Breaking

Monday, January 23, 2023

शनि की साढ़ेसाती और ढैय्या का ज्योतिषीय विश्लेषण

शनि की साढ़ेसाती और ढैय्या का ज्योतिषीय विश्लेषण (Astrological analysis of Shani's Sade Sati and Dhaiya):-नवग्रहों में सबसे ज्यादा कम गति से धीरे चलने वाला शनि ग्रह होता हैं। शनैः शनैः अर्थात् बहुत ही धीरे-धीरे अपनी चाल से चलने वाले होने से इसे 'शनिश्चर' या 'शनैःचर' (Saturn) कहा जाता है। शनि सूर्य के चारों ओर अपनी गति से घूमता हुआ बारह राशियों को पार करने में दस हजार आठ सौ बत्तीस दशलमव तीन सौ सत्ताईस दिन (10832.327) दिन या उनत्तीस दशलमव छः सौ सत्तावन वर्ष (29.657 वर्ष) के समय को लेते हैं। अतः शनि का एक राशि में औसत घूमने-फिरने का समय दो दशलमव सैंतालीस हजार एक सौ बयालीस (2.47142) या दो साल पांच महीने उन्नीस दिन (2 वर्ष 5 माह 19 दिन) सतहरा घंटे दो दशलमव चार मिनट (17 घंटे 2.4) मिनट होता है, जिसे सामान्यतः ढाई वर्ष मान लिया जाता है।




राहु 'लोक अभियोजक':-अर्थात् विधि विरुद्ध या दंड पाने योग्य गुनाह के निपटारे के लिए उचित एवं विधि-विहित ढंग में साधारण लोगों की भलाई करने का जरिया माना गया हैं या public prosecutor है। राहु जातक के पिछले जन्म में किये गये अच्छे-बुरे आचरणों के कर्मों की स्थिति का आकलन या हिसाब-किताब को उचित रुप से जानने वाले एवं उस गुनाह की सजा देने वाले दण्डनायक के सामने पेश करता हैं।

 




Astrological analysis of Shani's Sade Sati and Dhaiya





शनि 'दण्डनायक' (Magistrate):-शनि जातक को उसके द्वारा किये गये अच्छे-बुरे कर्मों को ध्यान रखते हुए उचित एवं समझदारी से सही सजा देते हैं, इसीलिए शनि को न्यायाधीश या सजा देने वाला कहा जाता हैं। शनि जातक को उसके कर्मों के अनुसार सजा देने के लिए उसकी जन्म राशि में प्रवेश करता हैं और अपनी साढ़ेसाती या ढैया के द्वारा उसे सजा देता हैं, जब जातक शनि की साढ़ेसाती या ढैया रुपी सजा को भोग लेता हैं, तब उसके द्वारा किये गये धर्म एवं नीति के विरुद्ध आचरणों से मुक्ति मिल जाती हैं। जिस तरह अशुद्ध स्वर्ण धातु को अग्नि के द्वारा तपाकर हथौड़े के द्वारा कूटा-पीटा जाता हैं, जितना उस स्वर्ण धातु को अग्नि में तपाया जाता हैं, तो उसमें उतनी ही चमक या शुद्धता आती हैं, उसी तरह शनि की साढ़ेसाती या ढैया की दशा भोगने पर जातक निर्मलता आती हैं। 



शनि परिचय:-पुराणों में शनि को सूर्यपुत्र कहा गया है। किन्तु पिता-पुत्र एक-दूसरे के साथ दुश्मनी का भाव रखते हैं अर्थात् पिता-पुत्र के बीच मतभेद रहता हैं और यम के भाई हैं। शनि कृष्ण वर्ण होते हैं और शरीर से दुबले-पतले एवं एक टांग से लँगड़े होने से बहुत ही धीमी गति चलते हैं। सूर्य और उसकी परिक्रमा करने वाले ग्रहों में सबसे ज्यादा भयानक एवं असह्य असर प्रदान करने वाले अहितकारी ग्रह माना गया है। जिस तरह से यह शरीर से सीधे नहीं होकर वक्र हैं, वैसे ही इनका चाल-चलन एवं स्वभाव से कुटिल हैं।

 

ज्योतिष के जानकार विद्वानों के अनुसार शनि के गुणों के आधार पर बृहस्पति के बाद दूसरा बड़ा ग्रह शनि को मानते हैं। इक्कीस आकाशीय पिंड शनि के चारों ओर अपनी परिक्रमा करते हैं, जिससे शनि अकेले स्वयं इक्कीस आकाशीय पिंडों का स्वामी हैं। जिस प्रकार दूसरे ग्रह सूर्य के चारों ओर अपनी गति से घूमते हुए अपना चक्कर पूर्ण करते हैं, उसी तरह मन्द सूर्य के चारों ओर अपनी गति से अपनी परिक्रमा पूर्ण करते हैं। यह पैरों से कमजोर होने के कारण यह अपनी गति के द्वारा अपना एक चक्कर को पूर्ण करने में तीस वर्ष का समय लेते हैं और यह अपने अक्ष पर दस घंटे चौदह मिनट में एक बार चक्कर लगाते हैं। यद्यपि शनि अपने स्वभाव से सबसे ज्यादा भयानक एवं असह्य असर प्रदान करने वाले अहितकारी ग्रह माना गया है।



जब जन्मकुण्डली में शनि अपनी तुला उच्च राशि में बैठा होता हैं, तब संदेह उत्पन्न करने के हालात हो जाते हैं। जब जन्मकुण्डली में शनि अपनी तुला उच्च राशि में बैठा होता हैं, तब जातक स्त्री-पुरुष बड़ी उम्र वाले बन जाते हैं, रुपये-पैसों एवं अनाज से भरा-पूरा बन जाता हैं और इज्जत-शौहरत को भी प्रदान कराने में सहायक होता हैं। 



जब जन्मकुण्डली में शनि अपनी मेष नीच राशि या विपरीत स्थान में बैठा होता हैं, तब जातक स्त्री-पुरुष को रुपये-पैसों एवं धान्य आदि के लिए तरसा देता है और दूसरों की गुलामी करने के लिए पहुंचा देता हैं। 

 

जब किसी भी जन्मकुण्डली पर अपनी निगाह डालते है, तो उनकी निगाह ढाई वर्ष से लेकर साढ़े सात वर्ष तक लगी रहती हैं। इस समय के बीच में सम्पूर्ण जगत की धन-संपत्ति एवं वैभव को सब तरह नष्ट कर देते हैं।


◆नवग्रह समुदाय में शनि का स्थान पश्चिम होने से पश्चिम दिशा के मालिक ग्रह हैं।


◆शिशिर ऋतु पर शनि का पूरी तरह से अधिकार माना गया है।


◆लौह धातु से इनको बहुत ही ज्यादा लगाव होता हैं। इसी कारण है प्रायः मनुष्य लौह धातु शनिवार के दिन नहीं खरीदते और नहीं बेचते।


◆जन्मकुण्डली के छठे, आठवें, दसवें और बारहवें घरों पर शनि की विशेष कृपा या प्रभाव रहता है।



◆जब सूर्य दक्षिणायन में हो उस समय की कृष्ण पक्ष की रात्रि में शनि अधिक शक्तिशाली हो उठते हैं।



◆शनि कुंभ व मकर राशियों के स्वामी ग्रह हैं। 


◆मेष राशि में शनि नीच स्थान एवं शत्रु राशि पर होते हैं।


◆जबकि तुला राशि में उच्च स्थान एवं मित्र राशि पर माना गया है।


◆शुक्र ग्रह की राशियां जैसे-वृषभ, तुला बुध ग्रह की राशियां जैसे-मिथुन, कन्या राशि शनिदेव की प्रिय राशियां है।


◆मंगल ग्रह की राशियां जैसे-मेष, वृश्चिक राशि में होने पर शनि शत्रु रखते हुए पीड़ा देते हैं।


◆गुरु ग्रह की राशियां जैसे-धनु और मीन राशि में होने पर समभाव रखते हुए विकृतियों में कमी करते हैं।



शनि का प्रभाव:-शनि का प्रभाव निम्नलिखित क्षेत्रों में होता हैं।


शनि साढ़ेसाती, ढैय्या एवं दशा के प्रभाव कब कष्टदायी होती हैं?


शनि से सम्बंधित व्यवसाय:-शनि से सम्बंधित जीविकनिर्वाह के पेशे जैसे-लौह धातु से बने समान या वस्तुएं, खनिज पदार्थ जैसे-लोहा, सीसे आदि के कारखाना, कृष्ण वर्ण की वस्तुएं से सम्बंधित जैसे-काले कपड़े, उड़द की दाल, कोयला आदि, कृष्ण वर्ण के जीवधारी पशु, सूखा पड़ना, जनता के जान-माल और शांति की रक्षा की व्यवस्था करने वाले सरकारी महकमा जैसे-पुलिस आदि, किसी अपराध की सजा के लिए बंधक के रूप में बंदीगृह, चर्मकार, लोहार, यंत्रों याद्वि की मरम्मत करने का धंधा, गाड़ी या वाहन चलाने वाले ड्राइवर, रोगन वाणिज्य कार्य, जीविकनिर्वाह करने वाले, अदालतों में विवादों का निपटारा करने वाले न्यायाधीश, लकड़ी के कार्य करने वाले बढ़ई, वस्तुओं के उत्पादन की जगह, दूसरों की वस्तु या धन को छिपकर लूटपाट करने का काम, न्यायालय में गया हुआ विवादास्पद विषय, सजा के रूप में या स्वयं अपने गले को रस्सी के फंदे में अपने गले को फंसाकर दम घोटना, चोरी से सीमापार माल को ले जाने वाले तस्कर, गुप्त रूप से किसी वस्तु या बात की मुखबिरी करने का कार्य, ऋण चुकाने में असमर्थ होने से कंगाल होना, राज की ओर से सजा मिलना, अपने पद या कार्य से मुक्त होने के लिए दिए जाने वाले इस्तीफा, किसी को मारने के काम, शरीर पर आघात का डर, हार-जीत का खेल, बाजार की तेजी-मंदी के अनुमान के आधार पर अधिक फायदे के लिए की गई खरीद-फरोख्त, ईनामी योजना के रूप में लॉटरी, और दूसरों को कष्ट पहुँचाने वाले काम, नफा-नुकसान, दुश्मनी, जीविकनिर्वाह के धन्धे, राजकीय फायदे आदि शनि स्वामी या कारक माने जाते हैं।



व्याधियों का डर जैसे-गुर्दे की खराबी, पैरों में विकृति,  संभोग क्रिया में अक्षम, अशुभ या बुरे अनहोनी, हादसे शरीर की त्वचा का सड़ना-गलने का कोढ़, कमर की कशेरुका में दर्द, वात विकार जैसे-गठिया और जो किसी सत्ता आदि का विचार शनि से किया जाता है। 



शनि की वस्तुएं जैसे-नीलम, कोयला, लोहा काली दालें, सरसों का तेल, नीला कपड़ा, चमड़ा आदि हैं। यह कहा जा सकता है कि चन्द्र मन का कारक हैं तथा शनि बल या दबाव डालता है।


शनि से द्वेष के कारण किसी के प्रति होने वाली बुरी सोच, नाराजगी, विवाद, लम्बे समय तक चलने वाली व्याधि, तिरस्कार, फटकार, कार्यों में नाकामयाबी, तकलीफे, रिश्तों के बीच में मधुरता नष्ट होना और किसी भी क्षेत्र उम्मीद खत्म होना आदि के बारे सोचा जाता हैं।


मनुष्य के जीवनकाल, शरीर से प्राण निकलने आदि के बारे में भी शनि के द्वारा ही विचार किया जाता हैं।



शनि का असर वाले मनुष्य प्रत्येक विषय या बात में शक करने वाले स्वभाव के, दूसरों के साथ अपने फायदे निकालने के लिए धोखे देने वाले, सोच-समझकर एवं सलीके से कम करने वाले, दगा देने वाले और अपने मन में चलनी वाली बातों को नहीं बताने वाले होते हैं।



कम बोलने वाले एवं हँसी-मजाक से दूर रहने वाले, किसी विषय में बहुत गहराई से सोचने वाले, जीविका निर्वाह के बड़े-बड़े पेशे की रचना करने वाले, थोड़े खर्च करने वाले, पीड़ा आदि सहन करने की क्षमता वाले, बिना किसी बंधन में रहने वाले एवं इच्छानुसार कार्य करने के प्रेमी, नई-नई खोज को करने वाले, सबसे अलग रहने वाले, आकाश-मंडल और पदार्थों में पाए जाने वाले तत्वों का वैज्ञानिक अध्ययन करने रुचाय रखने वाले और रुतबा प्रिय होते हैं।





जैमिनी ऋषि के अनुसार:-वर्तमान युग (कलयुग) जो एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ और धर्म एवं नीति के विरुद्ध अनैतिक कार्यों का है, उस युग में शनि का असर सबसे ज्यादा रहता हैं और अपने द्वारा न्याय भी करते हैं। शनि ग्रह सभी को एक समान समझते हुए उनके साथ एक भाव से अडिग रूप से न्याय के लिए टिके रहने वाले का प्रतीक हैं। जो अपने कार्य को पूर्ण रूप पूरी तरह से अपनी योग्यता के अनुसार निभाने वाले, संयमित रूप से गहनता के साथ विचारशील, एक जगह पर अपने चित्त को रखने वाले और गुण-दोष आदि की विवेचना करना आदि शनि के प्रभाव क्षेत्र में आते हैं। शनि संकट आदि को सहन करने की स्वाभाविक क्षमता को रखने वाले, एक ही जगह पर कायम रहने वाले, राग रहित और प्रगाढ़ रूप आदि स्वभाव की तरफ झुकाव वाले होते हैं। उनमें हर्ष, खुशी, प्रफुल्लता या अलौकिक खुशी का अनुभव आदि उनके स्वभाव में नहीं होता हैं।
 


भगवान शंकर ने शनि को अच्छे-बुरे कर्मों को ध्यान रखते हुए उचित एवं समझदारी से सही सजा देने के लिए उनके गुणों के आधार पर शनि को न्यायधीश या सजा देने वाला या दंडाधिकारी घोषित कर रखा है। यम की तरह शनि को माना जाता हैं।  


अतः शनि के द्वारा जीवन में पाये गए तकलीफे और संकट के समय किसी दूसरों का साथ नहीं मिलना आदि जीवन के बुरे एवं कड़वे प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा सबक एवं सांसारिक बन्धन के प्रति झुकाव का नाश करने वाला होता हैं। संसार की वास्तविकता के बारे में जानकारी प्रदान करने शनि की अहम भूमिका होती हैं। 




अतः स्त्री-पुरुषों को शनि महिमा की जानकारी प्राप्त होने पर उनका आशीर्वाद पाने हेतु उनकी पूजा-अर्चना एवं शनिवार का व्रत करना चाहिए। जो आदमी-औरतें विधि-विधानपूर्वक शनिवार का व्रत करते हैं, शनि व्रत के प्रभाव वश उनके मन में उत्पन्न हुए बुरे विकार, बीमारियां, आत्मीय दुःख से उपजी संवेदना आदि समाप्त हो जाती हैं और सभी तरह के आराम-ऐश्वर्य, तंदुरुस्ती और अपनी काबिलियत की बढ़ोतरी होने लग जाती हैं। 






