पंचामृत बिना हर पूजा अधूरी और महत्व क्यों हैं?(Why is every puja incomplete and important without Panchamrit?):-हिन्दू धर्म में प्रत्येक धार्मिक कार्यों को करते समय धेनु से बने हुए द्रव्यों जैसे-दुग्ध, दधि, घृत, मधुमक्खी से बना हुआ मधु और ईख से बनी हुई शक्कर आदि को मिलाकर बने हुए पंचामृत का प्रत्येक पूजा-अर्चना में महत्वपूर्ण स्थान होता हैं, कोई भी पूजा हो, पंचामृत के बिना पूर्ण नहीं मानी जाती हैं, देवी-देवता के स्नान करवाने के लिए भी पंचामृत के बिना स्नान करवाना भी अधूरा होता हैं। इसलिए प्राचीनकाल में पूजा विधान के अंतर्गत पंचामृत को मुख्य स्थान प्राप्त था। प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों ने पंचामृत को बनाने वाले द्रव्यों को पूजा के साथ इंसान के जीवन को मिलने वाले फायदों के लिए भी इनको स्थान दिया था। पंचामृत में मिलाये जाने वाले पांच द्रव्यों में हिन्दू धर्म की पवित्र धेनु के द्रव्यों को जगह दी गई हैं, साथ मधुमख्खी के मधु और ईख से निमित शक्कर को जगह दी गई हैं। इन सभी द्रव्यों के द्वार इंसान को फायदे मिलते हैं, जिससे को मजबूती प्रदान होती हैं।
प्रत्येक पूजा पंचामृत के बिना अधूरी होती हैं। प्रथम पूज्य गणपति पूजा, लक्ष्मी पूजा, बालकृष्ण की पूजा, शिवपूजा आदि में पंचामृत अभिषेक के द्वारा जब तक सिंचन नहीं किया जाता हैं, तब तक पूजा को ईश्वर स्वीकार नहीं करते हैं और पूजा अधूरी ही रहती हैं। ईश्वर को दूध, दही, घी, शक्कर और शहद से नहलाने में एक विशिष्ट सोच छिपी रहती हैं। इंसान ईश्वर की पूजा अपने जीवन में उन्नति एवं अपने किये गए अच्छे-बुरे कर्मो स छुटकारा पाने और अपने जीवन को जन्म-मरण के बंधन से मुक्त करने के लिए हैं।
इंसान अपने जीवनकाल में स्वयं की प्रगति के पथ की ओर अग्रसर होने में पांच प्रतीक बहुत ही सही राह पर ले जाने वाले हैं। हिन्दू धर्म में पंचदेव का स्थान मुख्य होता हैं, उसी तरह उन पंचदेव के प्रतिनिधित्व स्वरुप पाँच प्रतीकों के अंदर समाहित अच्छेभाव को यदि चित्त की एकाग्रता रखते हुए ईश्वर की पूजा विशुद्ध रूप के प्रयोजन करने अधिकारी बन सकते हैं। इस तरह से पूजा को करने पर ईश्वर उस पूजा को ग्रहण कर लेते हैं और अपनी अनुकृपा करके आशीर्वाद प्रदान कर देते हैं।
पंचामृत का अर्थ:-पंचामृत दो शब्दों के योग से बना हैं, जब इसका सन्धि विच्छेद करते हैं, तो एक शब्द पंच और दूसरा अमृत शब्द प्राप्त होता हैं।
पंच का अर्थ:-जिसमें पांच द्रव्य का योग होता हैं।
अमृत का अर्थ:-वह द्रव्य जिसके सेवन से दैवीय शक्तियां की प्राप्ति हो जाती हैं, उसे अमृत कहते हैं अर्थात् देवी-देवता की तरह अमरता की प्राप्ति होना।
पंचामृत क्या हैं?(what are panchamrits?):-जब पांच द्रव्यों जिनमें से तीन द्रव्य धेनु के द्वारा जैसे-दुग्ध, दधि, घृत, दो द्रव्य अलग-अलग से प्राप्त जैसे-मधुमक्खी के द्वारा पुष्पों से चूस कर मधु द्रव्य और जमीन पर उत्पन्न पर ईख को शुद्ध करके शक्कर द्रव्य को जब शास्त्रों में वर्णित उचित मात्राओं में अलग-अलग लेकर जब इनको एक-एक करके मिश्रित किया जाता हैं, जिससे जो द्रव्य का निर्माण होता हैं, उसे पंचामृत कहते हैं।
