनों जंघाओं का स्पर्श करना चाहिए।


अमृतात् पादयोः।:-अमृतवती शक्ति का प्रतीक इस मन्त्र से दोनों पैरों का स्पर्श करें। साथ ही उनके मजबूत होने का विचार भी करना चाहिए।


सर्वांगे।:-इस मन्त्र द्वारा समस्त शरीर का स्पर्श करें। साथ ही यह भावना अवश्य करनी चाहिए कि वर्ण-वर्ण की परा-चैतन्य तरंगों का पावन स्पर्श मुझे ऊपर-नीचे-बाँये, अन्दर-बाहर सब ओर प्राप्त कर रहा हूँ। अब मेरी नस-नस में दिव्य ऊर्जा त्वरित वेग से प्रवाहित हो रही हैं। मेरी कार्य शक्ति द्रुत वेग से बढ़ रही हैं। 



                 ।।इति पदन्यास।।


पञ्चोपचार या षोडशोपचार पूजन:-मन्त्र वर्ण न्यास के बाद पञ्चोपचार पूजन का विधान हैं। कुछ लोग षोडशोपचार पूजन करते हैं। पंचोपचार के मन्त्रों द्वारा शिवजी की प्रतिमा या चित्र का पूजन किया जाता हैं। मन्त्र इस प्रकार हैं-



(१.)ऊँ गन्ध समर्पयामि, ऊँ नमः शिवायः। इस मन्त्र को उच्चारित करते हुए शिवजी को इत्र अर्पण करना चाहिए।


(२.)ऊँ पुष्यं समर्पयामि, ऊँ नमः शिवायः। इस मन्त्र को उच्चारित करते हुए शिवजी को पुष्प और माला चढ़ावें।


(३.)ऊँ धूपं समर्पयामि, ऊँ नमः शिवायः।इस मन्त्र को उच्चारित करते हुए शिवजी को चम्मच में चन्दन के सुगन्धित बुरादे पर घी बताशा जलाकर श्री शिवजी को प्रेमपूर्वक धूप अर्पण करें। साथ ही बार-बार ऊँ नमः शिवायः का वांचन करें।


(४.)ऊँ दीपदर्शयामि, ऊँ नमः शिवायः। देशी घी का दीपक जलाकर इस मन्त्र को बार-बार पढ़ते हुए श्री शिवजी की आरती करें। इस दीपकमें इतना घी डालना चाहिए, कि जितनी देर जप करना हैं, उतने समय तक वह जलता रहें। दीपदान यदि छोटा हैं, तो बार-बार घी डाला जा सकता हैं। 


(५.)ऊँ नैवेद्य निवेदयामि समर्पयामि, ऊँ नमः शिवायः। इस मन्त्र के वांचन के साथ बेसन के लड्डू, बेशन की नुकती, अंकुरित चनों, दूध की खीर अथवा तुलसीदल या किशमिश का शिवजी को भोग लगायें। भोग की वस्तु ताजी और शुद्ध होनी चाहिए।


(६.)ऊँ जल समर्पयामि, ऊँ नमः शिवायः। इस मन्त्र से शिवजी को जल निवेदित करें।


दिगबंधनम्:-शिवजी के श्री विग्रह का पूजन करने के बाद दिगबन्ध किया जाता हैं।


दिग्बन्ध का शाब्दिक अर्थ हैं:-दिशाओं का बन्धन करना। दिग्बन्धन दिक् और बंधन दो शब्दों के मेल से बना हैं, दिक् का अर्थ दिशा होता हैं और बंधन का अर्थ बांधना होता हैं। इस तरह से दिग्बन्धन का मतलब समस्त सृष्टि में उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, ईशान कोण, आग्नेय कोण, नैर्ऋत्य कोण, वायव्य कोण, ऊर्ध्व दिशा इंसान के मस्तिष्क के ऊपर की ओर आकाश को भी एक दिशा, अधोः दिशा अर्थात् इंसान के नीचे की तरफ यानी पैर की तरफ पृथ्वी या पाताल दिशा और एक मध्य दिशा जो इंसान के बीच के भाग में स्थित होती हैं। इन सभी दिशाओं को मन्त्रों की शक्ति के द्वारा बांधना को दिग्बंधन कहते हैं। हम जानते हैं कि दिशा-विदिशाओं में शब्द, रुप और भावों की दिखाई नहीं देने वाली बहुत बारीक या बहुत ही छोटी लहरें वायु के वेग की तरह निरन्तर वायुमंडल में इधर-उधर सभी जगह पर प्रवाहित होती रहती हैं। हमारा मस्तिष्क रेडियो, राडार के छोटे-छोटे यन्त्रों से कहीं अधिक अनुभूतियुक्त हैं। जब शब्द, रूप और भावों की बहुत बारीक या बहुत ही छोटी लहरें हमारे चित्त के आवरण से टकराती हैं, तो अनेक प्रकार के मन में उत्पन्न विचारों का कुछ वक्त तक बराबर होते रहने वाले फुर-फुर शब्द हमारे चित्त के आवरण में खुद-ब-खुद उठा करती हैं। अशुभ शब्द, अशुभ रूप और अशुभ भाव की तरंगें मनःप्रदेश को दूषित और विकृत कर देती हैं। अतः यह आवश्यक है कि इन आसुरी शक्तियों को बाँधकर रख दिया जाय, उन्हें प्रभाहीन बना दिया जाय। दिग्बन्ध यही कार्य करता हैं।