शनि की दृष्टि:-जन्मकुण्डली में शनि जिस राशि या स्थान में बैठा होता हैं, उस स्थान से तीसरी, सातवीं और दशवें स्थान को अपनी पूरी निगाह से देखते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनि जिस जगह पर बैठे होते हैं, उस स्थान पर बुरा असर नहीं डालते हैं, लेकिन जिस स्थान को अपनी निगाह से देखते हैं, उस स्थान के कारकतत्वों को अपने असर में लेकर नुकसान करते हैं। वास्तविकता में यह ध्यान देना भी जरूरी होता हैं की शनि जिस घर में बैठे हैं या जिस घर को देख रहे हैं, वह घर मित्र ग्रह का हैं या दुश्मन ग्रह का हैं।  


साढ़ेसाती और ढैय्या का विचार हमेशा राशि से:-जन्म कुण्डली या नाम राशि में जिस राशि में चन्द्रमा बैठा होता है, उस राशि से शनि के बैठने की जगह को गिनने के आधार पर साढ़ेसाती और ढैय्या देखी जाती है।



शनि की साढ़ेसाती के आरम्भ के बारे में बहुत सारे चिंतन के तरीकों के द्वारा संदेह होता हैं वहीं शनि के द्वारा होने वाले असर पर भी मन में तरह-तरह के संदेह बनावटी सोच के रूप में मूल बनावट के बारे में सन्देह रहता हैं। जगत में उत्पन्न सभी आम व्यक्ति के मन में बहुत सारे सन्देह समाये हुए हैं कि शनि किसी भी प्राण युक्त शरीर वाले को बिना किसी जुर्म के सजा नहीं देते हैं।



आम जन के मन में संदेह होता हैं कि जब शनि की साढ़ेसाती या ढैय्या शुरू हो गयी तो जीवन में सभी क्षेत्रों में पीड़ा और तकलीफों की शुरुआत भी होने वाली हैं। शनि की दशा की शुरुआत के नाम मात्र से डर जाते हैं। लेकिन शनि की दशा का प्रभाव द्वादश राशियों के मनुष्यों पर जुदा-जुदा होता हैं।



साढ़ेसाती का तात्पर्य (Meaning of Saadhesaati):-जब किसी भी मनुष्य के जन्म के समय जो लग्न कुण्डली बनती हैं, उस लग्न कुण्डली में जहाँ जिस भाव में जो राशि होती हैं, वही उस मनुष्य की जन्म राशि होती हैं या चन्द्र लग्न कुण्डली से एक राशि पहले (द्वादश) चन्द्रलग्न में तथा चन्द्रलग्न से एक राशि बाद (द्वितीय) में जब शनि अपनी गति से चलता हुआ प्रवेश करता हैं, तब सबसे ज्यादा तकलीफ देने वाला होता हैं। शनि एक राशि में औसतन ढाई वर्ष तक रहता हैं। इस तरह ढाई वर्ष के हिसाब से तीन राशियों में 3×2 1/2=7 1/2 वर्ष तक के समय रहता हैं, तब उस साढ़े सात वर्ष के समय अवधि शनि की 'साढ़ेसाती' कहलाती है। 

एक राशि पर शनि ढ़ाई वर्ष रहता है। जब शनि जन्म राशि से 12, 1, 2 स्थानों में हो तो साढ़ेसाती होती हैं। यह साढ़े सात वर्ष तक चलती है, अतएव इसे शनि की साढ़ेसाती कहते हैं। यह समय प्रायः कष्टदायक होता है। यथा-शनि गोचर से बारहवें स्थान पर हो तो सिर पर, जन्म राशि में हो तो हृदय पर, द्वितीय में हो तो पैर पर उतरता हुआ अपना प्रभाव डालता है।



जन्म राशि से शनि चतुर्थ, अष्टम हो तो ढैया होती हैं, जो ढाई वर्ष चलती हैं। यह भी जातक के लिये कष्टकारी होती है।



शनि के साढ़े सात वर्षों को चरणों के आधार पर विभाजन:-निम्नलिखित प्रकार से किया जाता हैं:


पहले ढाई वर्ष में शनि का समय एवं शरीर अंग पर प्रभाव:-जब मनुष्य के चन्द्र लग्न से बारहवें घर में शनि अपनी गति से चलते हुए प्रवेश करता हैं, ढाई वर्ष का समय साढ़ेसाती का प्रथम चरण शुरू हो जाता हैं, जो कि इंसान के सिर पर साढ़ेसाती के रूप में रहता हैं।




दूसरे ढाई वर्ष में शनि का समय एवं शरीर अंग पर प्रभाव:-जब मनुष्य के चन्द्र लग्न में शनि अपनी गति से चलते हुए प्रवेश करता हैं, ढाई वर्ष का समय साढ़ेसाती का दूसरा चरण शुरू हो जाता हैं, जो कि इंसान के हृदय या छाती पर साढ़ेसाती के रूप में रहता हैं।



तीसरे ढाई वर्ष में शनि का समय एवं शरीर अंग पर प्रभाव:-जब मनुष्य के चन्द्र लग्न से दूसरे घर में शनि अपनी गति से चलते हुए प्रवेश करता हैं, ढाई वर्ष का समय साढ़ेसाती का तीसरा चरण शुरू हो जाता हैं, जो कि इंसान के पैरों पर साढ़ेसाती के रूप में रहता हैं।




इस प्रकार पहले चरण के ढाई वर्षों (सिर पर)+दूसरे चरण के ढाई वर्षों (छाती पर)+तीसरे चरण के ढाई वर्षों (पैरों पर)=साढ़ेसात वर्ष की अवधि तक शनि इंसान के शरीर अंगों को अपने प्रभाव में लेता हैं, तब वह 'साढ़ेसाती' कहलाती हैं। इसे 'पनौती' भी कहा जाता हैं।




इंसान के सम्पूर्ण जीवन में साढ़े साती का चक्र की पुनरावृत्ति का समय:-शनि अपनी गति से चलते हुए एक राशि में ढाई वर्ष तक रहते हुए बारह राशियों में अपना सफर को पूर्ण करने में तीस वर्ष लगा देता हैं। इस तरह एक राशि के इंसान में एक साढ़ेसाती  पूर्ण होने के बाद दोबारा साढ़े साती आने में तीस वर्ष का समय लगता हैं। किसी भी लम्बी उम्र वाले इंसान के सम्पूर्ण जीवन में ज्यादा-ज्यादा तीन बार साढ़ेसाती आ सकती है। कोई दुर्लभ या अनोखे इंसान जो कि पूर्ण उम्र को प्राप्त ही चौथी साढ़ेसाती को भोग पाता है।
 



ढैया का तात्पर्य (Meaning of Dhaiyya):-जब किसी भी मनुष्य के चन्द्रलग्न से चौथी, सातवीं एवं आठवीं राशियों में जब शनि अपनी गति से चलता हुआ आता है, तब उसे 'ढैया' या 'लघुकल्याणी' कहा जाता है।


शनि एक राशि में ढाई वर्ष तक अपनी गति के द्वारा प्रवेश करके उस राशि में रहता है। इसलिए इस अवधि को 'ढैया' (ढाई वर्ष) कहा जाता है।


पंचम कंटक शनि:-जब चन्द्र लग्न या जन्मकुण्डली के पांचवें घर में शनि बैठा हो या प्रवेश करता हैं, तब उसे 'कंटक शनि' भी कहा जाता है।


सप्तम ढैया एवं अष्टम ढैया को सम्मिलित रूप से 'शनि पंचक' भी कहा जा सकता है।


भारत देश के राज्य कनार्टक में चन्द्र लग्न से पांचवें घर में शनि के प्रवेश को साढ़ेसाती से भी अधिक खतरनाक माना जाता हैं।


कन्नड़ भाषा की एक प्रसिद्ध कहावत के अनुसार:-'पंचम शनि हॉचेन्यात्र उसासतान'

अर्थात्:-जब पांचवें घर में चन्द्र लग्न से शनि आता हैं, तब इंसान के जीवन में चारों तरफ मुसीबते आने लगती हैं, उसकी हालत ऐसी हो जाती हैं कि उसे भोजन तक नहीं मिल पाता हैं या यदि खाने के लिए भोजन मिलता हैं, तो वह शुद्ध एवं अच्छा नहीं मिलता हैं और दर-दर भटकने लगता हैं।



यदि पंचम शनि को भी ढाई वर्ष के रुप मे ढैया मान लेने पर प्रत्येक जातक शनि के तीस वर्ष के सिलसिला के समान:-निम्नलिखित प्रकार से सतहरा वर्ष छः माह (17 वर्ष 6 माह) शनि की 'कसौटी' अर्थात् जाँचने-परखने के मानदंड से गुजरता हैं: 



साढ़ेसाती सात वर्ष छः माह (7 वर्ष 6 माह)+

चतुर्थ ढैया दो वर्ष छः माह (2 वर्ष 6 माह)+

सप्तम ढैया दो वर्ष छः माह (2 वर्ष 6 माह)+

अष्टम ढैया दो वर्ष छः माह (2 वर्ष 6 माह)+

पंचम ढैया दो वर्ष छः माह (2 वर्ष 6 माह)=


कुल सतहरा वर्ष छः माह (17 वर्ष 6 माह) माह इस प्रकार तीस वर्षों में से केवल बारह वर्ष छः माह (12 वर्ष 6 माह) ही व्यक्ति चैन की साँस ले सकता है, वह भी तब जब अन्य ग्रह साथ दें।



साढ़ेसाती की तीव्रता (Effectiveness of saturn's saadhe saati):-शनि की साढ़ेसाती के शुभाशुभ फलों की तीव्रता निम्नलिखित बिन्दुओं पर निर्भर करती हैं:-



1.शनि सबसे अधिक अनिष्टकारी ग्रह माना गया है।


एक श्लोक के अनुसार:-निम्नलिखित रुप में बताया गया हैं:


दारिद्र्य दोष नीचकर्म चौरे क्लेशं

करोति रविजः सह सन्धि रोगे।


अर्थात्:-शनि फटेहाल में गरीबी, नियम व विधि की दृष्टि से अनुचित रुप से किये गये कार्यों से लांछन, आचरण, व्यवहार, कर्म, गुण आदि के विचार से किये जाने वाले बुरे कर्म, मृत आत्माओं की मुक्ति नहीं होने से जीवन में मुश्किलें, छुपकर दूसरे के रुपये-पैसों या सामान को चुराना, लड़ाई-झगड़े से कष्ट एवं हड्डियों के आपस में जुड़ने की जगह पर पीड़ा से सन्धिरोग का कारक होता है। 



◆ज्योतिष शास्त्र में शनि को सबसे अधिक मजबूत स्थिति वाला अनिष्टकारी या मारकेश ग्रह माना गया हैं।



मारकेस्सह सम्बन्धनिहन्यात् पापकृच्छनिः।


अर्थात्:-जब शनि का किसी भी मारक ग्रह से सम्बन्ध बनता हैं, तब वह और भी ज्यादा मारकत्व को प्राप्त कर लेता हैं। शनि ग्रह के सिवाय दूसरे किसी ग्रह में इतना पाप फल देने की शक्ति नहीं होती है।


2.जब शनि की साढ़ेसाती या ढैया एक ही समय में परिवार के एक अधिक सदस्य (पत्नी, पुत्र, पुत्री, भाई-बहन आदि) गुजर रहे हों, तो परिवार के मुखिया को सबसे अधिक मुश्किलों के साथ कष्ट को भोगना पड़ता हैं।



3.जब जातक के जीवन में पहली बार साढ़ेसाती का प्रवेश होता हैं, तब साढ़ेसाती का प्रहार अर्थात् पीड़ा आदि बहुत तीव्र होती हैं। जिससे जातक अपने माता-पिता के बीच में अपनी वाणी के द्वारा कटु शब्दों का प्रयोग करता हैं एवं उनके साथ मतभेद करता हैं, जिससे माता-पिता और अपने सम्बन्धों को बिगाड़ देता हैं। कभी-कभी स्थिति ऐसी भी बन जाती हैं कि जातक के माता-पिता की मृत्यु का दुःख भी सहन करना पड़ता हैं 
 


◆जब शनि की दूसरी साढ़ेसाती शुरू होती हैं, तब जातक को पीड़ा, पति-पत्नी के बीच मतभेद, जीविका निर्वाह के पेशे आदि से सम्बन्धित बुरे फल भोगने पड़ते हैं। 



◆जब शनि की तीसरे साढ़ेसाती शुरू होती हैं, तब जातक को तंदुरुस्ती एवं बेटा-बेटी से सम्बन्धित बुरे फल भोगने पड़ते हैं। तीसरी दशा में स्वयं की मृत्यु भी हो सकती है।


4.जब किसी राष्ट्र या देश के नाम के अनुसार साढ़ेसाती चल रही हो, उसी समय उसके राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री पर भी साढ़ेसाती हो, तो राष्ट्र या देश पर अधिक राजनीतिक संकट या विपत्ति आती हैं।



5.जब इंसान की जन्मकुण्डली में अच्छे भावों का मालिक शनि होता हैं अर्थात् केन्द्र भाव या त्रिकोण भाव का स्वामी हो या शुभ भावों का कारक ग्रह होता हैं, तब शनि अपनी साढ़ेसाती या ढैय्या में ज्यादा तकलीफें नहीं देता।



शनि की स्थिति का आंकलन:-भी जरूरी होता है। ज्योतिष शास्त्र के विशेषज्ञों के अनुसार साढेसाती का वास्तविक प्रभाव जानने के लिए चन्द्र राशि के अनुसार शनि की स्थिति ज्ञात करने के साथ लग्न कुण्डली में चन्द्र की स्थिति का आंकलन भी जरूरी होता है।

साढ़ेसाती के प्रभाव के लिए कुण्डली में पहले घर व पहले घर के स्वामी के हालात के साथ ही शनि और चन्द्र की स्थिति पर भी विचार किया जाता है।



अग्रलिखित लग्नों की जन्मकुण्डलियों में शनि:-शुभ फलदायक होता है जो कि मनुष्य को किसी भी तरह से नुकसान नहीं पहुंचाकर, उनको फायदे और मदद प्रदान करता हैं:


◆जब लग्न शनि का भाव स्वामित्व कारकत्व में शुभ फलदायक होता हैं।

◆जब वृषभ लग्न में नवें भाव का स्वामी एवं दशवें भाव का स्वामी होकर योगकारक होने से शुभ फलदायक होता हैं।


◆जब तुला लग्न में चौथे भाव का स्वामी एवं पांचवें भाव का स्वामी होकर योगकारक होने से शुभ फलदायक होता हैं।


◆जब मकर लग्न में पहले भाव का स्वामी एवं दूसरे भाव का स्वामी होकर कारक होने से शुभ फलदायक होता हैं।


◆जब कुंभ लग्न में बारहवें भाव का स्वामी एवं लगनं भाव का स्वामी होकर कारक होने से शुभ फलदायक होता हैं।



शेष लग्नों की कुण्डलियों में शनि:-निम्नलिखित लग्नों में जन्म लेने वाले जातक को शनि के बुरे असर का सामना करना पड़ता है।  



◆जब लग्न शनि का भाव स्वामित्व कारकत्व में शुभ फलदायक होता हैं।



◆जब मेष लग्न में दशवें भाव का स्वामी एवं ग्यारहवें भाव का स्वामी होने से बुरा फल देने वाला होता हैं।