जो कि पंचदेव के प्रतिनिधित्व के रूप में पंच दैवीय शक्ति का संचार करता हैं। जिसका उपयोग देवी-देवताओं के अभिषेक करने किया जाता हैं। इस तरह पंचदेव के स्वरूप में पांच द्रव्यों के होने सभी तरह की व्याधियों का शमन करने का सामर्थ्य रखता हैं और चित्त को एकाग्रचित करते हुए उचित गति से कार्य को करने के प्रति जागृत करता हैं और सुखपूर्वक जीवन जीने के प्रति प्रेरित करता हैं। बनाया जाता हैं। जो कि आत्मा और ब्रह्म या परमात्मा के पारस्परिक संबंध के विषय में किये जाने दार्शनिक चिंतन का दृष्टिकोण भी हैं।
'पयो दधि घृतं मधु चैव च शर्करायुतम्।
पयो दधि घृतं चैव मधुशक्ररयान्वितम्।
पंचामृतं मयानीतं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
अर्थात्:-हे ईश्वर! मैं आपको धेनु से प्राप्त दूध, दही, घृत, मधु और ईख से निमित शक्कर आदि के मिश्रण से बना हुआ पाँच द्रव्यों का पंचामृत को आपके सम्पूर्ण शरीर को धोने के लिए आपको भेंट के रूप में समर्पण करता हूँ, आप इस पंचामृत को ग्रहण कीजिए।
पंचामृत के पाँच प्रतीक:-पंचामृत स्वयं के विकास के पाँच प्रतीक होते हैं, जो निम्नलिखित हैं।
1.पंचामृत का पहले भाग दुग्ध का महत्व:-पंचामृत में सबसे पहले दुग्ध का स्थान आता हैं। जिस तरह मां अपने स्तनों के दुग्ध से अपने सन्तान का पालन-पोषण करके उसके शरीर को मजबूती प्रदान करती हैं। उसी तरह पंचामृत में दुग्ध को स्थान दिया गया हैं।
◆पंचामृत स्नान का दूध उज्ज्वलता एवं श्वेता के गुण, रूप आदि का परिचय कराने के लिए प्रतिनिधित्व हैं। इसलिए पंचामृत में सबसे पहले दुग्ध से स्नान कराया जाता हैं, दुग्ध के द्वारा उज्ज्वलता एवं चमक की प्राप्ति होती हैं। जिस तरह फिटकरी गंदे जल में डालने से गंदे जल से अशुद्धियां अलग हो जाती हैं और स्वच्छ जल की प्राप्ति होती हैं, उसी तरह पंचामृत में दुग्ध का महत्त्व होता हैं।
पंचामृत के दुग्ध से शिक्षा:-निम्नलिखित शिक्षा को ग्रहण करना चाहिए।
◆दुध की तरह ही इंसान को अपने जीवन की अशुद्धियों एवं गलत विचारधारों को छोड़कर अपने जीवन एवं छवि को दुग्ध की तरह स्वच्छ बनाये रखना चाहिए।
◆इंसान को अपने आचरण एवं चाल-चलन को उसी तरह जिस तरह जो जल कर प्रकाश देता हैं उसी तरह अपने आचरण को एक दम निर्मल रखना चाहिए।
◆इंसान को अपनी शोहरत में किसी भी तरह का दाग नहीं लगने देना चाहिए और संसार में अपनी छवि को साफ-सुथरा रखनी चाहिए।
◆इंसान को अपने आचरण एवं किये जाने वाले कर्मो को एक दम पापरहित एवं बिल्कुल ठीक रखना चाहिए।
◆इंसान को अपना अंतःकरण में किसी भी तरह का दोष नहीं रखना चाहिए।
◆इंसान को अपने हृदय में किसी भी दूसरे के प्रति गलत विचारधारा को नहीं रखते हुए शुद्ध एवं अच्छी सोच को रखना चाहिए।
◆इस तरह की संस्कृति से संबंध रखने वाली एवं आत्मा एवं ब्रह्म के विषय में चिंतन-मनन की सोच सजावट वाले विभूषित की पूजा-अर्चना को ईश्वर कैसे नहीं मंजूर या कबूल करेंगे तो किसकी पूजा को मंजूर करेंगे?