दिग्बंध के मन्त्र का वाचन करते समय मन ही मन यह विचार करना चाहिए कि शिवजी के अलौकिक आभा की ज्योति ने सब ओर से मुझे चारों ओर से घेरकर रखा है, मैं डर मुक्त हो गया हूँ। मुझे किसी बात का भय नहीं हैं। अब मुझे किसी भी तरह से कोई भी अपने मोह में खींच के  की तरफ  विविध आकर्षणों की मजाल नहीं, जो मेरे मन एवं स्वास्थ्य को विकार-ग्रस्त कर सकें। एक-एक अक्षर या ध्वनि का उच्चारण करते समय शिवजी के बुद्धिमत्तापूर्ण प्रकार का ध्यान करते हुए अपने को सुरक्षित अनुभव करना चाहिए। दिग्बंध का मन्त्र इस प्रकार हैं-शिवजी के जिस रूप या छवि में आपकी विशेष रुचि हो और उसका रंगीन चित्र सुलभ हो, उसी का ध्यान नियम पूर्वक दस-पन्द्रह मिनट तक करना चाहिए। 



महामृत्युञ्जय ध्यानम्:-एक अभीष्ट प्राप्ति के लिए संकल्पित मांगलिक कर्मकांड की निर्धारित सीमा में एक प्रकार का विशेष विषय पर प्रतिदिन चित्त को एक जगह पर टीका रखने के लिए ध्यान करना चाहिए। दिन-प्रतिदिन मन की एकाग्रता के बदलने से मन के अंदर विकार उत्पन्न होता हैं, जिससे ठीक प्रकार से मन एक जगह पर नहीं हो पाता हैं। मन की कल्पना से उत्पन्न अस्थिरता के कारण समझ में नहीं आए ऐसे में के भटकने से हो जाता है, जिससे परमात्मा या आत्मा से संबंध रखने वाली एवं संचलन की क्षमता में रुकावट उत्पन्न करती हैं, जिसके कारण आवाधित ध्यान से आवश्यक फायदा नहीं मिल पाता हैं। मन को एक जगह पर रख कर ध्यान का पूरी  तरह फायदे लेने के लिए अनुष्ठान में एक ही प्रकार का ध्यान करने का इसीलिए शास्त्रों में विधान है। देवी-देवता पर विनय, श्रद्धा और समर्पण भाव से किया जाने वाला श्रेष्ठ कोटि का धार्मिक कृत्य होता हैं, जिससे स्मान रूप से फल की प्राप्ति होती हैं।



मनोवैज्ञानिक शब्दावली के अनुसार:-जिसे देवी-देवता पर विनय, श्रद्धा और समर्पण भाव से जल को चढ़ाने की तरह होने से उसे 'नीर-पूजा' (हीरा वरशिप) कहा जा सकता हैं। इस आराधना से पूजनीय ज्ञान स्वरूप दिव्य शक्ति का योगी या साधना करने वाले में बिना कोशिश के प्रकट हो जाता हैं। तीन महीने में शरीर का एक-एक कोश (सैल) बदल जाता हैं, ऐसा वैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया है। इन प्राकृतिक नियम के अनुसार यदि कोई साधक नियमित रूप से तीन महीने तक अपने इष्टदेव के प्रति अपने मन को एक जगह पर स्थिर रखते हुए सच्चे विश्वास और आस्था रखते हुए करते हैं, तो उनके अवश्य ही 'मन' और 'सोचने-समझने और निश्चय करने की मानसिक शक्ति' के 'तनु तन्तु (फाइनरसेल) पूरी तरह से रूप-आकार आदि में बदलाव हो जाता हैं। उसकी आत्मिक शक्ति, धैर्य और सोचने-समझने और निश्चय करने की मानसिक सामर्थ्य में बढ़ोतरी होगी। जिससे चित्त के एकाग्र होने के भाव में मजबूती,सोच-समझकर निर्णय लेने की क्षमता, निश्चित विचार में सामर्थ्य और सूझ-बूझ (ईनट्रयूशन) में बढ़ोतरी होगी। भावों और विचारों में अलौकिकता और कुशलता आवेगी भाग्य में जल्दी साथ देने लगेगा और प्रभावशीलता में बढ़ोतरी होगी। दिगबंधन के बाद भगवान आशुतोष की छवि को अपने मन-मन्दिर में धारण करते हुए अपने मन को एक जगह पर रखते हुए आशुतोष की भक्ति के लिए उनमें लीन होने के लिए उनको मन ही मन में याद करना चाहिए। 



हस्ताम्भोज युगस्थ कुंभयुगलादुद्धत्य तोयं शिरः।


सिञ्चन्तं करयोर्युगेन दधतं स्वांके सकुभ्भौ करौ।।


अक्षस्त्रङ्मृगहस्तमम्बूजगतं मूर्द्धस्थ चन्द्रस्त्रवत्।


पीयूषार्द्रतनुं भजे सगिरिजंत्र्यक्ष च मृत्युञ्जयं।।


अर्थात्:-मन को एक जगह पर केन्द्रित करके मन ही मन में ईश्वर को याद करना महामृत्युंजय मंत्र में बहुत जरूरी भाग हैं।



शिवपुराण के अनुसार:-इस महामृत्युंजय मन्त्र का ध्यान के बारे इस तरह का वर्णन बताया गया हैं, जो कोई इंसान जब भी ध्यान करें, तो उस ध्यान को करते समय उस इंसान को 'मृत्युञ्जय के आठ हाथ दिखाई देते हैं, जिनमें से ऊपर के दो हाथों में कलश को उठाए हुए और नीचे वाले दो हाथों में भी दो कलश लिए हुए हैं, दो कलशों को घुटने के ऊपर जाँघों के भाग में धारण किये हुए हैं, सातवें हाथ में रुद्राक्ष और आठवें हाथ में मृगधारण कर रखा हैं। उनका आसन कमल का हैं। उनके सिर पर विराजमान चन्द्रमा लगातार अमरता वाले पेय की बारिश कर रहे हैं, उस अमरता वाले पेय के लगातार गिरते रहने से उनका शरीर गीला हो रहा हैं। वे तीन नेत्रों को धारण करने वाले जिन्होंने जन्म-मरण पर अपनी जीत हासिल कर ली हैं और उनके बायीं तरफ भगवती गिरिजा या पार्वती अपने आसन पर उनके साथ बैठी हुई दिखाई पड़ती हैं।  