◆जब मिथुन लग्न में आठवें भाव का स्वामी एवं नवें भाव का स्वामी होने से अच्छा-बुरा फल देने वाला होता हैं।



◆जब कर्क लग्न में सातवें भाव का स्वामी एवं आठवें भाव का स्वामी होने से बुरा फल देने वाला होता हैं।



◆जब सिंह लग्न में छठे भाव का स्वामी एवं सातवें भाव का स्वामी होने से बुरा फल देने वाला होता हैं।


◆जब कन्या लग्न में पांचवें भाव का स्वामी एवं छठे भाव का स्वामी होने से बुरा फल देने वाला होता हैं।


◆जब वृश्चिक लग्न में तीजे भाव का स्वामी एवं चौथे भाव का स्वामी होने से बुरा फल देने वाला होता हैं।


◆जब धनु लग्न में दूजे भाव का स्वामी एवं तीजे भाव का स्वामी होने से बुरा फल देने वाला होता हैं।


◆जब मीन लग्न में ग्यारहवें भाव का स्वामी एवं बारहवें भाव का स्वामी होने से बुरा फल देने वाला होता हैं।


उक्त लग्नों की कुण्डलियों में शनि की साढ़ेसाती अधिक  कष्टदायक होने से परेशानियों होती हैं।



◆जिन कुण्डलियों में शनि बलवान अपनी उच्च राशि तुला राशि, उच्च नवांशस्थ, गुरु की राशियों जैसे-धनु एवं मीन, मित्र राशियों वृषभ, मिथुन, कन्या और अपनी खुद की राशियों जैसे-मकर एवं कुंभ में अपनी गति से चलते हुए जब प्रवेश करता हैं, तब ठीक-ठाक बुरा फल देकर इंसान के जीवन को प्रभावित करता हैं।





◆इसके विपरीत जिन कुण्डलियों में शनि कमजोर अपनी नीच मेष राशि या नीचनवांशस्थ, कमजोर, सूर्य के द्वारा अस्त, शत्रु क्षेत्री राशियों जैसे-कर्क, सिंह एवं वृश्चिक में शनि इस अवधि में अधिक कष्ट देता हैं।




साढ़ेसाती के पादफल (padas Results of Saturn's Saadhe Saari):-जब इंसान के जन्म राशि पर जिस दिन शनि की साढ़ेसाती प्रारम्भ हो रही है, उस दिन चन्द्रमा उसके जन्मकालीन चन्द्रमा से जिस भाव या राशि में होता है, उसके आधार पर शनि का पाद या चरण होता है, जो निम्नलिखित प्रकार से निर्धारित होता है:

जन्माङ्गरुद्रेषु सुवर्णपादं द्विपञ्चनन्दे रजतस्य पादम्।

त्रिसप्तदिक्ताम्रपदं वदन्ति शेषेषु राशिष्विह लौहपादम्।।

लौहे धनविनाशः स्यात्सर्वसौख्यं च काञ्चने ।

ताम्र च समता ज्ञेया सौभाग्यं रजते भवेत्।।

अर्थात्:-गोचर में शनि राशि-बदलाव के समय यदि चन्द्रमा निम्नलिखित राशियों में होने पर पाद की जानकारी मिलती हैं।

स्वर्णपाद:-जब जन्मराशि से गोचर में शनि को गिनने पर मेष, कन्या, कुंभ राशि में हो तो स्वर्णपाद होता हैं।


रजतपाद:-जब जन्मराशि से गोचर में शनि को गिनने पर वृषभ, सिंह, धनु राशि में हो तो रजतपाद होता हैं।


ताम्रपाद:-जब जन्मराशि से गोचर में शनि को गिनने पर मिथुन, तुला, मकर राशि में हो तो ताम्रपाद होता हैं।



लौहपाद:-जब जन्मराशि से गोचर में शनि को गिनने पर कर्क, वृश्चिक, मीन राशि में हो तो लौहपाद होता हैं।
 


जब इंसान के जन्म के समय के चन्द्रमा से साढ़ेसाती प्रारम्भ के समय का चन्द्रमा:-यदि निम्नलिखित रूप से होता हैं, तो उनके लिए शुभ या अशुभ फल मिलता हैं।


(अ)स्वर्णपाद:-जब शनि जन्मराशि से पहला, छठा, एवं ग्याहरवाँ होता हैं, तब शनि का स्वर्णपाद शुरू होता हैं, जो कि शुभ फल सभी प्रकार के सुखों को देने वाला होता हैं। 
  


(ब)रजतपाद:-जब शनि जन्मराशि से दूसरे, पांचवें, एवं नवें होता हैं, तब शनि का रजत्पाद शुरू होता हैं, जो कि बहुत शुभ भाग्योदय कारक एवं सुख-सौभाग्य फल देने वाला होता हैं। 




(स)ताम्रपाद:-जब शनि जन्मराशि से तीसरे, सातवें, एवं दशवें होता हैं, तब शनि का ताम्रपाद शुरू होता हैं, जो कि सामान्य शुभ या सम फल देने वाला होता हैं। 




(द)लौहपाद:-जब शनि जन्मराशि से चौथे, आठवें एवं बारहवें होता हैं, तब शनि का लौहपाद शुरू होता हैं, जो कि अशुभ फल जैसे-धन-धान्य का नाशक होता है। इस सिद्धान्त को 'मूर्ति निर्णय' भी कहा जाता है।

 



अंशात्मक साढ़ेसाती एवं ढैया (Amshatmak saadhe saadhe saati and dhaiyya of Saturn):-प्रत्येक जातक की चंद्रराशि से बारहवें, चंद्र राशि से दूसरी राशि में शनि अपनी गति से घूमते-फिरते हुए प्रवेश करते हैं, तब उस राशि में शनि के रहने का समय 'साढ़ेसाती' कहलाती है। अर्थात् जब चन्द्र राशि से पैंतालीस अंश (45 अंश) से पैंतालीस अंश (45 अंश) बाद तक शनि अपनी गति से घूमता हुआ अपना चक्कर पूर्ण करता हैं, तब तक शनि की साढ़ेसाती चलती या रहती हैं।

◆जब चौथे या आठवें घर में चन्द्र राशि से शनि अपनी गति के द्वारा घूमते हुए अपना चक्कर पूर्ण करने के लिए प्रवेश करते हैं, तब शनि ढैया की शुरुआत होती हैं।


◆बहुत बारीकी से जानने पर शनि ढैया की शुरुआत चन्द्र राशि से चौथे घर के शुरू से पांचवें घर के जुड़ने तक और आठवें घर के शुरू से नवें घर के जुड़ने तक माना जाता हैं।
 


◆शनि पहली राशि में नब्बे अंश, बारहवीं राशि में नब्बे अंश एवं दूसरी राशि में नब्बे अंश अर्थात् तीन राशियों में नब्बे अंश (90 अंश) से अपनी गति से घूमते हुए अपना एक चक्कर साढ़े सात वर्ष में पूरा करता हैं, लेकिन ऐसा भी प्रायः देखने में आता हैं कि किसी-किसी जातक को चन्द्रराशि से बारहवें राशि में शनि के प्रवेश से पहले ही साढ़ेसाती के परिणाम मिलने शुरू होने लगते हैं या बारहवीं राशि में शनि से प्रवेश के कुछ समय बाद में साढ़ेसाती के परिणाम प्राप्त होने लगते हैं।



◆इसी प्रकार यह भी देखने में आता हैं कि चन्द्र राशि से दूसरी राशि को शनि द्वारा अपनी गति से घूमते हुए पार करने से पहले ही साढ़ेसाती के फल समाप्त होने लगते हैं या शनि द्वारा तीसरी राशि (चन्द्र से) में प्रवेश करने से कुछ समय बाद तक भी फल प्राप्त होते रहते हैं।


शनि की साढ़ेसाती के फलों के आगे-पीछे होने के कारण:- निम्नलिखित हैं।


◆चन्द्र लग्न में चन्द्रमा की स्थिति हमेशा बीचोंबीच अर्थात् पन्द्रहरा (15 अंश) में नहीं होती है।



◆जिस राशि से चन्द्रमा का सम्बन्ध बनता हैं, उस संबंधित राशि के शुरुआत के या आखिरी अंशों (पन्द्रहरा 15 अंश से कम या ज्यादा) में हो सकता है।


◆यदि शनि के पहली, बारहवीं एवं दुसरी तीन राशियों (90 अंश) के गमन को समय के बजाय चन्द्र स्पष्ट के दोनों ओर समान रूप से पैंतालीस-पैंतालीस (45-45) अंशों में बांट देते हैं, तब शनि का घूमना-फिरना चन्द्र स्पष्ट से एक दशमलव पांच-एक दशलमव पांच राशि (1.5-1.5 राशि) आगे-पीछे हो जाएगा।



◆यदि चन्द्र लग्न में ठीक पन्द्रहरा अंश (15 अंश) पर चन्द्रमा हो, तो शनि के राशि में गमन एवं अंशात्मक साढ़ेसाती के फल में समानता रहेगी, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता है।



◆जब शनि के बारहवें भाव (चन्द्र से) में जाने से पहले (ग्याहरवें में) ही चन्द्रमा पन्द्रहरा अंश (15 अंश) से कम हो, तो साढ़ेसाती का असर शुरू हो जाता है तथा दूसरी राशि में अपनी गति से घूमते हुए अपना चक्कर पूर्ण करने से पहले ही समाप्त हो जाता है।


◆इसके विपरीत यदि चंद्र स्पष्ट पन्द्रहरा अंश (15 अंश) से ज्यादा हो, तो साढ़ेसाती का असर शनि द्वारा बारहवें भाव में पन्द्रहरा अंश (15 अंश) से अपनी गति से घूमते हुए अपना चक्कर पूर्ण करने के बाद शुरू होता है तथा दूसरे भाव को अपनी गति से घूमते हुए अपना चक्कर पूर्ण करने के बाद तीसरे भाव में पन्द्रहरा अंश (15 अंश) आगे चलने पर समाप्त होता है।



चन्द्रमा के अंशों के आधार पर परिगणित करके समझने को ही आकलित साढ़ेसाती को 'अंशात्मक साढ़ेसाती' की संज्ञा दी जाती हैं।

इसे निम्न रेखाचित्र की सहायता से भली-भाँति समझा जा सकता है: अंशात्मक साढ़ेसाती में भावों के स्थान पर अंशों के आधार पर ही गणना की जाती है, समय चाहे कम लगे या अधिक।






शनि की साढ़ेसाती के फल (Results of saturn's saadhe saati):-यह जरूरी नहीं है कि शनि साढ़ेसाती सभी जातकों को समान रुप से बुरा फल देता हैं।


शनि के शुभ-अशुभ फलों पर शनि की गोचर राशि का प्रभाव भी पड़ता है।


◆शनि अपनी नीच मेष राशि, शत्रु कर्क, सिंह एवं वृश्चिक राशि में जब अपनी गति से चलता हुए प्रवेश करता हैं, तब सबसे ज्यादा बुरा फल देकर जीवन को प्रभावित करता हैं। 


◆जबकि शनि शेष राशियों यथा-मित्र राशियों वृषभ, मिथुन, कन्या अपनी उच्च राशि तुला राशि, गुरु की राशियों जैसे-धनु एवं मीन तथा अपनी खुद की राशियों जैसे-मकर एवं कुंभ में अपनी गति से चलते हुए जब प्रवेश करता हैं, तब ठीकठाक बुरा फल देकर इंसान के जीवन को प्रभावित करता हैं।
 



शनि की साढ़ेसाती को चरणों के आधार पर विभाजन:-निम्नलिखित तीन चरणों में विभाजित किया जाता है:




पहले ढाई वर्ष में शनि का समय एवं शरीर अंग पर प्रभाव:-जब मनुष्य के चन्द्र लग्न से बारहवें घर में शनि अपनी गति से चलते हुए प्रवेश करता हैं, ढाई वर्ष का समय साढ़ेसाती का प्रथम चरण शुरू हो जाता हैं, जो कि इंसान के सिर पर पूर्वार्द्ध साढ़ेसाती के रूप में रहता हैं।




दूसरे ढाई वर्ष में शनि का समय एवं शरीर अंग पर प्रभाव:-जब मनुष्य के चन्द्र लग्न में शनि अपनी गति से चलते हुए प्रवेश करता हैं, ढाई वर्ष का समय साढ़ेसाती का दूसरा चरण शुरू हो जाता हैं, जो कि इंसान के हृदय या छाती पर मध्य साढ़ेसाती के रूप में रहता हैं।



तीसरे ढाई वर्ष में शनि का समय एवं शरीर अंग पर प्रभाव:-जब मनुष्य के चन्द्र लग्न से दूसरे घर में शनि अपनी गति से चलते हुए प्रवेश करता हैं, ढाई वर्ष का समय साढ़ेसाती का तीसरा चरण शुरू हो जाता हैं, जो कि इंसान के पैरों पर उत्तरार्द्ध साढ़ेसाती के रूप में रहता हैं।




द्वादश चन्द्र राशि गोचर के आधार पर:-प्रत्येक राशि के जातक के लिए शनि की साढ़ेसाती के तीनों चरणों में फल की शुभाशुभता निम्नलिखित हैं:


1.मेष राशि:-मेष चन्द्र राशि वाले जातक के द्वादश स्थान में शनि मीन राशि में होने पर शनि की ढैय्या का पूर्वार्द्ध (सिर पर) फल सामान्य, मेष राशि में मध्य (छाती पर) का प्रथम ढैया अशुभ और वृषभ राशि मे उत्तरार्द्ध (पैरों पर) द्बितीय ढैया सामान्य रहता हैं। 
2.वृषभ राशि:-वृषभ चन्द्र राशि वाले जातक के द्वादश स्थान में शनि मेष राशि में होने पर शनि की ढैय्या का पूर्वार्द्ध (सिर पर) फल अशुभ, वृषभं राशि में मध्य (छाती पर) का प्रथम ढैया सामान्य और मिथुन राशि मे उत्तरार्द्ध (पैरों पर) द्बितीय ढैया सामान्य रहता हैं। 


3.मिथुन राशि:-मिथुन चन्द्र राशि वाले जातक के द्वादश स्थान में शनि वृषभ राशि में होने पर शनि की ढैय्या का पूर्वार्द्ध (सिर पर) फल सामान्य, मिथुन राशि में मध्य (छाती पर) का प्रथम ढैया सामान्य और कर्क राशि मे उत्तरार्द्ध (पैरों पर) द्बितीय ढैया अशुभ रहता हैं।


4.कर्क राशि:-कर्क चन्द्र राशि वाले जातक के द्वादश स्थान में शनि मिथुन राशि में होने पर शनि की ढैय्या का पूर्वार्द्ध (सिर पर) फल सामान्य, कर्क राशि में मध्य (छाती पर) का प्रथम ढैया अशुभ और सिंह राशि मे उत्तरार्द्ध (पैरों पर) द्बितीय ढैया अशुभ रहता हैं।


 
5.सिंह राशि:-सिंह चन्द्र राशि वाले जातक के द्वादश स्थान में शनि कर्क राशि में होने पर शनि की ढैय्या का पूर्वार्द्ध (सिर पर) फल अशुभ, सिंह राशि में मध्य (छाती पर) का प्रथम ढैया अशुभ और कन्या राशि मे उत्तरार्द्ध (पैरों पर) द्बितीय ढैया सामान्य रहता हैं।