◆संत, ऋषि, महापुरुष आदि मन, वाणी और कर्म से स्वच्छ एवं बिना किसी तरह के दोष से युक्त निष्कपट भावना के होने से ईश्वर के प्यारे होते हैं, उनकी पूजा को ईश्वर मंजूर भी करते हैं।
दुग्ध स्नान के समय का मंत्र:-जब ईश्वर को दुग्ध स्नान करवाया जाता हैं, उस समय निम्नोक्त मंत्र बोला जाता है:
'कामधेनोः समुद्र्भुतं देवर्षिपितृतृप्तिदम्।
पयो ददामि देवेश स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
कामधेनुसमुत्पन्नं सर्वेषां जीवनं परम्।
पावनं यज्ञहेतुश्च पयः स्नानार्थमर्पितम्।
ऊँ पयः पृथिव्यां पय औषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः।
पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्।।
ऊँ नमः। पयः स्नानं समर्पयामि।
पयः स्नानते शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि।
अर्थात्:-हे ईश्वर! मैं आपको समुद्र मंथन में अमृत प्राप्ति के समय चौदह रत्नों में से प्राप्त दैवीय शक्तियाँ से युक्त धेनु जिनके दर्शन मात्र से सभी तरह के दुःख व पीड़ा दूर हो जाती हैं, उस धेनु से उत्पन्न, देवता, ऋषि और पितरों को अपने गुण, स्वरूप के द्वारा संतुष्टि देने वाले दुग्ध आपको अर्पण करता हूँ, आप इस पवित्र एवं अमृत को स्नान के लिए अंगीकार कीजिए।
'शुद्धा हा बुद्धिः किल कामधेनुः'
अर्थात्:-पापरहित एवं निष्कलंक रहित सोचने-समझने और निश्चय करने की मानसिक शक्ति ही कामधेनु हैं, जो दैवीय शक्तियाँ से यूक्त होने से दुःख व पीड़ा का हरण करने वाली हैं।
'सर्वोपनिषदो गावो'
अर्थात्:-आत्मा, परमात्मा के आध्यात्मिक स्वरूप के बारे में विचार करने के लिए लिखे हुए वेदों के ग्रंथ जो उपनिषदों के रूप में धेनु प्रतीक हैं।
◆इस दृष्टि से आत्मा, परमात्मा के आध्यात्मिक स्वरूप के बारे में विचार करने के लिए लिखे हुए ग्रंथ उपनिषदरूपी गाय से कामधेनुरूपी पापरहित एवं निष्कलंक रहित सोचने-समझने और निश्चय करने की मानसिक दैवीय शक्तियाँ से यूक्त होने से दुःख व पीड़ा का हरण करने वाली के द्वारा निकाला हुआ मनन-चिंतन रूप के समान दुग्ध पोषण करने वाला है। इस तरह से बना हुआ दुग्धामृत ही देव, ऋषि और पितरों को अपने स्वरूप, गुण के द्वारा संतुष्टि प्रदान करने वाला हो सकता हैं।
◆समाज में निवास करने वाले प्राणियों के शरीर से व्याधियों को हर के सेहतमंद बनाने वाला हो सकता हैं।
विशेष:-जब मानव के द्वारा सोचने-समझने और निश्चय करने की मानसिक शक्ति ईश्वर के प्रति पूर्ण विश्वास भाव और श्रद्धा से यूक्त या शास्त्रों के प्रति विश्वास या भक्ति भाव की होगी तभी इंसान के जीवन में छलकपट से रहित अच्छे भाव उत्पन्न होने से दुग्ध की स्वच्छ समाज का निर्माण करेंगे।
गीतामृत के अनुसार:-जब इंसान के द्वारा वस्तुओं या विषयों के बारे में मन या विवेक के द्वारा जानकारी पाकर जल्दी ही बहुत ही मन को सुकून या तसल्ली को प्राप्त करता हैं। अर्थात् इसी अर्थ में दूध की समानता बताई गई हैं। शास्त्रों के अनुसार दूध का गिरना बुरा माना जाता है अर्थात् जब इंसान के द्वारा अपने प्राप्त ज्ञान का गलत उपयोग करने पर उसके जीवन के लिए भी हानिकारक हो जाता हैं, जिससे उसका मन भटकता रहता हैं और उचित निर्णय नहीं ले पाता हैं। फिर इंसान अपना विकास को पतन की राह पर ले जाता हैं, जिससे उसका मन दुःखी रहता हैं और उसे सुकून नहीं मिल पाता हैं।
◆ऋषियों, अवतारों और महापुरुषों द्वारा लोकव्यवहार में शरीर की चेतना शक्ति के द्वारा जीवों, प्राणियों आदि को अपनी जरूरतों और स्थितियों के अनुसार अनेक तरह की अनुभूतियों और सब बातों का परिचय कराने वाला ज्ञान जब बुरी नियत और गलत सोच के द्वारा दूसरों को मनन चिंतन की सोच रूपी दूध यदि बुरे हालात में हो जावें, बेकार चला जाय और समाज में उसकी बहुत अवहेलना हो तो उस समाज का निश्चित रूप से अपने विकास से दूर होकर नीचे की ओर गिर जाता हैं और इससे बढ़कर शुभ मुहूर्त में होने वाले कार्य में क्या बुरा हो सकता हैं?