हस्ताभ्याँ कलशद्वयामृतसैराप्लावयन्तं शिरो,


द्वाभ्याँ तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्याँ वहन्तं परम्।


अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकांतं शिवं,


स्वच्छाम्भोगतं नवेन्दुमुकुटाभातं त्रिनेत्रभजे।।


मृत्यंजय महादेव त्राहि माँ, शरणागतम्,


जन्ममृत्युजरारोगैः पीड़ित कर्मबन्धनैः।।


तावकस्त्वद्गतप्राणस्त्वच्चित्तोSहं सदा मृड,


इति विज्ञाप्य देवेशं जपेन्मृत्युंजय मनुम्।। 


अर्थात्:-हे शिवजी! आप के आठ हाथ हैं, जिनमें से ऊपर के दो हाथों में कलश को लिए हुए और नीचे वाले दो हाथों में भी दो कलश लिए हुए हैं, दो कलशों को घुटने के ऊपर जाँघों के भाग में धारण किये हुए हैं, सातवें हाथ में रुद्राक्ष और आठवें हाथ में मृगधारण कर रखा हैं। उनका आसन कमल का हैं। उनके सिर पर विराजमान चन्द्रमा लगातार अमरता वाले पेय की बारिश कर रहे हैं, उस अमरता वाले पेय के लगातार गिरते रहने से उनका शरीर गीला हो रहा हैं। हिमालय पर्वत की चोटी पर स्थित मनोहर कैलास के स्वामी हो और नागों के स्वामी एवं नागों को शिरोभूषण के रूप में धारण करने वाले और तीन नेत्रों के स्वामी की मैं पापरहित होकर शुद्धता से पूजा करता हूँ।



हे महादेव! सृष्टि में जन्म लेने एवं शरीर से प्राण निकलने, उम्र की अंतिम वृद्ध होने की अवस्था, शरीर के शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक व्याधियों दुःखी होकर पीड़ा को भोग रहा हूँ और भाग्य का साथ नहीं मिल रहा हैं।  आप जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो और अपने मरण पर विजय प्राप्त की हुई हैं, मैं आपसे अरदास करता हूँ कि मेरे ऊपर आये हुए घोर संकट से बचने के लिए आपके आश्रय में आया हूँ आप मेरी रक्षा कीजिए। मैं हमेशा प्राणों की रक्षा करने वाले भगवान् शिवजी का गुणगान करता हूँ। ब्रह्माजी के मानस पुत्र मनु ऋषिवर ने देवताओं के राजा इन्द्रदेव को महामृत्युंजय मंत्र के बारे में जानकारी अपने ज्ञान के द्वारा करवाई थी।



महामृत्युंजय मंत्र का ध्यान करते समय रखने योग्य सावधानियां:-निम्नलिखित हैं।


1.ध्यान काल के ध्यान करते समय इंसान को अपने मेरु दण्ड को सीधा रखना चाहिए।


2.ध्यान काल के ध्यान करते समय इंसान को अपनी ग्रीवा को सीधा रखना चाहिए।


3.अपनी निगाह आधी मिली हुई या अल्पमीलित रहने चाहिए।


4.बार-बार चित्र की ओर अपनी निगाहों को भेजते हुए नेत्रों को कोमलता के भाव से बंध करते हुए मन ही मन में ईश्वर को याद करना चाहिए।


5.ध्यानकाल में त्वचा में स्फुरण के साथ रोमांच के भाव बार-बार होते रहने पर अत्यधिक लाभ होता हैं।


6.इष्ट देव के सदाचार या और उत्तम वृत्ति का यदि स्मरण किया जा सकें, तो दैवी सम्पत्ति को हासिल करने में में सहजता होती हैं।


7.ध्यान का फल ही दैवी सम्पत्ति और अलौकिक ऊर्जा की प्राप्ति हैं।


                        ।।इति ध्यान।।


 

समर्पण:-अटूट विश्वास एवं श्रद्धाभाव रखते हुए देवी-देवताओं का गुणगान करते हुए अपने आप को उनके चरणों की सेवा करने के लिए सौंप देना चाहिए। 


एतद यथासंख्यं जपित्वा पुनर्न्यासन कृत्वा जपं


भगन्महामृत्युंजयदेवताय समर्पयेत।


गुह्यातिगुह्यगोपता त्व गृहाणास्मत्कृतं जपम्।


सिद्धिर्भवतु मे देव त्वत्प्रसादान्महेश्वर।।


अर्थात्:-हे महामृत्युंजय देवता! आपकी अनुकृपा की प्राप्ति हेतु मैं महामृत्युंजय मन्त्र की जो संख्या निर्धारित की गई हैं, उन संख्या के अनुसार सभी तरह के न्यास कर्म को करते हुए मन्त्र का वांचन करते हुए उन मन्त्रों के वांचन को आपको अर्पण करता हूँ।


हे महेश्वर! मैं महामृत्युंजय मंत्र का वांचन किसी गुप्त जगह या निवास स्थान पर करते हुए आपसे अरदास करता हूँ कि इस मंत्र के द्वारा सभी तरह के अभीष्ट फल को आप प्रसाद स्वरूप प्रदान करें।


         ।।इति महामृत्युंजय जप विधि।।


महामृत्युंजय मंत्र कितने दिन का होता हैं?:-


◆जप करने वाले इंसान को महामृत्युंजय मंत्र का वांचन कम से कम पैंतालीस दिन तक सकते हैं।


◆ज्यादा से ज्यादा चौरासी दिनों तक मन्त्र का वांचन किया जा सकता हैं।


◆इसके अलावा इंसान जीवन भर भी बिना किसी संख्या को निर्धारित किये हुए भी मंत्र का वांचन कर सकते हैं।




