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Monday, September 11, 2023

जानें मकान की नींव में सर्प और कलश क्यों गाड़ा जाता हैं? (Know Why are snakes and urns buried in the foundation of the house?)

जानें मकान की नींव में सर्प और कलश क्यों गाड़ा जाता हैं? (Know Why are snakes and urns buried in the foundation of the house?):-प्राचीनकाल में जब मनुष्य अपना जीवन पेड़-पौधों के नीचे ही व्यतीत करते थे। उनको जब जीव-जंतुओं का भय होने लगा तब उन्होंने अपने जीवन की सुरक्षा के लिए उन्होंने मकान बनाने लगे। तब हमारे ऋषि-मुनियों ने मकान को मजबूती प्रदान करने के मकान की नींव भरते समय पूजा पद्धति को शुरू किया। इस पूजा पद्धति में उन्होंने भगवान के रूप में रजत धातु से बने सर्प एवं ताम्र धातु से बने कलश को नींव में रखने का विधान शुरू किया, जिस तरह से भगवान श्रीविष्णुजी की शेषनाग अपने फणों की छत करते हैं, उसी तरह शेषनाग के प्रतिनिधित्व के रूप में नींव में रजत से बने सर्प को भूमि में गाड़ने से मकान मजबूती से स्थिर रहता हैं। मकान समस्त जगत के प्राणियों के रहने का स्थान होता हैं, उस मकान में रहते हुए अपनी समस्त क्रियाकलापों को सम्पन्न करते हैं। मकान एक तरह से सुरक्षा कवच होता हैं। समस्त प्राणी अपनी सुरक्षा करने एवं समस्त तरह की आपदाओं से बचने के लिए मकान बनाते हैं। 




Know Why are snakes and urns buried in the foundation of the house?


 

श्रीमद्भागवत पुराण के पांचवे स्कंध के अनुसार:-हिन्दुधर्म के पुराणों में पृथ्वी पर सात पातालों के बारे में विवरण मिलता हैं, वे सात पाताल अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल आदि तरह के होते हैं। इन समस्त पातालों की लम्बाई-चौड़ाई दस-दस हजार योजन की बताई गई है। पृथ्वी में जो भी खोदे गए लंबे छेद या सुराख या कोटर भी एक तरह से स्वर्ग के समान माने गए हैं। इनमें से एक पाताल लोक होता हैं, जो कि पृथ्वी के बहुत ही नीचे का लोक होता है, इस लोक के स्वामी शेषनाग होते हैं। 



पृथ्वीलोक:-पृथ्वीलोक सबसे ऊपर स्थित होता हैं, उसके बाद सात लोक होते हैं, जो निम्नलिखित हैं-


१.अतललोक:-दस हजार योजन पृथ्वी से नीचे की तरफ अतल होता हैं।


२.वितललोक:-दस हजार योजन अतल से नीचे की तरफ वितल होता हैं।


३.सतललोक:-दस हजार योजन अतल से नीचे की तरफ वितल होता हैं।


४.तलातललोक:-दस हजार वितल अतल से नीचे की तरफ तलातल होता हैं।


५.महातललोक:-दस हजार योजन तलातल से नीचे की तरफ महातल होता हैं।


६.रसातललोक:-दस हजार योजन महातल से नीचे की तरफ रसातल होता हैं।


७.पाताललोक:-दस हजार योजन रसातल से नीचे की तरफ पाताल होता हैं।


समस्त सात लोकों में इच्छा, उपयोग में लाने, आनन्द अलौकिक खुशी का अनुभव, विपुलता और आधिपत्य आदि होते हैं।