2.दधि स्नान का महत्त्व:-जब देव को दुग्ध से स्नान करवा देते हैं, तब पंचामृत का दूसरा द्रव्य दधि होता हैं, जिसके द्वारा ईश्वर को स्नान करवाया जाता हैं। ईश्वर को स्नान करवाते समय निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।
'चन्द्रमंडलसंकाशं सर्वदेवप्रियं दधि।
स्नानार्थं ते मया दत्तं प्रीत्यर्थं प्रतिगृह्यताम्।।'
पयसस्तु समुद्भूतं मधुराम्लं शशिप्रभम्।
दद्यानितं मया देव स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
ऊँ दधिक्राव्णों अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः
सुरभि नो मुखा करत्प्रण आयूृॉषि तारिषत्।
अर्थात्:-हे ईश्वर! मैं आपको चन्द्रमा के समान स्वच्छ व रुपहला सफेद वर्ण वाला और समस्त देवताओं का जिसके प्रति पारस्परिक जुड़ाव हैं, उस दधि को सम्पूर्ण शरीर को धोने के लिए आपको भेंट के रूप में समर्पण करता हूँ, आप इस दधि को ग्रहण कीजिए।
◆दधि में चिकनापन का अनूठापन होता हैं, दूसरों को अपनी तरफ जोड़ते हुए अपने समान बनाता हैं।
◆जब अपने संबंधी के द्वारा अपने देश को या अपनी मातृभूमि को छोड़कर दूसरे देश को जाते समय दधि को खिलाया जाता हैं। दधि में जुड़ाव का प्रतीक होता हैं, जिस तरह जब इंसान अपनी जगह छोड़कर अपने निवास के सदस्यों के द्वारा दूर जाने के लिए निकलता हैं, तब दधि की तरह उन सदस्यों के बीच प्रेम या वात्सल्य या मित्रता एक-दूसरों से अलग या दूर रहते हुए भी जुड़ाव बना रहे, ऐसी सोच को उत्पन्न करने वाला होता हैं।
◆दधि देने में दूसरे को बदलने की हिम्मत होती हैं, जिस तरह दधि को जब दूसरे द्रव्य में डाला जाता हैं, तो उस द्रव्य में बदलाव कर देता हैं। उसी इंसान को भी अपने अच्छे आचरण एवं चाल-चलन के द्वारा दूसरों को अपनी तरफ खींचने सामर्थ्य होना चाहिए।
◆जब इंसान दूसरे देश को जाने के लिए निकलता हैं, तब दधि के गुणस्वरूप इंसान के सोचने-समझने और निश्चय करने की मानसिक शक्ति में यह परिवर्तक शक्ति होनी चाहिए।
◆दधि में दूसरों के साथ मिलकर अपने गुण व स्वभाव को बनाये रखने का अनूठापन होता हैं।
◆इंसान को अपने अच्छे आचरण व चाल-चलन और अपने व्यवहार को बुरे इंसान के बीच रहने पर भी नहीं छोड़ने चाहिए, यह दधि अपने गुण के द्वारा इंसान को सीख देती हैं। इस तरह इंसान को अपने जीवन काल में सभी जगह पर अपना व्यक्तित्व को बनाये रखना चाहिए।
◆इस तरह के एकाग्रता, विश्वास, तत्परता और निश्चय रखने वाले बहुत कम इंसान होते हैं, तब भी वे अपने गुणों के द्वारा संसार में बहुत बड़े बदलाव को कर सकते हैं। जिस तरह आधे मन दूध को एक चम्मच दही के द्वारा सम्पूर्ण रूप से दधि अपने में बदलने की सामर्थ्य रखती हैं, उसी तरह इंसान में गुण होने चाहिए जिससे दूसरे उसके पीछे उसका अनुसरण करें।
◆जिस तरह महाभारत का युद्ध को सौ कौरवों को हराकर पांच पांडवों ने जीता था, उसी तरह इंसान को दृढ़ता रखनी चाहिए।
◆जब इंसान अपनी गति को पूर्ण करने के बाद स्वर्ग में देवता के समान रहते हुए अपने गुणों को असभ्य या राक्षसों के बीच में जाकर भी नहीं छोड़ते हुए जीवन देने वाली ज्ञान सिद्धि को पाकर देवता होने की मर्यादा के साथ वापस लौटने वाले को उनके केश को भी नजर के सामने रखना चाहिए।
◆इंसान के द्वारा अपने में विद्यमान अच्छे सदाचार रूपी शिष्टता और अच्छे व्यवहार को दूसरों को प्रदान करते हुए उनमें इन गुणों को उतारने के प्रति प्रेरित करना होता हैं। इस तरह की सोच-समझने एवं निश्चय करने की मानसिक शक्ति को ईश्वर की चरणों में सौंप देना ही दधि स्नान के पीछे छुपा हुआ भाव होता हैं।
3.पंचामृत में घृत का महत्त्व:-जब दधि स्नान करवा दिया जाता हैं, तब तीसरे स्थान में घृत स्नान का आता हैं। ईश्वर को स्नान करवाते समय निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।