कितनी बार करें मंत्र का जाप?(How many times to chant the mantra?):-भगवान् शिव को खुश करना हैं, तो रुद्राक्ष का उपयोग करना चाहिए, क्योंकि रुद्राक्ष के प्रति भगवान् शिवजी को बहुत लगाव होता हैं।


◆जप करने वाले इंसान को महामृत्युंजय मंत्र का वांचन करते समय रुद्राक्ष की एक सौ आठ मनके वाली माला को उपयोग में लेना चाहिए।


◆इंसान को एक बार में एक माला अर्थात् एक सौ आठ मनके को गिनते हुए महामृत्युंजय मंत्र का वांचन करते हुए पूर्ण करना चाहिए।


◆एक बार एक माला को पूरा करने के बाद सुमेरु से माला पलटनी चाहिए।


◆फिर दुबारा मंत्र का वांचन शुरू करना चाहिए।


◆इंसान को एक बार में एक माला के पूर्ण करते समय कभी माला के सुमेरु को एक मनके से दूसरे मनके तक छलाँग लगाकार पार नहीं करना चाहिए।


◆एक मनके की माला पूर्ण होने पर दूसरे मनके पर अपनी अँगुलियों को रखते हुए वांचन करना चाहिए।


◆इसलिए भोलेनाथ की अनुकृपा वाले महामृत्युंजय मंत्र या लघु मृत्युंजय मन्त्र का वांचन करते समय रुद्राक्ष से बनी हुई माल्य का प्रयोग में लेना चाहिए।


◆जब मन्त्रों का वांचन किया जाता हैं, तब उस मन्त्र की सिद्धि के लिए पहले से निर्धारित संख्या को ध्यान में रखते हुए उतने मन्त्रों की संख्या में वांचन करना चाहिए।



◆शिवजी के तैंतीस अक्षर महामृत्युंजय मंत्र के यदि जप संख्या सवा लाख की मालायें करनी हो तो एक दिन में एक बार एक माला को पूर्ण करने में अधिकतम सात से नौ मिनट का समय में आसानी से कर सकते हैं।


◆मंत्र का वांचन भगवान् शिवजी के प्रिय दिन सोमवार को शुभ मुहूर्त से शुरुआत करनी चाहिए।


◆इंसान को किसी गुप्त स्थान या अपने निवास स्थान की जगह पर मंत्र का वांचन करने से पहले उन जगहों पर महामृत्युंजय यंत्र की पूजा-अर्चना करके स्थापित करना चाहिए, उसके बाद ही महामृत्युंजय मंत्र का वांचन शुरू करना चाहिए।


◆यदि इंसान महामृत्युंजय मंत्र का वांचन अपने निवास स्थान की जगह पर नहीं करना चाहते हैं तो उनको किसी शिव मंदिर परिसर में जाना चाहिए, उस शिव मंदिर परिसर में प्रातःकाल के समय जाकर शिवजी की प्रतिमा या शिवलिंग का जल, दूध, घृत, दधि, मधु, पंचामृत, पुष्प, चन्दन, अगरबत्ती, धूपबत्ति, मौली, आक, धतूरा, बिल्वपत्र और नैवेद्य आदि से पूजन करने के बाद ही मंत्र का  एक जगह पर बैठकर जो मन्त्र की संख्या निर्धारित की हैं, उसका वांचन करना चाहिए।


◆फिर पूजा-अर्चना के बाद अपने निवास स्थान पर आकर शुद्ध देशी घृत का दीपक प्रज्वलित करना चाहिए।


◆फिर अपने आसन पर बैठकर कम से कम ग्यारहा माला का वांचन दस दिन तक हमेशा करना चाहिए।



महामृत्युंजय मंत्र के अलग-अलग स्वरूप का वांचन करने के बारे में जानकारी:-महामृत्युंजय मन्त्र के वांचन व मन्त्र के निमित देवी-देवताओं से अपने अभीष्ट को पूर्ण रूप से पाने हेतु अपने मन में दृढ़ प्रतिज्ञा युक्त मंगलकारी मन्त्र, पुजा, यज्ञ, संस्कार आदि के तरह-तरह के प्रकार का विवरण शास्त्रों में मिलता हैं।


◆जैसे शास्त्रों में वर्णन मिलता हैं या गुरु के मार्गदर्शन के द्वारा बताई गई विधि को ध्यान में रखते हुए ही मन्त्र का वांचन करने पर अभीष्ट फल की प्राप्ति होती हैं।


◆जब किसी विद्वान के द्वारा दूसरों के लिए मन्त्र का वांचन किया जाता हैं, तब उस विद्वान को उसके नाम के साथ पालय पालय सः जूं ऊँ लगाकर या शब्दों को आगे-पीछे लगाकर आदि विधि से भी करते हैं।


◆जब कोई इंसान किसी तरह के बुरे असर में हो, तो उसको किसी विद्वान जानकार के मार्गदर्शन में उनसे सीख कर खुद उस मन्त्र का बार-बार वांचन करना चाहिए, जिससे उसको अभीष्ट फल की पूर्ण प्राप्ति होती हैं।  


सम्पुटित युक्त महामृत्युंजय मंत्र के वांचन बारे में जानकारी:-जब मूल मंत्र के साथ दूसरे शब्दों के मंत्रों जोड़कर एक जगह पर एकत्रित करके नया मन्त्र की रचना की जाती हैं, उसे सम्पुटित मन्त्र कहते हैं।


जब इस तरह से रचित सम्पुटित युक्त महामृत्युंजय मंत्र का पूरी तरह से सुफल एवं सफलता की प्राप्ति के लिए संकल्पित मांगलिक कर्मकांड के वांचन 'सवा लाख मन्त्र जप' के बारे निर्देश शास्त्रों में वर्णित हैं। सम्पुटित युक्त महामृत्युंजय मंत्र जो इस प्रकार है।