6.कन्या राशि:-कन्या चन्द्र राशि वाले जातक के द्वादश स्थान में शनि सिंह राशि में होने पर शनि की ढैय्या का पूर्वार्द्ध (सिर पर) फल अशुभ, कन्या राशि में मध्य (छाती पर) का प्रथम ढैया सामान्य और तुला राशि मे उत्तरार्द्ध (पैरों पर) द्बितीय ढैया सामान्य रहता हैं।


7.तुला राशि:-तुला चन्द्र राशि वाले जातक के द्वादश स्थान में शनि कन्या राशि में होने पर शनि की ढैय्या का पूर्वार्द्ध (सिर पर) फल सामान्य, तुला राशि में मध्य (छाती पर) का प्रथम ढैया सामान्य और वृश्चिक राशि मे उत्तरार्द्ध (पैरों पर) द्बितीय ढैया अशुभ रहता हैं।



8.वृश्चिक राशि:-वृश्चिक चन्द्र राशि वाले जातक के द्वादश स्थान में शनि तुला राशि में होने पर शनि की ढैय्या का पूर्वार्द्ध (सिर पर) फल सामान्य, वृश्चिक राशि में मध्य (छाती पर) का प्रथम ढैया अशुभ और धनु राशि मे उत्तरार्द्ध (पैरों पर) द्बितीय ढैया सामान्य रहता हैं।

9.धनु राशि:-धनु चन्द्र राशि वाले जातक के द्वादश स्थान में शनि वृश्चिक राशि में होने पर शनि की ढैय्या का पूर्वार्द्ध (सिर पर) फल अशुभ, धनु राशि में मध्य (छाती पर) का प्रथम ढैया सामान्य और मकर राशि मे उत्तरार्द्ध (पैरों पर) द्बितीय ढैया सामान्य रहता हैं।



10.मकर राशि:-मकर चन्द्र राशि वाले जातक के द्वादश स्थान में शनि धनु राशि में होने पर शनि की ढैय्या का पूर्वार्द्ध (सिर पर) फल सामान्य, मकर राशि में मध्य (छाती पर) का प्रथम ढैया सामान्य और कुंभ राशि मे उत्तरार्द्ध (पैरों पर) द्बितीय ढैया सामान्य रहता हैं।
  

11.कुंभ राशि:-कुंभ चन्द्र राशि वाले जातक के द्वादश स्थान में शनि मकर राशि में होने पर शनि की ढैय्या का पूर्वार्द्ध (सिर पर) फल सामान्य, कुंभ राशि में मध्य (छाती पर) का प्रथम ढैया सामान्य और मीन राशि मे उत्तरार्द्ध (पैरों पर) द्बितीय ढैया सामान्य रहता हैं।

12.मीन राशि:-मीन चन्द्र राशि वाले जातक के द्वादश स्थान में शनि कुंभ राशि में होने पर शनि की ढैय्या का पूर्वार्द्ध (सिर पर) फल सामान्य, मीन राशि में मध्य (छाती पर) का प्रथम ढैया सामान्य और मेष राशि मे उत्तरार्द्ध (पैरों पर) द्बितीय ढैया अशुभ रहता हैं।

 
शनि की ढैय्या की जानकारी एवं फल:-जन्म या चन्द्र राशि के आधार पर देखना चाहिए। यदि जन्म राशि की जानकारी नहीं होने पर शनि की दशा को नाम राशि से देखना चाहिए।

"शनि की ढैया से शुभाशुभ ज्ञानम्"




1.मेष राशि:-मेष राशि में पहली ढैया सम, दूसरी ढैया अशुभ एवं तीसरी ढैया शुभ फलदायक होती हैं।
2.वृषभ राशि:-वृषभ राशि में पहली ढैया अशुभ, दूसरी ढैया शुभ एवं तीसरी ढैया शुभ फलदायक होती हैं।
  
3.मिथुन:-मिथुन राशि में पहली ढैया शुभ, दूसरी ढैया शुभ एवं तीसरी ढैया अशुभ फलदायक होती हैं।

4.कर्क राशि:-कर्क राशि में पहली ढैया शुभ, दूसरी ढैया अशुभ एवं तीसरी ढैया अशुभ फलदायक होती हैं।

5.सिंह राशि:-सिंह राशि में पहली ढैया अशुभ, दूसरी ढैया अशुभ एवं तीसरी ढैया शुभ फलदायक होती हैं।

6.कन्या राशि:-कन्या राशि में पहली ढैया अशुभ, दूसरी ढैया शुभ एवं तीसरी ढैया शुभ फलदायक होती हैं।

7.तुला राशि:-तुला राशि में पहली ढैया शुभ, दूसरी ढैया शुभ एवं तीसरी ढैया अशुभ फलदायक होती हैं।

8.वृश्चिक राशि:-वृश्चिक राशि में पहली ढैया शुभ, दूसरी ढैया अशुभ एवं तीसरी ढैया सम फलदायक होती हैं।

9.धनु राशि:-धनु राशि में पहली ढैया अशुभ, दूसरी ढैया सम एवं तीसरी ढैया शुभ फलदायक होती हैं।

10.मकर राशि:-मकर राशि में पहली ढैया सम, दूसरी ढैया शुभ एवं तीसरी ढैया शुभ फलदायक होती हैं।

11.कुंभ राशि:-कुंभ राशि में पहली ढैया शुभ, दूसरी ढैया शुभ एवं तीसरी ढैया सम फलदायक होती हैं।

12.मीन राशि:-मीन राशि में पहली ढैया शुभ, दूसरी ढैया सम एवं तीसरी ढैया अशुभ फलदायक होती हैं।



महर्षि गर्ग ने शनि की साढ़ेसाती (90 माह) के फल को:- निम्नलिखित प्रकार से आठ कालखण्डों में विभाजित किया है:




1.जब प्रथम कालखण्ड का समय तीन माह दस दिन का होता हैं, इस समय में इंसान को अनेक प्रकार के नुकसान होते हैं।



2.जब द्वितीय कालखण्ड का समय तेरह माह दस दिन का होता हैं, इस समय में इंसान को कामयाबी, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जीत (विजय श्री) होती हैं। 



3.जब तृतीय कालखण्ड का समय बीस माह शून्य दिन का होता हैं, इस समय में इंसान सभी जगह पर घूमता-फिरता रहता हैं, जिस जगह पर बसा हुआ रहता हैं उसमें जगह बदलनी पड़ती हैं और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बदलाव आता हैं। 


4.जब चतुर्थ कालखण्ड का समय सोलह माह शून्य दिन होता हैं, इस समय में इंसान को रुपये-पैसे, धन-दौलत लाभ एवं आराम के सभी साधन प्राप्त (धान्य श्री) होते हैं।


5.जब पंचम कालखण्ड का समय तेरह माह दस दिन का होता हैं, इस समय में इंसान को अनेक या नाना प्रकार के पीड़ा, तकलीफे, दुःख होते है।


6.जब षष्ठ कालखण्ड का समय दस माह शून्य दिन का होता हेनज़ इस समय में इंसान को अनेक नाना प्रकार के फायदे (राज्य श्री) होते हैं।


7.जब सप्तम कालखण्ड का समय छः माह बीस दिन का होता हैं, इस समय में इंसान को आराम एवं भोग को प्राप्त करते हैं।



8.जब अष्टम कालखण्ड का समय सात माह दस दिन का होता हैं, इस समय में इंसान को अनेक प्रकार की मुश्किलें, शरीर कमजोर होता हैं।



इस प्रकार नब्बे माह अर्थात् साढ़े सात वर्ष के फल मिलते हैं।




महर्षि गर्ग द्वारा प्रस्तुत कालखण्डानुसार:-शनि की जन्मकालीन स्थिति एवं गोचर राशि का वर्णन शनि की साढ़ेसाती के नतीजों में नहीं बताया गया है, अतः उपर्युक्त दोनों बिन्दुओं के आधार पर गर्गोक्त फल का तारतम्य बिठा लेना चाहिए।



चरणानुसार साढ़ेसाती के फल:-शनि प्रत्येक जातक के जीवन में समान कठोर नतीजे नहीं देता हैं, यह पहले सिद्ध किया जा चुका हैं।



◆शनि के मारकेशत्व, राशि स्थिति, गोचर राशि तथा स्वयं के बलाबल के अनुसार शनि के फल की शुभाशुभता होती हैं।


◆यदि जन्मकुण्डली में शनि बलवान (तुला उच्च, मकर व कुंभ स्वक्षेत्री), योगकारक या चन्द्र राशीश हो, तो शनि के कठोर फलों में कमी रहती है।



◆इसके विपरीत शनि के त्रिकेश होने (दूजे, आठवें या बारहवें) या अकारक होने, कमजोर एवं बुरे ग्रहों के प्रभाव में होने अथवा स्थितिवश अशुभ होने पर अधिक कठोर फल देता हैं।


◆कुल मिलाकर पूर्व जन्म के कर्मानुसार ही जन्मकुण्डली में शनि की भाव स्थिति होती हैं तथा उसी के अनुसार ही साढ़ेसाती में शनि अच्छा-बुरा फल देता है।



◆शनि को अष्टकवर्ग में प्राप्त शुभ रेखाओं के आधार पर शनि के फलों की शुभाशुभता का असर होता हैं, यह ध्यान रखने योग्य बात हैं।



◆यदि शनि की अष्टकवर्ग में चार तथा सर्वाष्टकवर्ग में अठाईस शुभ रेखाएँ प्राप्त होती हैं, तो शनि मिलाजुला फल देता है।


◆जब शनि की अष्टकवर्ग में चार तथा सर्वाष्टकवर्ग में अठाईस से अधिक शुभ रेखाएँ प्राप्त होने पर शुभफल अधिक एवं अशुभ फल कम देता हैं। 


◆जब शनि की अष्टकवर्ग में चार तथा सर्वाष्टकवर्ग में अठाईस से कम शुभ रेखाएँ प्राप्त होने पर अशुभफल अधिक एवं शुभ फल कम देता हैं। 
 

साढ़ेसाती के शुभ लक्षण:-जब गोचर वश शनि अपनी गति से घूमते हुए एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते हैं, जिससे शनि की साढ़ेसाती या ढैय्या जिन राशियों के मनुष्यों में शुरू होती हैं, तब मनुष्य साढ़ेसाती या ढैय्या के नाममात्र से डरने लग जाता हैं।जन्मकुंडली या राशि के अनुसार जब शनि की साढ़ेसाती या ढैया या ढईया के बारे में मनुष्य को जानकारी प्राप्त होती हैं, कि उनकी राशि के अनुसार शनि की दशा शुरू होने वाली हैं, तो वे कितने भी शक्तिशाली, वीर, होशियार एवं रुपये-पैसों से समृद्ध हो, वे भी शनि की दशा के नाम डरने लगे जाते हैं। 

शनि की साढ़ेसाती सभी के जीवन में अपना प्रभाव जरूर दिखाती हैं। लेकिन शनि की दशा सभी राशियों के मनुष्यों पर एक समान असर नहीं होता हैं एवं सभी मनुष्यों के जीवन पर बुरा असर नहीं डालते हैं। शनि की स्वराशियों जैसे-मकर और कुंभ होती हैं, जब शनि अपनी स्वराशियों में प्रवेश करता हैं, तब मकर व कुंभ राशियों वाले मनुष्यों पर साढेसाती शुरू होती हैं, तब शनि के अच्छे प्रभावों में कमी आ जाती हैं।
क्या राजयोग भी देती हैं साढ़ेसाती?:-इसी तरह जब शनि अच्छी स्थिति और योगकारक ग्रह होने पर ज्यादा बुरे असर नहीं डालते हैं।
शनि की दशा लगने पर कई मनुष्यों को राजा से रंक और रंक से राजा भी बना देते हैं। लेकिन कुछ मनुष्यों को शनि दशा में बहुत सी तकलीफें और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नाकामयाबी मिलती हैं। इस तरह से शनि की दशा में सभी को परेशानी नहीं हैं, बल्कि दूसरे मनुष्यों को ऊंचाइयों की बुलंदी पर प्रदान करते हैं। मनुष्य की जन्मकुण्डली या राशि कुण्डली में शनि के हालात के अनुसार शनि का असर निर्भर करता है, इसलिए मनुष्यों को शनि के असर से डरने की आवश्यकता नहीं हैं। शनि का असर सभी में अलग-अलग तरह किसी मनुष्यों को बहुत तकलीफ देनेवाला, किसी-किसी मनुष्यों को बहुत अधिक शुभ फल देने वाला और किसी-किसी को न शुभ एवं न अशुभ फल देने वाला होता हैं। इन सभी तरह के फलों जानने के लिए सबसे पहले शनि का असर होने पर क्या-क्या लक्षण मिलते हैं, उनको जानने पर मनुष्य स्वयं ही शनि की दशा का विश्लेषण कर सकते हैं, कि उनको शनि दशा अच्छी या खराब या मिश्रित रहेगी।


शनि की दशा के बुरे प्रभाव:-जब शनि बुरे ग्रहों के साथ बैठा हो, बुरे ग्रहों की दृष्टि एवं बुरे ग्रहों के साथ राशि परिवर्तन के योग जिन मनुष्य के जन्मकुण्डली में बनने से शनि कमजोर एवं बलहीन होने से वह बुरा ग्रह बन जाता हैं, तब साढ़ेसाती में शनि बहुत बुरा असर डालता हैं। शनि की दशा या साढ़ेसाती में उन मनुष्यों को ज्यादा तकलीफे एवं परेशानी होती हैं। जो मनुष्य निम्नलिखित कार्यों को करते हैं।


◆जो मनुष्य खाने योग्य भोज्य पदार्थ नहीं होते हैं, उनको भी भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं।


◆जो मनुष्य शनि की साढ़ेसाती में विषय भोग में डूबे रहते हैं और दूरी औरते के प्रति गलत भावना रखते हुए उनके साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं।


◆जो मनुष्य मेहनत से जी चुराते हैं और आलस्य करते हैं।


◆मनुष्य के द्वारा ईश्वर के प्रति विश्वास एवं श्रद्धाभाव नहीं रखते हुए उनकी पूजा-अर्चना नहीं करते हैं।


◆मनुष्य नीति व धर्म के विरुद्ध आचरणों को करते हुए नादुरुस्त किस्मों के प्रति लगे रहते हैं।



शनि के हालात को जानें संकेतों के द्वारा:-जन्म- कुण्डली में शनि के हालात के आधार पर शनि से मिलने असर को जाना जा सकता है, लेकिन जन्मकुण्डली के अलावा भी जब शनि का असर मनुष्य के जीवन में होता हैं, तब मनुष्य के जीवन में अचानक होने वाले हादसों के संकेत के द्वारा शनि के अच्छे-बुरे होने की जानकारी मिलने लग जाती हैं, यदि मनुष्य के जीवन पर शनिदेव का असर हैं, तो निम्नलिखित संकेत के द्वारा मनुष्य जान सकते हैं, कि शनि उनके जीवन पर अच्छे या बुरे असर डालेंगे।