◆घृत की मुख्य खूबी या गुण इसकी चिकनाहट या चिकनापन में होता हैं।
'नवनीतसमुत्पन्नं सर्व सन्तोषकारकम्।
घृतं तुभ्यं प्रदास्यामि स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
अर्थात्:-हे ईश्वर! मैं आपको ताजा मक्खन से बनने वाला एवं तृप्ति का अहसास कराने वाले घृत को सम्पूर्ण शरीर को धोने के लिए आपको भेंट के रूप में समर्पण करता हूँ, आप इस घृत को ग्रहण कीजिए।
◆ईश्वर को घृत का स्नान कराते समय ध्यान रहना चाहिए कि घृत में चिकनाहट के भाव होना आवश्यक होता हैं।
◆घृत में चिकनापन होता हैं उसे तरह इंसान को अपने जीवन में दयालुता या सौम्यता के भाव को रखते हुए दूसरों के प्रति मित्रता और वात्सल्य यूक्त होना चाहिए।
◆जिससे इंसान के सभी के साथ प्रेम पूर्वक पारस्परिक लगाव के द्वारा जुड़ सके।
'डंद कवमे दवज सपअम इल इतमंक सवंदम'
अर्थात्:-इंसान अपने जीवन को चलाने के लिए केवल भोजन या रोटी पर नहीं जीता हैं और उसके जीवन को सही रुप चल सके इसके लिए उसे जोश एवं उत्साह को बढ़ाने के लिए संचलन क्षमता की आवश्यकता होती हैं। जीवन में उत्साह व जोश के संचलन की शक्ति चाहे माता की हो या पिता की, भाई की हो या बहन की, पति की हो या पत्नि की, मित्र की हो या स्नेह के द्वारा प्राप्त होती हो, तभी तो इंसान अपने जीवन में खिला हुआ एवं प्रसन्न रह पाता हैं और ऊंचाइयों को छूता हैं।
◆वनस्पति के पेड़-पौधों के बढ़वार के लिए भी ऊर्जा संचलन की क्षमता मददगार बनती हैं। इंसान के द्वारा पेड़-पौधों को पानी पिलाते हैं, तो उन पेड़-पौधों की बढ़वार और दृढ़तापूर्वक से अपनी स्थिति को उचित प्रकार से संभालने की शक्ति मशीन के द्वारा पानी पिलाने की तुलना में अधिक प्राप्त होती हैं और शीघ्र विकास करते हैं।
4.मधु स्नान का महत्त्व:-जब देव को घृत से स्नान करवा देते हैं, तब पंचामृत का चौथा द्रव्य मधु होता हैं, मधु के द्वारा ईश्वर को स्नान करवाया जाता हैं ।ईश्वर को स्नान करवाते समय निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।
'तरुपुष्पसमुदभुतं सुस्वादं मधुरं मधु।
तेजः पुष्टिकरं दिव्यं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।'
ऊँ मधुवाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः।
माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः।।
मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव घूं रजः।
मधु द्यौरस्तु नः पिता।।
मधुमान्नों वनस्पतिर्मेधुमॉ 2 अस्तु सूर्यः।
माधवीर्गावो भवन्तु नः।।
अर्थात्:-हे ईश्वर! मैं आपको वृक्ष या पेड़ के कुसुम के द्वारा बने हुए रस रूप को जो मीठापन लिए हुए स्वाद में दीप्ति देने वाले और पोषण, वृद्धि एवं दृढ़ीकरण करने वाला हैं, उसे आपके सम्पूर्ण शरीर को धोने के लिए आपको भेंट के रूप में समर्पण करता हूँ, आप इस मधु को ग्रहण कीजिए।
◆इंसान को मधु की तरह मीठापन से युक्त होना चाहिए। जिस तरह मधु का स्वभाव मिठास वाला होता हैं, साथ ही पोषण भी प्रदान करने वाली भी होती हैं, उसी तरह से इंसान को वाणी में मिठास रखते हुए दूसरे के प्रति लगाव एवं मदद की सोच रखनी चाहिए।
◆इंसान को अपने जीवनकाल में मुसीबतों का दृढ़तापूर्वक सामना करते हुए अपने जीवन का पोषण करना चाहिए, जिससे बल की बढ़ोतरी हो सकें।
◆मधु ताकत को बढ़ाने वाला होता हैं। उसी तरह से इंसान को अपने जीवन में पराक्रम एवं उत्साह रखते हुए कार्य को पूर्ण करना चाहिए।
◆इंसान को अपना जीवन को अपनी सोच-समझ एवं योग्यता से युक्त बनाना चाहिए।
◆इंसान का जीवन में दृढ़ता रहेगी, तभी तो कलियुग में विद्यमान आसुरी शक्ति वाली भीषण एवं डरावनी आकृति से युक्त ऊर्जा जो चित्त में हलचल मचाती हैं, उससे दूर करते हुए अपने जीवन को ऊंचाई की तरफ अग्रसर कर सकते हैं।