सम्पुटित युक्त महामृत्युंजय मंत्र:-

ऊँ हौं ऊँ जूं सः भूर्भुवः स्वः त्र्यम्बकं यजामहे 

सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय

मामृतात् स्वः भुवः ऊँ सः ह्रों ऊँ।।


लघुमृत्युञ्जय मंत्र के वांचन बारे में जानकारी:-जब मूल मंत्र के बड़े होने से सभी इंसानों के द्वारा वांचन नहीं कर पाने की स्थिति को ध्यान में रखते हुए सभी के द्वारा इस मंत्र का फल मिल सके इसलिए  मूल मंत्र को छोटे रूप में रचित किया हैं, जो इस तरह हैं। 


जब इस तरह मूल महामृत्युंजय मंत्र को छोटे रूप में लघुमृत्युञ्जय मन्त्र को बनाया। लघुमृत्युञ्जय मंत्र का पूरी तरह से सुफल एवं सफलता की प्राप्ति के लिए संकल्पित मांगलिक कर्मकांड के वांचन 'ग्यारह लाख मन्त्र जप' के बारे निर्देश शास्त्रों में वर्णित हैं। सम्पुटित युक्त महामृत्युंजय मंत्र जो इस प्रकार है


लघुमृत्युञ्जय मंत्र:-ऊँ जूं सः।


◆यदि सवा लाख मन्त्र का वांचन करना है तो एक दिन में ग्यारहा माला अर्थात् 1188 मन्त्रों का वांचन करना चाहिए। इस तरह लगातार 105 दिन तक ग्यारहा माला के हिसाब से करने पर सवा लाख की मन्त्र संख्या पूर्ण हो जाती हैं।


◆फिर सवा लाख मन्त्रों का वांचन पूर्ण होने के बाद में अग्निकुंड में अग्नि को प्रज्ज्वलित करके घृत, जौ या हवन सामग्री के द्वारा शिवजी को खुश करने के लिए हवन करना चाहिए।


◆यदि इंसान हवन कर्म नहीं करना चाहते हैं तो सवा लाख मन्त्र के वांचन के बाद में पच्चीस हजार और मन्त्रों का वांचन करने पर भी वही फल प्राप्त होता हैं।


◆मन्त्र का वांचन का उत्तम समय प्रातःकाल होता हैं, इसलिए जपकर्ता को मन्त्र का वांचन करना होता हैं, तो प्रातःकाल के समय अर्थात् बारह बजे से पूर्व के समय तक कर लेना चाहिए।


◆शास्त्रों में वर्णन मिलता हैं कि दोपहर अर्थात् बारह बजे के बाद के समय में मन्त्रों का वांचन करने से उस किये हुए मन्त्र के वांचन का फल नहीं मिल सकता हैं, क्योंकि दोपहर के समय में बुरी शक्तियों का प्रभाव शुरू हो जाने से जपकर्ता का मन एक जगह पर स्थिर नहीं रहता हैं जिससे उस मन्त्र से सम्बंधित देवी-देवताओं की अनुकृपा प्राप्त नहीं होती हैं। 


◆यदि इंसान मन्त्र का वांचन प्रातःकाल और सायंकाल में दो बैठकों में करना चाहते हैं , तो न्यासादि कर्म सहित सवा-सवा घण्टा दोनों समय देना होगा। 


◆दो बैठकों में यदि जप करने का नियम लिया हो, तो आरती, स्तुति-पाठ और प्रार्थना, सायंकाल को ही करनी चाहिए।



आरती:-प्रतिदिन निर्धारित संध्या में जप करने के बाद प्रज्वलित दीपक और कर्पूर से आरती करनी चाहिए।


स्तवन:-आरती के उपरान्त शिवजी की स्तुति करनी चाहिए। स्तोत्र वाँचते समय अर्थ पर ध्यान रहे।


प्रार्थना:-इसके बाद शिवजी को साष्टांग प्रणाम करके मन ही मन क्षमा याचना करनी चाहिए और पूजन को समाप्त करना चाहिए।


महामृत्युंजय मंत्र का अनुष्ठान पूर्ण होने पर क्या करें?:-निम्नलिखित प्रक्रिया करनी चाहिए। 


◆दशांश हवन करना:-अनुष्ठान पूरा हो जाने पर उसी दिन अथवा अगले दिन इष्ट मन्त्र से होम करें। चावल एवं नारियल बुरा से दुगुनी मात्रा में जौ, जौ से दुगुनी मात्रा में मिश्री, मिश्री से दुगुनी मात्रा में तिल को घृत-शर्करा-मिश्रित हवन सामग्री से जितने लाख का अनुष्ठान किया हैं, उसका दशवा भाग की संख्या या उतने हजार आहुति इसी मन्त्र से देने का विधान हैं।


◆तर्पण करना:-जितने हजार से हवन किया जाय, उतने ही सौ से या हवन मन्त्रों की कुल संख्या का दशवा भाग से तर्पण करना चाहिए।

 


◆मार्जन करना:-उसके बाद में तर्पण के मन्त्रों की संख्या का दशवा भाग के निमित उच्चारण करते हुए अपने द्वारा किसी भी मन्त्रों के उच्चारण में हुई भूल के लिए माफी मांगते हुए शरीर को पवित्र करना चाहिए।



◆ब्राह्मण भोजन करना:-शास्त्रों का आदेश है कि जितने मन्त्रों से मार्जन किया हैं, उसके दशाँश की संख्या में ब्राह्मणों व दीनों दुःखियों को भोजन निवेदन करना चाहिए। शक्ति और परिस्थिति के अनुसार न्यूनाधिक भी किया जा सकता हैं। उसके बाद मार्जन के मन्त्रों की संख्या के दशवें भाग के अनुसार जो संख्या प्राप्त होती हैं, उतनी संख्या में ब्राह्मणों को, दिन-दुःखियों को अपनी शक्ति मुजक भोजन करना चाहिए। 