अश्वत्थ के वृक्ष का उगना:-जब मनुष्य के निवास स्थान की जगह या दीवारों या आसपास की जगहों पर पीपल का वृक्ष उगने लग जाता हैं, उसे बार-बार उखाड़ने पर पुनः उगने लग जावें तो मनुष्य को समझना चाहिए कि शनि देव कुदृष्टि उनके जीवन पड़ चुकी हैं।



लूतिका का जाल बुनना:-जब मनुष्य के निवास स्थान की जगह या दीवारों या आसपास की जगहों पर नियमित रूप से साफ-सफाई करते रहने पर मकरी का दिखाई देना एवं बार-बार जालों को बुनना आदि होने पर मनुष्य को समझना चाहिए कि शनि देव कुदृष्टि उनके जीवन पड़ चुकी हैं।



पिपीलिका का बार-बार आना:-जब मनुष्य के निवास स्थान की जगह या दीवारों या आसपास की जगहों पर नियमित रूप से साफ-सफाई करते रहने पर पीपलियां बार-बार आने लगती हैं और मीठी वस्तुओं के साथ नमक तथा मसालेयुक्त व्यंजन जैसे-दालमोठ, मठरी, समोसा आदि पर दिखाई देना लगती हैं, तब मनुष्य को समझना चाहिए कि शनि देव कुदृष्टि उनके जीवन पड़ चुकी हैं। 



पुश्तैनी जायदाद के लिए बिना वजह झगड़ा:-जब मनुष्य को अपनी पुश्तैनी जमीन-जायदाद के लिए अपने परिवार-कुटुंब के रिश्तेदारों के साथ मतभेद एवं लड़ाई-झगड़े होने लग जाते हैं और पुश्तैनी जमीन-जायदाद के लिए न्यायालय के चक्कर काटने पड़ जावें, न्यायालय के चक्कर काटते-काटते उनकी एड़ियां घिस जाती हैं और उनको आखिर में पुश्तैनी जमीन-जायदाद की प्राप्ति नहीं होती हैं और न्यायालय में हार मिलती हैं। मनुष्य के निवास स्थान की दीवारों में दरार आना एवं गिरने लगती हैं एवं बार-बार ठीक करवाने पर ठीक नहीं होती हैं। कई बार तो मनुष्य को अपने निवास स्थान को दोबारा बनवाने के हालात हो जाते है, तब मनुष्य को समझना चाहिए कि शनि देव कुदृष्टि उनके जीवन पड़ चुकी हैं। 



कृष्ण वर्ण के बिडाल का निवास स्थान पर डेरा बनाना:-जब मनुष्य के निवास स्थान की जगह में कृष्ण वर्ण की बिडाल रहने लग जाती हैं, निवास स्थान की जगह पर अपने बच्चे दे देती हैं और दो बिडालों का रोजाना निवास स्थान में आपस में लड़ाई करते हुए जूझने लगना आदि होने पर निवास स्थान में रहने वाले सदस्यों के बीच तकरार एवं मतभेद होने लग जाता हैं, तब मनुष्य को समझना चाहिए कि शनि देव कुदृष्टि उनके जीवन पड़ चुकी हैं। 



श्वानों का निवास स्थान की जगह पर लड़ना:-
जब मनुष्य के निवास स्थान की जगह में श्वानों का रोजाना निवास स्थान के सामने आपस में लड़ाई करते हुए जूझने लगना आदि होने पर निवास स्थान में रहने वाले सदस्यों के बीच तकरार एवं मतभेद होने लग जाता हैं, तब मनुष्य को समझना चाहिए कि शनि देव कुदृष्टि उनके जीवन पड़ चुकी हैं। 




अन्य विस्तृत लक्षण:-मनुष्य के जीवन पर आने वाले सारे कष्ट, मुसीबतों और हादसों के लिए शनि जिम्मेदार नहीं होते हैं। जब मनुष्य के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मुसीबतों एवं बनते हुए कार्यों में नाकामयाबी मिलती हैं, तब शनि को जिम्मेदार नहीं मानते हुए जन्मकुण्डली में दूसरे ग्रहों के हालात को देखना चाहिए, उन दूसरों ग्रहों के हालात जायजा लेकर उन कमजोर ग्रहों के उपाय करना चाहिए। सभी तरह की परेशानियों के लिए बिना वजह शनि को दोषी ठहराना ठीक नहीं होता हैं। जिस तरह पीत वर्ण की कोई वस्तु या धातु स्वर्ण नहीं हो सकती हैं, उसी तरह सभी तरह की परेशानियों के शनि जिम्मेदार नहीं होता हैं।



ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनि की साढ़ेसाती एवं ढैय्या के मुख्य लक्षणों:-के बारे में ज्योतिष ग्रन्थों में विस्तृत वर्णन मिलता हैं, उन लक्षणों को जानकर मनुष्य स्वयं अपने जीवन पर लागू कर सकता हैं, कि शनि कि साढ़ेसाती एवं ढैय्या का असर उनके जीवन के लिए अच्छा या बुरा रहेगा। 



◆जब मनुष्य के निवास स्थान की दीवारों में दरारें पड़ने लग जाती हैं और निवास स्थान कोई हिस्सा बिना वजह गिर जाता हैं।


◆जब मनुष्य अपने निवास स्थान की जगह को ठीक या नवीन बनवाता हैं, तो उसको बिना वजह ही ज्यादा रुपये-पैसों का खर्चा वहन करना पड़ता हैं।



◆मनुष्य के निवास स्थान में निवास करने वाले सदस्यों को व्याधि घेर लेती हैं और ठीक तरह ईलाज कराने पर भी ठीक नहीं होते हैं।



◆मनुष्य के परिवार के सदस्यों में विशेषकर स्त्रीवर्ग जैसे-माता, बेटी एवं पत्नी व्याधि से ग्रसित रहती हैं।



◆जब मनुष्य के रहने की जगह में बिना कारण ही अग्नि के द्वारा समान का जल जाना होता हैं।


◆मनुष्य को सामाजिक, धार्मिक एवं अपने कार्यक्षेत्र की जगह पर सही कार्य करते हुए भी बार-बार बेइज्जती का सामना करना पड़ता हैं।



◆मनुष्य को अपनी जीविकोपार्जन के लिए बहुत मेहनत करने पर भी फायदा नहीं मिलता हैं एवं जीविका निर्वाह के पेशे में नाकामयाबी मिलती हैं।



◆मनुष्य के जीवन में एक मुसीबत आती हैं और उसका समाधान नहीं होने से पूर्व दूसरी मुसीबत शुरू हो जाती हैं।


◆मनुष्य के निवास स्थान में रहने वाले सदस्यों के बीच में बिना वजह छोटी-छोटी बातों को लेकर तकराव एवं मतभेद होते रहते हैं।



◆मनुष्य को बिना वजह बदनामी एवं बिना किसी दोष के दोषी बनना पड़ता हैं।



◆मनुष्य के निवास स्थान की जगह पर रहने वाले सदस्यों का जीव-जन्तु के मांस के प्रति और व्यसन पदार्थों जैसे-गुटखा, अफीम, शराब आदि के प्रति झुकाव बढ़ता जाता हैं।



मनुष्य के पहनने के जूते-चप्पल समय से पूर्व टूटने लगती हैं या निवास स्थान से जूते-चप्पल की चोरी होने लगते हैं।


◆मनुष्य के श्रवणेन्द्रियों और चक्षुओं में पीड़ा होने लगती हैं।


◆मनुष्य को अपने निवास स्थान की जगह से बिना वजह ही दूर स्थानों का सफर करना पड़ता हैं।


◆मनुष्य जिस संस्था या कार्यालय में वेतन के रूप में कार्य करता हैं और जीविकोपार्जन के पेशे में दिक्कतें आने लगती हैं।



◆मनुष्य जिस संस्था या कार्यालय में वेतन के रूप में कार्य करता हैं, उस कार्यक्षेत्र की जगह पर योग्य होते हुए भी तरक्की नहीं हो पाती हैं और उच्च पद या समान पद पर कार्यरत अफसर से बिना मतलब के मतभेद एवं तकराव होने लगते हैं, जिससे उस कार्यक्षेत्र की जगह भी छोड़नी पड़ती हैं।



◆मनुष्य को अपनी इच्छा के विरुद्ध की जगह पर कार्य करने के लिए नियुक्ति मिलती हैं। 



◆मनुष्य जिस संस्था या कार्यालय में अपनी योग्यता के अनुसार ओहदे से निम्न ओहदे पर कार्य करना पड़ता हैं।



◆मनुष्य को रुपये-पैसों के लिए दूसरों के आगे हाथ फैलाने पड़ते हैं और रुपये-पैसों की तंगी बनी रहती हैं।
मनुष्य के जीविका निर्वाह के पेशे में फायदा एवं बरकत नहीं होने से नुकसान को सहन करना पड़ता हैं।



◆मनुष्य के जीविकोपार्जन के धंधे में फायदा एवं बचत नहीं होने से वह बहुत चिंता में डूब जाता हैं और दिमाग सही से कार्य नहीं कर पाता हैं।



◆मनुष्य की तंदुरुस्ती या सेहत कमजोर होने लगती हैं और व्याधि के चपेट में आ जाता हैं।



◆मनुष्य को अपने परिवार के सदस्यों एवं अपने सहोदर भाइयों से मतभेद होने से उनके बीच के सम्बन्धों में दरार पड़ने लगे जाती हैं।




◆मनुष्य बिना वजह मिथ्या वचन बोलने लग जाता हैं और अपने मिथ्या बात को सत्य सिद्ध करने की भरसक कोशिश करता रहता हैं।




शनि की साढ़ेसाती के प्रत्येक चरण (ढाई वर्ष) का सामान्य फल:-शनि की साढ़ेसाती जातक के लिए कैसी रहेगी। निम्नलिखित रुप से क्रमानुसार फल है:


(अ)प्रथम चरण:सिर पर: चन्द्रलग्न से द्वादश भाव या राशि में शनि का गोचरफल:-इस अवधि में जब शनि चन्द्रलग्न से बारहवें भाव में अपनी गति के द्वारा घूमते हुए प्रवेश करके रहता है। तब शनि अपनी पूर्ण तीसरी दृष्टि के द्वारा दूसरे घर धन भाव को, सातवीं दृष्टि के द्वारा छठे घर रोग, शत्रु भाव और दशवीं दृष्टि के द्वारा नवें भाव भाग्य भाव को देखता हैं।



 
◆जब किसी भी जातक के चन्द्रलग्न से बारहवें भाव में शनि प्रवेश करता हैं, तब शनि का पहला चरण शुरू हो जाता हैं और पहले चरण में शनि का प्रभाव सिर पर माना जाता हैं।


◆जातक को देह संबंधी व मन की कल्पना से उत्पन्न आंतरिक अनुभूति की संतुष्टि कमी आती है।


◆जातक को नेत्रों में पीड़ा, सिर में दुखावा और रक्त में खराबी होने की आशंका रहती हैं।


◆मनुष्य को बिना मतलब के रुपये-पैसों का खर्चा बढ़ता जाता हैं।


◆मनुष्य को अचानक रुपये-पैसों का नुकसान होता हैं, रुपये-पैसों के लिए दुःखी रहता हैं।



◆परिवार के सदस्यों से बिना वजह के वाद-विवाद एवं टकराव होता हैं। खानदान के सदस्यों में से किसी चहेते सदस्य से अलगाव भी हो सकता है। 


◆पारिवारिक जीवन में कहासुनी एवं मनमुटाव के कारण जातक के मन में बेचैनी महसूस होती हैं।

 
◆जातक को मुख व्याधि भी हो सकते हैं।


◆जातक को खाने के पदार्थों की जो सामग्री मिलती हैं, उस भोज्य सामग्री के स्तर में गिरावट आती हैं।


◆जातक को अपने दुश्मनों और चोरों से नुकसान का डर हर समय सताता रहता है।


◆जातक के पिता को पीड़ा होती हैं और पिता से बिना वजह ही कहासुनी एवं टकराव की आशंका होती है।


◆जातक को किस्मत का साथ नहीं मिलता हैं, तकदीर का साथ नहीं मिलने जीवन में पतन होने लगता हैं।


◆जातक के ऊपर लांछन लगने से बदनामी होती हैं।


◆जातक ईश्वर, परलोक आदि के संबंध में विशेष प्रकार का विश्वास और उपासना पद्धति एवं पुण्य कर्म के कर्तव्य को पूर्ण करने में रुकावटें आती हैं।


◆जातक के बनते हुए कार्यों में मुश्किलें आने से जो कार्यों में की गई मेहनत का फल पाने कामयाबी मिलनी चाहिये, वह कार्यों में नहीं मिल पाती हैं। या कार्यों में देरी होती हैं।


◆जातक की राजकीय या शासन से संबंधित मनुष्यों के द्वारा कष्ट का अनुभव होता है।



◆जीविका निर्वाह के कारोबार में बिक्री में कमी होना और निश्चित वेतन पर निश्चित समय पर काम करने की जगह पर अड़चने हाजिर होती हैं।



◆जातक को लंबी दूरी के जगहों स्थानों की यात्रा करनी पड़ती है, जिसमें कष्ट एवं हानि होती है।


◆जातक को हर समय किसी अनहोनी हादसे का डर सताता रहता हैं



◆निम्नस्तरीय व्यक्तियों के द्वारा भी जलील होने के मौके मिल सकते हैं, जिससे समाज में विपरीत धारणा फैलाने से बेइज्जती होती हैं।
 


◆बारहवें घर के पांचवें से आठवें घर में होने से पहले चरण के शनि के कारण बेटे-बेटी को कष्ट होता हैं।


◆द्वादश भाव के पंचम से अष्टम होने से इस अवधि में संतान को कष्ट होता है।



◆जातक के सोचने-समझने और निर्णय लेने की मानसिक शक्ति में गिरावट आती हैं, जिससे उसके मन भ्रम उत्पन्न होने लगता हैं और दूसरे नीति के विरुद्ध कार्यों को करने में ध्यान क्रियाशील होने लगता हैं।



◆जातक को किसी तरह के नुकसान होने का डर सताता रहता हैं।



(ब)द्वितीय चरण चन्द्रलग्न राशि में शनि का गोचरफल उदर पर:-इस अवधि में जब शनि चन्द्रलग्न में गोचरवश में अपनी गति के द्वारा घूमते हुए पहले भाव में प्रवेश करके चन्द्रमा से युति करता हैं, तब शनि अपनी पूर्ण तीसरी दृष्टि के द्वारा तीजे घर सहज भाव को, सातवीं दृष्टि के द्वारा सातवें घर जाया भाव और दशवीं दृष्टि के द्वारा दशवें भाव कर्म भाव को देखता हैं।


◆जब किसी भी जातक के चन्द्रलग्न से पहले भाव में शनि प्रवेश जन्मकालीन चन्द्रमा से युति करता है। तब शनि का द्वितीय चरण शुरू हो जाता हैं और द्वितीय चरण में शनि उदर या हृदय अंग पर घूमता-फिरता और अपने प्रभाव में रखता हैं, ऐसा माना जाता हैं।


◆शरीर के मध्य भाग में व्याधि एवं पीड़ा रहती हैं।


◆जातक के उत्साह में गिरावट आने लगती हैं।


◆जातक के सोचने-समझने और निर्णय लेने की मानसिक शक्ति में गिरावट आने से वह सही निर्णय नहीं ले पाता हैं। 