◆श्रीमद् वल्लभाचार्य के अनुसार इंसान के द्वारा ईश्वर की भक्ति के प्रति श्रद्धा और विश्वास भाव को दृढ़ता पूर्वक रखते हैं, तब ही ईश्वर और ईश्वर के चरणों की सेवा करने का सुख प्राप्त हो पायेगा।
5.शर्करास्नान का महत्त्व:-जब देव को मधु से स्नान करवा देते हैं, तब पंचामृत का पांचवां अन्तिम द्रव्य शर्करा होती हैं, जिसके द्वारा ईश्वर को स्नान करवाया जाता हैं। ईश्वर को स्नान करवाते समय निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।
'ईक्षुसारसमुद्र्भुता शर्करा पुष्टिकारिका।
मलापहारिका दिव्या स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।'
ऊँ अपा घूं रसमुद्वयसॉ सूर्ये सन्त घूं समाहितम्।
अपा घूं रसस्य यो रसस्तं वो गृहणाम्युत्तममुपयाम
गृहितोSसीन्द्राय त्वां जुष्टं गृहणाम्येष ते
योनिरिन्द्राय त्वा जुष्टतमम्।।
अर्थात्:-हे ईश्वर! मैं आपको ईख आदि के रस से बना मीठा चूर्ण को जो पोषण, वृद्धि एवं दृढ़ीकरण करने वाला और मीठापन लिए हुए आपके सम्पूर्ण शरीर को धोने के लिए आपको भेंट के रूप में समर्पण करता हूँ, आप इस शर्करा को ग्रहण कीजिए अर्पण द्वारा बनाई हुई।
◆ईख से बनी हुई शक्कर जिस तरह पानी में घुलकर उसमें मिल जाती हैं और अपना मीठेपन को उस जल में डाल देती हैं, उसी तरह इंसान को अपनी वाणी के द्वारा सभी जगह पर मिठास से बोलना चाहिए।
◆जिस तरह शक्कर बलवर्धक एवं पोषम करने वाली होती हैं, उसी तरह इंसान को दूसरे के साथ अपनत्व की भावना रखते हुए उनकी मदद करनी चाहिए।
◆इंसान को शक्कर की तरह अपनी वाणी के द्वारा कर्णप्रिय मीठे एवं कटुता रहितं वचनों को बोलना चाहिए। इसलिए इंसान को अपने सम्पूर्ण जीवन काल में कटुता रहित मीठी वाणी के द्वारा शब्दों बोलना चाहिए, जिससे सुनने वाले को प्रिय लगे। जब तक जीवन में इंसान मिठास रखता हैं, तब तक उसका जीवन सही राह पर होता हैं।
◆इंसान को शांत एवं स्थिर चित्त रखते हुए दृढ़ भाव रखना चाहिए।
पंचामृत का इंसान या मानव के जीवन में महत्व (Importance of Panchamrit in the life of a human being):-को निम्नलिखित रूप से जान सकते हैं।
'प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता।।'
अर्थात्:-जब कोई भी इंसान किसी दूसरे इंसान के विषय में अपनी वाणी से उसकी प्रशंसा करते हैं, अगले वाले इंसान को बहुत अच्छा लगता हैं। इस तरह समस्त जगत में सभी मनुष्यों के प्रति मीठी वाणी से आत्मीय भाव रखते हुए बोला जाता हैं, सभी को अलौकिक खुशी का अनुभव महसूस करते हैं। इस तरह से आत्मीय भाव से वाणी के द्वारा बोलने में अभाव ग्रस्तता किसलिए? लेकिन जब इंसान के जीवन में मिठास नहीं होगी तो वाणी के कटुता रहित बोली जिहजुरी बन जाएगी और झूठी बड़ाई मिठास से पूर्ण नाशक पदार्थ के समान है, जो पिलाने वाले और पीने वाले दोनों को नाश के रास्ते पर ले जाता हैं।
◆जब इंसान के व्यवहार में छल-कपट एवं यथार्थ कथन के भाव दूसरे इंसान को अप्रिय या बुरा लगने वाले होते हैं, जब इस तरह के कथन कहने वाले इंसान के जीवन में मधुरता होती हैं, तब उस इंसान के द्वारा दूसरे इंसान को कष्टकारी बात कहने पर भी वह इंसान उसके लिए कड़वा नहीं बनता हैं।
◆हिन्दू धर्म में संतों, ऋषि-मुनियों और भक्तों ने अपने ज्ञान के अनुभव के द्वारा मनुष्यों को ज्ञान देने के उद्देश्य से बहुत ही बुरा लगने वाले वचन या बातें को अक्षरों के द्वारा कागज के पन्ने आदि में उतारे हैं, लेकिन संतो, ऋषि-मुनियों के द्वारा वचन या बातें अप्रिय भाव की होते हुए भी इंसानों को कर्णप्रिय ही रहे हैं।
◆जब जीभ के स्वाद को अरुचिकर कसैलापन लिए औषधि को माँ ही पिलाती हैं। इस तरह महिमाशाली महात्मा और ऋषि-मुनि ही समाज की उन्नति के लिए अप्रिय बातों को कह सकते हैं।