◆दान-दक्षिणा देना:-ब्राह्मणों व दीनों दुःखियों को भोजन कराने के बाद अपनी शक्ति के मुताबिक दान की वस्तुएँ जैसे-भोजन सामग्री का पेटियां, कपड़े, जूते, मिठाई, धान्य सामग्री, फल आदि और शक्ति मुताबिक कुछ धन देकर उनको संतुष्ट करके उनका आशीष ग्रहण करना चाहिए।  


◆निवास स्थान में उत्सव करना:-फिर सभी तरह की प्रक्रिया के पूर्ण होने के बाद में घर के सभी सदस्यों को मिलकर उत्सव के रूप में आनंद से मनाना चाहिए। 


उपरोक्त प्रकार से विधि-विधान महामृत्युंजय मंत्र की साधना करने से निश्चित रूप से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती हैं और साधना पूर्ण हो जाती हैं। 




महामृत्युंजय मंत्र जाप में सावधानियाँ:-महामृत्युंजय मंत्र का भक्ति भाव से विश्वास एवं आस्था से वांचन करना बहुत ही अच्छा एवं शुभ प्रदान करने वाला होता हैं। लेकिन महामृत्युंजय मंत्र का वांचन करते समय कुछ बातों का सर्तकतापूर्वक पालन करना चाहिए। इन ध्यान रखने योग्य बातों का पालन करना से इस मंत्र के द्वारा मिलने वाले सभी फायदे मिल सकते हैं और किसी भी तरह के अहित या अशुभ होने की आशा नही रहती हैं। अतः महामृत्युंजय मंत्र के पाठ का वांचन करते समय निम्नलिखित ध्यान रखने योग्य बातों का ध्यान रखना चाहिए-जपकाल में किसी से बातचीत नहीं करनी चाहिए।




1.जप करने वाले को अपने मेरुदण्ड को सीधा रखना चाहिए।




2.जप करने वाले जप करने वाले को अपनी आँखें खुली रखनी चाहिए।




3.बार-बार मन में पुलक करते हुए जप करना चाहिए।




4.किसी भी मंत्र के शब्दों का उच्चारण करते समय उस मंत्र में वर्णित शब्दों को मुख से बोलते समय सही शब्दों का वांचन करना चाहिए।



5.धर्म ग्रन्थों में वर्णित मंत्र की संख्या को ध्यान में रखते हुए उस संख्या के अनुसार ही मंत्र का वांचन करना चाहिए। प्रत्येक दिन जो मंत्रों के जपने की संख्या को निर्धारित किया हैं, उसी अनुसार ही संख्या को ध्यान रखते हुए जप करना चाहिए। जैसे पहले दिन जिस संख्या में मंत्रों का जाप किया हैं, उसी तरह उसी संख्या में दूसरे दिन जप करना चाहिए। कम संख्या नहीं रखते हुए ज्यादा संख्या रखी जा सकती हैं।



जितने दिनों का अनुष्ठान किया हैं, उतने दिनों तक प्रतिदिन समान संख्या में माला पर जप करना उचित हैं। किसी दिन कम, किसी दिन अधिक जप करने से मनोबल क्षीण होता हैं। विशेष परिस्थिति में बीमारी आदि की दशा में अपवाद रूप से ऐसा करने पर कोई हानि नहीं होती।




मान लीजिए तीस दिन में एक लाख मन्त्र जप का आपने अनुष्ठान लिया है। इसका अर्थ यह हुआ कि तीस दिन में आपको एक हजार माला जाप करना हैं। स्पष्ट हैं, तीस से एक हजार को भाग देने पर समान माला-संख्या न आ सकेगी। ऐसी स्थिति में चौतीस माला उनतीस दिन तक जपना चाहिए। अन्तिम दिन केवल चौदह माला जपना उत्तम होगा। ऐसा करने से अनुष्ठान की समाप्ति पर उसी दिन हवन सुविधा पूर्वक किया जा सकेगा।




6.मंत्रों का वांचन करते समय मंत्र की ध्वनि होठों के बाहर नहीं आनी चाहिए। इसलिए मंत्रों के शब्दों को नियमित रूप से दोहराते रहने पर ध्वनि होठों से बाहर नहीं आती हैं। यदि इस तरह नहीं कर पाते हो तो बहुत धीरे-धीरे शब्दों का वांचन करना चाहिए।




7.जब मंत्रों का बार-बार वांचन करते समय निरन्तर धूप-दीपक प्रज्वलित होना चाहिए।




8.जप करते समय रुद्राक्ष की माला का प्रयोग करना चाहिए।




9.जब तक जप चलता हो तब तक माला जपमाला वाली थैली या गोमुखी के अंदर ही रखनी चाहिए उसे बाहर नहीं निकालना चाहिए।



9.भगवान शिवजी की मूर्ति, फोटू, शिवलिंग या महामृत्युंजय यंत्र को किसी जगह पर स्थापित करके उनके सम्मुख बैठकर ही मंत्र का जप करना चाहिए।




10.महामृत्युंजय मंत्र का जप करते समय बिछावन के रुप में कुशा की बिछावन होनी चाहिए।




11.कुशा की बिछावन पर पूर्व दिशा की ओर मुहं करके ही जप करना चाहिए।




12.शिवलिंग या शिवजी की प्रतिमा पर दुग्ध से मिश्रित जल से अभिषेक करना चाहिए।




13.हमेशा एक ही जगह पर बैठकर जप करना चाहिए। जिस दिन मंत्र का उच्चारण शुरू किया जाता है उसी जगह को पूर्ण मंत्र जप नहीं होते हैं, तब तक उस जगह पर ही मंत्र का जप करना चाहिए।




14.जपकर्ता को जप करते समय अपने मन को एक जगह पर केंद्रित करते हुए जो करना चाहिए।



15.जपकर्ता को अपने मन मन्दिर में भगवान भोलेनाथ की मूर्ति को स्थापित करते हुए उनके महामृत्युंजय के प्रति पूर्ण आस्था व विश्वास के भाव रखते हुए जप करना चाहिए।