◆जातक के मन में अस्थिरता के भाव होने से वह उचित निर्णय नहीं ले पाता हैं, जिससे उसके बनते-बनते काम बिगड़ने लग जाते हैं।


◆जातक एवं भाई-बहिनों की राय न मिलने से एक-दूसरे के बीच कहासुनी होती हैं।
 

◆दाम्पत्य जीवन में पति-पत्नी को पीड़ा या किसी व्याधि को भोगना पड़ता हैं।


◆जातक को भागेदारी में नुकसान उठाना पड़ता हैं अथवा दाम्पत्य जीवन में पति-पत्नी के बीच या भागीदार के साथ तकरार होते हैं।


◆जातक का मन हर समय गंभीर रुप किसी विषय के बारे सोच में डूबा रहता हैं।


◆जातक रुपये-पैसों की तकलीफ को झेलता हैं। 


◆जातक को हर समय बिना मतलब रुपये-पैसा का डर सताता रहता हैं।


◆जातक के चाहे हुए कार्य में बिना वजह विघ्न आने लगते हैं, जिससे दुःख होता हैं।


◆जीविका निर्वाह के पेशे में या सेवा के रुप कार्य करने की जगह पर बाधाएं आती हैं। 



◆जातक का पारिवारिक जीवन तहस-नहस हो जाता हैं।
 

◆जातक का मन सांसारिक बंधनों से मुक्त होने की तरफ अग्रसर होता हैं।


◆जातक के किसी सम्बन्धी को मरण के समान कष्ट होता है।


◆जातक के दुश्मनों के द्वारा हर समय उसको पीड़ा मिलती हैं।


◆जातक का स्वजनों से तकराव या संबंधों के बीच दरार पड़ जाती हैं।


◆जातक की धन-दौलत या जमीन-जायदाद का नाश होने लगता हैं। 


◆जातक को समाज में हेय दृष्टि से देखा जाने लग जाता हैं।


◆जातक के दोस्त मदद करने कतराने लग जाते हैं।


◆जातक को लंबी दूरी की जगहों के सफर के दौरान कष्ट झेलने पड़ते हैं।


◆जातक मानसिक रुप से किसी व्याधि से ग्रसित होने लगता हैं, जिससे उसकी दिमागी हालत ठीक नहीं होती हैं।



(स)तृतीय चरण चन्द्रलग्न से द्वितीय भाव में शनि का गोचर का पैरों पर:-इस अवधि में शनि चन्द्रलग्न से द्वितीय भाव (राशि) में गोचररत रहता है।



◆शनि की तीजी दृष्टि चौथे (सुख) भाव पर, सातवीं दृष्टि आठवें (आयु) भाव पर तथा दशवीं दृष्टि ग्यारहवें भाव होती है। इस अवधि में शनि जातक के पैरों पर रहता है। इस चरण को 'उतरती साढ़ेसाती' भी कहा जाता है।


◆जातक के शरीर एवं जोश में गिरावट आने लगती हैं, जिससे उसके शरीर में आलस्य घर कर जाता हैं।


◆जातक के विशेष रूप से पैरों में कष्ट एवं पीड़ा होती है।


◆जातक के शरीर में कमजोरी आने लगती हैं। जिससे उसका मन किसी भी कार्य को करने में नहीं लगता हैं।



◆जातक बिना मतलब की बातों के द्वारा मतभेद करने लग जाता हैं।



◆जातक अपने परिवार के सदस्य जैसे-पति-पत्नी, बेटा-बेटी आदि और अपने निकट के लोगों से बिना कारण ही संघर्ष होने लगता हैं।



◆पारिवारिक वातावरण में तकराव होने से पारिवारिक सुख का नाश होने लगता हैं।


◆जातक के माता को कष्ट होता है।


◆जातक की जो स्थायी धन-दौलत एवं सवारी के साधन होते हैं, उनसे सम्बन्धित आफत का सामना करना पड़ सकता हैं। 


◆जातक को रुपये-पैसों के संकट से उभरने के लिए अपनी जमीन-जायदाद और सवारी के साधन को तक बेचना पड़ सकता हैं। 



◆जातक के नजदीक के सदस्य को कोई मुश्किल से ठीक होने वाली व्याधि हो जाती हैं या जातक को बहुत मरने के समान पीड़ा को भोगना पड़ता हैं।


◆जातक किसी जगह पर उच्च पद पर होता हैं, वहां उसके पद संकट मंडराने लगे जाता हैं।


◆जातक की जितनी आवक होती हैं, उससे ज्यादा खर्चें होने लगते हैं।


◆जातक निचले स्तर के मनुष्यों के द्वारा बेइज्जती के रुप में कष्ट होता हैं।


◆शनि की गोचरीय स्थिति सातवें से आठवें होने से दाम्पत्य जीवन में पति-पत्नी के बीच टकराव एवं मतभेद के द्वारा पीड़ा होती हैं या पति-पत्नी को मृत्यु के समान पीड़ा को सहन करना पड़ता हैं।


 
◆जातक के भागीदारों के बीच कहासुनी होने लगती हैं और भागीदारी में नुकसान होने लगता हैं।


◆जातक को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के कार्यों में कामयाबी मिलते-मिलते रुक जाती हैं।


◆जातक के मन की मुराद पूरी-पूरी होते रह जाती हैं।


◆जातक के दोस्त संकट की घड़ी में अपना मुंह फेर लेते हैं और उनके द्वारा किसी भी तरह की मदद नहीं प्राप्त होती हैं।



◆जातक के जीवन में परेशानियां आने से उनका हल नहीं मिलने से उल्लास ही खत्म हो जाती हैं।


◆जातक को किसी अनहोनी का डर हर समय सताता रहता हैं।


◆जब शनि दूजे से तीजे स्थान में प्रवेश करता हैं, तब साढ़ेसाती का असर समाप्त हो जाती है, लेकिन शनि साढ़ेसाती से मुक्त करते समय बहुत ही बड़ा नुकसान भी करके जाता हैं। 


◆कहावत है 'शनि जाते-जाते (पैरों पर से उतरते समय) लात मारना'


अर्थात्:-जब शनि कि साढ़ेसाती के तीनों चरण पूर्ण हो जाते हैं, वह दूसरी राशि में प्रवेश करने से पूर्व जाते-जाते किसी भी तरह का नुकसान करके ही जाता है।'


◆विशेष रूप से:-यदि किसी जातक का शनि अच्छी स्थिति में हो, तो वह अपनी साढ़ेसाती के प्रभाव से मुक्त करते समय गरीब मनुष्य को राजा के समान सुख-सुविधाओं एवं धन-धान्य को प्रदान करके ही जाता हैं
 



शनि की ढैया के फल (Results of Saturn's Dhaiyya):-जन्मकालीन चन्द्रमा (चन्द्रराशि) से चौथे, सातवें एवं आठवें भावों (राशियों) में शनि के घूमते-फिरते हुए अपने सफर को तय करता हैं, तब उस समय तक वह उस जगह पर रहने को 'ढैया' अथवा 'लघुकल्याणी' कहा जाता है। शनि एक राशि पर लगभग ढाई वर्ष से अपनी गति से घूमता-फिरता हुआ अपना सफर पूर्ण करता रहता है, इसलिए इस अवधि को को 'ढैया' कहते हैं।



शनि की तीनों ढैया का सामान्य अशुभ फल:-निम्नलिखित रुप से क्रमानुसार है:



(अ)शनि की चतुर्थ ढैया (शनि चन्द्रमा से चतुर्थ भाव में):-जन्मकालीन चन्द्रमा से चौथे भाव (राशि) में शनि के अपनी गति से चलते हुए ढाई वर्ष के समय तक प्रवेश करने  को 'चतुर्थ ढैया' कहा जाता है।


◆इस अवधि में शनि चन्द्रमा से चौथे (सुख) भाव में अपनी गति से घूमते हुए प्रवेश करता हैं, जहाँ से शनि की तीसरी दृष्टि छठे (रोग) भाव को, सातवीं दृष्टि से दशवें (कर्म) भाव को तथा दशवीं दृष्टि से पहले (तनु) भाव को देखता है।


◆यह ढैया शनि का चन्द्रमा से तृतीय भाव से चतुर्थ में प्रवेश करने पर प्रारम्भ होती है तथा पंचम भाव में प्रवेश करने पर समाप्त होती है।



◆इस अवधि में जातक को निवास स्थान पर प्राप्त होने वाले आराम में कमी एवं दिक्कतें आती हैं।

 

◆जो जातक की स्थायी धन-दौलत, जमीन-जायदाद एवं सवारी आदि से कष्ट प्राप्त होता है।



◆जातक की जमीन-जायदाद और वाहन आदि को रुपये-पैसों की तंगी से निपटने से बचने के लिए बेचने के हालात बन जाते हैं।


◆जातक को पारिवारिक सदस्यों के द्वारा सहयोग नहीं मिलने से पारिवारिक आराम में परेशानियां आती है।



◆जातक की माता को कोई व्याधि जकड़ लेती हैं, जिससे उनकी सेहत ठीक नहीं रहती हैं अथवा माता को किसी तरह की पीड़ा होती हैं।



◆जातक अपनी माता से टकराव भी कर सकता हैं। 



◆जातक को आम नागरिकों के द्वारा रुसवाई या बेइज्जती प्राप्त होती हैं।



◆जातक जिस जगह पर जिस पद पर कार्य करता हैं, उसके उस पद पर किसी तरह की मुसीबत आ सकती हैं।


◆जातक को अपने रिश्तेदारों से अनबन या अलगाव भी हो सकता हैं।


◆जातक के दिल एवं शरीर की धमिनयों में रक्त प्रवाह से सम्बंधित व्याधि हो सकती हैं।


◆जातक पर उसके दुश्मनों का हमला तेज होने से पीड़ा होती हैं।


◆जातक की प्रदेश या नियुक्त करने वालों के साथ अनबन हो सकती हैं।


◆जातक के मन में विचलन रहता हैं और वह किसी भी बात या विचार को मन ही मन बार-बार याद करता रहता हैं।



◆जातक के जीविकोपार्जन के काम और किसी संस्था या कार्यालय की जगह पर कार्य करते समय रुकावटें आने लग जाती हैं।


◆जातक जिस जगह पर कार्य करता हैं, उस जगह पर जिस पद पर आसीन होता हैं, उस पद से हटने का और इच्छा के विरुद्ध जगह पर तबादला के डर सताता रहता हैं।


◆जातक के जीविकोपार्जन के पेशे में नुकसान होता हैं।


◆जातक के मन में बेचैनी, डर एवं अस्थिरता के भाव उत्पन्न हो जाते हैं।


◆जातक को व्याधि घेर लेती हैं, जिससे उसकी सेहत कमजोर होने लगती हैं।



◆जातक को किसी दुर्व्यवहार के कारण मानसिक कष्ट के कारण एवं इज्जत पर आघात पहुँचता हैं।



◆जातक के मन में दूसरों के प्रति ओच्छी सोच एवं किसी तरह की उम्मीद के पूर्ण नहीं सोच उत्पन्न होने लगती हैं।



◆जातक के शरीर में उत्साह नहीं होने से वह सुस्त होकर बैठ सकता हैं।



◆जातक को मस्तिष्क एवं चक्षु सम्बन्धित व्याधि से पीड़ा हो सकती हैं।



◆जातक के दिमाग पर किसी पाषाण या काठ से प्रहार से घाव होने का डर बना रहता हैं।




(ब)शनि की सप्तम ढैया (शनि चन्द्रमा से सप्तम भाव में):-जन्मकालीन चन्द्रमा से सप्तम भाव या राशि में शनि की अपनी गति से घूमते हुए ढाई वर्ष के समय को 'सप्तम ढैया' कहा जाता है।



◆इस अवधि में गोचरस्थ शनि की तीसरी दृष्टि नवें (भाग्य) भाव पर, सातवीं दृष्टि पहले (तनु) भाव पर तथा दशवीं दृष्टि चौथे (सुख) भाव पर रहती हैं।



◆सप्तम भाव मुख्य रूप से पति-पत्नी, रोजमर्रा के जीविका निर्वाह के साधन (दशवें से दशवें होने से) तथा साझेदारी का भाव माना जाता है। 


◆इस अवधि में जीवनसाथी गम्भीर रूप से बीमारी से ग्रसित रहती हैं अथवा जीवनसाथी से बिना मतलब के कहासुनी या तकराव होते हैं।




◆जातक का अपने भागीदार से बोलचाल एवं कहासुनी होने से भागीदारी में नुकसान भोगना पड़ता हैं। 



◆जातक पर न्यायालय में किसी तरह के विवादास्पद विषय पर दावे का सामना करना पड़ सकता हैं।



◆जातक के धन्धे में रुकावटें के ऊपर रुकावटें आ सकती हैं।


◆जातक को किस्मत का साथ नहीं मिलता हैं या किस्मत के द्वारा सुयोग की प्राप्ति में देरी हो सकती हैं।



◆जातक के पिता को शारीरिक या मानसिक कष्ट हो सकता हैं। 


◆जातक जिस जगह पर कार्य करता हैं, उस जगह पर भारी उलटफेर हो सकती हैं।



◆जातक की माता की सेहत पर किसी तरह के प्रतिकूल असर हो सकता हैं।



◆जातक अपने कर्तव्य को पूर्ण कर पाने में दिक्कतें आती हैं।



◆जातक को जमीन-जायदाद एवं सवारी साधन के द्वारा कष्ट मिल सकता हैं।


◆जातक को समाज में प्राप्त शोहरत पर दाग लग जाता हैं।



◆जातक को अपने निवास स्थान की जगह में बदलाव करना पड़ता हैं।



◆जातक को लंबे सफर में बहुत ही कष्ट होता हैं।



◆जातक के शरीर पर वायु जनित व्याधि अपना घर कर ले सकती हैं।


◆जातक के बनते-बनते कार्यों के बिगड़ने से मन में मायूसी, कार्य को करने में शिथिलता और डर घर कर जाता हैं।



◆जातक के पेशाब की निकलने की इन्द्रिय और सन्तान को उत्पन्न करने वाले इन्द्रिय व्यवस्था में किसी तरह के दोष से व्याधि होने की संभावना बनती हैं।






(स)शनि की अष्टम ढैया (शनि-चन्द्रमा से अष्टम भाव में):-जन्मकालीन चन्द्रमा से आठवें भाव या राशि में शनि के अपनी गति से घूमते हुए ढाई वर्ष समय के लिए प्रवेश करते हैं, तब 'अष्टम ढैया' कहलाती है।

आंठवा शनि जाया के लिए बहुत बुरा फल देने वाले माना जाता है। शनि जिस भाव से आठवें भाव में गोचरवश आता है, जातक को उसी भाव से संबंधित कारकत्व की हानि होती हैं। जैसे बारहवें घर में गोचरस्थ शनि सन्तान बेटा-बेटी को पीड़ा देता हैं, क्योंकि बारहवें घर पांचवें से आठवां होता है।




◆इस अवधि में शनि की तीजी दृष्टि दशवें (कर्म) भाव को, सातवीं दृष्टि दूसरे (धन) भाव को तथा दशवीं दृष्टि पांचवें (बेटा-बेटी, सोचने-समझने व ठीक फैसले) भाव पर होती हैं, तब जातक के जीवन विष से युक्त असर में आ जाता हैं। 