◆जब ईश्वर को शर्करा के द्वारा स्नान कराते समय ऐसी श्रेष्ठता को प्राप्त करने का उद्देश्य इंसान का होना चाहिए।
◆जब दुग्ध में शक्कर को डाला जाता हैं, तब दोनों वस्तु या चीजों का वजूद अलग-अलग होता हैं, जिसमें शक्कर अपना वजूद को मिटाकर दुग्ध के वजूद में ढल कर अपनी मिठास को उत्पन्न कर देती हैं।
◆जब समस्त जगत में विद्यमान समाज के उद्धार के लिए ऋषि-मुनि एवं श्रेष्ठ पुरुष अपने वजूद को खतरे में डाल देते हैं, अपनी वाणी की मिठास के द्वारा समाज के विकास एवं समाज में धर्म व निति के विरुद्ध किये जा रहे आचरणों को दूर करने की कोशिश करते रहते हैं।
◆यदि शक्कर दुग्ध के अन्दर डालने पर उस दूध में नहीं घुलती हैं, तब दुग्ध स्वाद से हीन रह जाता हैं।
◆जब इंसान के मन में अपने आपको सबकुछ समझने की सोच खत्म नहीं होगी, तो इंसान ईश्वर की भक्ति सही रूप से नहीं कर पायेगा और उसका जीवन बिना वजूद के ही रह जाएगा।
◆पंचामृत के द्वारा ईश्वर को स्नान इंसान के द्वारा करवाया जाता हैं, तब इंसान का ईश्वर के प्रति विश्वास एवं श्रद्धा भाव प्रकट होता हैं और उस अर्पित पंचामृत के अंदर छिपे हुए मर्म को समझकर जब इंसान उस पंचामृत का पान करता हैं, तब उस इंसान में संचरित ऊर्जा में बढ़ोतरी होती हैं।
पंचामृत के लाभ(Benefits of Panchamrit):-पंचामृत के द्वारा ईश्वर का स्नान के बाद प्रसाद के रूप ग्रहण करने से निम्नलिखित लाभ प्राप्त होते हैं।
◆जब इंसान के द्वारा ईश्वर को अर्पण किये हुए पंचामृत का इस्तेमाल किया जाता हैं, तो उस पंचामृत में विद्यमान दैवीय शक्ति या ऊर्जा से इंसान का शरीर पोषण से यूक्त होकर दृढ़ता वाला हो जाता हैं।
◆पंचामृत के इस्तेमाल करने से शरीर पर अपना घर करने वाली व्याधियां दूर हो जाती हैं, जिससे शरीर तंदुरुस्त रहता हैं।
◆पंचामृत के द्वारा ईश्वर को जिस तरह स्नान करवाया जाता हैं, उसी मात्रा में बने हुए पंचामृत से जब इंसान अपने समस्त शरीर के अंगों को धोता हैं, तब उसको आंतरिक प्रसन्नता तथा स्वास्थ्य से बढ़ा-चढ़ा शारीरिक सौंदर्य की बढ़ोतरी होती हैं।
◆पंचामृत के सेवन करने से उसके देह की चमक बढ़ती हैं।
◆पंचामृत के सेवन से इंसान के अंदर व्याप्त बुरे विकार दूर होकर एकदम निर्मलता के भाव उत्पन्न हो जाते हैं।
◆इंसान के मन में पंचामृत के सेवन से अच्छे विचारों की उत्पत्ति होने लगती हैं।
◆इंसान के मन में तेल या घृत की चिकनाहट की तरह बहाव के गुण इंसान के जीवन में निरन्तर दयालुता एवं सौम्यता के भाव उत्पन्न हो जाते हैं।
◆दूध के द्रव्य के द्वारा इंसान का शरीर पोषण वाला होकर मजबूत बनता हैं।
◆दूध का जब इंसान सेवन करता हैं, तो उसके शरीर में एकत्रित हानिकारक बैचेनी एवं पीड़ा पहुंचाने वाले नाशक पदार्थ का नाश हो जाता हैं।
◆इंसान का चित्त एक जगह पर स्थिर रहते हुए अपने जीवन काल में सही निर्णय ले पाते हैं।
◆दधि द्रव्य के सेवन से इंसान के शरीर में भोज्य पदार्थों का उचित रूप से पाचन क्रिया हो पाती हैं।
◆इंसान के शरीर में उत्साह बढ़ाते हैं, जिससे इंसान पूरे जोश से किसी भी कार्य को करने के लिए जागृत हो पाते हैं।
◆इंसान का दिमाग सही रूप से कार्य करता हैं और शरीर में ऊर्जा का संचार होने लगता हैं।
◆इंसान के चेहरे एवं चर्म पर अलग ही तरह की शोभा दिखाई देती हैं, जिससे दूसरा उनके प्रति जुड़ता हैं।
◆घृत द्रव्य के सेवन करने से शरीर को ताकत मिलती हैं, जिससे इंसान किसी भी कार्य को करते समय अपना पूरा जोश लगाकर कार्य को पूर्ण करते हैं।
◆इंसान के शरीर का मुख्य आधार अस्थियां होती हैं, जिन पर पूरे शरीर का ढांचा टिका रहता हैं, उस ढांचे में मजबूती घृत के द्वारा मिलती हैं।
◆मधु द्रव्य के सेवन से इंसान के शरीर से अनावश्यक मेद धातु का क्षय होने लगता हैं।