समस्त सात लोक में:-समस्त सात लोकों में दैत्य, दानव और नाग आदि प्राणी निवास करते हैं। इन प्राणियों का जीवन भोग-विलास से युक्त होकर खुशी से रहते हैं। इस तरह इन लोकों में किसी भी तरह से सूर्य की रोशनी नहीं पहुंच पाती हैं, जिससे इन लोकों में अंधकार ही रहता है और रात-दिन नहीं होती हैं। इन लोकों में सूर्य की रोशनी नहीं पहुंचने से अंधेरा को दूर करने के लिए नागों के द्वारा अपनी मणियों की रोशनी से उजाला करते हैं, ये मणियाँ नागों के मस्तिष्क पर होती हैं। जो कि थोड़ी सी चमकने पर समस्त जगहों पर उजाला की किरणों को प्रकट कर देते हैं, जिससे समस्त जगह पर प्रकाश फैल जाता हैं और देवलोक की तरह इन लोकों में अनेक तरह के उपवन एवं वाटिकाऐं होती हैं, जो कि बहुत ही आकर्षण प्रदान करते हुए चारों के माहौल को खुशामद बना देते हैं। सातवां लोक पाताललोक होता हैं, इस पाताललोक का स्वामी नागों के राजा वासुकी को माना जाता हैं, वे अपनी नागलोक के समस्त नागों के साथ रहते हैं।




श्री शुकदेवजी प्राचीन मान्यता के अनुसार:-शेषनाग तीस हजार योजन पाताललोक से नीचे रहते है। शेषनाग अपने मस्तक के ऊपर पृथ्वी को सम्भाले रखते हैं और संतुलन एक तरह का बनाने की कोशिश करते हैं। जब विस्तृत भू-भाग में होने वाली भयंकर बर्बादी का समय आता है तो जगत को नाश करने की इच्छा को रखते हुए शेषनाग अपना आपा खो बैठते हैं और बहुत ही गुस्से के भाव से अपनी भृकुटियां तान लेते हैं। फिर उन तनी हुई भृकुटियां के बीच से तीन चक्षुओं से युक्त ग्यारहा रुद्र त्रिशूल लेकर सामने जाहिर हो जाते हैं।



महाभारत के अनुसार:-महाभारत में भी इसी बात को इस तरह से वर्णित किया हैं-


शेषं चाकल्पयद्देवमनन्तं विश्वरूपिणम्।


यो धारयति भूतानि धरां चेमां सपर्वताम्।।


(महाभारत/भीष्मपर्व ६७/१३)



अर्थात्:-विश्वरूप का मतलब दो शब्दों से अर्थात् संसार और रूप मिलकर बना हैं। इसका अर्थ विराट रूप भगवान श्रीविष्णुजी एवं श्रीकृष्णजी के सार्वभौमिक स्वरूप हैं, इस सार्वभौमिक स्वरूप ने अनंत नामक देवस्वरूप शेषनाग को एक ईश्वरीय शक्ति ने उत्पन्न किया। यही शेषनाग ने समस्त पर्वतों के साथ सम्पूर्ण पृथ्वीलोक और सूक्ष्म रूप मात्र या भूत मात्र को अपने मस्तक पर धारण किए हुए हैं।


 

भवन की नींव में सर्प-स्थापना:-भवन को बनाने से पहले नींव में सर्प को स्थापित करने का कारण यह हैं, की सर्प को भगवान का विष्णुजी का स्वरूप माना गया है। इस प्रकार भवन की सम्पूर्ण सुरक्षा का भार स्वयं भगवान के ऊपर छोड़ दिया जाता हैं।



पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार:-प्राचीन समय में रचित पुराणों के गर्न्थो के अनुसार शेषनाग का महत्व बताया गया हैं, की समस्त पृथ्वीलोक के समस्त वजन को शेषनाग अपने फणों या मस्तक पर धारण करते हुए समस्त पृथ्वी का वजन सहन करते हुए पृथ्वीलोक का संतुलन को बनाए रखते हैं। इस प्रकार समस्त पृथ्वीलोक के वजन को सहन करते हुए पृथ्वीलोक को अपने फणों पर नियंत्रण करते हुए पृथ्वीलोक के निवासियों की सुरक्षा करते हैं, उसी तरह भवन की नींव को मजबूती को बनाये रखने के लिए नींव में चांदी का सर्प स्थापित किया जाता हैं, जिससे भवन का संतुलन बना रहे। 