◆जब शनि पहले से आठवें घर में अपनी गति से घूमते हुए प्रवेश करने पर उम्र पर भी बुरा असर डालता हैं।



◆जातक की सेहत को कमजोर करने वाली लंबे समय तक चलने वाली व्याधियों घिरा रहता है



◆जातक को किसी अनहोनी का डर बना रहता हैं। 



◆यदि जातक की जन्मकुण्डली में जन्म के समय राहु या मंगल (या दोनों) आठवें घर होते हैं, तब जातक को अनहोनी का डर बना रहता हैं तथा जातक को शरीर से प्राण निकलने के समान पीड़ा होती है।  



◆जातक को राज्य से अथवा जीविकोपार्जन पेशे में नुकसान उठाना पड़ता हैं। 


◆जातक को शासन से सम्बंधित मनुष्यों के द्वारा तकलीफ झेलनी पड़ती हैं।



◆जातक जिस जगह पर जो कार्य करता हैं, उस कार्य करने की जगह को छोड़ना पड़ा सकता हैं।



◆जातक को निचले स्तर व्यक्तियों से बेइज्जती मिलती हैं। 



◆जातक को रुपये-पैसों सहित जमीन-जायदाद का भी नुकसान होता हैं।



◆जातक को किसी निकट के रिश्तेदार से आपसी मनमुटाव हो सकता हैं या किसी निकट के रिश्तेदार से बिछोह भी हो सकता है।



◆जातक की सोचने-समझने और गलत-सही पर ठीक तरह से निर्णय लेने की क्षमता कमजोर हो जाती हैं।



◆जातक का मन अस्थिर रहने से उचित निर्णय नहीं ले पाने से उसके बनते हुए काम बिगड़ जाते हैं।



◆जातक को बेटा-बेटी के रूप में होने वाली सन्तान के व्यवहार या बोली-चाली से भी कष्ट होता हैं या सन्तान से जुदाई भी सहनी पड़ सकती हैं।



◆जातक व्यापारिक संस्था में अपनी पूँजी का कुछ भाग शेयर के रुप में, बाजार की तेजी-मंदी के आधार पर ज्यादा फायदे के लिए खरीद-फरोख्त, ईनामी योजना लॉटरी जैसे अनुचित कार्यों में आसक्ति बढ़ने लगती हैं, जिसके परिणाम स्वरुप अचानक नुकसान को उठाता है।



◆तमाम रुप देखा जाये तो शनि की साढ़ेसाती एवं ढैया में जातक को अचानक घटित होने वाले आफतों का सामना करना पड़ता है।




(द)कंटक शनि या चन्द्रमा से पंचमस्थ शनि का गोचरफल:-दक्षिण भारत में विशेष रूप से कर्नाटक में चौथी एवं आठवीं ढैया से ज्यादा डर देने वाला फल चन्द्रराशि से पांचवें घर या राशि में अपनी गति से चलते हुए शनि का प्रवेश होना माना जाता है। इस समय में शनि चन्द्रराशि से पांचवें घर या राशि में घूमता हुआ ढाई वर्ष के लिए प्रवेश करता है।


◆जब शनि पांचवें घर में बैठकर अपनी तीसरी दृष्टि के द्वारा सातवें घर पत्नी एवं जीविकोपार्जन के पेशे को, सातवें दृष्टि के द्वारा ग्यारहवें या लाभ भाव को और दसवीं दृष्टि के द्वारा रुपये-पैसे, परिवार-कुटुम्ब को देखता हैं। 


◆वास्तव में जातक के लिए पंचम (स्वयं लक्ष्मी स्थान), सप्तम (व्यवसाय), एकादश (धनागम) तथा द्वितीय (धन) भाव वित्त से संबंधित होने से अधिक महत्वपूर्ण हैं, जिन्हें शनि के पांचवें घर में घूमते हुए प्रवेश करने से बहुत ही ज्यादा नुकसान होता हैं, अतः दक्षिण भारत की पांचवें शनि के विषय में डर बताया हैं, वह मान लेना एकदम सही आभास सिद्ध होता हैं। 



कन्नड़ भाषा की एक प्रसिद्ध कहावत के अनुसार:-'पंचम शनि हॉचेन्यात्र उसासतान'

अर्थात्:-वस्तुतः शनि की रुपये-पैसों एवं धन-दौलत से संबंधित भावों पर विष से युक्त निगाह या देखते हैं, तो जातक को एक कंगाल कर देते हैं तथा सुख-सुविधा से युत जीवन को छोड़कर मिट्टी के फूटे बर्तन में खाना खाने को मजबूर हो जाता है, अतः पांचवें शनि की खतरनाक या देखने से डर लगे ऐसी स्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता। 
जातक से कोई भी बातचीत करता हैं, तो वह एकाएक चिढ़ जाता हैं।




शनि की साढ़े साती एवं ढैया के अशुभ प्रभाव से बचने के लिए या शनि को शान्त करने के लिए:-निम्नलिखित उपाय एवं टोटकें करने चाहिए।

दुःख में सब सुमिरन करे, सुख में करे न कोय।

जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होय।।


अर्थात्:-जीवन के सभी दुःखों से राहत के लिए मनुष्य को धर्म एवं श्रद्धा की दृष्टि से किसी को कुछ देना, दक्षिणा, देवी-देवता पर विनय, श्रद्धा एवं समर्पण भाव के साथ मंत्रों का वांचन करते हुए जल, फूल, फल, अक्षत आदि चढ़ाने का धार्मिक कृत्य, भक्तिभाव से किसी मन्त्र का बारंबार वांचन करने की पद्धति, तंत्रशास्त्र से सम्बंधित मन्त्रों का वांचन एव रत्नों सहारा लेना पड़ता है। 


◆शनि की साढ़ेसाती, ढय्या या बुरे प्रभाव से बचने के लिए मनुष्य को अपने खाने की थाली में जो भी खाने की वस्तुएं होती हैं, उनमें से थोड़ा भाग को निकालकर शनि देव के वाहन कौवों को खिलाना चाहिए। 


◆शनि दशा में अपने शरीर पर हाथों से तेल लगाना चाहिए।

◆मनुष्य को अपने नेत्रों में नीले पदार्थ से बना हुआ महीन चूर्ण को काजल या अंजन की तरह लगाने से शनि की पीड़ा से मुक्ति मिलती हैं। 



◆शनि ग्रह की पीड़ा से मुक्ति के लिए वाच्छोल की जड़ धारण कर सकते हैं।

◆मनुष्य को शनि की दशा में धान्यवीर की दाल को भोजन के रूप में प्रयोग नहीं लेना चाहिए।


◆मनुष्य के ऊपर शनि की अनुकृपा बनी रहे इसके लिए लोहे के धातु से बने हुए फर्नीचर को अपने निवास स्थान में ज्यादा रखना चाहिए।



◆मनुष्य को शनि की दशा में जीव-जन्तु के मांस का भक्षण नहीं करना चाहिए।


◆मनुष्य को शनि की साढ़ेसाती या ढैय्या में व्यसन जैसे-गुटखा, जर्दा, अफीम और शराब को सेवन नहीं करना चाहिए।


◆मनुष्य को शनि की दशा में दूसरी औरत के प्रति गलत भावना नहीं रखनी चाहिए और दूसरी औरत के साथ भोग-विलास नहीं करना चाहिए। 


◆मनुष्य को धर्म एवं नीति के विरुद्ध बुरे आचरणों के कार्यों को करने से बचना चाहिए।


◆मनुष्य अपने कार्य के फल की इच्छा को छोड़कर अपने कार्य को पूर्ण मेहनत से करते रहना चाहिए।


◆मनुष्य रोजाना या शनिवार के दिन भगवान शनिदेव के मन्दिर परिसर में जाकर अपने द्वारा किये हुए बुरे कार्यों के लिए उनके सामने बैठकर उनसे माफी की अरदास करनी चाहिए।



◆मनुष्य को शनिवार के दिन को काले कपड़ें नहीं पहनने चाहिए।


◆जिन औरतों को शनि के बुरे प्रभाव से गर्भ बार-बार गिर जाता हैं, उन औरतों को अपने भोजन की थाली में रखे भोज्य पदार्थों में से नियमित रूप से थोड़ा सा भाग निकालकर काले श्वान को खिलाना चाहिए।


◆जिन मनुष्य की जन्मकुण्डली के चौथे घर में शनि बुरे प्रभाव में हो, तो उन मनुष्य को रात्रि के समय सफेद रंग की वस्तु का सेवन करने से बचना चाहिए।



◆मनुष्य को शनि की साढ़ेसाती या ढैय्या के प्रभाव को कम करने के लिए रोजाना या मंगलवार या शनिवार को शाखामृग को भानुफल व चणक खिला सकते हैं।



◆मनुष्य को विषधरों की पूरी तरह से देख-रेख या उनकी रक्षा करना चाहिए।



◆मनुष्य शनि की दशा में विषधरों को दुग्ध को पिलाना चाहिए।


◆शनि की साढ़ेसाती या ढैय्या की दशा में महिष को हरा चारा खिलाना चाहिए।


◆जिन मनुष्यों को रुपये-पैसों की तकलीफ शनि की दशा में हो, तो उन मनुष्यों को कच्चा दुग्ध कुंभकारी या कुएं में डालना चाहिए।


 
◆शनि की दशा में मनुष्य विशेषकर दुग्ध का सेवन किसी भी हालत में नहीं करना चाहिए।



◆जिन दम्पतियों को संतान से सम्बंधित रुकावटें आ रही हैं, उन दम्पतियों को कृष्ण वर्ण के विषधर की पूजा-अर्चना करते हुए उनको दुग्ध पिलाना चाहिए।  




◆जीविकनिर्वाह के पेशे को शुरू करने से पहले मटके में राई का तेल डालकर मुंह काले कपड़े से बांधकर मटका नदी में बहा देना चाहिए।



◆यदि जीविकनिर्वाह के पेशे को कृष्णपक्ष की मध्यरात्रि में करने से ज्यादा फायदा होता हैं। 




◆सभी देवताओं का निवास अश्वत्थ के वृक्ष में शस्त्रों में बताया गया हैं। इसलिए शनिदेव की अनुकृपा पाने के लिए शनिवार के दिन या रोजाना अश्वत्थ वृक्ष की जड़ में जल का सिंचन करने से शनिदेव खुश होते हैं।



◆शनिवार को अश्वत्थ या बरगद के पेड़ की मूल में कच्चे दुग्ध और जल से सिंचन करके और पूजन-दीपन आदि करना चाहिए, फिर सिंचित दुग्ध व जल से गीली मिट्टी का तिलक मस्तक पर लगना चाहिए।


◆शनिवार को बरगद एवं अश्वत्थ के वृक्ष के नीचे या पीपल के वृक्ष की जड़ में सूर्य के उगने से पहले सरसों का तेल से दीपक को पूर्ण भरकर चार बत्तियो रखकर प्रज्ज्वलित करते हुए दुग्ध, धूप आदि अर्पित करना चाहिए।


◆सर्षप के रोगन से परिपूर्ण तिमिररिपु को सुबह एवं सांयकाल के समय प्रज्वलित करना चाहिए। 



◆जब अमावस्या तिथि के दिन अनुराधा नक्षत्र हो और शनिवार भी हो तो मनुष्य को पूतधान्य या तिल, सर्षप के रोगन को लेकर अश्वत्थ वृक्ष की विधिवत पूजन करने से शनि ग्रह का असर कम होता हैं।



◆इसके अतिरिक्त सर्षप का रोगन या मीठे रोगन या तिल्ली के तेल का दान करना चाहिए।


◆शनिवार को उड़द, तेल व काले कपड़े का दान करना चाहिए।



◆लोहे की वस्तु भी दान में दे सकते हैं।



◆किसी शनिवार की शाम जूते दान दें सकते हैं।



◆दान:-किसी जरूरतमंद को अपने पहने हुए कपड़े, लोहा का टुकड़ा, कोई बर्तन जो लोहे या तांबे का बना हो, नीले-काले वस्त्र, सरसों का तेल, चमड़े के जूते, काला सुरमा, काले चने, काले तिल, उड़द, उड़द की साबूत दाल, कस्तूरी, नीलम, भैंस, काली गाय, काले पुष्प, स्वर्ण, कुलथी, कस्तूरी के साथ कुछ धनदान आदि ये तमाम चीजें शनि ग्रह से सम्बन्धित वस्तुएं हैं, शनिवार के दिन इन वस्तुओं का दान करने से एवं काले वस्त्र एवं काली वस्तुओं का उपयोग करने से शनि की प्रसन्नता प्राप्त होती हैं। यह चीजें किसी भृत्य या सेवक को दान करना उत्तम है।



◆मनुष्य कृष्ण वर्ण की कपिला से निकाले हुए दुग्ध को मथकर घृत बनाकर उस घृत से दीपक को परिपूर्ण करके रोजाना मन्दिर परिसर मे सायंकाल को जाकर दीपक को जलाने से फायदा मिलता हैं। 



मनुष्य कृष्ण वर्ण की कपिला की परिचर्या-खाने के लिए हरा चारा, सूखा चारा, दलिया, रिजका, सर्दी से बचाने, गर्मी में पानी और बीमारी में देखभाल करते रहने पर शनिदेव प्रसन्न होकर अपनी अनुकृपा बनाकर रखते हैं। हैं। 



मनुष्य कृष्ण वर्ण की कपिला का पूजन जैसे-उसके माथे पर रोली और सींगों में कलावा बांधकर करना चाहिए। फिर कृष्ण वर्ण की कपिला के चारों चक्कर लगाते हुए परिक्रमा करनी करें और जहां तक संभव हो बेसन की बूंदी से बने हुए चार लड्डू खिलाना चाहिए।



◆यदि कृष्ण वर्ण की कपिला नहीं मिलने पर कृष्ण वर्ण के श्वान को गुड़ व गेंहू के आटे और तिल के तेल में तलकर बनाये हुए पकोड़े या गुलगुले या लड्डू बनाकर खिलाने से भी शनिदेव प्रसन्न हो जाते हैं।



◆जल में प्रवाहित:-मनुष्य को शनि पीड़ा से मुक्ति के लिए शनिवार के दिन ग्यारह केलक्षीरी अथवा बादाम को अपने सिर के ऊपर ग्यारह बार उतार कर जल में प्रवाहित कर सकते हैं।




◆जल में प्रवाहित:-शनि ग्रह की पीड़ा से मुक्ति के लिए अपने शरीर के वजन के अनुसार कोयले की मात्रा या अपने वजन की चौथाई मात्रा में कोयले लेकर उनको अपने सिर पर उबार कर शनिवार के दिन जल में प्रवाहित कर सकते हैं।



◆स्नान करना:-प्रत्येक शनिवार को जल में दारूहल्दी डालकर उस जल से स्नान करने से फायदा होता हैं।



◆प्रतिदिन स्नान करते समय गुणकारी एवं शनिदेव को प्रसन्न करने वाली औषधियों को पानी में मिला लेना चाहिए वे औषधियां हैं-लौंग, खिरैंटी, सौंफ, लोबान, खस, सुरमा, काले तिल, गोंद, शत, कुसुम, मिलेबल, देवदारू, हरिद्रा, लोध्र, शरपुंख, तीर्थ जल, वरियारा, लजालु, काले तिल, नागर-मोथा और कंगुनी आदि को जल में मिलाकर स्नान करने से शनिकृत पीड़ा शान्त होती हैं।