◆इंसान के परिवार-कुटुंब के सदस्यों के बीच पारस्परिक लगाव बढ़ता हैं।
◆इंसान के जीवन को उन्नति की राह पर ले जाने वाली ऊर्जा में बढ़ोतरी होती हैं।
◆शक्कर द्रव्य के सेवन से इंसान अपनी वाणी के द्वारा दूसरे के साथ मधुरता से बोलता हैं, जिससे एक-दूसरे के प्रति आत्मीय भाव बढ़ता हैं।
◆इंसान अपने पूरे दिन की व्यस्तता के बाद अपने शरीर को आराम देने के लिए बिस्तर पर सोता हैं, तब उसे निंद्रा पूर्ण रूप से आ जाती हैं, जिससे उसकी थकावट दूर होकर दूसरे दिन फिर उसके शरीर में जोश का संचार हो जाता हैं।
◆इंसान को उचित प्रकार से किसी भी वस्तु को देखने में उसके चक्षु उचित तरह से कार्य करते हैं।
पंचामृत के विषय में सावधानियां:-पंचामृत के विषय में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखते हुए सावधानियां रखनी चाहिए।
◆पंचामृत का सेवन प्रातःकाल जब ईश्वर की पूजा-अर्चना कर ली जाती हैं, उस समय पेट खाली रहता हैं।
◆पंचामृत बनाते समय साफ-सफाई का ध्यान रखना चाहिए।
◆पंचामृत को बनाते समय जो द्रव्यों या वस्तुओं की मात्रा शास्त्रों में वर्णित हैं, उसी मात्रा को ध्यान में रखते हुए बनाना चाहिए।
◆पंचामृत बनाने के समय तुलसी के पल्लव को भी शामिल करना चाहिए।
◆पंचामृत बनाते समय विशेषरूप से ध्यान रखना चाहिए कि पंचामृत के पांच द्रव्यों को मिश्रित करते समय उनमें से कोई भी द्रव्य की बूंदें जमीन के ऊपर नहीं घिरनी चाहिए।
◆पंचामृत स्नान के बाद और भोग अर्पण करने के बाद प्रसाद के रूप में ग्रहण करते समय अपने एक हाथ की हथेली की को दूसरे हाथ की हथेली पर रखकर लेना चाहिए।
◆जब पंचामृत को सेवन कर लिया जाता हैं, तब अपने दोनों हाथों को सिर पर फेरना चाहिए और अपने सिर पर रखी हुई चुटिया को छूना चाहिए।
◆पंचामृत बनाते समय धेनु से बनी हुई द्रव्यों जैसे-दूध, दही, घृत आदि को ही इस्तेमाल करना चाहिए।
◆पंचामृत को दो समय तैयार करना चाहिए, एक समय प्रातःकाल की पूजा का होता हैं और दूसरा सूर्य के अस्त होने से पहले का होता हैं।
◆पंचामृत को बनाते समय पवित्र नदियों का जल जैसे-यमुना, सरस्वती, गोदावरी, गंगा आदि का इस्तेमाल करना चाहिए।
पंचामृत की किताब:-पंचामृत विषय पर संतोष गर्ग ने अपनी मधुर वाणी से शब्दों को किताब के पन्नों में पिरोकर रचना की हैं।
पंचामृत बनाने के लिए पात्र:-पंचामृत को बनाते समय रजत धातु या पीतल या स्टील धातु से बने हुए पत्रों का इस्तेमाल करना चाहिए।
◆पंचामृत बनाते समय भूलवश भी ताम्र धातु से बने हुए पात्र का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।
पंचामृत बनाने की वस्तुओं या द्रव्यों की उचित मात्रा कितनी हो?:-हिन्दू धर्म शास्त्रों में पंचामृत को बनाते समय सबसे दुग्ध की मात्रा एक भाग, दुग्ध से आधा भाग दधि, दधि से आधा भाग शक्कर, शक्कर से आधा भाग घृत और घृत से आधा भाग मधु को लेना चाहिए।
अर्थात्:-मधु से दो गुना भाग घृत, घृत से दो गुना भाग शक्कर, शक्कर से दो गुना भाग दधि, एवं दधि स्व दो गुना भाग दुग्ध को लेकर मिलना चाहिए। फिर उस बने हुए पंचामृत में तुलसीदल को भी डालना चाहिए। लेकिन ध्यान रखना चाहिए कि अमुक-देवी-देवताओं को तुलसीदल नहीं अर्पण किया जाता हैं।
पंचामृत बनाने की विधि:-यदि किसी को पंचामृत बनाना हैं, सबसे पहले स्टील या रजत या पीतल का पात्र लेकर उसमें 100 मिली लीटर दुग्ध को डालना, उसके बाद में 50 मिली लीटर दधि को डालकर मिश्रित करना चाहिए, फिर शक्कर 25 मिली लीटर को लेकर उन दोनों के साथ मिलाना, फिर 12.5 मिली लीटर घृत को लेकर तीनों के साथ मिलाना और आखिर में मधु को 6.25 मिली लीटर की मात्रा में लेकर चारों के साथ अच्छी तरह से मिलाना चाहिए, फिर उसमें तुलसीदल को मिला देना चाहिए। इस तरह से अमृत रूपी पंचामृत तैयार होता हैं।