शेषनाग हजार फणों को धारण किए हुए होते हैं, समस्त नागलोक के स्वामी शेषनाग को माना जाता हैं। भगवान श्रीविष्णुजी के शयन के लिए बिछावन के रूप में आधार देने वाले शेषनाग होते है और अपने फणों के द्वारा भगवान श्रीविष्णुजी की छत्र के रूप में छाया प्रदान करते हैं, इस तरह भगवान श्रीविष्णुजी को शेषनाग अपने शरीर रूपी बिछावन से आराम देते हुए उनको आनन्द देने वाले उनके बहुत एकनिष्ठ अनुरागी होते हैं। समय-समय पर भगवान श्रीविष्णुजी के द्वारा जगत में लोक कल्याण करने के लिए उनको अवतार लेना पड़ता है, तब बहुत बार शेषनाग ने भी श्रीहरि के सानिध्य को पाने के लिए उनके साथ अवतार लेते हैं और श्रीहरि की सेवा करते हुए उनकी के द्वारा की जाने वाली क्रीड़ाओं में साथ भी देते हैं।




श्रीमदभगवद गीता के दशवें अध्याय के उनतीस वें श्लोक में:-'मैं स्वयं भगवान श्रीकृष्ण इस बात को इस प्रकार कहते हैं-


'अनन्तश्चास्मि नागानां' 


अर्थात्:-श्रीकृष्णजी कहते हैं, की समस्त लोकों में नागों में शेषनाग का स्वरूप मेरा ही हैं और मैं ही शेषनाग हूं।




नींव पूजन में मनोवैज्ञानिक विचारधारा के आधार पर रजत धातु के सर्प को नींव में रखना:-नींव पूजन को मनुष्य के द्वारा बहुत ही श्रद्धापूर्वक किया जाता हैं, जिसमें मनुष्य के मन में प्राचीन विचारधारा के अनुसार बनी धारणा को मानते हुए मानसिक या भावुकता मय श्रद्धा एवं आस्था भाव नींव में सर्प को रखते हैं, जिससे मनुष्य का आवास एकदम मजबूती के साथ कायम रहे, किसी भी तरह की प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षित रहें और नींव के द्वारा आवास का संतुलन बना रहे, जिस तरह से शेषनाग अपने फणों पर पृथ्वीलोक को टिकाकर रखे हुए और पृथ्वीलोक का संतुलन बनाकर रखते है। जिससे पृथ्वीलोक में किसी भी तरह का व्यधान नहीं हो पावें। रजत धातु के बने हुए सर्प को नींव में रखा जाता है, क्योंकि शेषनाग का निवास क्षीर सागर होता हैं, वे उस क्षीरसागर में रहते हुए अपना संतुलन को बनाकर रखते हैं। यही कारण है कि पूजन के समय विष्णुजी के स्वरूप कलश में दूध, दही और घृत आदि डाले जाते हैं, फिर मन्त्रों के द्वारा शेषनाग को उस नींव के पूजन के जगह पर आने का नियंत्रण देने हेतु उनकी अरदास करते हैं और उनसे प्रार्थना भी करते हैं आप यहां पर प्रत्यक्ष आकर भवन की रक्षा करने को अपने ऊपर लेकर उस भवन के भार का निर्वाह करें।



पूजन करते समय विष्णुजी के स्वरूप में कलश देव में लक्ष्मीजी के स्वरूप में सिक्का, फूल, दुग्ध, दही और घृत आदि को अर्पण करते हैं, यह समस्त वस्तुएं नागलोक के समस्त नागों को बहुत ही प्यारी होती हैं। नागदेव को भगवान शिवजी ने अपने गले में धारण किए रहते हैं और नाग को अपने गले का भूषण मानते हैं। शेषनाग के अवतार के रूप लक्ष्मणजी ने रामायण में भगवान रामजी की सेवा करने के लिए अवतार लिया और भगवान श्रीविष्णुजी ने कंस के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए श्रीकृष्ण के रूप एवं श्रीकृष्ण की सहायता करने के लिए शेषनाग ने उनके बड़े भाई बलराम के रूप में अवतार लिया था। इस तरह भगवान के अवतार के साथ जुड़ी हुई घटनाओं के आधार पर यह विचाधारा चल रही हैं।