◆उपवास:-प्रत्येक शनिवार के दिन मनुष्य को शनिदेव के नाम पर व्रत या उपवास करना चाहिए। मनुष्य को अपने व्रत को रात्रिकाल में खोलना चाहिए। 


◆पूजन करने का समय:-मनुष्य को दिन में दोपहर के समय में शनिदेव का पूजन करना चाहिए।



◆शनिदेव का पूजन करते समय:-शनि स्तवराज का पाठ का वांचन करना शुभ फलदायक होता है। 



◆मनुष्य को दिन में दोपहर के समय बिना लवण का भोजन करना चाहिए।


◆भोजन के रूप में:-शनिवार के व्रत के दिन उचित यही है कि दाल-चावल की खिचड़ी बनाकर खाएं।



◆शनि ग्रह की पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए शनिवार को शनिदेव की कथा का वांचन करना चाहिए या दूसरों से कथा को सुनना चाहिए।



◆शनिदेव की शनि चालीसा एवं शनिदेव की आरती का वांचन करके उनका गुणगान करने पर भी राहत मिलती हैं।


नैवेद्य के रूप में:-मनुष्य को रक्तचंदन में केसर मिलाकर, चावल में काजल मिलाकर काले चावल का काकमाची, कागलहर के काले पुष्प, कस्तूरी आदि से काली धूप और काले तिल आदि को खिलाकर काले नैवेद्य को अर्पित करना चाहिए 




◆भगवान भोलेनाथ की पूजा-अर्चना करना:-भगवान भोलेनाथ की उपासना करने शनिदेव उपासक होते हैं, इसलिए भगवान भोलेनाथ एवं शिवलिंग की उपासना करनी चाहिए, जिससे उनकी अनुकृपा बनी रहे एवं आशीर्वाद प्राप्त हो जावे।



मन्त्र का वांचन:-मनुष्य को भोलेनाथ जी की अनुकृपा पानी के लिए ऊँ नमो शिवाय मंत्र का वांचन करना चाहिए।


◆प्रतिदिन ऊँ नमः शिवाय की कम से कम एक माला 108 बार का जाप अवश्य करें।


◆मनुष्य को ईश्वर पर पूर्ण विश्वास एवं श्रद्धा भाव रखते हुए उनकी आराधना करनी चाहिए।


◆महामृत्युंजय का पाठ करना:-जब मनुष्य को शनि ग्रह के कारण ज्यादा पीड़ा या तकलीफ हो तो उनको महामृत्युंजय का पाठ करना चाहिए या किसी जानकार पण्डित के द्वारा मंत्रों का उच्चारण करवाना चाहिए।



◆हनुमान जी की आराधना करना:-जब किसी भी मनुष्य के ऊपर शनि ग्रह की पीड़ा से पीड़ित हो, तो उन मनुष्यों को हनुमानजी की शरण लेनी चाहिए, क्योंकि हनुमानजी को शिवजी या रुद्रावतार के रूप में शास्त्रों में बताया गया है, इसलिए हनुमानजी की पूजा करने से शनिदेव का असर खत्म हो जाता हैं।



◆शनि मंदिर या हनुमान मंदिर में जाना:-मनुष्य को मंगलवार या शनिवार के दिन शनि मंदिर या हनुमान मंदिर के परिसर में जाकर माष को चढ़ाना चाहिए।


◆रुई की माला बनाकर शनिदेव या हनुमानजी की प्रतिमा पर चढ़ानी चाहिए।



महाकाली की उपासना करना:-शनिवार के व्रत में महाकाली की उपासना भी करनी चाहिए।



◆शनि देव की पीड़ा से मुक्ति के लिए भगवान कृष्ण जी की भक्ति करनी चाहिए।


 ◆जिस प्रकार सूर्य आदि ग्रहों का पूजन होता है, उसी तरह शनि ग्रह का पूजन भी किया जाता है। इसलिए शनि ग्रह की पूजा करनी चाहिए 





शनि ग्रह पीड़ा निवारण उपाय:-जिन जातकों को शनि की साढ़ेसाती अथवा दशान्तर्दशा चल रही है उनको शनिकृत पीड़ा से मुक्ति के लिए निम्न उपाय शुभ फलदायक होंगे।


शनि का मन्त्र जाप:-प्रतिदिन ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं शनैश्चराय नमः मंत्र की कम से कम एक माला 108 बार का जाप अवश्य करें।



शनि तांत्रिक मंत्र:-शनिदेव को याद करने के लिए  
ऊँ प्रां प्रीं प्रौं सः शनैश्चराय या शनये नमः मंत्र का तेईस हजार की संख्या में वांचन करना चाहिए।

तांत्रिक मंत्र:-नियमित 108 बार शनि की तांत्रिक मंत्र का जाप कर सकते हैं स्वयं शनि देव इस स्तोत्र को महिमा मंडित करते हैं।


◆एकाक्षरी बीज या लघु मंत्र:-शनिदेव की पीड़ा से मुक्ति करने के लिए ऊँ शं शनैश्चराय नमः। मंत्र का तेईस हजार की संख्या में वांचन करना चाहिए।


शनि गायत्री मंत्र:-शनिदेव को खुश करने के लिए शनि गायत्री मंत्र ऊँ भूर्भुवः स्वः शन्नो देवीरभिष्टये विद्महे नीलांजनाय धीमहि तन्नौ शनिः प्रचोदयात्। ऊँ भगभवाय विद्महे मृत्युपुरुषाय धीमहि तन्नौ शनिः प्रचोदयात्। का वांचन करने से भी शनिदेव की कृपा बनी रहती हैं।



सूर्य का मंत्र:-सूर्य ग्रह का ऊँ ह्राँ ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः।मंत्र का सात हजार पाँच सौ की संख्या में वांचन करने से शनि दोष निवारण होता है।


शनि शांति के लिए रुद्राक्ष धारण:-शनि के बुरे प्रभाव से मुक्ति के लिए रुद्राक्ष को भी पहन सकते हैं।


◆शनि शांति के लिए नीलम धारण:-नीलम श्री शनि के दुष्प्रभाव को नष्ट करने में सहायता करता है। जिस व्यक्ति पर शनि देव की दशा हो, शनि का दोष हो, साढ़ेसाती या शनि योगकारक हो तो वह शनिवार के दिन स्वाती, विशाखा, चित्रा, धनिष्ठा, श्रावण या उत्तराषाढ़ा किसी भी नक्षत्र में पंच धातु, स्वर्ण या चांदी की अंगूठी बनवाकर उसमें नीलम रत्न जड़वाकर धारण करना चाहिए। जन्म कुण्डली में शनि देव जिस राशि में हो उसी राशि के अनुसार नीलम का वजन उपयुक्त माना गया है। इस रत्न के धारण करते ही इसका अनुकूल एवं प्रतिकूल असर दिखाई पड़ने लगता है। 



◆शनि शांति के लिए दूसरी धातु से बनी हुई वस्तु को धारण:-यदि नीलम पहनना संभव न हो तो लोहे का छल्ला या काले घोड़े की नाल अथवा पुरानी नाव के पैंदे या तले (मस्तक) में लगी हुई कील का छल्ला या मुद्रिका बनवाकर शनिवार को मध्यमा अंगुली में धारण करना भी लाभदायक होता है।शनि की साढ़ेसाती के कुप्रभाव से आपको बचा सकता है, अगर आप इनकी अंगूठी बनवाकर धारण करते हैं।



◆शनि जनित दुर्घटना से मुक्ति के लिए ध्यान मन्त्र का उच्चारण करना:-शनि ग्रह के बुरे असर से मनुष्य प्रतिक्षण किसी भी हादसे का डर बना रहता हैं, उस डर से मुक्ति के लिए मनुष्य को रोजाना सुबह, दोपहर, शाम को बिना होंठ को हिलाएं

ऊँ आं ह्रीं क्लीं श्रीं द्रूं द्रं हुं फट्

रक्ष रक्ष कालिके कुंडलिके निगुटे

अस्त्र शस्त्र, मर्जार व्याघ्र कुदंष्ट्रिभ्यो


विषभ्यो, शनुभ्यो सर्वेभ्यो द्री द्रूं स्वाहा।।

ध्यान मन्त्र का वांचन करके छाती पर फूंक मारना चाहिए।




शनि शांति के लिए आह्वान मन्त्र का उच्चारण करना:-शनि ग्रह के बुरे असर से मुक्ति के लिए रोजाना नीलांबुज समाभासं रविपुत्र यमाग्रजम्। छाया मार्तण्ड सम्भूतं शनिमावाह्याम्यहम्।। आह्वान मन्त्र का वांचन करना चाहिए। 


◆शनि शांति के लिए स्थापना मन्त्र का उच्चारण करना:-शनि ग्रह के बुरे असर से मुक्ति के लिए रोजाना ऊँ भूर्भुवः स्वः शनैश्चर इहागच्छ इहतिष्ठः शनैश्चराय नमः।

स्थापना मन्त्र का वांचन करना चाहिए।  



◆शनि शांति के लिए मन्त्र का उच्चारण करना:-शनि ग्रह के बुरे असर से मुक्ति के लिए रोजाना उनके "ऊँ नीलांजनसमाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम्।

छायामार्तंडसंभूतं तं नमामि शनैश्चराय नमः ऊँ।।
शांति मन्त्र का वांचन करना चाहिए। 

◆शनि शांति के लिए ध्यान मन्त्र का उच्चारण करना:-शनि ग्रह के बुरे असर से मुक्ति के लिए रोजाना उनके शांति के लिए "ऊँ सूर्यपुत्रो दीर्घदेहो विशालाक्षः शिवप्रियः।

मन्दचारः प्रसन्नात्मा पीड़ां दहतु मे शनिः।।

ध्यान मंत्र का वांचन करना चाहिए। 



◆शनि शांति के लिए जपनीय मन्त्र का उच्चारण करना:-शनि ग्रह के बुरे असर से मुक्ति के लिए रोजाना उनकी शांति के लिए "ऊँ शन्नो देवीरभिष्टये या देवोरभीष्टयSआपो भवन्तु पीतये।


शय्योरभिस्रवन्तु नः ऊँ शनैश्चराय नमः। 

जपनीय मंत्र का तेईस हजार बार रुद्राक्ष की माला से एवं विशेष साधना के लिए बानवे हजार बार वांचन करना चाहिए। 


शनि ग्रह की शांति के लिए स्तोत्र:-निम्नलिखित हैं।


दस नामों का स्तवन करना:-शनिदेव के दस नामों जैसे- ऊँ कोणस्थाय नमः, ऊँ पिंगलाय नमः, ऊँ बभ्रवे नमः, ऊँ कृष्णाय नमः, ऊँ रौद्रांतकाय नमः, ऊँ यमाय नमः, ऊँ सौरये नमः, ऊँ मन्दाय नमः, ऊँ शनैश्चराय नमः, ऊँ पिप्लादेन संस्तुताय नमः का स्तवन करना चाहिए। 


शनि स्तोत्र:-शनिदेव की प्रसन्नता हेतु शनि स्तोत्र का नियमित पाठ करना चाहिए।


श्रीशनैश्चर स्तवराजस्य स्तोत्र:-सिन्धु द्वीप के ऋषि के द्वारा रचित श्रीशनैश्चर स्तवराजस्य स्तोत्र का नियमित रूप से पाठ करना चाहिए।



◆श्रीशनिवज्रपंजरकवचम्:-श्रीशनिवज्रपंजरकवचम् का वांचन नियमित रूप से करने पर भी शनि ग्रह से राहत मिलती हैं।


◆दशरथ कृत शनि स्तोत्रम्:-दशरथ द्वारा रचित यह विशिष्ट शनि स्तोत्रम् का वांचन करना भी बहुत ही पुण्यदायक एवं कष्टविनाशक हैं। शनिदेव को शांत करने के लिए इसका अति महत्त्व आंका गया है। यद्यपि मनीषियों ने इसकी बहुत प्रशंसा की है। देवताओं तक ने इस स्तोत्र का पाठ किया है। इसके निरंतर जप-मनन से सहज ही शनिदेव की कृपा प्राप्त हो जाती है तथा साधक के सभी कष्टों का शमन हो जाता हैं।




शनि के प्रकोप से बचने के यंत्र:-शनि के प्रकोप से बचने के लिए निम्नलिखित यंत्र बहुत लाभप्रद होते हैं।


 

तैतीस अंकीय शनि यंत्र:-श्री शनि ग्रह पीड़ा निवारक तैतीस अंकीय शनि यंत्र तेईस हजार संख्या में रुद्राक्ष की माला से और विशेष साधना के लिए बानवे हजार संख्या में वांचन करके एवं पूजा करके अपने गले या पॉकेट में रखने पर फायदा होता हैं।

               तैतीस अंकीय शनि यंत्र 


               12              7            14

                13             11            9

                8               15            10

 




पन्द्रहिया यंत्र:-पन्द्रहिया अंकीय शनि यंत्र को लोहे, रांगे या शीशे के पत्र पर उत्कीर्ण कराकर यंत्र के बीचों-बीच एक नीलम रत्न जड़वाकर विधि-विधान से तेईस हजार संख्या में रुद्राक्ष की माला से वांचन करके एवं पूजा करके अपने गले या पॉकेट में रखने पर फायदा होता हैं। 

                पन्द्रहिया यंत्र:-

           4               9             2

           3               5             7

           8              1              6
 


◆वीरबाहुक यंत्र:-वीरबाहुक यंत्र शनि की शान्ति के लिए बहुत ही अच्छा असर डालने वाला होता हैं। 


श्रीराम का मन्त्र:-'ऊँ नमो भगवते रामाय महा पुरुषाय नमः' श्रीराम मंत्र की कम से कम एक माला का वांचन करते हुए नैवेद्य में पंचमेवा या लड्डू या मालपूआ का भोग अर्पण करना चाहिए। फिर यंत्र को गुग्गुल की धूप देकर एक माला-ऊँ श्री हनुमते नमः। मंत्र का वांचन करते हुए गाय के दूध में तैयार किए हुए किए गए हविष्यान्न से एक सौ आठ आहुतियां देने के बाद एक महीने तक नित्य चार बार हनुमान बाहुक का पाठ का संकल्प लेते हुए करना चाहिए और पाठ के शुरू एवं पूर्ण होने पर श्रीराम मंत्र का वांचन करना जरूरी होता है। इससे शनि की साढ़ेसाती का असर पूरी तरह से समाप्त हो जाता हैं। 


◆शनि पाताल क्रिया:-जब मनुष्य के द्वारा उत्तरा- भाद्रपद या अनुराधा नक्षत्र में शनि की स्वच्छ एवं साफ प्रतिमा का निर्माण कर उसकी प्राण प्रतिष्ठा करके उस प्रतिमा को 
"ऊँ शन्नो देवोरभीष्टयSआपो भवन्तु पीतये।
शय्योरभिस्रवन्तुः नः। 

मंत्र की बारह हजार की संख्या में वांचन करके उसे जमीन में उल्टा दबाने या गाड़ने से वह मनुष्य जब तक जीवित रहता हैं, तब तक शनि की पीड़ा से आजादी मिलती हैं।