16.जपकर्ता को नित्य स्नानादि क्रियाओं से निवृत होकर एक ही समय को ध्यान में रखते हुए जप करना चाहिए।




17.जप करते समय मन के अंदर बुरे ख्यालों को नहीं लाना चाहिए।




18.जपकर्ता को पूर्ण ताजगी व उत्साह को रखते हुए जप को पूर्ण करना चाहिए। किसी भी तरह से शरीर में सुस्ती एवं थकान से युक्त जँभाई को नहीं अपने पास आने देना चाहिए।




19.जपकर्ता को नीति के विरुद्ध निराधार बातों को जप काल एवं जप करने के बाद नहीं करना चाहिए।




20.जप करते समय पैर फैलाकर बैठना, इधर-उधर देखना, नाखून काटना, रस्सी, तिनका या डोरा तोड़ना, बालों को बाँधना, बातें करना, थूकना, भय या चिन्ता करना आदि कार्य निषिद्ध हैं।



21.जप करते समय जंभाई आवे, झपकी या निद्रा के झोके आवें तो पास में रक्खे जल से मुँह या आँखें धो लेना चाहिए और थोड़ी देर जोर-जोर से "वाचिक जप" करने लगना चाहिए।




22.किसी से भी ईर्ष्या व द्वेष भाव सहित निन्दा नहीं करनी चाहिए।



23.शिथिलता, आलस्य, निद्रा, भय और घबराहट दूर करने का यह सहज उपाय हैं।



24.जपकाल में यदि पेशाब लगें, या थूकने की, नाक छिनकने की आवश्यकता प्रतीत हो, तो श्वास-प्रश्वास के साथ मन्त्र या इष्टदेव के नाम का स्मरण करते हुए उन्हें कर लेना चाहिए। पुनः हाथ-पाँव और मुँह धोकर स्वस्थ होकर जप करने से 'खण्डित' नहीं होता यदि किसी से बातचीत न कि जावे।



25.जपकर्ता को जपकाल में स्त्री के साथ समागम नहीं करना चाहिए। जब तक कि संख्या के अनुसार जप पूर्ण नहीं हो जाते हैं।



26.जपकर्ता को अपने निवास स्थान एवं बाहरी परिवेश में किसी भी तरह की जीवहत्या नहीं करनी चाहिए और मांस का भक्षण नहीं करना चाहिए।



27.इसलिए इंसान को अपनी सुविधा के अनुसार जितना मंत्र का जप किया जा सकता है, उतना जप करना चाहिए।



कब करें महामृत्युंजय मंत्र जाप? और जाप करने क्या लाभ या फायदे और महत्व हैं?(When to chant Mahamrityunjaya mantra?  And what are the benefits or advantages and importance of chanting?):-महामृत्युंजय मंत्र का जाप निम्नलिखित स्थितियों में करना चाहिए और निम्नलिखित लाभ या फायदे मिल सकते हैं।



अकाल मृत्यु या उम्र के पूर्ण होने से पूर्व मृत्यु से बचने हेतु:-जब किसी भी श्रद्धावान भक्त के द्वारा आस्था व विश्वास के साथ महामृत्युंजय मंत्र का जप करते रहने से पूर्ण उम्र के बीतने से पहले की मृत्यु से बचा जा सकता हैं। यह मंत्र अकाल मृत्यु, दुर्घटना इत्यादि पर विजय प्रदान कराकर जीवन प्रदान करता है।



स्वास्थ्य को पाने हेतु:-जो भक्त नियमित रूप मंत्र का जाप करते हैं, उनके शरीर में घर कर बैठी व्याधियों से छुटकारा मिल जाता हैं, उस भक्त का शरीर एकदम निरोग बिना व्याधि के हो जाता हैं। इसलिए भक्त इंसान को अपने शरीर को शुद्ध करने के लिए स्नान के निमित जल से भरे लोटे को शरीर पर डालते समय मंत्र का उच्चारण करते रहने पर शरीर एकदम निरोग होते हुए व्याधि से मुक्त हो जाता हैं।  



जवानी को कायम रखने हेतु:-जब इंसान के द्वारा दुग्ध को एक टकटकी लगाते हुए ध्यानपूर्वक देखते हुए उस समय मंत्र का जप किया जाता है और उसके बाद उस दुग्ध को पी लिया जाता हैं, तो इंसान की जवानी कायम रहती हैं। उम्र बढ़ने पर भी वह जवान ही दिखाई पड़ता हैं। जिससे महा महामृत्युंजय का पाठ करने वाला प्राणी दीर्घायु तो प्राप्त करता ही हैं। 



जीवन में आने वाली मुसीबतों से छुटकारा हेतु:-इंसान के जीवन में आने वाली अनेक मुसीबतों से छुटकारा हेतु इस मंत्र का जाप करते रहने पर लाभ मिलता हैं।



यौवन की सुरक्षा:-दूध को एक नजर लगाकर देखते हुए इस मंत्र का जप किया जाए और फिर वह दूध पी लिया जाए तो यौवन की सुरक्षा में भी सहायता मिलती हैं।



ज्योतिष शास्त्र के अनुसार:-जब इंसान के जीवन पर जन्म के समय, जन्म के महीने में, ग्रह-गोचर और महादशा, अन्तर्दशाएं, प्रत्यन्तदर्शा आदि में ग्रहों के कमजोर होने से उनके द्वारा मिलने वाले कष्ट के योग बन रहे हो तो मंत्र का जाप करना चाहिए।



असाध्य व्याधियों से मुक्ति हेतु:-इंसान के शरीर व मन पर बहुत सारी व्याधियां का प्रभाव जीवनकाल में पड़ता हैं। उन व्याधियों में कुछ व्याधियां उपचार करने पर ठीक हो जाती हैं और कुछ व्याधियां उपचार करने पर भी ठीक नहीं होती हैं, इस तरह ठीक नहीं होने वाली व्याधियों को आसाध्य व्याधियां कहते हैं। जैसे-मिर्गी या अपस्मार असाध्य व्याधि हैं, जो की इंसान के जीवन का हरण करने वाली होती हैं, जिसमें इंसान अचानक बेहोश हो जाता हैं। इन असाध्य व्याधियों से मुक्ति में सहायक होता हैं।



व्याधियों ने शरीर को घेर रखा होने पर:-जब इंसान को किसी भी तरह की व्याधि जैसे-वात, पित्त व कफ जन्य त्रिदोषों से सम्बंधित व्याधि हो जाती हैं, उस व्याधि का ईलाज नहीं हो पाने पर इस मंत्र का जाप करना चाहिए। यह मंत्र हर बीमारी को भगाने का बड़ा शस्त्र है।इस मंत्र का महत्वपूर्ण लाभ है कठिन एवं असाध्य रोगों पर विजय प्राप्त करने में सहायक होता हैं।



भाई-बन्धुओं के बीच जमीन-ज्यादा के बंटवारे से परेशानी से राहत हेतु:-जब एक माता-पिता से उत्पन्न भाई-बन्धुओं के बीच पुश्तैनी जमीन-जायदाद को लेकर मतभेद हो, तो उस परेशानी से मुक्ति हेतु महामृत्युंजय मंत्र का वांचन करने से राहत मिल जाती हैं।




फैले संक्रामक रोग से मुक्ति:-जब संसार में किसी भी तरह की भयंकर एक साथ फैलने वाले संक्रामक रोग जैसे-प्लेग, हैजा, कोराना आदि से प्राणी की मृत्यु होने लगती हैं और कोई भी उपाय नहीं मिलने पर जब एक साथ प्रत्येक मनुष्य के द्वारा महामृत्युंजय मंत्र का वांचन करने से राहत मिलती हैं।



रुपयों-पैसों का नुकसान होने पर:-जब इंसान को बिना वजह ही रुपयों-पैसों का नुकसान होता हो तब इंसान को महामृत्युंजय की शरण लेनी चाहिए।



देवी-देवताओं के प्रति नास्तिक भाव को समाप्त करने हेतु:-जब इंसान का चित्त किसी भी तरह से ईश्वर, परलोक आदि के संबंध में किसी भी तरह के विश्वास व आस्था के भाव नष्ट होने लगता हैं, तब देवी-देवताओं के प्रति आस्तिक भाव को जगाने में यह मंत्र सहायक होता हैं।



बुरा होने के डर से मुक्ति हेतु:-जब राजा द्वारा शासित देश में किसी तरह के बुरा का डर सताता हो, तो इंसान को इस तरह के डर से मुक्ति महामृत्युंजय मंत्र ही दिला सकता हैं। अनिष्ट निवारण के लिए महामृत्युंजय मंत्र का विशेष महत्त्व होता हैं।



दाम्पत्य जीवन और सामाजिक जीवन में सुख-शांति हेतु:-इंसान के गृहस्थी जीवन और सामाजिक जीवन में बिना वजह ही लड़ाई-झगड़े हो।



गुण मिलान में दोष से मुक्ति हेतु:-वर-वधू के गुण मिलान करते समय उनकी एक ही नाड़ी आने से बनने वाले नाड़ीदोष व जब कुण्डली में स्थित दो ग्रहों के एक दूसरे से छठे और आंठवें में होकर एक दूसरे के बीच यह मेल होने से षडाष्टक योग आदि दोष बन रहे हो, तो इस मन्त्र का वांचन शुरू करने इन बन रहे दोषों का असर कम हो जाता हैं।



देश या राज्य के भूखंड को बचाने हेतु:-जब देश या राज्य की तयशुदा भूमि के भाग की निर्धारित हद का थोड़ा सा अंश अपनी जगह से हट जाता हैं, तब पुनः ठीक स्थिति में करने के लिए मंत्र का वांचन कर सकते हैं।



बाहरी या दूसरे देशों के आक्रमण से बचाव हेतु:-जब देश पर किसी तरह के हमले की संभावना होने पर महामृत्युंजय मंत्र का वांचन करने पर हमला टल जाता हैं।




जीवन में सभी तरह के सुख हेतु:-जब जीवन में प्राप्त ऐशोआराम व ऐश्वर्य के नष्ट होने का डर सताता हो। महामृत्युंजय का पाठ करने वाला प्राणी हर दृष्टि से सूखी एवं समृद्धिशाली होता हैं।




रुपये-पैसों की तंगी से मुक्ति हेतु:-इंसान के मेहनत करने पर भी रुपयों-पैसों की तंगी की रहती हैं, उस तंगी से मुक्ति के लिए महामृत्युंजय मंत्र एक रामबाण उपाय करने रुपये-पैसों की तंगी दूर होकर इंसान धनवान भी हो जाता हैं।




जहरीले जीव-जंतुओं के विष के असर से मुक्ति हेतु:-यह मंत्र सर्प एवं बिच्छु के काटने पर भी अपना पूरा प्रभाव रखता है।



भगवान् शिवजी की अनुकृपा पाने हेतु:-महामृत्युंजय मंत्र भगवान शिवजी को खुश करके उनकी असीम कृपा प्राप्त करने का अद्भुत मंत्र है। भगवान् शिव की अमृतमयी कृपा उस पर निरन्तर बरसती रहती हैं।



महामृत्युंजय मंत्र का विधि-विधानपूर्वक सवा लाख जप करने से शरीर में आने वाली बीमारियां, अनिष्ट या बुरे ग्रहों के दुष्प्रभाव को समाप्त करने, बिना तलने वाली मृत्यु को टालने आदि के लिए आशानुकूल परिणाम प्राप्त होते हैं।